बदलो या बदलोगे? / मनोहर चमोली 'मनु'
मैं काफ़ी परेशान हूँ। वैसे ये परेशानी मेरी अपनी ईजाद की हुई है। मेरी बड़ी इच्छा थी कि मेरी बीवी भाषाविद् हो। हुआ भी। वो संस्कृत और हिन्दी में स्नातकोत्तर है। मैं पहले-पहल तो इठलाया। खुद पे न जाने क्यों मुझे इतना गुमान हुआ कि बस मेरे तो पांव जमीन पर पड़ ही नहीं रहे थे। बात वैसे कुछ खास भी नहीं है। चूँकि हिन्दुस्तान में एक कहावत है, ‘हर कोस पर बोली और भाषा बदल जाती है।’ पर कभी-कभी तो मुझे बड़ी कोफ़्त होती है। चलो मैं एक बानगी सुनाता हूँ। मैं जानता हूँ कि लिखे हुए से ज्यादा अगर आप जबानी इन वक्तव्यों को सुनते तो शायद मेरी तरह ही झल्लाते, या मन ही मन में बुदबुदाते ज़रूर। एक दिन की बात है। हम दोनों फ़िल्म देख रहे थे। बत्ती गुल हो गई। बीवी ने झट से कहा, ‘‘सुनो जी। मैं अंधेरे में आँख नहीं देखती। रसोई में रखी है माचिस। मोमबत्ती भी वहीं हैं।’’
मैंने कहा, ‘‘आँख थोड़े ही देखनी है। रसोई तक जाने वाला रास्ता अनुमान से देखना है। अंधेरे में कुछ भी नहीं दिखता, आँख कहां से दिखेगी।’’ इतना सुनते ही वो जल-भुन बैठी। गुस्से में लाल-पीना होना उसका लाज़िमी था ही। रसोई तक गई क्या, चौखट में अपना सिर दे आई। एक महीना रसोई की ओर पीठ कर ली। मेरी जो हालत रही होगी, वे जानते होंगे, जो खाना बनाना नहीं जानते।
कल की ही बात है। देर शाम लौटा तो बीवी बिस्तर पर औंधी पड़ी थी। पूछा तो वो अलसाई हुई बोली, ‘‘टी.वी. देखते-देखते आँख लग गई। बस मैं पड़ के सो गई।’’ मैंने अपने आप से कहा, ‘‘सोने का शायद ये अलग तरीका है। क्या कोई खड़ा हो कर भी सोता है, जो ये ‘पड़ के सो गई’ कह रही है।’’ मैं बोला कुछ नहीं। चुप ही रहा।
मैं बड़े ही किफ़ायती ढंग से कपड़ों को खरीदता हूँ। इसी तरह से कपड़ों को ज्यादा धुलवाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। जब ज़्यादा ही कपड़े मैले हो जाते हैं, तब ही उन्हें धुलवाता हूँ। गरम कपड़े तो बस सर्दी जाने पर एक बार ही धुलते हैं। मेरी एक पुरानी जर्सी है। जिसकी आयु एक दशक से ज़्यादा हो गई है। सुबह जाते हुए मैंने उसे धुलवाने की ताकीद अपनी बीवी से कर दी थी। शाम को आया तो वो वैसी ही रखी थी, जैसे मैं छोड़ गया था। पूछा तो वो बोली, ‘‘क्या करती। कैसे धोती। नल चला गया था। ठीक से पीने का पानी भी नहीं भर पाई।’’ मैं चौंका। पत्नी का आशय ‘नल चला गया’ का पानी ज़ल्दी बंद हो गया है से था। इसी तरह कपड़ों में प्रेस की बात थी, तो वो कहने लगी कि बिजली चली गई है। मैं सोचता हूँ कि शायद मेरी बीवी को लगता है कि बिजली खंबों से तारों में और फिर घर के बल्ब-ट्यूब में आती-जाती है।
एक दिन की बात है। मैं और मेरी बीवी मशहूर पार्क देखने गए। दोनों ने पहली बार उस पार्क को देखना था। पूछते-पाछते हम जा रहे थे। मुझे लगा कि हम जिस रास्ते पर चल रहे है, वो रास्ता पार्क की ओर नहीं जाता। बीवी को भी लग गया। सामने से एक युवक आ रहा था। बीवी ने उससे पूछा, ‘‘सुनो भइया। ये रास्ता कहां जाता है?’’ युवक मुस्कराया। बोला, ‘‘ये रास्ता तो कहीं नहीं जाता। ये तो बरसों से यहीं खड़ा है। आप ये बताओ, आपको जाना कहां है?’’ मेरी बीवी का मुंह देखने लायक था। फिर मैंने हस्तक्षेप किया और पार्क तक जाने की सारी जानकारी उस युवक से ली।
न जाने क्यों मुझे लगता है कि जब हम रोज़मर्रा के जीवन में बात करते हैं, तो हमारी बातचीत बहुत ही गंवई होती है। मैंने कई आई.ए.एस., सेना के अधिकारियों और ऊँचें दर्जे के लोगों की बातचीत सुनी है। उनका उच्चापन कहीं भी उनकी बातों में नहीं झलकता। मेरी ये उलझन मिटाई प्रख्यात लेखक ने। अखिल भारतीय कवि सम्मेलन सुनने को मिला। वहां मंचीय और किताबी दोनों तरह के कवियों का जमावड़ा था। सीधा-सादा हुलिया, कपड़े भी ठेट गंवई और कविता भी उन्होंने बिल्कुल आम बोलचाल की भाषा में पढ़ी। श्रोताओं ने ही नहीं मंच पर आसीन कवियों ने भी उनके कविता पाठ को सराहा। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि ने तो उठकर उस देहाती से कवि को गले भी लगाया और सिर पर हाथ भी रखा।
बस। यहीं से मुझे कबीर और आज के कथित दार्शनिक में अन्तर समझ में आ गया। मैं घर लौट आया। रास्ते में यही सोच रहा था। अपने आप से मैंने यही तो कहा था, ‘‘सुन भइये। जो बात सीधे समझ में आती है। सर्वप्रिय है। उसे अपनाने में संकोच कैसा। हिंदुस्तानी भाषा को दुनिया की सबसे उदार, प्रिय और बढ़ती हुई भाषा इसलिए तो कहा जाता है।’’ मैंने तत्काल निश्चय किया कि अब अपनी बीवी की बातों में खोटापन नहीं खरापन तलाशूंगा। नकारात्मक की जगह सकारात्कमकता ज़्यादा मुफ़ीद होती है। अब समेटते हुए आपसे भी विनम्र निवेदन है कि यदि आप भी दूसरों की बातों में साहित्यिकता तलाशते हों, तो कृपया अपना नज़रिया बदलें। बदलेंगे न।