बनजारा मन: प्रवहमान रचनाशीलता की द्योतक / कविता भट्ट
हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं पर निरन्तर अपनी उत्कृष्ट लेखनी चलाने वाले तथा नवोदित रचनाकारों को प्रोत्साहित करने वाले वरिष्ठ एवं वरेण्य साहित्यकार आदरणीय श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी का काव्य-संग्रह 'बंजारा मन' पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। शीर्षक अत्यंत रोचक है और प्रासंगिक भी। आख़िर मन बंजारा ही तो होता है। अपने डेरे बदलता है और प्रतिदिन आशा-निराशा से इसका संघर्ष एक अनन्त विषय है। इस विषय को शब्दों में समायोजित और शृंखलाबद्ध करने का एक अभिनव प्रयास है-बंजारा मन। इस संग्रह को तीन विभागों में सुनियोजित ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ये तीन विभाग हैं-तरंग, मिले किनारे और निर्झर। तीनों ही विभाग अत्यंत रोचक हैं। तीनों विभागों में क्रमशः 22, 44 और 25 लघु काव्यकृतियाँ हैं। इनमें से अधिकतर काव्यकृतियाँ विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं; ये कविताएँ साक्षी हैं-रचनाकार के जीवन के विविध पक्षों, प्रवाहमान चिन्तनशीलता, संघर्ष और सामाजिक चैतन्य की। पहले खंड की ही एक कविता बंजारा मन को शीर्षक के रूप में चयनित किया गया है। यह शीर्षक पूरे संग्रह की रचनाओं को समाहित किए हुए है। यह प्रतिबिम्बित करता है-आत्मबोध, विस्तार, चेतना, जागृति और अनन्त आत्मज्ञान को भी। साथ ही इसमें व्यावहारिक जगत् के क्रिया-कलाप से फलीभूत मन के ज्वार-भाटा, उतार-चढ़ाव और आकर्षण-विकर्षण इत्यादि को भी भली प्रकार लिपिबद्ध किया गया है। यह संग्रह आधुनिक काल की कशमकश से व्युत्पन्न विसंगतियों, विदू्रपताओं, विरक्ति और वितृष्णा को भी शब्दचित्र में बाँधता है।
यों तो पहले खंड 'तरंग' की सभी रचनाएँ अत्यंत सुन्दर हैं; किन्तु तूफान सड़क पर, इस शहर में, मन की बातें, प्यासे हिरन, छोटी-सी अँजुरी, सारे बन्धन भूल गए तथा सहे नदी इत्यादि रचनाएँ मुझे भीतर तक छू गईं। इन रचनाओं में वर्तमान परिदृश्य के बहुविध पक्ष परिलक्षित होते हैं। वैयक्तिक और सामाजिक विषयों के कथ्य हैं ये कविताएँ-
पत्थरों के / इस शहर में / मैं जब से आ गया हूँ,
बहुत गहरी / चोट मन पर / और तन पर खा गया हूँ।
आधुनिक जीवन-शैली और मन के बीच चलने वाले इस संघर्ष को बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित करने वाली रचना है-
लहरों से / टकराने की / कहकर बातें / एक उम्र वे / तट पर ही बस / खड़े रहे।
बँधे डोर से / सुविधाओं की / रोज चले / जितने भी थे / सगे-सहोदर / सभी छले
बोलो इनसे / मन की बातें / कौन कहे!
ये भाव आज प्रत्येक व्यक्ति के मन के हैं। कोई ऐसा साथी नहीं, जिससे हम अपना दुःख कह सकें। जो हमारे घावों पर मरहम लगा सके। यह कविता इस बात को बहुत ही सुन्दर ढंग से विवेचित करती है। -
प्यासे हिरन कविता में यह तथ्य है कि कितना भी हम समझाना चाहें, शब्दों के माध्यम से दूसरे को अपनी बात नहीं समझाई जा सकती। प्यार, समर्पण तथा विश्वास इत्यादि सब मन के असीम भाव हैं; किन्तु इन्हें शब्दों में बाँध पाना सम्भव नहीं है। -
किस तरह हम / तुम्हें समझाएँ / मन की बातें
भाषा बार-बार / बन जाती / है मजबूरी।
छोटी-सी अँजुरी कविता अथाह आत्मविश्वास, आशावाद और सकारात्मकता से ओत-प्रोत भावों को समाहित किए हुए है। कवि की कल्पना और विश्वास कहाँ तक पहुँच सकते हैं; यह पठनीय है इस कविता में।
छोटी-सी / अँजुरी में हम / सारा आकाश भरें।
पोर-पोर से / सौ-सौ सूरज- / का उजियार झरे।
आँसू की / धरती से निकले / मुस्कानों की कोंपल
अंगारों की / खिलें गोद में / संकल्पों के शतदल।
पलक-कोर पर / उतर चाँदनी / नित सिंगार करे।
सहे नदी नामक कविता नदी का मानवीकरण करके मानव जीवन के संघर्षों और मूल्यों को चित्रित करती है।
किसी से / कुछ भी न / कहे नदी।
तन पर / बहुत चोट / सहे नदी।
पर्वतों की / सहेजकर / लालसाएँ,
रात-दिन / चुपचाप / बहे नदी।
इस खण्ड में एक से बढ़कर एक कविताएँ हैं; सभी पठनीय और चिंतनीय है। इसके उपरान्त दूसरा खण्ड 'मिले किनारे' शीर्षक से है।
बहुत ही सुन्दर उपशीर्षक के द्वारा रचनाकार सत्यों, कथ्यों और तथ्यों को प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं। कैसी हवा चली में देखिए-
कैसी हवा चली देश में / सब उल्टे आसार हो गए
कल जो थे डाकू-हत्यारे / वे अब पहरेदार हो गए।
दो जून की मिली न रोटी / मेहनत करने वालों को
हमने मौज उड़ाते देखा / जेबें भरने वालों को।
जा बैठे हैं जो शिखरों पर / वे ही गुनहगार हो गए।
यह कविता गहरा संदेश देती है। यह ऐसी कविता है; जो सदैव प्रासंगिक है। देश के हालातों को चित्रित करती हुए यह कविता भूखमरी, बेरोजगारी, ग़रीबी और वर्ग-विभेद से उत्पन्न संघर्ष को कहती है। रचनाकार ने एक मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है।
जितनी कीलें-कविता में रचनाकार ने मन के भावों और मर्मों को अत्यंत गहन ढंग से अभिव्यक्त किया है। यह कविता प्रत्येक दिन हर किसी व्यक्ति के मन में उठने वाले भावों का भी शब्द-चित्रांकन है-
जितनी कीलें, जितने काँटे / रोज आचरण ने झेले
लहूलुहान हो गई उमरिया / साँसों की न मिटी चुभन
कम होने का नाम नहीं है / बढ़ती जाती रोज़ तपन।
खेल समझकर कब तक इनकी / चुभन हथेली पर ले लें।
अनजाना चेहरा एक रोमांच से भरपूर कविता है; यह अन्तर्मन के भावों का चेहरे द्वारा अभिव्यक्ति का सार समाहित किए हुए है-
एक अनजाने-से नगर में / गुलाल-सा उतरा नज़र में
कभी सुकून मन दे गया / लगा जब पहचाना चेहरा।
जबकि था अनजाना चेहरा
जीवन और सफ़र दोनों ही / अनजाने तो भारी लगते।
जब होते जाने-पहचाने / मीठी एक ख़ुमारी लगते।
मन होता जब ख़ाली लगता- / अपना भी बेगाना चेहरा।
अँधियारा कैसे कविता वर्ग विभेद पर विस्तार से चर्चा करती है। -
महलों में तो दीप जले हैं, / बस्ती में अँधियारा कैसे।
किसी को आँसू, हँसी किसी को / -मिले यह बँटवारा कैसे।
कैसी भोर चाँदनी कैसी / रोज ठिठुरती रात मिली।
आँसू पोंछे हमने सबके / पर हमको बरसात मिली।
दो कविताएँ 'नारे खिलाइए' और 'वीर बाँकुरे' लोकतन्त्र और सत्ता को दर्पण दिखाने के लिए अत्यंत उपयोगी रचनाएँ हैं।
1.भूख से दम तोड़ने लगे हैं लोग / नारे खिलाइए, नारे खिलाइए। भीड़ ढूँढती फिर रही थी आपको / आ ही गए आप मज़मा लगाइए। ... .2.ऊँचे पर्वत, गहरे सागर / गहरी घाटी, चंचल निर्झर / ये सारे अपने मीत बनें।
ठिठुर-ठिठुर कटती रातें / साँसों से ही होती बातें / तब पोर सभी संगीत बनें
जलता रहता जब अम्बर / रेगिस्तानों में भी डटकर ...
इसके साथ ही शीर्षक हेतु प्रयुक्त कविता 'मन बनजारा' अत्यंत सुन्दर ढंग से लिखी गयी प्रेम की कविता है; यह उन्माद, समर्पण और रोमांच का सम्मिश्रण है-
दर्पण में तुमने जब रूप निहारा होगा / तब माथे पर चमका वह ध्रुव तारा होगा।
सपने उभरा करते, पलकों में तो अनगिन / जो डूब गया उसको, मिला किनारा होगा।
चन्दन-वन साँसों में महक लिया करते हैं / प्राणों की डोर बँध, मन बनजारा होगा।
क्या करें, मत पूछना, चुपचाप रहना तथा लिखूँगा गीत मैं इसके इत्यादि कविताओं की प्रस्तुति आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से हुई हैं। ये कविताएँ व्यक्तिगत भाव के साथ ही सामाजिक व देशभक्ति के रंगों को पिरोकर लिखी गयी सुन्दर रचनाएँ हैं। इनमें से एक पूजा करके देखी है रचना का अंश अत्यंत भावपूर्ण है। पूजा करके देखी है कि ये पंक्तियाँ-
फूलों के सौरभ से पूजा करके देखी है
सिरों की भेंट देकरके, सत्कार होना चाहिए।
भारत माँ की चन्दन-धूल साँसों में समा जाए
इसकी राह में अपनी हस्ती तक मिटा जाएँ।
उठाने की करे कोशिश इस पर जो नज़र तिरछी
बिजलियों की तड़प बनकर, कहर उस पर ढा जाएँ।
झरने की कल-कल के सारे राग बासी हैं
लपलपाती लहरों से अब प्यार होना चाहिए।
इसी खंड में अब इस लेखनी से, भूखा आचरण, उतर आई है बूँद, घाव भर गए, मन की मुँडेर पर, दर्द के पन्ने निचोड़े, ख़ुद लड़ना होगा तथा तार-तार हो गई चुनरिया इत्यादि सभी रचनाएँ भावों से परिपूर्ण हैं। कुल मिलाकर पाठक के मन-मस्तिष्क में वैचारिक व भावपूरित तरंगों की हेतु हैं।
निर्झर इस काव्य-संग्रह का तीसरा खण्ड है। इसमें 'हार नहीं मानती चिड़िया' अतिसुन्दर दृश्य प्रस्तुत करती है-
तिनका तिनका चुनकर / नीड़ बनाती है चिड़िया
घोर एकांत में / अपनी चहचहाट से / किसी के होने का / आभास कराती
द्वार खुलने के इंतज़ार में / सुबह से / खिड़की के पास बैठकर / मधुरता बिखेरती है
पंखे की हवा से / उड़ जाते सब तिनके / बैठकर पल भर गुमसुम / निहारती है चिड़िया।
एक अन्य कविता बहुत ही मार्मिक है-अब बच्चे-बच्चे नहीं रहे। मशीनीकरण व भौतिकता पर गहरा तंज है यह कविता-
अब बच्चे, / बच्चे नहीं रहे
उनके बेरौनक चेहरों पर / पसरा नहीं है भोलापन
नहीं बिखरी दूधिया मुस्कान / आँखों में नहीं है
अचरज-भरी दुनिया / नहीं है रूठने-मनाने की लालसा
उनमें नहीं है- / चिड़िया के बच्चों-सी / चहचहाट /
नहीं है- / बाबा के किस्से सुनने की उत्कण्ठा
उन्हें नहीं है-है भरोसा / दादी की सीख पर
अब बच्चे, बच्चे नहीं रहे / बूढ़े हो गए हैं।
ओ मेरे मन! कविता एक सरल व्यक्ति के व्यक्तित्व की विशेषताओं और फ़रेब में उलझे व्यक्ति के मन का अन्तर दर्शाती है। साथ ही नैतिक मूल्यों के पालन हेतु दिग्दर्शित भी करती है-
मेरे मन! / तरस खाओ उन पर- / जो गंगाजली लेकर / अपने विनाश पर तुले हैं
प्रमाण जिनके लिए धोखा है / विनम्रता जिनको प्रपंच लगती है
जो अपने हर झूठ को / झूठ नहीं मानते हैं, / जो के वल परपीड़ा के लिए जन्मे हैं।
धूमकेतु जैसी किस्मत, आग, भीड़ लगाए रास्ते, हरियाली के गीत, चूल्हे की आग तथा ऋचाओं का हो वाचन आदि कविताएँ अत्यंत मार्मिक और प्रासंगिक हैं। ऋचाओं का हो वाचन में देखिए-
किन ऋचाओं का हो वाचन / कि बात तुम्हारी / पा जाए इच्छित आकार /
और तुम्हारे / मन की बातों को / अपनी हिय-तुला पर तोलूँ
सच-सच बोलूँ- / ' तुम मेरे हो / मेरे अपने, मेरे सपने-
जिसको देखा / खुली-खुली आँखों से मैंने।
एक और बहुत ही सुन्दर कविता है-बीमार ही होती हैं लड़कियाँ-
माँ, मैं बीमार हूँ / बीमार ही होती हैं लड़कियाँ
मैं नहीं रहूँगी- / लेकिन, फिर भी जीवित रहूँगी- / गुलाबों की क्यारी में /
तुलसी-चौरे में।
इन गुलाबों की कलम / बरसों पहले लगाई थी मैंने
कलियाँ, अपनी आँखों के पपोटे / खोलने को व्याकुल हैं
ये कल फूल बनकर मुस्कराएँगी / कल मैं न रहूँगी,
पर मेरी मुस्कान / तुम्हें पँखुड़ियों में दुबकी मिलेगी
भीष्म, आदर्शवादी मन, हुजू़र माफ़ करना, शायद तुम्हें पता हो, पेड़, कविता क्या है, दिल में उतारूँगा और आजादी की पूर्व संध्या जैसी अन्य कविताएँ भिन्न-भिन्न शब्द चित्र प्रस्तुत करती हैं। कुल मिलाकर सभी कविताएँ उत्कृष्ट हैं; किन्तु सरल भाषा में लिखी गई प्रवहमान रचनाशीलता कि द्योतक हैं।
रचनाकार अपनी बात को पाठक के मन-मस्तिष्क में बहुत गहरे तक उतार देते हैं और इसमें कोई तनाव भी नहीं आता पाठक के चेहरे पर। भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों की कसौटी पर खरा उतरता पठनीय एवं संग्रहणीय संग्रह हैं-बनजारा मन। वरिष्ठ एवं वरेण्य साहित्यकार श्री हिमांशु जी को कोटिशः शुभकामनाएँ एवं साधुवाद।
-0-[बनजारा मन (काव्य-संग्रह) : रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , पृष्ठः 148, मूल्यः 300 / -रुपये, प्रथम संस्करणः 2020
अयन प्रकाशन, 1 / 20, महरौली, नई दिल्ली-110030]
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