बनजारा सबका है / अंजू खरबंदा
बनजारा मन पढ़ती जा रही हूँ साथ ही साथ मन भी डूबता-उतराता जा रहा है। सच ही तो कहा है रामेश्वर जी ने-मन की स्थिति भी बनजारे जैसी होती है। बनजारा सबका है, सबके लिए है; लेकिन अभिशप्त है कि वह किसी का नहीं। कवि भी मूलत: ऐसा ही होता है। कविता क्रम में कविताओं को तीन भागों में बाँटा गया है-तरंग, मिले किनारे, निर्झर।
पहली कविता 'तूफान सड़क पर' पढ़ते हुए एकाएक पूरा समाज, हमारा देश, समग्र संसार मानो आँखों के सामने आ खड़ा हुआ। देश में होने वाली एक-एक हलचल मानो एक कविता में समा गई है। 'बीच सड़क पर' पढ़ते-पढ़ते रौंगटें खड़े हो गए। एक-एक शब्द कड़वी सच्चाई बयान करता हुआ सामने आ खड़ा हुआ।
गुण्डे कौर छीन भूखों का ख़ुद खा जाएँगे।
'इस शहर में' कविता ने बरबस ही रुला दिया। शहरों की आपाधापी भरे जीवन को जीते हुए जाने अनजाने कितना कुछ खो देते हैं न हम!
पत्थरों के इस शहर में
मैं जब से आ गया हूँ;
बहुत गहरी चोट मन पर
और तन पर खा गया हूँ।
'सहे नदी' नदी की अंतर्व्यथा को बेहद संवेदनशीलता से उकेरा गया है।
'चले गए बादल' में कितनी ही खूबसूरत उपमाएँ भर दीं कवि हृदय ने! उपमा अलंकार ने मानो कविता को और अधिक मनोहारी बना दिया है।
जीवन को दिशा दिखलाती कविता 'रिश्ते रेतीले' कितने कम शब्दों में कितना कुछ सिखला गई।
' पुष्प बनो या हो जाओ पत्थर;
अर्थहीन सब सागर टीले। '
'मत पूछना' रिश्तों की पोल खोलती समसामयिक कविता! जो अंतर्मन को गहराई से उद्वेलित करती है; पर क्या किया जाए। कवि आसपास जो देखेगा, वही तो क़लम से निकलेगा।
भाई अब भाई के ही खून से
रोज खेलता फाग, मत पूछना।
शृंगार रस की कविता 'क्या गाएँ' की पहली दो पंक्तियों ने बरबस ही मन मोह लिया-
जब से तुम पाहुन बन करके मन आँगन में आए
तब से मेरे प्राण बावरे और अधिक भरमाए।
तो 'जीवन के अँधेरों में' कविता ने उत्साह का संचार कर हृदय को आशा से भर दिया।
जीवन के अँधेरों में
बाधा बने घेरों में
सभी द्वारे दीपक जलाए रखना।
आगे बढ़ते हुए 'गिर गया जो भीड़ में' कविता पर आकर मेरी गति थम—सी गई इस कविता को जाने कितनी बार पढ़ा, समझा, तोला! कभी-कभी मानवीय संवेदनाएँ इतनी अत्याचारी हो उठती हैं कि अपने स्वार्थ के अलावा उनको कुछ दिखता ही नहीं जैसे!
गिर गया जो भीड़ में उसको उठाए कौन
घाव पर मरहम भला उसके लगाए कौन।
'दर्द के पन्ने निचोड़े' कविता के शीर्षक ने मेरी उत्सुकता को बेहद बढ़ा दिया। मानवीकरण अलंकार का खूबसूरती से उपयोग किया गया है।
दर्द के पन्ने निचोड़े
आह के अध्याय जोड़े
तब बनती कोई कविता।
सच में! ऐसा ही तो होता है। अति संवेदनशील व्यक्ति यों ही कवि बनता है, जब उसे दूसरों का दर्द अपना लगने लगता है, जब उसे ज़माने भर का ग़म अपना ग़म लगने लगता है, तब कवि हृदय व्यक्ति की क़लम बोल उठती है।
'बनजारा जब लौटा' कविता असीम वेदना से भरी हुई है। बनजारे की गहन व्यथा को उकेरते हुए निश्चित ही कवि हृदय स्वयं भी कई बार छलनी हुआ होगा-
इन अपनों से बनजारे को
घाव बहुत हर बार मिले।
'अब बच्चे, बच्चे नहीं रहे' कविता पढ़ते हुए न जाने कितने ही बच्चों के चेहरे आँखों के आगे आ खड़े हुए। उदास, निरीह, निस्तेज चेहरे वाले बच्चे!
उनके चारों ओर बिखरी हैं किताबें
किताबों में ज्ञान का
भूसा भरा हुआ है
वे रात-दिन
उस भूसे को चबा रहे हैं।
'आग' कविता पढ़ते हुए इसे गुनगुनाने लगी, अथाह व्यथा और दर्द को गहरे तक महसूस किया और बरबस ही आँखें सजल हो उठीं।
'शहर का चेहरा' पढ़ते हुए ये वेदना और अधिक कुलबुला उठी।
गुम हो गया है कहीं
मेरे शहर का चेहरा
आगोश में
लपेट लेने वाली बाहें
बन गई हैं खंज़र!
इस सत्य से हम सभी वाकिफ़ हैं, फिर भी ये भयावह सत्य रौंगटें खड़े कर देता है। पत्थरों के इस शहर में भावुक व संवेदनशील व्यक्तियों का अब काम भी क्या रहा।
'दयनीय लोग' राजनीति पर करारा प्रहार करती हुई शानदार कविता है। बिलकुल सही बात कही-
जितना गुर्राते हैं
उतना ही पूँछ हिलाते हैं!
'बीमार ही होती हैं लड़कियाँ' क्या कहूँ इस कविता के बारे में! इस कविता की पंक्तियों ने हृदय को बेंधकर रख दिया। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे खोखले नारों का भेद खोलती है ये कविता।
लड़कियाँ तो बीमार होती ही रहती हैं
लड़कियाँ तो मरती ही रहती हैं
अपने लगाए पौधे
छोड़ जाती हैं-याद के लिए बस
पौधे छोड़ जाती हैं लड़कियाँ!
'आजादी की पूर्व संध्या' एक लाजवाब व्यंग्य कविता है, जो देश, समाज, राजनीति पर करारा तमाचा मारती है।
हाँ कानून पढ़ा है
इसलिए कानून को
जेब में लेकर चलता हूँ
कभी कानून को
जूते की तरह पहनता हूँ
कभी खैनी की तरह मलता हूँ!
कवि अपने आस-पास जो भी देखता है; उसे शब्दों की माला पहनाकर पाठकों को प्रस्तुत करता है। पाठक कविता को पढ़ते हुए काव्य धारा में बह जाएँ, कविता को गुनगुनाने लगे, उसके मर्म को समझे तो कवि का लिखना सार्थक हुआ। बनजारा मन पढ़ते हुए मैंने इस प्रवाह को बेहद गहराई से महसूस किया।
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