बनते बापू रंगते बापू / देव प्रकाश चौधरी

Gadya Kosh से
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एक निर्भय भारतीयता का बोध कराने गांधी कलाकारों के कैनवस पर आते रहे हैं, लेकिन गांधी अगर कैनवस पर आते हैं तो उसमें एक कलाकार का सच, कला का अपना सच, रंगों का सच और रेखाओं का सच भी तो घुला-मिला रहता है। ऐसे में तो सवाल यही उठता है कि गांधी का सच उसमें कितना प्रतिशत है?

बहुत लोग कहते हैं कि इस समय में गांधी से बहुत उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। लेकिन हम उससे कभी भी पूरी तरह से नाम्मीद भी नहीं हो सकते। हमारा समय गांधी का नहीं है, कोई ख़ास समय गांधी का होता भी नहीं। हर समय गांधी का होता है...इसलिए हर समय रंगों और रेखाओं में ढलते हैं बापू।

बापू को उन्होंने आवाज़ नहीं दी थी, फिर भी वह आए। शुरुआत मानवता का संदेश देने के लिए स्ट्रीट वॉल पर कुछ चित्रों से हुई थी और कुछ ही दिनों में क्रिप्टिक की कला में बापू नज़र आने लगे। क्रिप्टिक ने बापू को कभी देखा नहीं, लेकिन लॉस एंजिल्स का यह स्ट्रीट चित्रकार सड़कों पर बापू के साथ नज़र आए। लोगों ने पूछा तो बहुत कम बोलने वाले और अपनी पहचान को लेकर बेहद संकोची क्रिप्टिक ने दार्शनिक अंदाज़ में सिर्फ़ इतना भर कहा था, "बात मानवता की होगी तो बापू को आना ही होगा।"

एक सामान्य भारतीय ज़िन्दगी में महात्मा गांधी कब आते हैं और कब चले जाते हैं, इसका हिसाब तो मुश्किल है, लेकिन एक बात तो स्वीकार्य है ही कि गांधी आते हैं। कभी चुपके से तो कभी आवाज़ लगाते हुए। कभी 'नहीं' के अंधेरे में तो कभी 'हां' उजाले में। गांधी के आने के लिए हर 'हां' के पीछे नहीं का अँधेरा होता है तो हर 'नहीं' के पीछे हाँ का अपना प्रकाश भी होता है। 'हां' और 'नहीं' के विश्वास और संदेह के इस चक्र के वावजूद गांधी आते हैं। हमसे पहले की पीढ़ी के पास भी और आज की पीढ़ी के बीच भी। एक निर्भय भारतीयता का बोध कराने के लिए वे आते हैं, वावजूद इसके कि हममें से बहुतों की ज़िन्दगी में भारतीयता एक केंद्रीय प्रश्न के रूप में नहीं है, फिर भी हम यह मानते ही रहे हैं कि एक गांधी दृष्टि थी, जिससे कभी हम अपने समय के विखंडन और टूट के सबसे भयानक दौर से उबरकर स्वाभिभान के मंच पर खड़े हुए थे। यहीं से भारतीयता का प्रश्न हमारे समकालीन सर्जन और विचार का प्रश्न भी बना था। हालांकि, हमारी परंपरा में भारतीयता को लेकर हमारे विचार बहुत सहज रहे थे और हम मानते थे कि यह हमारे उतराधिकार का सवाल है और इसके लिए हमें कोई ख़ास जतन करने की ज़रूरत नहीं है... मन से, तन से और कर्म से भारतीयता की यह सहज मौजूदगी हमारी ताकत रही। फिर भी, कभी भारतीयता को लेकर सवाल अगर उठते हैं तो गांधी आते हैं... और जब गांधी आते हैं तो उन्हें जानने, समझने और महसूस करने की शुरुआत होती है। हर आदमी गांधी को अपने मूल्यों के तराजू पर तौलता है और हिसाब करता है। कभी गांधी समझ में आ जाते हैं तो कभी गांधी अटक-से जाते हैं। एक डॉक्टर, एक वकील, एक किसान, एक कुशल कारीगर, एक कामगार, एक सफाईकर्मी, एक स्वयंसेवक, एक राजनेता, एक वक्ता, एक संपादक, एक श्रोता, एक पंच, एक साहित्यकार या कि एक कलाकार... हर किसी की ज़िन्दगी में अपने ढंग से और कभी देरी से तो कभी जल्द आ जाते हैं गांधी।

विश्व प्रसिद्ध कलाकार सैयद हैदर रजा की ज़िन्दगी में कुछ जल्दी ही आ गए थे गांधी। लगभग 15 साल पहले एक मुलाकात के दौरान उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में महात्मा गांधी के आने की घटना पर विस्तार से बात की थी-"मैं शायद सात-आठ साल का था, जब मैंने पहली बार महात्मा गांधी को मध्य प्रदेश के अपने गाँव मंडला में देखा था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक जनसभा को सम्बोधित करने के लिए महात्मा गांधी वहाँ आए थे। मुझे गांधी से मिलने का कभी मौका नहीं मिला, लेकिन बचपन की उस सभा में गांधी को मैंने जिस तरह से महसूस किया, उसने ज़िन्दगी को आदर्श ढंग से आंदोलित किया।"

रजा ज़िन्दगी भर गांधीवादी दर्शन से प्रभावित रहे। यह प्रभाव कुछ इस तरह का था कि भारत के विभाजन के बाद रजा के भाइयों, एक बहन और उनकी पहली पत्नी ने भी पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया, लेकिन रजा नहीं गए। उन्होंने महसूस किया था कि भारत छोड़ना गांधी के साथ विश्वासघात होगा। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि 90 के दशक में भी वह अपने चित्रों में महात्मा से जुड़े शब्दों और वाक्यांशों का उपयोग करते रहे। 2013 में, रजा ने गांधी को श्रद्धांजलि के रूप में सात चित्रों की एक शृंखला बनाई। आज जब हमारे बीच न तो गांधी हैं और न ही रजा, वे चित्र हमारी ज़िन्दगी में अहिंसा, शांति और स्वाभिमान के रंग बिखेर रहे हैं।

वैसे जब रजा चित्र नहीं बना रहे थे, तब भी देश और दुनिया में गांधी आकारों में ढल रहे थे। दुनिया भर में बहुत सारे कलाकार रहे, जो गांधी से अलग-अलग ढंग से प्रभावित थे। उनका अपना अलग अनुभव था और वह गांधी को अपने ढंग अपनी कला में लेकर आए। गांधी की दृष्टि और दर्शन के अलावा और ऐसा क्या है, जिससे बार-बार कलाकार उन्हें बना लेना चाहते हैं। बात होती है मशहूर मूर्तिशिल्पकार राम वी. सुतार से। कला के कई वादों से, कई दशकों तक उनकी लड़ाई लगभग एकाकी ही रही, लेकिन 93 वर्ष का यह मूर्तिशिल्पकार आकार की दुनिया में अपनी विशालतम मौजूदगी को बनाए रखने के लिए आज भी कटिबद्ध दिखता है। उनकी कला दुनिया में ढेर सारे महापुरुष, ढेर सारे पौराणिक पात्र, अनगिनत इतिहास पुरुष और दर्जनों विज्ञान पुरुष आए... लेकिन आकारों को रचने, ढालने और उन्हें स्थापित करने की इस यात्रा को, इतिहास के जिस नायक ने विश्वयात्रा बनाने में सबसे ज़्यादा मदद की, वह गांधी ही थे और आज भी हैं। हंसते हुए कहते हैं, "आज भी गांधी मेरे लिए एक सपने की तरह हैं। दुनिया के किसी भी हिस्से में सत्य और अहिंसा का ज़िक्र महात्मा गांधी को याद किए बिना पूरा नहीं होता। मुझे गांधीजी के अहिंसा मंत्र ने बहुत प्रभावित किया। गांधी जी के दर्शन में हर समस्या का आसान उपाय है। वह बेहद प्रैक्टिकल हैं। उनके दर्शन की जो भाषा है, उसे समझना आसान है।" ये तो हुई दृष्टि और दर्शन की बात। लेकिन क्या गांधी के दर्शन और शिल्प या कला की भाषा में कोई साम्य है? गांधी को बनाना क्या आसान है? गांधी को आकारों में ढालते वक़्त दिमाग़ में क्या चलता रहता है? सवाल कई थे। "सच कहूँ तो गांधी को आकारों में ढालना एक तपस्या है मेरे लिए। जब भी मैंने उनके रूप को बनाया, उनकी कही बातें मेरे दिमाग़ में चलती रहीं। जब भी बनाया, निष्ठा और आस्था से बनाया। उनके जीवन में आपकी आस्था न हो तो आप गांधी बना ही नहीं सकते। बिना आस्था के आपकी कला में जीवंतता नहीं आ सकती। अब शिल्प या कला की भाषा और उनके दर्शन में क्या साम्य है, यह देखना आपका काम है। दर्शकों का काम है," दुनिया भर में गांधी के कई सौ (संख्या वे याद नहीं कर पाते) मूर्ति शिल्प बनाने वाले इस कलाकार की बातों में सादगी भरी ताकत झलकती है, जब वह कहते हैं, "गांधी हम सब की ज़रूरत हैं।"

गांधी की इस ज़रूरत को राम वी. सुतार से भी बहुत पहले मशहूर चित्रकार नंद लाल बोस ने भी स्वीकार किया था। नंदलाल बोस के रिश्ते गांधी के साथ बहुत आत्मीय रहे। उन्होंने गांधी को जिस ढंग से चित्रित किया, उसे देखकर इस बात को आज भी महसूस किया जा सकता है कि उनके आदर्श एक थे और सोच एक थी। शायद यही वज़ह थी कि गांधी पर बनाए उनके चित्र भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के महत्त्वपूर्ण गवाह बने। नंदलाल बोस इस बात को पहचानने वाले शुरुआती लोगों में थे कि अकेले गांधी के चित्र एक नए राष्ट्र की सामूहिक इच्छा को व्यक्त करने के लिए और एक आंदोलन को एकजुट करने की क्षमता रखते हैं। वह गांधी के दांडी मार्च को अपनी कला में लेकर आए और दुनिया भर में उनकी सराहना हुई। उसी दौर में गांधी से एक और चित्रकार बेहद प्रभावित थे, सोभा सिंह। गांधी की सादगी उनकी कला की ताकत रही।

अक्सर गांधी पर बात करते हुए, लिखते हुए या उनपर कुछ पढ़ते हुए एक सवाल मन में उठता है कि गांधी की ताकत क्या थी। कला में बार-बार आने की एक वज़ह यह है उन्हें आकारों में ढालना बेहद आसान रहा। क्या गांधी की ज़िन्दगी और उनकी कहानी में कला के लिए कच्चा माल बहुतायत से मिलता है? जवाब बहुत आसान नहीं है, इसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है और उससे पहले महात्मा गांधी से जुड़ीं कुछ बातों को भी जान लेना ज़रूरी है।

महात्मा गांधी की सचित्र जीवनी लिखने वाले लेखक प्रमोद कपूर लिखते हैं, "गांधी जी जो कपड़े पहनते थे या कि नहीं पहनते थे, उनके संदर्भ में वर्षों को दौरान नाटकीय बदलाव आते रहे थे। जब वे दक्षिण अफ्रिका में थे तो ताज़ा फैशन के मुताबिक बेदाग पोशाक पहनने वाले वकील हुआ करते थे, लेकिन वे हिंदुस्तान में कठियावाड़ी पोशाक पहने हुए उतरे। गोखले की सलाह पर मुल्क का दौरा करते हुए उन्होंने किसानों की सादी वेशभूषा धारण की। इसके बाद उन्होंने और भी क्रांतिकारी रूप धारण किया और वे खादी से बनी सफेद टोपी और उसी तरह हाथ के काते हुए धागों से बनी कमीज और धोती पहनने लगे। 22 सितंबर 1921 को मदुरई में उन्होंने अपने सारे कपड़े उतारकर महज़ उस तरह की एक लंगोटी पहनना शुरु कर दिया, जैसे गरीब किसान खेत जोतते वक़्त पहने हुए रहते हैं। महज़ एक लंगोटी पहनने का चयन करके उन्होंने एक शक्तिशाली प्रतीक हासिल कर लिया था, ऐसा प्रतीक जो पारदर्शिता सूचित करता था।"

इस पारदर्शिता ने गांधी को दुनिया भर में बापू बनाया और कला के लिए एक हृदयस्पर्शी विषय। "वैसे भी किसी की ज़िन्दगी में अगर घटनाएँ ज़्यादा हों तो कला को उस ज़िन्दगी के करीब आने में आसानी होती है," वर्षों पहले एक बांगला साहित्यकार से बातचीत में देवी प्रसाद रॉय चौधरी ने महात्मा गांधी के बारे में कुछ ऐसी ही बातें कही थीं, क्योंकि उनसे पूछा गया था कि उनके मूर्तिशिल्प में अक्सर गांधी और उनसे जुड़े विषय ही क्यों होते हैं? यह बात बेहद सच है कि गांधी के अलावा कुछ बेहतरीन कंपोजिशन देने वाले मूर्तिशिल्पकार रॉय चौधरी गांधी की ज़िन्दगी से बेहद प्रभावित थे और अपने मूर्तिशिल्पों में वह बापू को सजाते रहे।

इन दिनों 500 रुपए के नोट के पीछे 11 मूर्ति वाली तस्वीर दिखती है, जिसमें सबसे आगे महात्मा गांधी होते हैं। यह देवी प्रसाद रॉय चौधरी के शिल्प की तस्वीर है, जो नई दिल्ली के राष्ट्रपति निवास के समीप 'ग्यारह मूर्ति' नाम से लोगों में ख्यात है। इस मूर्तिशिल्प का विषय दांडी मार्च है। दांडी मार्च, जिसे नमक मार्च, दांडी सत्याग्रह के रूप में भी जाना जाता है, सन् 1930 में महात्मा गांधी के द्वारा अंग्रेज सरकार की तरफ़ से नमक के ऊपर कर लगाने के कानून के विरुद्ध किया गया सविनय कानून भंग कार्यक्रम था। ये ऐतिहासिक सत्याग्रह कार्यक्रम गांधीजी समेत 78 लोगों के द्वारा अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से शुरु हुआ था। उन लोगों ने समुद्र तटीय गाँव दांडी तक पैदल यात्रा करके 12 मार्च 1930 को नमक हाथ में लेकर नमक विरोधी कानून को भंग किया था। इसी महान घटना को आधार बनाकर रॉय चौधरी ने अपने शिल्प की रचना की थी। हालांकि इस शिल्प की स्थापना से पहले ही रॉयचौधरी का निधन हो गया, जिसे बाद में उनकी पत्नी और छात्रों ने पूरा किया। अफ़सोस की बात यह भी है कि इस महत्त्वपूर्ण शिल्प की योजना और निर्माण पर कोई व्यवस्थित जानकारी उपलब्ध नहीं है, फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि गांधी के दर्शन और कार्य पर उपलब्ध कृतियों में यह बेजोड़ है। नमक जैसे मुद्दे को लेकर भी शक्तिशाली ब्रिटिश राज की नींव हिलाई जा सकती है, ये गांधी ही कर सकते थे। ऐसी जादुई करामत की बात सुनकर विश्वप्रसिद्ध सैद्धांतिक भौतिकविद् ऐल्बर्ट आइंस्टाइन की कही बात भी याद आती है, "बहुत मुमकिन है कि आने वाली पीढ़ी शायद ही इस बात पर विश्वाल करें कि हाड़-मांस का एक ऐसा इंसान इस धरती पर मौजूद था।" यहाँ गांधी की मौजूदगी के भी कई मायने हैं।

मशहूर चित्रकार अर्पणा कौर की कला में भी गांधी मौजूद रहे हैं। कौर ने महात्मा गांधी को नहीं देखा। उनको पढ़ा। उनके दर्शनों को आत्मसात किया। उनसे जुड़े स्थानों तक गईं। उनके परिवारवालों से आत्मीय रिश्ते रहे। गांधीवादी सोच के साथ-साथ कौर की कला ने विस्तार पाया है और आज भी उन्हें गांधी से बहुत उम्मीद है-"बहुत लोग कहते हैं कि इस समय में गांधी से बहुत उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। लेकिन हम उससे कभी भी पूरी तरह से नाउम्मीद भी नहीं हो सकते। मानती हूँ कि हमारा समय गांधी का समय नहीं है, लेकिन मैं यह भी मानती हूँ कि कोई ख़ास समय गांधी का नहीं होता। हर समय गांधी का होता है।"

अर्पणा कौर ने गांधी के चरखे को बड़ी खूबसूरती से उनके दर्शन के साथ जगह दी है। एक दूसरी पेंटिंग में ईसीजी के तरंगों के साथ अपनी तेज चाल में गांधी हैं। गांधी की चर्चा बा के बिना तो अधूरी है, इसलिए उन्होंने बा को भी अपनी कला में जगह दी है। वैसे कला में गांधी को डिकोड करना बहुत आसान काम नहीं। वह कहती हैं, "कलाकार या फिर दूसरी विधा के रचनात्मक लोग महात्मा गांधी के दो रूपों में अपने सामने पाते हैं। एक तो, एक महान व्यक्ति के रूप में जिन्होंने देश की आजादी के लिए संघर्ष किया और आजादी दिलाई। दूसरा, जब हम गांधी के बारे में सोचते हैं तो उनकी बातें, यादें और उनके सिद्धांत, जैसे उनका चरखा कातना या खादी पहनना, साधारण जीवन जीने के लिए उनकी जिद, अहिंसा को लेकर उनके विचार, सत्याग्रह और उनकी और भी कई विशेषताएँ भी हमारे सामने होती हैं। गांधी को डिकोड करने के लिए उन्हें गहरे ढंग से जानना भी ज़रूरी है। अगर उनकी ज़िन्दगी में चरखा है तो क्यों है? स्वाबलंबन के इस देसी तकनीक को उन्होंने स्वाभिमान से जोड़कर आत्मविश्वास का माहौल बनाया था। इसलिए मेरी कला में जो चरखा है, उसे मैं सृजन, श्रम और स्वाभिमान का प्रतीक समझती हूँ।"

बापू की ज़िन्दगी में और उनके दर्शनों में प्रतीक का बहुत महत्त्व है। चाहे वह नमक हो, चरखा हो, एक धोती हो, लाठी हो या कि झाड़ू...प्रतीकों ने उन्हें दुनिया भर की हर परिस्थिति सत्यापित किया और राजनीति के संत के रूप में स्थापित भी। तभी तो वह 1930 में टाइम मैगजीन के 'मैन ऑफ द ईयर' थे। तीन महीने बाद एक और कवर स्टोरी में, टाइम ने उन्हें एक संत के रूप में वर्णित किया।

दर्शन और दृष्टि के साथ-साथ प्रतीकों की वज़ह से भी कलाकार बापू की तरफ़ आकर्षित हुए। क्योंकि बाहर की कोई भी घटना, चाहे वह ऐतिहासिक रूप से कितनी ही क्रांतिकारी क्यों न हो, कलाकार सर्जन प्रक्रिया की अनिवार्य शर्त बन जाने के पीछे प्रतीक तो चाहिए ही।

बापू के 'हे राम' को अपनी ऐतिहासिक कृति में प्रतीक बनाया है वरिष्ठ कलाकार ए. रामचंद्रन ने। ए. रामचंद्रन के द्वारा बनाई गई गांधी की सात फुट की कांस्य मूर्ति उनके अंतिम क्षणों का मार्मिक चित्रण है। मूर्तिकला में एक बुलेट से बना हुआ छिद्र है और उनके द्वारा अंतिम समय में बोला गया वाक्यांश 'हे राम' उत्कीर्ण है। मूर्तिशिल्प एक लकड़ी के आधार पर खड़ा है जिस पर अल्बर्ट आइंस्टीन की बातें लिखी गई हैं। युवावस्था से ही महात्मा के विचारों से प्रभावित रहे रामचंद्रन ने पिछले कुछ वर्षों में जो गांधी की मूर्तियाँ बनाई हैं, वे बताती हैं कि वह हमारे परेशान समय का अपने तरीके से जवाब दे रहे हैं।

क्योंकि रामचंद्रन शिद्दत से इस बात के मानते-मानते हैं कि बापू के दर्शन को अपनाकर देश की रचनात्मक और दार्शनिक परंपराओं के साथ गहराई से जुड़ा जा सकता है। कुछ ऐसी ही बातें गांधीजी पर गहन शोध करने वाले विद्वान प्रो. त्रिदीप सुहरूद भी कहते हैं, "गांधीजी को कला की गहरी समझ थी और इस बात पर विश्वास नहीं करते थे कि इसे केवल दीवारों को सजाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। हालांकि, गांधीजी की संगीत संवेदनाएँ दुनिया से छिपी नहीं थीं। लेकिन वे कलाप्रेमी भी थे। उन्होंने जाहिर तौर पर नंदीलाल बोस के चित्रों की चर्चा की थी, जो हरिपुरा कांग्रेस के मंडप में लगाए गए थे।" इस बात की पुष्टि 'गांधी इतिहास' के जानकारों से भी की जा सकती है कि एक बार गांधी ने नंद लाल बोस से कहा था कि "केवल ग्रामीण सामग्री का उपयोग करके और देश के कारीगरों को रोजगार देने के लिए कला को विकसित किया जाए।"

नंद लाल बोस को कही उनकी बातों ने धरातल पर कितना विस्तार पाया, इस पर ठोस ढंग से तो कुछ नहीं बताया जा सकता है, लेकिन गांधी के सच को सामने लाने की कोशिश देश और दुनिया में ढेर सारे कलाकारों ने की है। मकबूल फिदा हुसैन, अकबर पद्मसी, अतुल डोडिया, वीर मुंशी, सुबोध गुप्ता ये लिस्ट बहुत बड़ी हो सकती है। अकबर पद्मसी ने बापू का जो पोट्रेट बनाया था, उसकी चर्चा पूरी दुनिया में रही। हुसैन की एक पेंटिंग में गांधी की लाठी भी प्रतीक के रूप में आई थी। हुसैन ने बंबई में गांधी पहली बार बोलते हुए देखा था और उन विचारों के लिए गहराई से प्रतिबद्ध थे, जिन विचारों को लेकर पूरा भारत आंदोलित था।

उसी दौर में कार्टूनों में ख़ूब आकार ले रहे थे गांधी। उस समय का शायद ही ऐसा कार्टूनिस्ट हो, जिसने गांधी पर तंज न किया हो। कार्टूनिस्ट रांगा की पहचान तो गांधी पर चलाई उनकी रेखाओं से ही थी। अपने मन में महात्मा की स्मृति को जीवित रखते हुए अतुल डोडिया ने भी गांधी पर चित्रों की एक पूरी शृंखला बनाई, जिसमें उन्होंने गांधी की पुरानी और ऐतिहासिक तस्वीरों का उपयोग करते हुए एक उच्च क्रम के गुण के साथ अपने कैनवस को चित्रित किया। डोडिया की भौगोलिक जड़ें गांधी से मिलती हैं, क्योंकि वे गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र के हैं। सभी भारतीयों की तरह, डोडिया गांधी के बारे में कहानियों पर बड़े हुए और उन्होंने गांधी को इतिहास और आधुनिक कला आंदोलन के संयोजन में चित्रित किया। आज भी अपने देश के हर शहर में कभी न कभी गांधी पर कोई प्रदर्शनी आयोजित हो ही जाती है। नए कलाकार भी अपने ढंग से महात्मा को याद करते हैं। लेकिन कला के मामले में भी गांधी तो देश की सीमा से परे हैं। इजरायल के कलाकार अमित शिमोनी अपनी कला में गांधी को नए ज़माने में लेकर आते दिखे। उनके चित्रों में, गांधी साठ के दशक के स्टाइल शेड्स के साथ टाई-डाई शर्ट पहनते दिखते हैं, जिसमें उनके शांतिपूर्ण रुख और प्रेम के संदेश झलकते हैं। वहीं, फ्रांसीसी कलाकार जेफ एरोसोल की कला में गांधी आते हैं तो थोड़े अडिग से लगते हैं। स्ट्रीट आर्ट के शुरुआती लोगों में से रहे फ्रांसीसी कलाकार जेफ एरोसोल के स्टैंसिल पोर्ट्रेट्स को बोल्डनेस और जीवंतता के लिए जाना जाता है। पेरिस से लेकर पीकिंग तक दुनिया भर के शहरों में उनकी कला देखी जा सकती है। उनके बनाए गांधी के इस विशेष वॉल आर्ट को लंदन में देखने वाले सम्मोहित हुए बिना नहीं रहते। लंदन की दीवालों पर गांधी तो दिल्ली में भी एक मशहूर भवन पर बने गांधी को लोग कौतूक से देखते हैं। दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर जर्मन कलाकार हेंड्रिक बेइकिर्च का यह भित्ति चित्र शहर के सभी कला प्रेमियों को अहिंसा का संदेश दे रहा है। गांधी के इस काले और सफेद भित्ति चित्र को 2014 में राजधानी में 'स्ट्रीट आर्ट' समारोह के हिस्से के रूप में चित्रित किया गया था।

एक ऐसे समय में, जब हम पश्चिम की तरफ़ मुदित मन और लालसा भरी आंखों से देख रहे हैं, पश्चिम के कलाकार भी एक स्वाभिमानी भारतीय आत्मा को ढूँढते रहे हैं और फिर वह अपनी कला में इस भारतीय आत्मा को सजा कर गौरव और सुकून महसूस करते हैं। एक ऐसी आत्मा, जिन्होंने हमें सिखाया है कि भयानक से भयानक समय में भी मनुष्य लाचार या असहाय नहीं है। इसलिए वे हमारे मन और दिल में एक चौकन्ने अन्त: करणकी तरह सक्रिय रहेंगे और हमारी हर हार के बाद हमसे सवाल भी पूछेंगे। संघर्ष और सच की बिरादरी जब तक है, ...तब तक उसके साथ दृश्य और अदृश्य गांधी रहेंगे ... तब तक 30 जनवरी 1948 की शाम गांधी जी की कमर से बंधी जो घड़ी 5.17 पर ठहर गई थी, वह हमारी धड़कनों के साथ टिक-टिक करती रहेगी... तब तक कहीं न कहीं से हमारे कानों में "रघुपति राघव राजा राम..." की धुन सुनाई देती रहेगी और तब तक कहीं न कहीं किसी कैनवस पर गांधी रंगों में ढलते रहेंगे...रेखाओं में खिलते रहेंगे।