बनाना रिपब्लिक / शिवमूर्ति

Gadya Kosh से
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ठाकुर के दालान से निकला तो उसका दिल धाड़-धाड़ कर रहा था। इतनी खुशी वह कैसे सँभाले? कहाँ रखे?

घुप्प अँधेरा। ओस से गीली घास पर चलते हुए पैरों में कीचड़ सने तिनके चिपकने लगे। पहर रात बीते ही इतनी ओस। जाते समय जल्दी में एक पैर की चप्पल ढूँढ़े नहीं मिली तो वह नंगे पैर ही चला आया था। अक्सर एकाध चप्पल छोटा पिल्ला मड़हे के पीछे तक उठा ले जाता है।

खेतों के बीच पहुँच कर वह रुका। दूर जा रही दसबजिया पसिंजर के इंजन ने लंबी सीटी मारी। फिर सन्नाटा। धान की फसल कटने से ज्यादातर खेत खाली थे। ऊपर देखा। तारों की चमक कुछ ज्यादा ही लगी। आसमान में तारे कुछ बढ़ गए हैं क्या? इस साल अगहन में ही इतनी ठंड। अपने टोले की ओर बढ़ते हुए वह कानों पर अँगोछा लपेटने लगा।

हैंडपंप पर पैरों का कीचड़ धोकर वह मँड़हे में घुसा और जमीन पर बिछे बोरे में पैर रगड़ते हुए चारपाई पर सोये बाप को पुकारा - बप्पा, ए बप्पा।

कथरी में लिपटे बाप की आवाज आई - हूँ...

सो गया है, सोच कर उसने भी बगल में पड़ी चारपाई पर कथरी बिछाई और लेट गया। लेकिन इतनी बड़ी बात पेट में रखकर लेटा नहीं गया। फिर आवाज दी - बप्पा! सो गए क्या?

क्या है?

मुँह पास ले जाकर उसने कहा - ठाकुर कहता है, परधानी लड़ जा।

क्या ऽ-ऽ-ऽ ?

परधानी लड़ने को कहता है ठाकुर।

बाप कथरी उलट कर बैठ गया। वह बाप के पैताने आ गया।

इसीलिए बुलाया था? ...कहा नहीं कि मुझे पागल कुत्ते ने काटा है जो ठाकुरों-बाभनों के गाँव में परधानी लड़ूँगा। लड़ कर उनकी आँख का काँटा बनना है क्या?

काँटा क्यों? वे तो लड़ ही नहीं सकते। इस बार अपने गाँव की परधानी हरिजन कोटे में आ गई।

कुछ देर चुप्पी रही।

इसलिए ठाकुर मुझे लड़ाना चाहता है। कहता है - मैं नहीं बन सकता तो मेरा आदमी बने। लाखों की कुर्सी दूसरे के पास क्यों जाए?

कहता था, खुल कर मदद करूँगा। रुपए पैसे से भी।

न बेटा। ए काम ठीक नहीं। परधानी का बवंडर हम नहीं सँभाल सकते। उड़ जाएँगे।

बाप मुँह ढँककर लेट गया। थोड़ी देर तक बिसूरने के बाद वह अपनी चारपाई पर आ गया। लेकिन अब नींद कहाँ!

ठाकुर कहता था - सालाना पंद्रह बीस लाख तक खर्च करने का चांस रहता है। मनरेगा की मद से तो चाहे जितना निकालो। बस कागज का पेटा पूरा करते रहो। नीचे से ऊपर तक सबका मुँह बंद करने के बाद भी रुपए में चार आना कहीं गया नहीं। पाँच साल में पचीस लाख की बचत। एक लाख में सौ हजार होते हैं। एक हजार... दो हजार... सौ हजार। पचीस बार। हर महीने हजार रुपए मानदेय अलग। थाना पुलिस में पूछ-पहचान हो जाती है। फौरन बंदूक का लायसेंस मिलता है। रोज सौ लोगों का सलाम मिलता है। बेटे की शादी में मोटर साइकिल मिलती है। बेटी की शादी में हजारों रुपए न्योता मिलता है।

उसने करवट बदली।

कहता था - दो, तीन तालाबों का जीर्णोद्धार करने का मौका मिल गया तो तेरी सात पुस्त का जीर्णोद्धार हो जाएगा।

कहता था - ब्लाक प्रमुख का चुनाव आने दे। हर कैंडिडेट आकर तीन से पाँच लाख तक गिनेगा।

कहता था - वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, मिड डे मील और पता नहीं कितनी-कितनी मदों से रुपया पानी की तरह बरसता है। पाँच साल में कितनी कमाई होगी उसका क्या कोई हिसाब लगा सकता है?

लेकिन जितना लगा सका, वह रात भर हिसाब लगाता रहा। सबेरे उठते ही उसने एक बार फिर आमदनी और रोब-रुतबे का लेखा-जोखा बाप के सामने रखा। फिर समझाया - हम नहीं लड़ेंगे तो ठाकुर किसी और को लड़ा देगा। अपना आदमी समझ कर पहले मुझे बुलाया है। समझो लक्ष्मी खुद चल कर आ रही हैं। पचीस लाख!

बाप झुँझला गया - इतने पैसे का हम करेंगे क्या? रखेंगे कहाँ? वही ठाकुर रात में सब लूट ले जाएगा।

बीड़ी का सुट्टा लगाते, हाथ में पानी भरा लोटा झुलाते बाप खेतों की ओर निकल गया।

ऐसा घामड़ बाप किसी को न मिले। उसने कपार पीट लिया।

ठाकुर ने कहा था - सबेरा होते ही अपनी बिरादरी के बड़े बुजुर्गों के दरवाजे जाना। पैर छूकर कहना, आशीर्वाद लेने आया हूँ। सिर पर हाथ रखिए तो खड़ा होऊँ नहीं तो चुपाई मार कर बैठ जाऊँ।

सबसे पहले मुरारी मास्टर को पटाना होगा। गाँव में बिरादरी के इकलौते मास्टर हैं। मीन-मेख निकालने में आगे।

मास्टर ने देखते ही पूछा - सबेरे-सबेरे कैसे राह भूल गए?

मास्टर चाचा, सुना है अपने गाँव की परधानी अपनी बिरादरी के लिए रिजर्व हो गई।

सिर्फ अपनी नहीं, किसी भी दलित बिरादरी के लिए।

तब आप खड़े होइए इस बार।

सरकारी नौकरी वाला नहीं खड़ा हो सकता जग्गू। मास्टर की आह निकली - नौकरी से इस्तीफा देना होगा।

ऐं। यह तो ठीक नहीं। इस्तीफा क्यों देंगे? लेकिन चांस आया है तो बिरादरी का कोई आदमी जरूर खड़ा होना चाहिए।

तो तुम्हीं खड़े हो जाओ।

मैं। जग्गू उनकी आँखों में झाँकने लगा - आप साथ देंगे?

अकेले मेरे साथ देने से क्या होगा? सारे गाँव का साथ चाहिए।

नहीं चाचा। आप अकेले एक तरफ। बाकी सारा गाँव एक तरफ।

खुशामद रंग लाई। मास्टर ढीले पड़े। बोले जाओ, 'पहले और लोगों का मन-मुँह तौलो। मैं तो घर का आदमी ठहरा।

मास्टरवा से इतना मिल गया यही बहुत है। अब यहाँ पल भर भी रुकना खतरे से खाली नहीं। क्या पता बात का रुख किधर मुड़ जाय। जग्गू ने लपक कर मास्टर के पैर छुए - जो आज्ञा! और उँगलियों को माथे से लगाते हुए चल पड़ा।

बिरादरी में सबसे बुजुर्ग पहाड़ी बाबा हैं। मँड़हे के एक कोने में झिलंगा खटिया पर पड़े-पड़े मौत के दिन गिन रहे हैं। लेकिन बिरादरी उनकी बात से बाहर नहीं हो सकती। जग्गू ने उनका पैर थोड़ा जोर लगा कर छुआ।

पहचानने की कोशिश करते हुए पूछा बूढ़े ने, के?

मैं हूँ बाबा। तुम्हारा भतीजा, जग्गू।

पहाड़ी ऊँचा सुनते हैं। जग्गू ने ऊँची आवाज में देर तक उन्हें पूरी बात बताई। बुढ़ऊ खुश हुए। पोपले मुँह में हँसी घोलकर कहा - तुम्हारे कंधे पर बैठ कर वोट देने चलूँगा।

टोले में चमकट बिरादरी के सात घर हैं। इतनी देर में पूरे टोले में बात फैल गई।

दसई के दुआरे तक पहुँचते-पहुँचते नौजवानों ने जग्गू को घेर लिया - फिर से पूरी बात बताओ भैया।

अपनी बिरादरी में परधानी की कुर्सी आए, इससे बढ़कर खुशी की बात क्या होगी? पासी, धोबी, खटिक, चमार की बिरादरी के परधान तो आस पास बहुत सुने गए हैं लेकिन अपनी बिरादरी का? एक भी नहीं। हम लोग तुम्हें जिताने के लिए रात दिन एक कर देंगे।

नौजवानों की खुशी देखते बन रही है।

लेकिन लड़ने में तो बहुत खर्च होगा। कैसे करोगे?

तीनों घेंटे बेंच दूँगा।

उतने से हो जाएगा?

ठाकुर ने कहा है कि वह भी कुछ मदद करेगा।

लेकिन उसको लौटाओगे कहाँ से?

जीतने के बाद सब वसूल हो जाएगा।

और कहीं हार गए तो?

अरे शुभ-शुभ बोलो भइया। आप सब लोग साथ देंगे तो हार कैसे जाएँगे? यह हम सभी के मान सम्मान की लड़ाई है।

सही बात। सही बात।

दरअसल ठाकुर भी पूरी ताकत लगाएगा। उसे पदारथ दुबे से अपनी पिछली हार का बदला लेना है। बीच में फायदा हम लोगों को मिल जाएगा।

सही बात! सही बात! पदारथ किसे खड़ा कर रहे हैं?

एक दो दिन में पता चल जाएगा। ...चलता हूँ...

ठाकुर ने कहा है - दोपहर तक दलित बस्ती को कवर करके शाम तक ब्राह्मणों, खासकर पदारथ के पट्टीदारों के दरवाजे पर पहुँचना है। कह रहा था कि जो पहले पहुँचता है उसका पहला हक बनता है। रात में जाकर बताना है कि किसने क्या कहा?

दोपहर ढल गई। होंठों पर पपड़ी पड़ गई। लेकिन भूख का कहीं नामोनिशान नहीं। जितने लोगों के पैर आज छूने पड़े उतने तो सारी जिंदगी में नहीं छुए होंगे। इसमें दूर से हाथ जोड़ कर ब्राह्मणों को की गई पैलगी शामिल कर लें तो यह संख्या दो सौ तक पहुँच जाएगी

घर पहुँचा तो दसबजिया पसिंजर आने का समय हो रहा था। दुआर पर अँधेरा और सन्नाटा था। मँड़हे में बप्पा की नाक बज रही थी। दरवाजे को धक्का देकर वह आँगन में पहुँचा। रसोई से ढिबरी के प्रकाश की पतली फाँक आँगन तक आ रही थी। लगता है, खवाई पियाई हो गई।

पत्नी रसोई से जूठे बर्तन लेकर निकल रही थी। पूछा - कहाँ थे दिन भर?

लाओ, क्या है? बाल्टी टेढ़ी करके हाथ धोते हुए वह बोला। बर्तन नाबदान के पास रखते हुए पत्नी ने बताया - थाली ड्योढ़ी के पास ढँकी रखी है

वह लोटे में पानी लेकर लौटी।

न कुल्ला न दातून। सबेरे के गए अब घर की सुध आई?

वह सिर झुकाकर खाने में जुट गया।

दिहाड़ी कमाने क्यों नहीं गए? सुअर दस बजे तक बाड़े में बंद घुर्र-घुर्र करते रह गए तो मैने बेटी को उन्हें चराने बजराने भेजा। बेटी कह रही थी कि बप्पा बभनौटी में हाथ जोड़े घूम रहे थे। ऐसी क्या गलती कर दिए कि बाभनों के आगे हाथ जोड़ने की जरूरत पड़ गई।

गलती नहीं, अपनी गरज से...

अपनी कौन सी गरज?

सारे गाँव में हल्ला हो गया और तुझे कुछ खबर ही नहीं? ...अरे, सहसा वह चौंका - अभी तो मुझे ठाकुर के घर जाना था।

क्यों?

अरे, काम से।

ठाकुर से क्या काम पड़ गया?

अरे भाई, जैसे पहले बप्पा ठाकुर का खेत जोतने जाते थे, बाद में ठाकुर अपने ट्रैक्टर से हम लोगों का खेत जोतने लगा। वैसे ही पहले वह परधान बनने के लिए हम लोगों के टोले में वोट माँगने आता था। अब मुझे बनना है तो उसके पास जाना होगा।

क्या अंड-बंड बोल रहे हो। कहीं से पी पाकर आए हो क्या? इधर आओ। तुम्हारा मुँह सूँघूँ।

अरे हट। मुँह में क्या रखा हैं? हाँ, चुम्मा लेने का मन हो तो साफ-साफ बोल। ...और दौड़ कर तेल गरम कर ला। मालिस करना होगा। पैर दर्द से फटे जा रहे हैं।

पत्नी बाहर जाने के लिए मुड़ भी न पाई थी कि उसने जूठे हाथ ही उसे अँकवार में भरा और लिए-दिए बगल की खटिया पर गिर पड़ा।

खटिया की पाटी टूटी - चर्र-ऽ-ऽ !

गाँव में जैसे भूडोल आ गया है।

आज भी यहाँ ऐसे लोग मिल जाएँगे जिन्होने जिला मुख्यालय का मुँह नहीं देखा। बस घर से खेत तक। बहुत हुआ तो बाजार तक चले गए । साल में एकाध मेला और एक दो बारात।

पिछड़ी या दलित औरतें तो सभा, जुलूस या मेले ठेले में चली भी जाती हैं, सवर्ण औरतों की बड़ी आबादी अभी भी गाँव से बाहर नहीं निकलती। मायके से विदा हुईं तो ससुराल में समा गईं। ससुराल से निकलती हैं तो सीधे श्मशान के लिए। देवी के थान पर लपसी, सोहारी चढ़ाने के लिए जाना ही उनकी तीर्थयात्रा या पिकनिक है। ऐसी एक बड़ी आबादी है जो आज भी जाति व्यवस्था को ब्रह्मा की लकीर मानती है। वह मानती है कि सवर्णों के गाँव में दलित को परधानी की कुर्सी पर बैठाना सवर्णों के सिर पर बैठाना हुआ। लोहिया तो समाजवाद नहीं ला पाए लेकिन आज की सरकारें लगता है ला के रहेंगी। किसी आदमी ने ऐसा किया होता तो उसका मूँड़ फोड़ देते। सरकारों का कोई क्या करे?

ठाकुर अपना दुख किससे कहें? असली रोब रुतबा तो जमींदारी के साथ ही चला गया था। रहा सहा परधानी के साथ चला गया। तीन बार उनके बाप प्रधान रहे। दो बार वे खुद थे। यह नाहरगढ़ गाँव उनके पुरखों का बसाया हुआ है। पुराना खंडहर हो चुका घर अभी भी गढ़ी कहलाता है। मास्टराइन राजगढ़ स्टेट की राजकुमारी हैं। किसी गैर की मौजूदगी में वे उन्हें हमेशा रानी साहब ही कह कर पुकारते हैं। पिछली हार से उन्हें इतना झटका लगा कि महीने भर चारपाई पकड़े रहे। सोचा था कि इस बार सीट निकालकर पिछली हार का बदला ले लेंगे तो इस आरक्षण ने सब मटियामेट कर दिया।

ट्यूबवेल घर के ओसारे में चारपाई पर बैठे-बैठे वे वोटरलिस्ट के पन्ने पलट रहे हैं। चारपाई के नीचे जातिवार और घरवार गणना कर-करके फेंके गए रद्दी कागजों का अंबार लग गया है।

उजाला होते ही आने के लिए कहा था जगुआ को। राह देखते-देखते आँखें पक गईं। अब दिखाई पड़ा है, पहर दिन चढ़े। मुँह से गाली न निकले तो क्या निकले!

जग्गू ने दोनों हाथ जोड़ कर, झुक कर सलाम किया।

अब तेरे आने का समय हुआ? इसी सहूर से परधानी करेगा?

क्या करें मालिक। सुअरों को बजराना जरूरी था। बेटी को बुखार है। और कोई है नहीं।

यह पकड़ कागज कलम और लिख।

जग्गू चारपाई के सामने जमीन पर उकड़ू बैठ कर लिखने लगा।

जो काम तहसील और ब्लाक से करवाना है उसे ठीक से नोट कर ले। नंबर एक, जाति प्रमाण पत्र बनवाना। आगे लिख - तहसील में बनेगा। फार्म भर कर जमा करना होगा। पचीस रुपए फीस जमा होगी। पक्की रसीद ले लेना। फोटो भी लगेगा। सौ रुपए अलग खर्च होगा।

ठीक।

ठीक नहीं। एक-एक प्वाइंट नोट कर ले नहीं तो वहाँ एक का तीन लेने वाले घात लगाए बैठे हैं।

फोटो पहले लगेगा कि जिस दिन प्रमाण-पत्र लेने जाएँगे?

पहले बे। खिंचा कर साथ ले जाना।

जग्गू घुटने पर कागज रख कर जल्दी-जल्दी घसीट रहा है। लिखने की आदत कब की छूट गई। पढ़ना तो चाय की दुकान पर अखबार के साथ कभी-कभी हो जाता है।

नंबर दो लिख, नो ड्यूज सर्टीफिकेट बनवाना। आगे लिख - दो जगह से बनेगा। ब्रेकट में लिख, क - उसके आगे लिख, पंचायत सेक्रेटरी बनाएगा। सौ रुपया लेगा। फिर नई लाइन से ब्रेकेट में लिख, ख - अमीन की रिपोर्ट पर नायब तहसीलदार की दस्कत से जारी होगा। खर्चा दौ सौ।

रेजर्ब की खबर आते ही उन्होंने अंदाजा लगा लिया था कि पदारथ मुंदर धोबी को खड़ा करेंगे। उससे जम कर पैसा खर्च कराएँगे। उसका बड़ा बेटा सउदिया कमा रहा है। पाँच साल में रुपए का पहाड़ खड़ा कर दिया है। खुद छोटे बेटे और बहू के साथ बाजार में लांड्री चलाता है। जितना चाहे खर्च करे। लेकिन धोबियों के वोट हैं कितने? तीन घर तेरह वोट। उन्होंने डायरी के पन्ने पर विपक्ष वाले कालम में लिखा - धोबी, तीन घर तेरह वोट। खास अपने पट्टीदार ठाकुर भी उनके कहने से जग्गू को वोट दे देंगे, इसमें संदेह है। उनके पिता कहते थे - बनिया तो एक जुट रहते ही हैं। ब्राह्मण भी जाति के नाम पर एकमत हो जाएँगे। लेकिन ठाकुर अगर गाँव में दो घर हैं तो भी दो गुट बना लेंगे। इस तरह ठाकुरों के साठ वोट में चालीस की उम्मीद कर सकते हैं। उन्होंने पक्ष वाले कालम में लिखा - ठाकुर चालीस वोट।

बस। इंतजार करता जग्गू पूछता है।

अबे, बस कैसे? अगला नंबर डाल। शपथ-पत्र बनवाना कि मेरे खिलाफ कोई मुकदमा कोई एफआईआर नहीं है।

इसी में आगे लिख, न कभी सजा हुई है न दिवाला निकला है।

मुंशी गरीब नेवाज किसी के खेत से एक गोभी और तीन चार मूलियाँ लेकर सामने चकरोड से गुजर रहे थे। ठाकुर की बात सुनकर रुक गए। हँसते हुए पूछा - किसका दिवाला निकलवा रहे हैं राजन?

आइए मुंशी जी, आइए। अपना जगुआ है। इस बार इसी को खड़ा कर रहे हैं परधानी के लिए। उसी के लिए एफिडेविट का मसौदा लिखवा रहे हैं। अभी तक आपके पास आशीर्वाद लेने नहीं पहुँचा? उठ बे...। मुंशी जी के पैर तो छू।

पैर छूते हुए जग्गू ने सफाई दी - गया था। चाची मिली थीं। मुंशी चाचा तब तक कचेहरी से नहीं लौटे थे।

कोई बात नहीं राजन। मुंशी जी जाते-जाते बोले - जहाँ आप हैं वहीं हम हैं और वहीं विजय है।

ठाकुर दूर तक मुंशी को जाते देखता रहा फिर जग्गू को सावधान किया - इस मुंशिया के आगे-पीछे घूमते रहना लेकिन अपना भेद हरगिज मत देना। फौरन पदारथ के पास पहुँचाएगा... आगे लिख, शपथ-पत्र का खर्च दौ सौ रुपए।

बनिया पार्टी का भेद मिलना तो मुश्किल है। अंत तक पता नहीं चल सकता कि किसको देंगे। हाँ, मुसलमानों के सत्रह घर अपनी तरफ आ जाएँगे, बशर्ते उन्हें कायदे से याद दिला दिया जाय कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय पदारथ महीने भर तक उस मुँड़खोल्ली सधुआइन का हाहाकारी कैसेट गाँव के शिवाले पर बजवाए थे। पिछली बार मुस्लिम टोले से बरकत मौलवी न खड़ा होता तो वे किसी हालत में न हारते। पूरे के पूरे एक सौ आठ वोट बरकत ने काट लिए जो मेरी झोली में गिरने वाले थे। यह तो साल भर बाद पता चला कि खुद पदारथ ने दस हजार देकर खड़ा किया था बरकत को।

तो अब चलता हूँ। ठाकुर को कागजों में खोया देख जग्गू कहता है।

अरे काहे की हड़बड़ी है?

दिहाड़ी कमाने जाना है।

दिहाड़ी कमाने जाएगा कि ए कागज पत्तर दुरुस्त कराएगा?

दो चार दिन और कमा लूँ। आखिर कागज पत्तर बनवाने का खर्च कहाँ से आएगा?

अब कमाने की नहीं खर्च करने की सोच। अभी से रात-दिन एक करना पड़ेगा। घेंटे बिके कि नहीं?

अभी कहाँ? दाम ही नहीं चढ़ा कायदे का।

अच्छा दो चीजें और नोट कर ले। पर्चा खरीदने का खर्चा सौ रुपए और रेजर्व की सिक्यूरिटी मनी पाँच सौ रुपए।

उन्होंने पक्ष वाले कालम में लिखा - मुसलमान 108 वोट। फिर 108 को काटकर 100 कर दिया।

अब हाथ पिराने लगा। दाएँ हाथ की उँगलियों को बाएँ पंजे में दबाते हुए जग्गू बोला।

अबे चुप। ठाकुर ने डपट दिया - चार अच्छर लिखने में पिराने लगा?

ब्लाक आफिस पर मेला जैसा लगा है।

दाखिल पर्चों की जाँच चल रही है। जिसके घर पर साबुत फूस का छप्पर और पैरों में चप्पल तक नहीं है वह भी परधानी का सपना देख रहा है। पाँच जातियो में बँटे चालीस घर दलितों के बीच से जग्गू को जोड़ कर तेरह उम्मीदवारों ने पर्चा भरा है।

प्रमाण-पत्र, शपथ-पत्र वगैरह बनवाने के लिए हफ्ते भर की भागदौड़ से ही जग्गू की हिम्मत पस्त हो गई। सबेरे निकल कर दस ग्यारह बजे रात तक लौटना। तहसील के लिए एक ही बस। ब्लाक के लिए वह भी नहीं। सरकारी अमले से पहली बार पाला पड़ा था। पास के डेढ़-दो हजार कब फुर्र से उड़ गए, पता ही नहीं चला। हार कर उसने ठाकुर के आगे सरेंडर कर दिया - मेरे मान का नहीं।

तब ठाकुर ने मोटर सायकिल सहित अपने मैनेजर राम सिंह को साथ लगाया। कागजात बनवाना, पर्चा दाखिल कराना। पर्चा दाखिले में ठाकुर खुद अपने चालीस-बयालीस लोगों के साथ शामिल हुआ। तीन बुलेरो, दस मोटर साइकिल। गाँव के कई मानिंद लोग। हर बिरादरी के। जग्गू के आगे मुंदर का जुलूस फीका पड़ गया।

दो दिन से राम सिंह उसके साथ ब्लाक पर डटा है। ठाकुर ने कहा है - ब्लाक से हटना नहीं है, जब तक पर्चा पास न हो जाय। कोई लफड़ा हो तो फौरन मेरे मोबाइल पर रिंग करो।

बैठे-बैठे झपकी आने लगी तो जग्गू ने राम सिंह को आवाज दी - मनीजर साहेब, आओ चाय पी लें।

राम सिंह नीम के पेड़ के नीचे मोटर साइकिल की हैंडिल से सीट के पिछले हिस्से तक लंबा होकर लेटा है। दुबारा आवाज देने पर वह चाभी का छल्ला उँगली में घुमाता जम्हाई लेता आता है। जग्गू उसके बैठने के लिए अपने अँगोछे से बेंच की धूल झाड़ता है।

रामू को अब सभी राम सिंह कह कर बुलाते हैं। ठाकुर खुद राम सिंह कहते हैं। ठाकुर की बाग में लगने वाली बरदाही बाजार की तहबाजारी की वसूली उसी के जिम्मे है। हर हफ्ते हजार बारह सौ वसूल कर देता है। कहता है - बैलों की आमद कम न हुई होती तो ठाकुर के घर में रुपए रखने की जगह न बचती। ठाकुर को धक्का लगा है तो दोनों बेटों से। बड़ा वाला तो चलो इंजीनियर बन गया। विदेश में नौकरी लग गई। जापानी लड़की से ब्याह कर लिया इसलिए गाँव छोड़ गया। छोटा वाला तो चीनी मिल में 'मेट' लगा है फिर भी बीबी बच्चों को लेकर चला गया। बताइए भला, जो मजा गाँव में 'राजा' की तरह रहने में है वह कभी बाहर मिल सकता है। लेकिन कौन समझाए? बड़े ने इतना तो अच्छा किया कि जापान में भी अपनी ही बिरादरी में शादी किया। समुराई वहाँ के क्षत्री होते हैं।

अब राम सिंह ही उनका हाथ पैर है।

राम सिंह ठाकुर की ससुराल का आदमी है। पाँच छः साल पहले आया तो देंह बाँस की कच्ची कइन की तरह लचकती थी। और अब देखिए। ऐंठ कर चलने, घुड़क कर बोलने, बैल जैसी बड़ी-बड़ी आँखें और दाढ़ी मूँछ भरे चेहरे को देख कर लगता है जैसे सचमुच ठाकुर का बच्चा हो।

वह तो मैं हूँ ही। राम सिंह कहता है - मेरी जाति के साथ तो ठाकुर जमाने से लगा है।

जग्गू को राम सिंह का सब कुछ अच्छा लगता है। उसका चलना-फिरना, उठना-बैठना, घूरना, अकड़ना। वह भी चाहता है कि राम सिंह की तरह अकड़ कर चले। घुड़क कर बोले। लेकिन इस गाँव में रहते हुए यह कब संभव होगा? उसे तो अपना नाम भी पसंद नहीं। जगत नारायण तो फिर भी ठीक था लेकिन लोगों ने उसे भी काट कर बाँड़ा कर डाला - जग्गू। परधानी मिल जाय, हीरो होंडा मिल जाय और नाम बदल जाय, या एक कायदे का 'सरनेम' मिल जाय... जिससे थोड़ा रूआब झरे। 'टाइगर' कैसा रहेगा?

दो दिन से उसे राम सिंह के नजदीक आने का मौका मिला है। कल भी उसे दो चाय पिलाई। आज भी यह दूसरी है। अगर यह मोटर साइकिल सिखाने को राजी हो जाय... लेकिन राम सिंह उससे दूरी बनाए हुए है।

जग्गू चाय का कप खुद राम सिंह के हाथों में पकड़ाता है। फिर बातचीत जारी रखने के लिए कहता है - बेकार ही यहाँ दो दिन से पड़े हैं। जब पर्चा सही-सही भर दिया है तो खारिज कैसे कर देंगे?

सब कुछ हो सकता है। पदारथ कितना जालिया है, तुम्हें क्या पता? मैं नहीं होता तो वह कब का ठाकुर की बर्दहिया बाजार पर जिला परिषद का कब्जा करा देता। अभी तुम्हारे पर्चे में बाप के नाम पर एक बूँद स्याही गिर जाय तो वह टंटा खड़ा कर देगा कि तुम्हारे बाप का नाम बदलू राम नहीं बदलू पांडे है। तुम्हारा जाति प्रमाण-पत्र फर्जी है। गए बेटा काम से। जेल जाने की नौबत अलग।

बाप रे! लगा, सचमुच जेल जाने की नौबत आ गई है। नमकीन की प्लेट आगे बढ़ाते हुए उसका हाथ काँप गया।

वह बात बदलने के लिए पूछता है - अच्छा मनीजर साहेब...

अब जरा कायदे से बोलना सीख। मनीजर नहीं मैनेजर बोल।

हाँ, हाँ, मैनेजर साहेब। वह थोड़ा रुकता है - अच्छा मैनेजर साहेब, मोटर सायकिल चलाना कितने दिनों में सीख सकते हैं?

एक घंटे में। राम सिंह उसके चेहरे की ओर देखकर मुस्कराता है। फिर चाभी का छल्ला उसकी ओर बढ़ाते हुए कहता है - ले, चल उतार स्टैंड से।

इसको कहते हैं - लक! लक्क!

सचमुच फुलझरिया की 'लक्क' तेज है। सबसे कैचिंग सिंबल उसे ही मिला - खुला हुआ छाता।

ठाकुर कहते हैं - ऐसा सिंबल जो अंधे को भी अँधेरे में दिख जाय। फिर आह भर कर कहते हैं - हमारी ही किस्मत गाँड़ू निकली। घंटी भी कोई सिंबल है। इससे तो अच्छा था, बिगुल बजाता सिपाही या धान ओसाता किसान मिल जाता।

घंटी तो सबसे शुभ है। पूजा के काम आती है। जग्गू कहता है।

अबे! शुभ से क्या मतलब? जरूरत है पहचानने की। गाँव की औरतें घंटी को भंटा-बैगन समझ लेंगी।

ससुराल की परित्यक्ता फुलझरिया। उसके मायके में शरण लेने पर किसी को क्या एतराज? गाँव में एक सस्ता मजदूर बढ़ा। खुशी की बात। वोटर लिस्ट में नाम चढ़ गया। बीपीएल कार्ड बन गया। खुद पदारथ ने बनवा दिया। यह भी ठीक। लेकिन एक दिन परधानी लड़ जाएगी, किसने सोचा था। जीते भले न, अपनी बिरादरी के पचीस-तीस वोट तो काट ही लेगी। पदारथ का मानना है कि उसे ठाकुर ने खड़े होने के लिए उकसाया। ठाकुर इसे पदारथ का काम मान रहे हैं। पर्चा दाखिले के समय भी भेद नहीं खुला। न कोई भीड़ न जुलूस। भाई-भतीजे साइकिल से जाकर पर्चा दाखिल करा लाए। जाँच में पाँच पर्चे खारिज हुए लेकिन फुलझरिया उसमें भी पास हो गई।

ठाकुर को सबसे ज्यादा निराशा मुंदर को 'हत्थेदार कुर्सी' मिलने से हुई है। बाकी में से तीन कैडिंडेट तो ऐसे हैं कि दो जोड़ी कुर्ता पजामा के साथ हजार रुपए भी पकड़ा दो तो आपके पीछे-पीछे घूमने लगेंगे। माटी के मोल बिकने को तैयार। इंतजार में रहेंगे कि कोई आकर खरीद ले तो सुर्ती-तमाखू का खर्च निकल आए।

अब पहला काम है, प्रचार के लिए पर्चा छपवाना। एक कागज हाथ में लेकर ठाकुर जग्गू को समझा रहे हैं। इधर बाईं तरफ हाथ जोड़े तुम्हारी फोटो। दाईं तरफ घंटी का फोटो। मजमून अभी बैठ कर बना लेंगे। तुम जाकर पता करो, मुंदर का पर्चा छपकर आ गया हो तो ले आओ। उसी की टक्कर का छपवाना होगा। घेंटे बिके कि नहीं?

दो बिक गए। आज पैसा देकर ले जाएगा।

गुड्ड! एक काम और करो। रजिस्टर में उन लोगों की लिस्ट बना लो जो परदेस में रह रहे हैं। उन सबको चिट्ठी लिखो कि बाइस तारीख को वोट पड़ेगा। आप के भरोसे ही खड़े हुए हैं। चिठ्ठी पाते ही चले आवैं। चिठ्ठी को तार समझें।

सबको?

बिल्कुल। जिसका वोट मिलने की उम्मीद न हो उनको भी। भाई, हम अपनी ओर से क्यों मान लें कि कोई हमें वोट नहीं देगा। ...यह भी लिखो कि आने जाने का किराया मेरे जिम्मे रहेगा।

और सुनो। अपनी राइटिंग में मत लिखना। किसी बच्चे से लिखवा दो।

क्यों?

क्योंकि तुम्हारी राइटिंग में रहेगी तो वही चिट्ठी मतदाताओं को लालच देने का सबूत हो जाएगी।

तो फोन क्यों न कर दूँ। जग्गू ने जेब से मोबाइल सेट निकाल कर दिखाया - कल ही खरीदा है।

वेरी गुड्ड! ठाकुर की आँखें खुशी से फैल गईं। देखें। ठाकुर ने हाथ बढ़ाकर मोबाइल ले लिया।

अरे, फोटो भी खींचता है? वेरी गुड्ड! लेकिन अपने सिम से फोन न करना पीसीओ से करना। कदम-कदम पर सावधान रहना होगा।

घर लौटते हुए सिर हिला-हिला कर सोच रहा है जग्गू - सचमुच अकल की रोटी खाते हैं ए ठाकुर बाभन। कितनी दूर तक सोचते हैं। इनसे पार पाना कठिन है। उसे यह देख कर बड़ी राहत महसूस हुई कि आज उसे 'इज्जत' के साथ बुला रहा था ठाकुर - लिखो, सुनो, बैठो, देखो। पहले की तरह - लिख, सुन, बैठ, देख नहीं। शुरू में एक बार 'अबे' बोला था, बस।

अरे साहेब, अरे साहेब। हम तो हुकुम के ताबेदार हैं साहेब। मुंदर अकेले निकला है प्रचार के लिए। शुरुआत ठाकुर टोले से। वह चंद्रिका सिंह को सामने पा कर हाथ जोड़ता है - कई पीढ़ी से आपकी मैल धोते आए हैं साहेब। इस बार मन में मैल न रखिए। जो भी करेंगे, आप की मरजी से करेंगे।

हाथ जोड़ने के तुरंत बाद हाथ मलने की आदत है मुंदर की। जैसे साबुन लगाने के बाद नल के नीचे धो रहा हो।

लंबे काले अधेड़ शरीर पर सफेद धोती कुर्ता। कुर्ते के ऊपर काली जवाहर जाकिट। बड़ा सा सफेद साफा। पैरों में काले पंप शू। खिचड़ी लंबी मूंछों के ऊपर माथे पर लाल रोली का लंबा टीका। बोलते समय तंबाकू से काले चितकबरे लंबे-लंबे पाँच-छः दाँत झलक जाते हैं।

यही कुर्सी निशान मिला है बाबू साहेब। बह जेब से पर्चा निकाल कर दिखाता है।

चंद्रिका सिंह बैलों की सरिया से गोबर बटोर कर हाथ में फरुही का डंडा पकड़े, घुटने तक लुंगी मोड़े निकल रहे थे। मुंदर की धजा देखकर मंद-मंद मुस्कराते हैं - ससुरा पूरा एमेले लग रहा है। ...पदारथ चुप्पे और जबान से मिठबोले थे। यही उनकी असली ताकत थी। दुश्मन भी सामने पड़ने पर बगुला भगत का चोला देख ठंडा पड़ जाता था। लेकिन यह तो लगता है पदारथ का भी कान काटेगा?

चंद्रिका सिंह की बूढ़ी माँ पीपल के पेड़ पर जल चढ़ा रही हैं। वह झुक कर हाथ जोड़ता है - ए बड़की माई। आसिरबाद चाही। देखा, इहै कुर्सी निशान मिला है। इही पे हमें बैठावे क है।

ई तो कुर्सी की छापी है बरेठा। इस पे कैसे बैठोगे?

मतलब इसी पे मोहर लगाकर जिताओगी तब न असली कुर्सी मिलेगी।

बरेठा। झुकी कमर के चलते बूढ़ी को सिर ज्यादा उठाना पड़ रहा हैं। पोपले मुँह से मुस्कराती हुई वे कहती हैं - तुम्हें तो असली कुर्सी मिलेगी औ हमें कागज की दिखा रहे हो। असली कहाँ है?

मुंदर उनका पोपला मुँह देखता रह जाता है।

मुंदर का बेटा बनिया टोले से शुरुआत करता है, बुलेट से - भड़ भड़ भड़ भड़! पर्चा डिग्गी में भर लिया है। लेई की हांडी उसकी लांड्री के हेल्पर लड़के के कंधे से टँगी है। पर्चा चिपकाने का काम भी साथ-साथ।

कुर्सी तो सरकार ने हमें पहले ही सौंप दिया महाजन, कुर्सी निशान देकर। अब इस पर आप लोगों की मुहर लगने भर की देर हैं... घंटी नहीं, सरकार ने जग्गू को बाबा जी का घंटा थमा दिया। मतलब? गए बेटा कुकरी के सिरका में।

जग्गू का सिरी गणेश ब्राहमण टोले से हो रहा है। सबसे आगे चित्ती कोड़ियों और छोटी-छोटी घंटियों की माला पहने लंबी सींगों और कजरारी आँखों वाला नंदी। उसके बगल में नंदी का पगहा पकड़े गेरुआ लबादे वाला जटाधारी गोसाईं। बड़ी सी घंटी टुनटुनाता हुआ।

ठाकुर ने दो सौ रुपए में बुक किया है। प्रचार की शुरुआत शंकर जी के वाहन से। नंदी के पीछे कमर में घंटियों की माला पहन कर नाचते हुए टोले के दो बूढ़े - लंगड़ और बिदेसी। इनको कवर करके मृदंग बजाता बबलू। फिर शोर मचाते, धूल उड़ाते, नाक चुआते नंगे-अधनंगे बच्चों का रेला। सबसे पीछे हाथ जोड़े जग्गू और उसकी पत्नी। प्रचार के लिए निकलने में लजा रही पत्नी को सबेरे-सबेरे मिर्ची जैसी गालियों की सौगात दिया उसने।

विधवा पेंशन, बुढ़ापा पेंशन चाहिए। राशन कार्ड, जाब कार्ड चाहिए। हर मर्ज की एक दवा - घंटी। दादी, काकी, भइया, भौजी... घंटी।

औरतें नंदी को रोटी खिलाती हैं। गोद के बच्चे का माथा नंदी के गूदड़ पर टेकती हैं।

जग्गू को लग रहा है कि अभी उसके मुँह से बात की धार नहीं फूट रही। जिस तरह शहर के कचेहरी गेट पर साँडे का तेल बेचने वाला मजमेबाज बोलता है...। अपना चेहरा भी उसे भकुआया सा लग रहा है - भावशून्य। मुस्कराहट का नाम नहीं। ऐसा ही चेहरा देखा था उसने फूलन का। जब वह भदोही में पहली बार अपना चुनाव प्रचार करने निकली थी। आज की रात वह हँसने, लपक कर मिलने और धुआँधार बोलने का अभ्यास करेगा - भाइयो और बहनो...

फुलझारी देवी अपनी दोनों भाभियों और तीन भतीजियों के साथ काला छाता लगाकर प्रचार के लिए निकली हैं। कहती हैं - पूत न भतार। बेटी न बेटा। मैं किसके लिए लूट मचाऊँगी। भगवान ने अकेला किया है तो कुछ सोच कर किया है। 'पबलिक' की सेवा के लिए। सारा गाँव मेरा भाई-बाप है।

यादव टोले की किसी दुलहिन ने पूछा - जीत गई तो परधानी कैसे करोगी बुआ? कुर्सी पर बैठ कर करेंगे दुलहिन। सीना ठोक कर करेंगे। सीने पर मुक्का मार कर बुआ ने बताया - मेरे जीते जी गाँव का हिस्सा हाकिम लोग खा कर दिखावें जरा! पेट में हाथ डालकर निकाल लाऊँगी।

सब हँसती हैं।

उसका भाषण सुनने के लिए औरतों की भीड़ लग जाती है।

हिम्मत वाली हैं। जीत गई तो बड़े-बड़ों की बोलती बंद कर देगी।

ठाकुर अपने ट्यूबबेल घर में जग्गू के साथ बैठ पिछले पाँच दिन में हुए भंडारे के खर्च का हिसाब जोड़ रहे हैं।

मुंदर ने एक हफ्ते पहले तंबू कनात लगवा कर भंडारा शुरू करवा दिया। बाजार का प्रभुदयाल हलवाई अपने तीन शागिर्दों के साथ तहमत लपेटकर जुट गया है। सबेरे नास्ते में चने की घुघुनी, समोसा और हलवा। खाने में मांसाहारी और शाकाहारी दोनों के अलग तंबू और अलग भंडारी। शाम को अँधेरा होते ही पीने पिलाने का दौर। चाय तो किसी गिनती में ही नहीं है। जब चाहो, जितनी चाहो।

लोग पूछने लगे - तुम्हारा भंडारा कब से शुरू हो रहा है जग्गू? ठाकुर से सलाह मशविरे के बाद तीसरे दिन से जग्गू का टेंट भी ठाकुर टोले और यादव टोले के बीच गड़ गया। प्रभुदयाल का भाई शिवदयाल छन्ना कढ़ाई लेकर हाजिर हो गया।

मुंदर और जग्गू अपने-अपने भंडारे का इंतजाम तंबू के बाहर रह कर ही कर रहे हैं। बारहों बरन का भंडारा है। चूल्हे चौके में अभी भी सोलहवीं शताब्दी चल रही है। अंदर घुसने से छुआछूत का सवाल खड़ा हो सकता है। ऐसे नाजुक मौके पर रिस्क लेना...

ठाकुर को लगा कि गाँव के मातबर लोगों, खासकर सवर्णों के लिए कुछ खास करना पड़ेगा। सब लोग गाँव में खुले आम दारू नहीं पी सकते। पत्नी या जवान बेटे से झगड़े का डर है। छोटे बड़े का भेद भुला कर एक ही पंगत में बैठने से भी इज्जत घटेगी। इसलिए ऐसे लोगों का इंतजाम ठाकुर के ट्यूबवेल घर पर। मुर्गा और बकरा।

लेकिन दोनों जगह मिलाकर खर्च बहुत आ रहा है। कितनी-कितनी किस्में है दारू की। महुआ, ठर्रा, बसंती, सौंफी, मसालेदार, लाल परी। जितने पीने वाले उतनी किस्में। जिन लड़कों की अभी ठीक से मूँछें भी नहीं निकली वे भी गिलास पकड़कर बैठ जाते हैं। जग्गू के भंडारे से धुत हो कर निकले तो गिरते पड़ते मुंदर के तंबू में पहुँच गए। जिन लड़कों का वोटर लिस्ट में नाम नहीं है वे भी... जिन्होंने जिंदगी में कभी नहीं पी, वे भी कहते हैं - भालू चाहिए। भालू माने बीयर। भालू की गिनती दारू में नहीं। प्रचारित हो गया है कि भालू जाड़े में गठिया से जाम पैरों की जकड़न ढीली करता है। फिर तो यह दवाई हुई। दीजिए न एक बोतल। अपने बाबा को पिलाते हैं।

डबल क्रास। दोनों तरफ से।

अभी तक तीन लोगों ने अपनी खास ब्रांड की फरमाइस की है। मलेटरी से रिटायर सूबेदार अनोखी सिंह को थ्री एक्स चाहिए। घर ले जाएँगे। गरम पानी के साथ रोज शाम को थोड़ा-थोड़ा लेंगे। इंटर कालेज में पढ़ाने वाले दोनों टीचर - भवानी बकस सिंह एमए, बीएड और डॉ. बिकरमा पांड़े को अपने ब्रांड की व्हिस्की चाहिए। टीचर हैं, तो टीचर व्हिस्की।

महँगी तो है, नो डाउट। विकरमा मुँह के पान की गड़गड़ाहट सँभालते हुए कहते हैं - लेकिन हमारा वोट भी कम कीमती नहीं है। पीएचडी का वोट है।

'टीचर्स' की कीमत सुनकर पस्त हो रहे जग्गू को दिलासा देता है ठाकुर - ठीक है। ठीक है। जो मुँह खोलकर माँग रहा है, समझो वह झंडे के नीचे आ गया।

कुल आठ-दस हजार रोज का खर्च बैठ रहा है। राशन वाले के उधार की नौबत आ गई है। शराब तो ठेकेदार उधार देगा नहीं।

खर्चा तो होगा। क्या कर सकते हैं?

लेकिन आएगा कहाँ से? घेंटों का पैसा तो फुर्र हो गया।

इसी का रास्ता खोजने तो बैठे हैं...

तभी राम सिंह आकर बताता है - मुंदर तो गाँव भर में कुर्सी बाँट रहा है।

क्या? दोनों के मुँह से एक साथ निकलता है।

हाँ, मुंदर का बेटा और दोनों पोते हर घर को एक-एक कुर्सी दे रहे हैं। रिक्शे पर लादकर निकले हैं। लाल रंग की फाइबर की हत्थेदार कुर्सियाँ।

सबसे पहले मुंदर ने चंद्रिका सिंह के दुआर पर जाकर आवाज लगाई - बड़की माई। आ गई आपके हिस्से की असली कुर्सी। उस दिन आपने कहा था... बाहर आइए। अपने हाथों से आपको विराजमान करेंगे।

आवाज सुनकर बड़की माई के साथ-साथ घर की बहुए बेटियाँ भी निकल आईं।

मुंदर का बेटा अपने अँगोछे से कुर्सी की धूल झाड़ता है। फिर घर के मुखिया को उस पर बैठा कर पैर छूता है - दिल खोलकर आशीर्वाद दीजिए।

ठाकुर हिसाब लगाकर देखते हैं। एक कुर्सी डेढ़-दो सौ से कम की नहीं होगी। तीन सौ कुर्सियाँ। यानी पचास साठ हजार रुपए एक ही झटके में लुटा रहा है हरामजादा।

इतनी गर्मी होती है सउदिया के पैसे में?

नहीं रे यह मनरेगा का पैसा होगा। पर्दे के पीछे पदारथ।

खेतों की ओर जा रहे मुंशी को सबेरे-सबेरे अपनी ट्यूबवेल के सामने रोका ठाकुर ने - आज हमारे खेत की गोभी खाकर देखिए मुंशी जी।

मुंशी जी ट्यूबवेल की ओर मुड़ गए।

कैसा माहौल है? कुछ पता चल रहा है।

आपका अकबाल बुलंद है।

आप भी जोर लगा दीजिए मुंशी जी। बहुत खर्चा हो रहा है। कुर्सी हाथ से गई तो समझो हार्टअटैक हो जाएगा।

हाँ, सुना सारा खर्च आप ही उठा रहे हैं।

सारा तो नहीं लेकिन लाख-डेढ़ लाख तो हो ही जाएगा

तो इसकी वापसी कैसे होगी राजन?

परधानी हाथ में आ जाय तो वापसी की चिंता नहीं रहेगी।

वह तो ठीक है लेकिन छोटी जाति का कौन विश्वास। जीतने के बाद हाथ से बेहाथ हो जाय। हरामजदगी पर उतर आवै तो? वक्त बदलने के साथ बड़े बड़ों की आँख का पानी बदलते देखा है। इसको भस्मासुर बनते कितनी देर लगेगी?

यह मुंशिया मुझे डराना चाहता है क्या? वे दहाड़े - क्या बात कर रहे हैं मुंशीजी। साले को खोदकर पोरसा भर नीचे नहीं गाड़ देंगे। भस्मासुर बनेगा तो भस्मासुर की मौत मरेगा।

न न न! यह तो अपने हाथ से अपने गले में फंदा कसना हो गया राजन!

इसकी नौबत क्यों आए?

ठाकुर सोच नहीं पाते कि क्या बोलें? इस मुंशिया की असली मंसा क्या है?

मुंशी जी थोड़ा पास आ गए। आवाज फुसफुसाहट में बदल गई - मैं कहता हूँ, रिस्क क्यों लेते हैं? रिस्क तो व्यापारी लेता है, जुआरी लेता है।

अब तो ले चुके। वह रास्ता तो बंद हो चुका।

कोई रास्ता कभी बंद नहीं होता। एक बंद होता है तो दस खुलते हैं। मैं कहता हूँ रिस्क उसके गले में डालिए जिसे कुर्सी मिलनी है।

मतलब?

मतलब, वह जो जगुआ की बाजार वाली जमीन है, जिस पर झोपड़ी डाल कर उसका बाप जूता पालिस करता है, उसका बैनामा करा लीजिए। या रेहन ही लिखवा लीजिए। फिर वही पैसा उसके मुँह पर मार कर उसी के हाथों जहाँ चाहें वहाँ, खर्च कराइए। जमीन नहीं सोना है। ...फिर जीतिए चाहे हारिए। भस्मासुर बने या हरिनाकश्यप। कुछ दाँव पर नहीं रहेगा।

ओ! ठाकुर का मुँह खुला का खुला रहा गया। क्या खोपड़ी है इस मुंशिया की। पूरा विषखोपड़ा है। भला और किसी के दिमाग में आ सकती थी यह बात। वह मुंशी की बाँह पकड़ कर अंदर ले जाता है - बैठिए। अब तो चाय पिलाने के बाद ही जाने देंगे। ...ए राम सिंह। दौड़कर दो कप चाय लाओ। मटर की घुघुनी भी।

आपने बहुत सही राह सुझाई चाचा। इसी से पता चल जाता है कि आप हमें कितना 'अपना' समझते हैं। ...लेकिन एक बात समझ में नहीं आती। उस समय मेरे बाप जिंदा थे। आप भी थे। आप लोगों के रहते ऐसी प्राइम लोकेशन पर इस ससुरे को चक कैसे मिल गया? आप लोग क्या करते रहे?

था एक दढ़ियल बकचोद एसीओ साला। बाजार में क्वाटर लेकर अकेले रहता था। सो गई होगी जगुआ की अम्मा दो चार रात उसके पास जाकर। तब कितना चमकती थी।

मटर की घुघुनी खिलाने और चाय पिलाने के बाद अपने हाथ से सुपारी काट कर खिलाते हैं ठाकुर फिर राम सिंह से कहते हैं - जाकर यह सब्जी का झोला मुंशीजी के घर तक पहुँचा आओ।

मुंशीजी को याद है - ठाकुर का चक मौके की जमीन पर बैठाने के लिए ही तो जगुआ के बाप को वहाँ से बेदखल करके सड़क के किनारे गड्ढे में फेंका गया था। आज वही गड्ढा कीमती हो गया तो इसको काँटे की तरह गड़ रहा है।

ठाकुर की नजर जाते हुए मुंशी की पीठ पर है। उन्हें तो मालूम ही था कि आरक्षण के चक्रीय क्रम में देर सबेर इस गाँव की परधानी सिड्यूल कास्ट के खाते में जानी है। इसीलिए उन्होंने साल भर पहले ही राम सिंह का सिड्यूल कास्ट का सर्टीफिकेट बनवा लिया था। पता नहीं कहाँ गड़बड़ी हुई कि फाइनल वोटर लिस्ट से उसका नाम ही गायब हो गया। वरना एक बार राम सिंह को जिता पाते तो दस साल कोर्ट को यह तय करने में लग जाता कि वह असली सिड्यूल कास्ट है या फर्जी। जग्गू पर दाँव लगाने की जरूरत ही न पड़ती। जग्गू तो मजबूरी की पसंद है।

ट्यूबवेल घर का दरवाजा बंद करके आग तापते दोनों लोग अंदर चिंतित बैठे हैं। ठाकुर की समझ में नहीं आ रहा है कि जग्गू से जमीन बेचने की बात कैसे शुरू करें। वे पहले खाँसते हैं, खखारते हैं फिर कहते हैं -

अभी कुर्सी बाँटे हफ्ते भर ही हुए हैं कि सुनते हैं अब साड़ी बाँटने वाला है। कितना पैसा कमाता है इसका बेटा। मुकाबले में खड़े होकर फँस गए। अब तो लगता है बेइज्जत हो कर रहेंगे।

जीतेंगे तो हमीं मालिक।

लेकिन जीत तक पहुँचेगे कैसे? पर्चा दाखिले से लेकर हफ्ते भर के भंडारे तक साठ सत्तर हजार गल गए। हाथ एक दम खाली हो गया। उसने कुर्सी बाँटा है तो कुछ न कुछ तो हम लोगों को भी बाँटना होगा - साड़ी या कंबल। भंडारा चलाना ही पड़ेगा। मैंने सोचा रानी साहेब से एक लाख ले लें। जीतने के बाद वापस कर देंगे। मास्टरी की तनखाह का एक पैसा खर्च नहीं करती। जमा करती जा रहीं हैं। लेकिन उन्होंने सिरे से इनकार कर दिया। अब तुम्हीं को कोई इंतजाम करना पड़ेगा।

हम कहाँ से करेंगे मालिक? हमें अपनी औकात पता थी। इसीलिए खड़े होने से बच रहे थे। बाप भी मना कर रहा था। आपने ललकारा तो खड़े हो गए।

फिर लंबा मौन!

मेरे पास तो तीनों घेंटों के पैसे थे - अट्ठाइस हजार। तीन हजार पर्चा छपाने में गल गए। बाकी भंडारे और दारू में। कुछ उधार भी हो गया। मैं तो खुद सोच रहा हूँ कि...

बिल्कुल सोचो भाई। अब तुम्हीं को सोचना है। कम से कम एक लाख फौरन चाहिए।

लेकिन मालिक मेरे पास है क्या जिसके सहारे सोचूँ?

है तो तुम्हारे पास बहुत कुछ बशर्ते तुम्हारा बाप तैयार हो जाए।

जग्गू का मुँह गोल हो गया। आँखें फैल गईं।

देखो, जगह जमीन, गहना गुरिया ऐसे ही गाढ़े समय में काम आते हैं। तुम्हारी जो बाजार वाली जमीन है, इतनी कीमती है कि रेहन रख दो तो लाख डेढ़ लाख फौरन मिल सकते हैं।

थोड़ी देर तक दोनों एक दूसरे का मुँह ताकते रहे।

हम लोग सारी मुसीबत से उबर जाएँगे। साड़ी, कंबल जो चाहेंगे वह भी बाँट देंगे और भंडारा भी चला ले जाएँगे। सबसे बड़ी बात, जीत पक्की हो जाएगी। जीतने के बाद तो ऐसे-ऐसे रास्ते हैं कि दो महीने के अंदर सूद ब्याज समेत वापस कर देंगे। फिर तो पाँच साल तक कमाना ही कमाना है। ...नहीं तो ऐसी बेइज्जती होगी, ऐसी बेइज्जती होगी कि कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाएँगे।

जग्गू को लगा, दोनों एक दूसरे का कालिख पुता मुँह देख रहे हैं। बोला - ठीक है मालिक। मैं बप्पा को राजी करने की कोशिश करता हूँ लेकिन वह मानेगा नहीं।

जैसे भी हो मनाओ बेटा! इज्जत दाँव पर है।

अच्छा मान लीजिए बप्पा राजी हो गए तो ऐसा है कौन जिसके पास रेहन रखने पर तुरंत लाख डेढ़ लाख मिल सकें।

खोजा जाएगा। बाजार के अगरवाले से मिल सकता है। नहीं तो मैं अपनी ठकुराइन पर जोर डालूँगा। समझाऊँगा कि लिखा पढ़ी करके, रेहन रख कर दे रही हो तो पैसा कैसे डूब जाएगा? मान जाना चाहिए। बल्कि यही ठीक रहेगा। तब रेहननामे की बात भी पबलिक में नहीं जाएगी।

ठीक है मालिक।

बाहर ठंडी हवा चल रही है। आसमान में बादल हैं। रास्ते में कुत्तों ने दल बना कर भौंकना शुरू किया। लेकिन जग्गू को कुछ दिखाई सुनाई नहीं पड़ा।

बप्पा! ऐ बप्पा!

बोल। बदलू कथरी में कुनमुनाया।

अब क्या होगा?

क्या हुआ? पानी बरसने वाला है क्या?

नहीं वह बात नहीं। वोट वाली बात।

बाप ने मुँह से कथरी हटा ली - अभी तो ठीक चल रहा है?

वह बात नहीं। लगता है भंडारा बंद करना पड़ेगा। आठ दस हजार उधार हो गया।

तो शुरू क्यों किया था?

क्या करता? जब मुंदर ने शुरू कर दिया... उसने तो घर-घर कुर्सी भी बाँट दी। अब साड़ी बाँटने वाला है।

उसके घर में तो नोट बरस रहा है। तेरा बाप तो जूता गाँठता है। तू उसकी बराबरी क्यों करने चला?

जग्गू का सिर और झुक गया। समझ गया कि शुरुआत ही बिगड़ गई।

खर्चा तो ठाकुर कर रहा है?

अब उसने जवाब दे दिया। कहता है - साठ सत्तर हजार खर्च कर दिए। आगे तू सँभाल। दस बारह दिन बचे हैं पोलिंग के। भंडारा बंद हो जाएगा तो बनी बनाई हवा बिगड़ जाएगी। जाड़े में कंबल बँट जाता तो...

तो यह सब मुझे क्यों सुना रहा है?

अ-अ- अगर, वह हकलाया - ब-ब- बाजार वाली जमीन रेहन रख कर किसी से लाख डेढ़ लाख ले लिया जाय तो इज्जत बच सकती है।

क्या बकता है? बदलू गरजा - बाप दादों की बनाई हुई 'परापर्टी' तू जुए के दाँव पर लगा देगा?

जुए में क्यों?

इलेक्शन जुआ नहीं तो क्या है?

क्या कहते हैं बप्पा। अपनी जीत एकदम पक्की है। कम से कम चार सौ वोट से। जीतते ही हम पचीस-तीस लाख के आदमी हो जाएँगे। ऐसी-ऐसी दस जमीनें खरीद लेंगे।

यह बता कि ऐसी सत्यानाशी राह तुझे दिखाई किसने?

दिखाएगा कौन? और कोई रास्ता ही नहीं है।

जरूर उसी ठाकुर ने तेरी मति फेरी है। इतनी दूर का निशाना। तभी मैं कहूँ कि तुझे परधानी देने के लिए वह क्यों मरा जा रहा है? तू समझ रहा है कि वह तेरा चुम्मा ले रहा है। अरे कुलकलंकी, वह तुझे डस रहा है। उसके काटने से लहर भी नहीं आएगी। ...चल भाग यहाँ से।

जग्गू बाहर निकल आया। पैर मन-मन भर के हो गए। जब से चुनाव की भाग दौड़ हुई, वह यहीं मँड़हे में सो जाता था। लेकिन इस समय पत्नी के आँचल में मुँह छिपा कर रोने का मन कर रहा है। अगर पत्नी आँचल का टोंक गीला करके उसका मुँह पोछ दे तो कुछ राहत मिल सकती है। लेकिन अब आधी रात में उसके पास तक पहुँचे कैसे?

महुए के पेड़ के नीचे अँधेरे में खड़ा सोच रहा है जग्गू - किसकी बात का विश्वास करे वह? क्या सचमुच डसने के लिए ही परधानी का लालच दिया है ठाकुर ने?

जमीन पर ठाकुर की नजर गड़ी जान कर बदलू की नींद उड़ गई है। इसीलिए कहा गया है कि शूद्र के धन और अरहर की मधु का बहुत दिनों तक बचना मुश्किल। कैसे बचे, जब इलाके के सारे जाली पिचाली लोगों की नजरें चौबीसों घंटे उसी पर गड़ी रहती हैं।

कितनी तपस्या के बाद मिला था सड़क के किनारे यह चक। वह भी गड्ढे में। बहुत दिनों तक लोग उसके बाप को चिढ़ाते थे कि साल भर जूता चमकाने का यही ईनाम दिया रुपए में तीन अठन्नी भँजाने वाले एसीओ ने। दो हजार घूस खाकर तुम्हारी सोने जैसी जमीन पर ठाकुर का चक बैठा दिया। और तुम्हें ढकेल दिया गड्ढे में।

हँसी करते - सिंघाड़ा बोने के लिए दिया है। बिना जोते बोए मुफ्त की फसल काटते रहना सालों साल।

लेकिन एसीओ की बात सही निकली। कच्ची सड़क दस साल में पक्की हो गई और गड्ढा छन्नू हलवाई के जूठे दोना पत्तलों से कब का पट गया। बाप को पता था कि एसीओ की कलम से जो लिख उठेगा वह बरम्हा की लकीर हो जाएगा। चकबंदी दफ्तर बाजार के सिरे पर था। बाप ने बदलू की ड्यूटी लगा दिया - रोज एसीओ के पैर से जूते निकालकर ले आना और पालिस करके वापस पहनाना। साल भर उसने यह ड्यूटी बजाई! एसीओ खुश हो गया। चक काटते समय उसके बाप को बुलाकर कहा, 'बरसाती, साल भर तुमने मेरे जूते चमकाए, बदले में मैं तुम्हारी किस्मत चमकाना चाहता हूँ। बोलो, कहाँ चक काट दें तुम्हारा?

हुजूर, जहाँ है ठीक है। बस चौहद्दी नाप कर पत्थर गड़वा दें। बेईमानों ने मेरी आधी जमीन दबा लिया है।

तो उन्हीं बेईमानों के बीच में क्यों फँसे रहना चाहते हो? वे फिर दबा लेंगे। मौका मिला है तो निकल भागो।

हुजूर, उँचास की जमीन है। मटर बो देते हैं तो बच्चे महीना भर निमोना खाते हैं।

निमोना को मारो गोली। थोड़ा नीचे उतरो। बारह आने से उतार कर चार आने की मालियत पर बैठा देते हैं। रकबा तिगुना हो जाएगा।

जग्गू के मन में उम्मीद जगती है। मन की बात बड़बड़ाने की आदत है बाप को। लगता है जमीन के सोच-विचार में ही पड़ा है। वह मँड़हे की ओर बढ़ता है। अगर हनुमान जी आज उसके बाप की बुद्धी पलट दें तो वह इसी मंगल को उन्हें 'रोट' चढ़ायेगा।

कच्ची सड़क के किनारे चौराहे के पास बैठा देते हैं। सड़क पक्की होते ही यही जमीन सोना हो जाएगी। तुम रहो कि न रहो, तुम्हारा यह बेटा 'लखपती' हो जाएगा।

बरसाती हाथ जोड़े खड़ा है, मौन!

अभी मौके पर गड्ढा है, इसलिए किसी के कब्जा करने का डर भी नहीं रहेगा। राजी हो तो बोलो फौरन?

अचानक बाप से एक कदम पीछे खड़ा बदलू आगे बढ़ कर कहता है - राजी हैं।

राजी! बाप के मुँह से 'राजी' सुनकर खटिया के बगल खड़ा जग्गू खुशी से चीख पड़ता है - बापू - ऊ - ऊ !

वह रजाई के ऊपर से बाप की देह को छाप लेता है और बीड़ी तंबाकू से बस्साते उसके मुँह को ताबड़तोड़ चूमने लगता है।

बदलू रजाई फेंक कर उठ बैठता है - कहाँ गए एसीओ साहब?

कौन एसीओ?

पल भर अँधेरे में घूर कर वह फिर रजाई तान लेता है।

बदलू का इनकार सुनकर ठाकुर का मुँह लटक गया।

बहुत ऊँच-नीच समझाया मालिक। उसके पाँव पकड़ लिए। लेकिन वह तो एक ही मूरख। जिद कर गया तो कर गया। चाहे तो एक काम हो सकता है।

क्या?

रात में उसे पिला कर टुन्न करें। फिर उसका अँगूठा कजरौटे में चपोड़ कर स्टांप पेपर पर ठोंक ले।

अँगूठा तो दो गवाहों के सामने लगना चाहिए।

गवाहों के दस्कत तो कभी भी हो जाएँगे मालिक।

ठाकुर मुतमइन नहीं दिखा। कुछ देर खड़ा सोचता रहा! फिर बिस्तर के सिरहाने से प्लास्टिक के थैले में रखा स्टांप पेपर निकाल कर जग्गू को समझाने लगा - यहाँ नीचे दाहिनी ओर लगाना - बायाँ अँगूठा। बाईं तरफ की जगह गवाहों की दस्कत के लिए है।

ठीक है। जग्गू ने स्टांप पेपर स्वेटर के नीचे छाती पर सीधे-सीधे रखते हुए कहा - जैसे भी होगा मैं लगाकर लाता हूँ।

खाने के बाद खटिया पर बैठ कर उसने पत्नी को पुकारा - जरा कजरौटा लाना तो।

कजरौटा? काजल लगाओगे क्या?

तुम तो लगाओगी नहीं। सोचा, लाओ मैं ही लगा दूँ।

लगा दूँ। किसके? मेरे?

तब क्या पड़ोसन के? लाओ जल्दी।

वह ले आई। खोलकर देखा - यह तो एकदम सूखा है। एक बूँद कड़वा तेल डाल दे। बस, एक बूँद।

इतनी रात में काजल लगाने की क्या सूझी?

अपना अँगूठा इधर कर।

मेरा? दायाँ कि बायाँ?

अरे कोई भी। ...तेरे अँगूठे तो बड़े पतले हैं रे। जैसे तेरा मुँह पतला वैसे तेरा अँगूठा। जरा पैर का दिखा।

धत! क्या हुआ है तुमको आज?

अरे मेरी लछिमनिया! ला तेरा पैर छू लूँ। जानती है, जिस दिन जीत कर लौटूँगा, तेरे लिए क्या लाऊँगा?.. थोड़ा टेढ़ा कर। जरा काजल चुपड़। ... अरे अंदर की ओर पगली।

उसने पीढ़े के ऊपर पेपर रखकर पत्नी के दाहिने पैर के अँगूठे को दबाकर टीपा। काले निशान पर दो तीन फूँक मारी और चल पड़ा।

पहले तो ससुरे ने ललकार कर सूली पर चढ़ा दिया। अब मँझधार में लाकर घटियारी कर रहा है।

मुरारी मास्टर के घर तीन लड़के आए हैं। उनके बेटे के साथ युनिवर्सिटी में पढ़ते हैं। कहते हैं, परधानी के चुनाव में दलित फैक्टर की केस स्टडी करने निकले हैं।

जग्गू और मुंदर का ठाकुर ब्राह्मण की सपोर्ट से चुनाव लड़ना उनको अच्छा नहीं लग रहा है।

मुरारी मास्टर की दालान में दोनों को बुलाया गया है। मुंदर ने तो साफ कहला दिया - वह स्कूली लौंडों के आगे हाजिरी बजाने जाएगा? वह भी अपने से छोटे दलित के दरवाजे पर? हरगिज नहीं। जग्गू दो बार बुलाने पर आया है। दीवार से पीठ टिका कर बैठा है।

वे कहते हैं - हमारा लक्ष्य सिर्फ परधानी की सीट हासिल करना थोड़े है। परधानी का रिजरवेशन तो लालीपाप है। हमारा मुँह बंद करने के लिए! हमें तो हर चीज में हिस्सा चाहिए। जगह-जमीन में, ताल-पोखर में, खेती बारी में, महल-अटारी में। हजारों साल से सारी धन धरती पर उनका कब्जा रहा है। अब सौ पचास साल हमारा भी रहे। हम भी जानें कि जगह-जमीन पर मालिकाना हक मिलने का सुख कैसा होता है! यह सवर्णों की बैंकिंग से थोड़े मिलेगा?

ऐसा कैसे हुआ कि सारी जगह-जमीन, खेती-बारी महल-अटारी पर ठाकुर और पदारथ जैसे लोगों का कब्जा है?

इसलिए कि जग्गू जैसे कौम के गद्दार और चापलूस सदा से होते आए हैं जो लात जूता खाकर भी उन लोगों का जूठा पत्तल चाटने को तैयार रहते हैं।

जग्गू या मुंदर के जीतने से जो 'बनाना रिपब्लिक' गाँव को मिलेगा उससे हमारे मिशन को क्या हासिल होगा? उल्टे बदनामी!

बनाना? न समझने के भाव से जग्गू उस लड़के का मुँह ताकता है।

नहीं समझे? दूसरा लड़का समझाता है - मतलब, मजा मारैं गाजी मियाँ धक्का सहैं मुजावर। यह भी नहीं समझे? मतलब, कुर्सी मिलेगी दलित को और मजा मारेंगे ठाकुर बाभन।

सिर झुकाए बैठा जग्गू समझ नहीं पा रहा है कि अचानक ये लोग आकर उसके पीछे क्यों पड़ गए हैं? क्या मुरारी मास्टर की शह के बिना ये उसे इस तरह बेइज्जत करने की हिम्मत कर सकते हैं? गद्दार। चापलूस।

हमारी मदद चाहिए तो ठाकुर की गुलामगीरी छोड़नी पड़ेगी।

जग्गू भरसक कोशिश कर रहा है कि बिगाड़ न होने पाए। वह हलीमी से कहता है - सपोर्ट लेने का मतलब गुलामगीरी कैसे हुई भाई? अपने बूते हम कैसे जीत पाएँगे?

तो जरूरी है कि तुम्हीं जीतो। हम दूसरे को जिताएँगे। जिसकी रीढ़ में दम हो। असली स्वतंत्र उम्मीदवार तो फुलझरिया है। हम उसको क्यों न जिताएँ?

आपके पास कौन सी ताकत है जो जिताएँगे? जग्गू भड़क जाता है - न आप यहाँ के वोटर हैं न इस गाँव में आप की कोई नाते-रिस्तेदारी है तो किसके बल पर जिताने हराने का ठेका ले रहे हैं?

लड़के सन्न! वे एक दूसरे का मुँह देखते हैं।

लेकिन इससे तो बात बिगड़ जाएगी। सोचकर जग्गू गुस्से पर काबू करता है - गुलामगीरी करे ससुरा अँगूठाछाप मुंदर और उसकी आल-औलाद। मैं बीस साल पहले का हाईस्कूल। फस्ट डिवीजन। मार्कशीट दिखाऊँ? बाप आगे पढ़ाता तो मैं भी डीएम, एसपी बन जाता। मैं इंटर फेल ठाकुर की गुलाम गीरी करूँगा? अरे, गरज पड़ने पर गदहे को भी मामा कहना पड़ता है। लाखों खर्च कर रहा है। भंडारा खोले हुए है तो मामा नहीं कहूँगा? मेरा पैतरा जीतने के बाद देखना। सारा गाँव आकर मेरे इसमें तेल न लगाए तो कहना।

लड़के न चाहते हुए भी मुस्करा देते हैं।

जग्गू दीवार के सहारे बैठे मुरारी मास्टर को तिरछी नजर से ताकता है। वे मरी आवाज में कहते हैं - जो भी फैसला हो समझदारी से...

समझदारी दुनियादारी तो वही कुर्सिया सिखा देती है चाचा। गदहा भी उस पर बैठते ही आलिम फाजिल हो जाता है। वह उठकर मुरारी के पैरों में हाथ लगाता है - आप का आशीर्वाद लेकर पर्चा भरा है चाचा। जब तक आप साथ हैं, कोई रोंवा भी टेढ़ा नहीं कर सकता।

कहने के साथ वह बाहर निकल जाता है।

तभी दरवाजे के पास खड़ा जग्गू का फुफेरा भाई चिल्लाता है - अरे ये तीनों फुलझरिया के एजेंट हैं! बीस बीस हजार ले चुके हैं।

सुन कर तीनों लड़कों का चेहरा फक हो जाता है।

खुले आम जग्गू के समर्थन में कोई आया है तो वह है मकबूल। जग्गू का दर्जा आठ तक का क्लासफेलो। बचपन में दोनों ने साथ-साथ बुलबुल फँसाया है। नहर में कटिया लगाया है। गर्मी की दोपहरी में जंगल में खरगोश का शिकार किया है।

वह सीना ठोंक कर कहता है - साथ हैं तो हैं। खुल्लमखुल्ला हैं। किसी साले से डरते हैं?

कहता है - पदारथ जैसे 'फराडी' के कैंडिडेट को हमारे टोले से एक भी वोट मिल जाए तो कहना। चाहे जितनी कुर्सी कंबल बाँटे।

मकबूल बताता है - पिछले चुनाव की तरह इस बार भी पदारथ कोशिश में थे कि मुसलमान टोले से कोई वोटकटवा कैंडिडेट खड़ा हो जाय। कितनी मुश्किल से रोका गया।

जग्गू को ठाकुर की सीख याद आती है। वह कहता है - मैं मसजिद के लिए हजार रुपए चंदा देना चाहता हूँ। यह भी ऐलान करना चाहता हूँ कि परधान बन गया तो मसजिद के सामने का डेढ़ बीघा बंजर मसजिद के नाम पट्टा कर दूँगा।

तुम शाम को बड़े मौलवी साहब की सहन में आओ। वहीं सबके सामने ऐलान करो। रसीद कटाओ। बाकी सब मैं सँभाल लूँगा।

बड़े मौलवी साहब के घर जाने की बात पर जग्गू को सहजादी खाला की याद आती है। रास्ते में ही घर पड़ेगा। उनसे भी मिलना हो जाएगा। अकेले रहती हैं। बचपन में जाता था। माँ भेजती थी। कभी उनकी टूटी चप्पल मरम्मत के लिए लाने। कभी आम, अमरूद, करौंदा या बेर देने। माँ सिखाती थी - कहना, सलाम वालेकुम खाला। खाला खुश होकर अशीसती थीं। खुश रहो। आबाद रहो। हुनरमंद बनो। खाने को लइया, गुड़ या बताशे देती थीं। चप्पल सिलाकर लाने पर चवन्नी देती थीं। न वह हुनरमंद हुआ न आबाद हुआ। अब हो सकता है आबाद हो जाय। घंटी निशान कई बार चिन्हाना होगा। एक वोट पक्का।

वह जैसे ही पक्की से मुस्लिम टोले की ढलान पर उतरने को हुआ, सामने से सुल्ताना का शौहर इदरीश इक्का लेकर आता दिखा। अरे अब तौ सुलतनवा भी यहीं आकर रहने लगी है। उसने जोर से हाँक लगाई, सलाम वालेकुम इदरीश भाई।'

बदले में इदरीश ने चाबुक वाला हाथ थोड़ा ऊपर और सिर थोड़ा नीचे झुकाया। जग्गू को उसकी काली ट्रिम की हुई चमकती दाढ़ी बहुत अच्छी लगी।

साला, सुलतनवा जैसे मोती को रोज चुगता होगा। उसे ईर्ष्या हुई।

सु-ल-ता-ना रे - ऽ-ऽ-ऽ, मेरे दि-ल्ल में तू बसी- ऽ-ऽ है बन के नू-ऽ-ऽ-ऽ र... सु-ल-ता-ना रे-ऽ-ऽ-ऽ

सातवीं क्लास में सुलताना उसके बगल वाले टाट पर दरवाजे के पास बैठती थी। आते जाते वह उसकी समीज के अंदर झाँकने की कोशिश करता था। सुलताना को सब पता था। वह सावधान हो जाती थी। समीज को पीछे से थोड़ा नीचे खींच देती थी। फिर उसकी निराशा पर मुस्कराती थी।

आठवीं में पहुँचते-पहुँचते वह उसे रास्ते में देख कर गाने लगा था - सु-ल-ता-ना रे - ऽ - ऽ - ऽ

एक बार वह बाग से गुजर रही थी और वह कच्ची अमिया की लालच में गाना भूल गया था तो उसकी छोटी बहन घर तक ओरहन लेकर आ गई थी - आपा पूछती हैं, आज उनके नाम वाला गाना क्यों नहीं गाया?

आज वह सुलताना से क्या वादा कर सकता है? कहेगा - जिता दोगी तो तुम्हारी घोड़ी की नाँद पक्की करा दूँगा।

वापसी में बहुत खुश है जग्गू। कितनी खिली हुई है सुलताना। चाँद के गोले के बराबर है उसके चेहरे का गोला। उतना ही गोरा। चारों तरफ से हिजाब के घेरे में। जैसे अँधेरे में चाँद। अब भी हँसी में वही खनक है। दाँतों में वही चमक। कह रही थी - मतलब पड़ा तब सुलताना की याद आई? मतलबी कहीं के।

उसका मन कहता है, कहीं अकेले में बैठ कर देर तक सुलताना के बारे में अच्छी-अच्छी बातें सोचता रहे। सड़क पर छलाँग लगाते हुए चलने का मन कर रहा है।

ठाकुर ने दो दिन पहले 'टीचर्स' की बोतल पकड़ाते हुए कहा था - मुंशी को दे आना।

दरवाजे पर सन्नाटा है। चारों तरफ अँधेरा। ओसारे में लंबी खूँटी में टँगी लालटेन जल रही है जो थोड़ी-थोड़ी देर में भभकती है। जग्गू कुंडी खटकाता है।

मुंशियाइन निकल कर बताती हैं - अभी-अभी आए हैं। बैठो। भेजती हूँ।

वह पास पड़ी कुर्सी पर बैठ जाता है।

बेऔलाद हैं मुंशीजी। कहते हैं, कई बच्चे हुए लेकिन कोई जिंदा नहीं बचा। जग्गू को पता है, कचेहरी में बड़ा रुतबा है मुंशी का। सारी बहस और कानूनी प्वाइंट खुद तैयार करते हैं और जिरह वाली तारीख पर किसी बड़े वकील का वकालतनामा लगवा कर बहस करा देते हैं।

मुंशी जी तौलिया से हाथ पोछते हुए निकलते हैं। वह लपक कर पैर छूता है।

बस, बस। मुंशी जी आशीर्वाद देने मुद्रा में दोनों हाथ उठा देते हैं।

कैसा चल रहा है?

आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ। वह व्हिस्की की बोतल कुर्ते की जेब से निकालकर तिपाई पर रखता है।

अरे, इसकी क्या जरूरत थी। डाक्टर ने मनाकर दिया है। अभी मुंशियाइन देखेंगी तो बिगड़ेंगी। कहने के साथ वे खुद बोतल उठाकर तिपाई के नीचे छुपा देते हैं।

बाजार वाली जमीन रेहन रख दिए?

आपको कैसे पता चला?

मेरी गवाही कराने लाए थे।

क्या करता। खर्च इतना बढ़ गया कि... मुंदर अथाह पैसा खर्च कर रहा है।

डेढ़ लाख में रखना दिखाया है?

हाँ।

पूरा पैसा मिल गया?

अभी तो ठकुराइन के पास पचास हजार ही थे। पचीस ठाकुर ने अपने भंडारे के लिए रख लिए, पचीस मुझे दिया है। बाकी बैंक से निकाल कर देंगी तो कंबल बाँटा जाएगा। बस यही डर लग रहा है कि हार गया तो कहाँ से पटाऊँगा?

हारोगे तो नहीं। लेकिन अगर तकदीर ही टेढ़ी हो जाय तो बेंच कर पटा देना। आठ लाख से कम न मिलेंगे।

बेंच कैसे सकते है, जब तक रेहन न छुड़ा लें?

बात तो सही है। मांस बाघ के मुँह में डाल चुके हो। लेकिन जरूरत पड़ेगी तो रास्ता निकाला जाएगा।

कैसे?

बेचने के पहले रेहन पटाना जरूरी है भी और नहीं भी।

कैसे?

पहले पटा सको तब तो ठीक ही है। नहीं तो बेंचकर पैसा अपने खाते में डालो। फिर निकाल कर रेहन पटाओ और खरीददार को मौके पर कब्जा दे दो।

रेहन रहते बेच सकते हैं?

रेहन माने कुछ नहीं। सरकार ने रेहन गैरकानूनी कर दिया है। यह तो आपसी समझ से चलता है। तुम उनका पैसा न लौटाओ तो वे तुम्हारी जमीन थोड़े हथिया सकते है।

ओ! जग्गू की आँखों के कोए फैल गए।

सच पूछो तो तुम्हें यह जमीन दोनों हालत में बेचनी होगी। पूछो क्यों?

जग्गू उनका मुँह ताकने लगा।

हार गए तब तो रेहन पटाने के लिए बेचना पड़ेगा। जीत गए तब भी बेचना होगा। वह इसलिए कि नाहरगढ़ का प्रधान बनने के बाद तुम्हें गड़ही के किनारे की उस झोपड़िया में रहना शोभा नहीं देगा। सड़क के किनारे ग्राम समाज की एकाध बीघा जमीन का बाप के नाम आवासीय पट्टा कराओ और बाजार की जमीन बेच कर पट्टे की जमीन पर आलीशान घर बनवाओ। जमीन बेच दोगे तो कोई यह भी नहीं कहेगा कि परधानी की लूट से बनवाया है और जितना चाहोगे इसमें परधानी की काली कमाई भी खप जाएगी।

बाप रे। थोड़ी देर तक तो जग्गू के मुँह से आवाज ही नहीं निकली। कितना कानून भरा है इस बुड्ढे की गंजी खोपड़ी में।

और सुनो, जमीन जब कहोगे, बिकवा दूँगा। मुहमाँगे दाम में।

जग्गू झुक कर दोनों हाथों से मुंशी के पैर पकड़ लेता है।

हमेशा आप की शरण में रहूँगा मुंशीजी। जिस तरह आप सबका भला सोचते हैं, सबको राह दिखाते है, वैसा कौन करता है आज के जमाने में।

बाहर भले मुंशीजी की बुद्धि और कानूनी ज्ञान की तूती बोलती हो लेकिन गाँव में तो दाँतों के बीच में जीभ की तरह ही रहना पड़ता है। सबसे मिलकर, बना कर चलना उनकी मजबूरी है। सबके भले के लिए एक दो प्वाइंट बताते रहते हैं तो गाँव देश में मान सम्मान मिलता है। अपना अपमान और तिरस्कार भी सही मौका आने तक कलेजे में दबा कर रखना पड़ता है।

मुंशीजी को ठाकुर के बाप का तीस पैंतीस साल पुराना गुस्से से फनफनाता चेहरा याद आ रहा है। चकबंदी के दौरान उनके घर के सामने की मतरूक जमीन पर कब्जे को लेकर हुए विवाद में लाल-लाल आँखें निकाल कर दाँत पीसते हुए चिल्लाया था - खबरदार जो इस जमीन पर कब्जे की सोचा। गोड़ काट कर हाथ पर रख देंगे। लाला लूली किस खेत की मूली?

वे आँखें और वे बोल मुंशी जी के कलेजे में नासूर बनकर गड़े हैं। - अब समझ में आएगा बेटा कि जब मूली अटकती है तो कितना कल्लाती है।

जब इतनी 'किरपा' है तो कोई ऐसी दाँव बताइए चाचा कि जीत पक्की हो जाय।

बैजनाथ बाबा से मिले कि नहीं?

वे तो पदारथ के खानदानी है। वे पदारथ के खिलाफ कैसे जाएँगे?

खुले आम नहीं जाएँगे लेकिन वोट तो ओंट में दिया जाता है। ...फौरन मिलो।

क्या कहूँगा?

कुछ कहने की जरूरत नहीं। जो मन में आए सो कहना। बस अकेले में मिलकर हाथ जोड़ लेना। ...पदारथ ने उनका आधा रास्ता घेर कर दालान की नींव डाल दिया है। उनका रास्ता घट कर तीन फीट की कोलिया बन गई है। जीप कार का आना जाना बंद। उनका खूँटा पदारथ के बेटे ने उखाड़ कर मँड़ार में फेंक दिया था। यह बात जीते जी बुड्ढे को नहीं भूलेगी। अभी तो ताजा घाव है। जाओ। अपने सत्रह-अठारह वोट पक्के कर लो।

घर जाते हुए जग्गू की खोपड़ी भाँय-भाँय कर रही है। कैसे-कैसे साँप, बिच्छू भरे हैं गाँव की खोह में। जब तक काट न लें, पता ही नहीं चल सकता।

बैजनाथ बाबा दिशा मैदान के लिए मुँह अँधेरे जंगल की ओर जाते हैं। फिर ताल पर आकर लोटा मटियाते है। जग्गू ताल के पास झरबेरी के झाड़ के पीछे मुँह अँधेरे ही आकर खड़ा हो गया है। जैसे ही बाबा मुँह का कुल्ला फेंक कर कान का जनेऊ उतारते हुए आगे बढ़ते हैं वह सामने आकर साष्टांग लेट जाता है - बरदान चाहिए बाबा।

कौन है रे? जगुआ? इतने भिनसारे?

जग्गू उठकर हाथ जोड़ता है - अपने कुल खानदान की तरफदारी तो दुनिया करती है बाबा लेकिन आदमी वह है जो न्याय का पक्ष ले। भीखम पितामह जैसे ब्रह्मचारी बलधारी के साथ क्या हुआ? अन्यायी का साथ देने के चलते छः महीने तक न जीने में रहे न मरने में। आप के भतीजे पदारथ भी इस गाँव के दुरजोधन हैं। उन्होंने गाँव वालों के साथ कम अन्याय नहीं किया है। उनका आदमी जीत गया तो फिर करेंगे। इसलिए अन्यायी का साथ मत दीजिए। इस बार मुझे जिताइए। मै तन-मन धन से आपके साथ रहूँगा। वह सिर झुका देता है।

तू तो बड़ा चतुर है रे। किसने भेजा मेरे पास?

गरज ने, बाबा। और कौन भेजेगा?

हा-हा-हा-हा, ठठाकर हँसे बाबा। खाँसी आ गई।

तू तो खलीफा हो गया रे। जा, मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है।

जैसे-जैसे पोलिंग की तारीख नजदीक आ रही है, चुनाव का बुखार तेज हो रहा है। रबी की पहली सिंचाई हो गई। अब खेती में ज्यादा काम नहीं। गन्ना काट कर तौलाई सेंटर पर भेजने में जितना समय लगे। जानवरों का चारा पानी करके लोग 'कनविंस' करने और 'कनविंस' होने के लिए निकल पड़ते हैं। जिनके खूँटे पर कोई जानवर नहीं है वे तो परम स्वतंत्र हैं। जिस भंडारे पर पहुँचेंगे वहीं खाना, पीना, इफरात। अब रात ग्यारह-बारह से पहले शायद ही कोई घर वापस लौटे। इतने पर भी दावे के साथ कौन कह सकता कि किसका वोट किसके खाते में जाएगा।

अस्सी साल की बूढ़ी अंधी इतवारी लाठी से रास्ता टटोलते हुए चार पाँच दिन से भोर में ही आकर जग्गू के दरवाजे पर बैठ जाती है। उसका बेटा अपने मेहरारू लरिका के साथ परदेश रहता है। पिछले साल आया तो माँ से कह गया था कि हर महीने सौ रुपए भेजा करेगा। चार महीने तक पैसा मिला फिर बंद हो गया। इतवारी दो बार कोस भर दूर डाकखाने तक गई। दिन भर बैठी रही लेकिन पैसा नहीं मिला। उसे यकीन है कि बेटा पैसा भेजता है लेकिन चिट्ठीरसा देता नहीं, दबा लेता है। पदारथ से कहने पर वे हँसने लगते हैं। उसका कहना है कि जग्गू चाहे तो उसका वोट अभी ले ले लेकिन डाकखाने चल कर उसका पैसा दिला दे।

फुलझारी के दुआर पर सुबह शाम औरतों का मेला लगता है। किसी को बिधवा पेंशन चाहिए किसी को बुढ़ापा पेंशन। कमर में लाल चुनरी बाँधे फुलझरिया बायाँ हाथ कमर पर रख कर दाहिने हाथ को हवा में चमकाती है - पदारथ ने तेरह औरतों को बिधवा बनाया है। मरद आछत बिधवा! उन्हें फर्जी पेंशन दिला रहे हैं और तो और अपनी सगी पतोहू को बिधवा दिखा दिया है। कोई पूँछे भला कि बिधवा है तो गोद में चार महीने की बेटी किसकी है? जग्गू और मुंदर में इतनी हिम्मत है कि ठाकुर बाभन टोले की फर्जी बिधवाओं की पेंशन रोक सकें? जीतते ही मैं यह जाल बट्टा बंद कराऊँगी।

फुलझरिया का टेंपो देख कर ठाकुर और पदारथ दोनों की सिट्टी-पिट्टी गुम है।

जग्गू की बिरादरी के चार पाँच लड़के डमी बैलेट पेपर लेकर घर-घर घूम रहे हैं।

चाची। इस पर्चे में अपना चुनाव चिन्ह पहचानिए।

चाची कुछ देर तक ढूँढ़कर कुर्सी पर उँगली रखती हैं। लड़के हक्का-बक्का - यह थोड़े। यह तो मुंदर का निशान है। अपने जग्गू काका का निशान पहचानिए।

हमैं का पता? तुम बताओ।

ई देखौ घंटी। अब न भुलाइउ। ए भौजी तुम पहचानो।

भौजी हँसते शरमाते पर्चा देखती हैं - ई है घंटी।

हाँ भौजी, तुम तो पहचान लीं।

तो हम पास हो गए देवर? हँसती हैं। लड़के हँसते हैं।

मुसलमान टोले में मकबूल का बारह साल का लड़का और एक भतीजा घूम रहा है। जो भी मिले, बैलेट पेपर दिखाकर पूछते हैं - कहाँ है घंटी?

घंटी खोजना मुश्किल।

ए बबलू। ई जगुआ को हाथी काहे नहीं मिला? साफ-साफ दिखाई पड़ता।

हाथी इस इलेक्शन में नहीं मिलता खाला। हाथी बड़के इलेक्शन में लड़ता है। बड़की लड़ाई।

नाहीं रे। कंजूस है। पइसा नहीं खर्च किया होगा। देख, मुंदरवा कुर्सी रखि गवा है कि नाही। ऊ कुर्सी पाई गवा।

ए खाला। कुर्सिया पे बइठो मगर मोहरिया घंटिया पे लगावै का है। इहै बड़े मियाँ पास किए हैं।

बड़े मियाँ की नबाबी चल रही है क्या रे?

बाजार के दुलीचंद अगरवाले ने एक बार कहा था - अपने गाँव के बदलुआ की जमीन दिलाइए मुंशीजी। आपका कमीशन नहीं मारूँगा।

मुंशीजी जानते है कि यह जमीन मिल जाय तो उसके कोल्डस्टोरेज की लोकेशन सही हो जाएगी। गले में हड्डी की तरह फँसा है बदलुआ। दुलीचंद की कोठी पर देशी घी से तर सूजी का हलवा चाभते हुए आश्वस्त करते हैं मुंशीजी - अस्सी नहीं सिर्फ पचहत्तर फीट का दाम देना होगा आपको। पूछो कैसे? मैं समझाता हूँ। एक तरफ तीन फीट आपने दाब रखा है। दूसरी तरफ दो फीट दूसरे ने। मौके पर बची पचहत्तर फीट। इस पचहत्तर फीट का दाम बदलू के खाते में डालना होगा। जो तीन फीट पहले से आपके कब्जे में है उसका दाम मेरे खाते में जाएगा। पैमाइस कराने के बाद दूसरी साइड का जो दो फीट निकलेगा वह आपको फिरी में मिल जाएगा।

लंबाई कितनी है?

एक सौ दो फुट।

इतनी तो नहीं लगती।

हो सकता है पीछे वाले ने भी कुछ दबा लिया हो। मगर आपको जितना खतौनी में दर्ज है पूरा दिलाएँगे। यह देखिए... वे जेब से गोल-गोल मुड़ा हुआ ट्रेस्ड नक्शा निकाल कर खोलते हैं - पूरा ले आउट मेरी जेब में है। मूल जमीन बारह आने मालियत पर दो बिस्वा से डेढ़ डिसमल ज्यादा थी। सामूहिक कटौती के बाद चार आने मालियत पर बैठने से रकबा बना छः बिस्वा यानी 1361*6 = 8166 वर्ग फुट। चौड़ाई अस्सी है तो लंबाई कितनी होगी, खुद भाग देकर देख लीजिए।

रेट?

मेरा कमीशन दो परसेंट। रेट जो आमने सामने बैठ कर तय हो जाय।

रेट कायदे का लगवाइए तो सोचें। ...एक बात और। हरिजन की जमीन खरीदने पर तो रोक है। परमीशन का लफड़ा होगा।

जमीन पर रोक है न। आप मकान लिखवाइए।

जमीन को मकान कैसे लिखा लेंगें?

अरे भाई, खंडहर लिखाया जाएगा।

दुलीचंद मुंशी जी का मुँह ताकने लगा।

हाँ भाई। जो उसकी झोपड़ी है, समझो वह पुराने मकान का खंडहर हैं। आपने खंडहर की रजिस्ट्री कराई और कब्जा लेकर उसे जमींदोज कर दिया। मौके पर जमीन बची रह गई। जो चाहे आकर देख ले।

खारिज दाखिल हो जाएगा?

न भी हो तो क्या? उसके खाते में पैसा चला गया। बाप बेटे ने मौके पर कब्जा दे दिया। जमीन आपकी बाउंड्री के अंदर हो गई। खेल खत्म। ...आप भी अगरवाल साहब, दुनिया चरा कर बैठे हैं और हमसे पहाड़ा पूछ रहे हैं। अरे, परमीशन के लफड़े से डराया जाएगा तभी तो मन माफिक रेट पर मिलेगी।

पैसा हाथ में आ जाने से जग्गू के भंडारे की रौनक बढ़ गई है। चार-पाँच नचनिया रिश्तेदार आ गए हैं। खाने पीने के बाद नाच जमी है। औरतों बच्चों का मेला जुट आया है। अलाव में मोटी-मोटी लकड़ियाँ डाल दी गई हैं। आग की लाल-पीली लपटें घटती बढ़ती रोशनी का पैटर्न बना रही हैं। मृदंग की थाप और झाँझ की झैंयक-झैंयक। बीच में सिंघा बाजा की धू-तू, धू-तू। आधे दर्जन नर्तक नर्तकियों की दाएँ बाएँ हिलती कमर सिर के झूमने के साथ ताल मिला रही है। आज होश में रहने का क्या काम? नाचते-नाचते लेट जा रहे हैं। कुछ लेटे हुए उठने की नाकाम कोशिश कर रहे है। बदलू और उसका उससे भी बूढ़ा साला एक दूसरे से सिर जोड़े पंजे मिलाए नाचते-नाचते झुके जा रहे हैं -

कटै द्या गोस रोटी कटै द्या गोस रोटी

आवै द्या शराब कटै द्या गोस रोटी

(आती रहे शराब। कटती रहे गोश्त रोटी।)

कहिलौ महिलौ... हुड़ुक दहितवा...

कहिलौ महिलौ... हुड़ुक दहितवा...

बदलू को नशे में कमर मटकाता देख जग्गू की बूढ़ी माँ पोपले मुँह से हँस रही है।

पोलिंग के चंद दिन बचे हैं। गाँव का माहौल पूरी तरह गरम हो गया है। ठाकुर ने आज पूरी ठकुरइया को न्योता है। केवल बिरादरी भोज। गढ़ी का जंग लगा जर्जर फाटक बंद कर दिया गया। बीच में अलाव जलाया गया है। दोनों तरफ दो गैस बत्तियाँ। दो मेजों पर मीट और मुर्गे देग और चिखना। एक चौकी पर दारू का क्रेट और पानी की बाल्टी।

रामसिंह लपक-लपक कर सबके गिलास भर रहा है। हड्डियाँ कड़कड़ा रही हैं। गिलास टकरा रहे हैं। खोपड़ी सनक रही है। जबान बमक रही है। बात चलती है कहाँ से और पहुँच जाती है कहाँ?

...वाह बहादुर वाह... जमीन भी लिया परधानी भी लेंगे। बजावे बैठा ठन ठन गोपाल...

...सरकार बुजरी करती रहे वहाँ बैठकर रिजरवेशन। यहाँ उसकी इस्कीम में पलीता लगाने वाले हम लोग कम हैं क्यों?

...अच्छा बाबू भवानी बकस सिंह, आप तो पालिटिक्स पढ़ाते हैं, ऐसा नहीं हो सकता कि जीते कोई भी साला, उसे पकड़कर अपने नाम मुख्तारनामा लिखाओ... क्या कहते हैं उसे अंगरेजी में?

पावर आफ एटार्नी...

हाँ, वही। फिर ठाँस के परधानी करो।

...उससे अच्छा कि बेचीनामा लिखा लो। पकड़ बेटा एक लाख और लिख परधानी मेरे नाम। बस्ता मोहर रख कर फूट...

ठाकुर होकर बेची खरीदी क्यों करेंगे? दो लाठी मार कर छीन नहीं लेंगे?

आप लोगों पर ज्यादा चढ़ गई है। ऐसा कहीं हो सकता है?

क्यों नहीं हो सकता? क्या नहीं हो सकता? बुलाओ मुंशिया को। ससुरा साँझ से ही मुंशियाइन के लहँगे में घुस जाता है। बुढ़ापे में भी अलग नहीं सो सकता। बुलाओ। कायस्थ बुद्धी लगाकर कोई तरकीब निकाले।

लहँगे में घुसना कब का छूट गया लेकिन घुसने की कल्पना करके अधगंजे सर के सफेद बाल भी परपरा कर खड़े हो जाते हैं।

कैसा जमाना आ गया? एक डूबी हुई आवाज उभरती है - राजशाही के साथ ठकुरई भी चली गई।

फिर राजशाही आने वाली है बाबा। एक बहुत लंबी दाढ़ी वाले ज्योतिषी ने भविष्यवाणी किया है।

क्या-या-या...?

हाँ कलजुग के आखिरी चरन में एक दिन ऐसा आएगा जब एमपी, एमेले की सारी सीटों पर खूनी कतली लोगों का कब्जा हो जाएगा। तब सब मिल कर 'देसवा' का बँटवारा करेंगे। उस बँटवारे में हम लोगों को भी हिस्सा मिलेगा...

वाह बाबू झल्लर सिंह। 'बिलायती' की झोंक में कितनी ऊँची बात बोल गए। भवानी बकस सिंह की लड़खड़ाती आवाज अचरज में डूबी है - क्लेप्टोक्रेसी-ई-ई! क्लेप्टोक्रेसी-ई-ई-ई!

ए रमुआ... पुचुर-पुचुर दो-दो घूँट क्या डालता है बे... भर पूरा गिलास ऊपर तक... और डाल... और... बहता है तो बहने दे... तू डालता रह...

ठाकुर डर रहे हैं कि चंडूखाने की यह गप्प बाहर गई तो हुआ बंटाधार!

...अंय, बोटी खतम? प्याज भी? का बाबू दलगंजन सिंह, इसी सहूर से परधानी करोगे?

धात्त! नीम के पक्के चबूतरे से टकराकर गिलास के सौ टुकड़े हो जाते हैं।

पोलिंग से तीन दिन पहले पदारथ ने इंद्रजाल फेंका। चुनाव घोषित होने से कुछ दिन पहले तालाब का जीर्णोद्धार हुआ था। तीस पैंतीस लोगों की बीस बाइस दिन की मजदूरी बकाया है। पदारथ का कहना है कि 'हाजिरी' बना कर 'ऊपर' भेज दी गई है। पास होकर आती इसके पहले चुनाव घोषित हो गया इसलिए पेमेंट फँस गया। अगर नया प्रधान जीत गया तो पूरा पेमेंट कैंसिल करा सकता है। पेमेंट लेना है तो मेरे आदमी को जिताइए। जिताने पर पेमेंट की गांरटी है। हारने पर कोई गारंटी नहीं।

पदारथ के आदमी मजदूरों को अलग-अलग समझा रहे हैं - एक वोट की ही तो बात है। उसके चलते दो-ढाई हजार पानी में डालने से क्या फायदा? वोट का क्या अचार डालना है?

ऐन मौके पर तुरुप चाल। सुनकर ठाकुर घबराए। दोपहर से ही अपनी कोठरी की साँकल अंदर से बंद करके जाने कहाँ-कहाँ मोबाइल मिलाते रहे। अँधेरा होने पर बाहर निकले तो रामसिंह को बुलाकर कहा - ब्लाक आफिस जाकर जनार्दन बाबू से मिलो, अभी तुरंत। कहना, नाहरगढ़ के दलगंजन सिंह ने भेजा है। उन्हें यह लिफाफा दे देना। वे कुछ पेपर देंगे। उनकी पंद्रह बीस फोटो कापियों का सेट बनवाकर लाना है। आज ही चाहिए।

रात ग्यारह बजे शाल लपेटे, कान बाँधे नाक से पानी चुआते रामसिंह की मोटर साइकिल ट्यूबवेल घर की ओर मुड़ती है तो उसकी हेड लाइट में ठाकुर मंकी टोपी लगाए ओसारे की चारपाई पर बैठे इंतजार करते दिखाई पड़ते हैं।

रामसिंह ठंड से अकड़ी उँगलियों पर फूँक मारते हुए सफाई देता है - जनार्दन बाबू ने कागज बहुत देर से दिया। फिर शहर जाने, दुकान खुलवाने, जनरेटर चलवाने में बड़ा समय लग गया।

ठाकुर को कुछ सुनाई नहीं पड़ता। वे टार्च की रोशनी में देर तक पेपर पढ़ते हैं - गुड्ड। तुरुप का जवाब तुरुप का इक्का।

सबेरे ठाकुर खुद, रामसिंह, जग्गू और जग्गू के टोले के दो लड़के फोटोस्टेट कागजों का सेट लेकर गाँव भर में फैल गए। जग्गू ने एक सेट मकबूल के पास भेजवाया और ठाकुर से उसकी बात करा दी।

घंटे भर में पूरे गाँव को पता चल गया कि पक्की सड़क से मुसलमान टोले तक के करीब आधा किमी और हरिजन टोले के करीब ढाई तीन सौ मीटर लंबे कच्चे रास्ते पर कागजों में दो साल पहले ही खड़ंजा बन गया है।

लीजिए अपनी आँख से पढ़ लीजिए आप लोग। यही हैं भुगतान किए गए बिलों की फोटो कापियाँ। ...और मौके पर? एक भी ईंट लगी हो तो बताइए। चार लाख सत्तर हजार रुपए पूरे के पूरे हजम। लोग दस-बीस परसेंट खाते हैं। चग्घड़ विधायक भी विधायक निधि का पचास परसेंट से ज्यादा नहीं खा पाता। लेकिन आपका परधान सौ का सौ परसेंट हजम कर गया। अब आप लोग खुद फैसला करें...

परदेस रहने वाले वोटरों को कई उम्मीदवारों ने चिठ्ठी लिख कर बुलाया है। सबने लिखा था - आने जाने का खर्चा मेरे जिम्मे। सभी जानते हैं कि गुजरे गवाह और लौटे बराती का कोई पुछत्तर नहीं होता। गुजरा वोटर भी इसी श्रेणी में आता है। इसलिए पोलिंग के पहले वे अपना किराया-भाड़ा वसूल पाना चाहते हैं। किसी एक से नहीं। हर चिठ्ठी लिखने वाले से।

इतने लंबे जनसंपर्क से हर उम्मीदवार जान गया है कि वह कितने पानी में है। मुंदर ने तो अपनी ओर से पूछ कर, जिसने जो रकम बताई उसमें सौ रुपया जोड़ कर दे दिया। जग्गू से भी जिसने जितना बताया पा गया। लेकिन जिन्हें जीतने की कोई आशा नहीं है वे टाल मटोल कर रहे हैं। जो कुछ जेब में बचा रह जाय वही अच्छा।

पोलिंग से एक दिन पहले मुँह अँधेरे हल्ला मचा - फुलझरिया दल्लू के बेटे शंकर के साथ बँसवारी में पकड़ी गई।

दिशा मैदान का समय। सारा गाँव ही बाहर था। लोग दौड़े - क्या हुआ? क्या हुआ?

फुलझरिया ने कस कर एक तमाचा शंकरवा के गाल पर जड़ा और गाँव के पिचालियों को ललकारती अपनी राह चली गई। किसी की हिम्मत उसके सामने पड़ने की नहीं हुई। लेकिन भागते हुए शंकर को लोगों ने दौड़ा कर पकड़ लिया। लगे पिटाई करने।

पाँच सौ रुपए के बदले शंकर केवल इतना करने को तैयार हुआ था कि वह बँसवारी से लौटती फुलझारी बुआ के सामने पल भर के लिए खड़ा हो जाएगा। तभी पहले से 'सधे बधे' लोग दोनों को घेर कर हल्ला मचा देंगे।

पदारथ को यह जान कर बड़ी राहत मिली कि पिटने के बावजूद शंकर ने उनका नाम नहीं लिया। नहीं तो बड़ा अनर्थ हो जाता।

बड़ी छतीसी औरत निकली गुइयाँ। औरतों का झुंड दाँतों तले उँगली दबा रहा है।

कब से है यह आशनाई? किसी को भनक तक नहीं लगी।

कहाँ चालीस पैंतालीस की फुलझरिया, कहाँ बीस-बाईस का शंकरवा! दूने की चोट। माई रे!

इसीलिए मूसल जैसा मनसेधू छोड़ कर नैहर में डेरा डाले पड़ी है।

इस्कीम भले पदारथ ने बनाई लेकिन बदनामी फैलाने में ठाकुर के आदमी भी जुट गए हैं।

फुलझरिया के दोनों भतीजे लाठी लेकर शंकरवा को खोज रहे हैं।

पोलिंग पार्टी आ गई। बिना खिड़की दरवाजे वाले प्राइमरी स्कूल के खुरदरे फर्श पर प्लास्टिक की सीट बिछा कर सबने डेरा डाल दिया। घंटे भर के अंदर ठाकुर और पदारथ के घर से चाय, बिस्कुट और पकौड़ियाँ आ गईं। पीठासीन अफसर कहता है - नहीं, नहीं। चुनाव आयोग का सख्त निर्देश है। मतदान कर्मी किसी उम्मीदवार से खाने-पीने की कोई चीज नहीं ले सकते।

लेकिन साहब, हमारा भी तो कोई फर्ज बनता है। आप हमारे गाँव के मेहमान है। मेहमान भूखे रहेंगे क्या?

पार्टी में साल भर के बच्चे वाली एक सुंदर महिला भी है। बहुत उदास है। लाख जतन के बाद भी वह अपनी ड्यूटी नहीं कटवा सकी। सभी महिला को देख-देख कर बच्चे से प्यार जता रहे हैं। उसके पीने के लिए दूध आ गया है।

ए, टेंट उखाड़ो। बर्तन भाँड़े हटाओ। भंडारा खत्म। सेक्टर मजिस्ट्रेट राउंड पर आने वाले हैं। ...हिसाब किताब परसों होगा। पोलिंग के बाद। कहीं भागे जा रहे हैं क्या?

पीठासीन अधिकारी का 'सरनेम' नहीं पता लग रहा है। कैसे पटाया जाय? सात बजे के करीब ठाकुर और पदारथ के घर से पूड़ी सब्जी के टिफिन आ जाते हैं। रामसिंह पीठासीन अधिकारी के कान में धीरे से पूँछता है - साहब 'लालपरी' चलेगी?

रात दस बजे के बाद पदारथ की दालान से तीन लोगों की दो टोलियाँ निकलती हैं। पहली टोली के हाथ में छानबे चउवा के जनेऊ और दूसरी के हाथ में बानबे चउआ के। एक ब्राह्मण टोले में घुसती है दूसरी बनिया टोले में। युद्ध के अंतिम पहर में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग। एक-एक घर के मुखिया को जगा कर जनेऊ अर्पण और गुहार - अब तक पदारथ ने जो भी सही गलत, स्याह सफेद किया उसे भूल जाइए। शिकवा शिकायत भूल जाइए। जोड़ा जनेऊ की इज्जत दाँव पर है। इसकी इज्जत बचाइए।

बनिया टोले में एक पद और - ब्राह्मणों की महिमा इस कलजुग में महाजनों के बल पर ही टिकी है आज तक। इस बार भी इसकी रक्षा कीजिए।

बादल हैं। रात से ठंडी हवा चल रही है। फिर भी सबेरे आठ बजे ही बूथ पर लंबी लाइन लग गई। जग्गू अपनी जोरू और मुंदर अपने बेटे के साथ सात बजे से ही एक-एक वोटर को घर से निकालने में लगा है।

अंदर सारे एजेंट चौकन्ने हैं। जरा सा संदेह होते ही चैलेंज करो। बाहर बच्चा-बच्चा सतर्क है - विरोधी पार्टी कोई फर्जी वोटिंग न करा दे। साथ ही अपने पक्ष में फर्जी वोटिंग के लीकप्रूफ तरीके खोजे जा रहे हैं। फर्जी वोटिंग सबेरे-सबेरे हो जाती है या शाम को सबके थक जाने के बाद।

औरतों का झुंड लाइन में लगा है। ज्यादातर घूँघट वाली दुलहिनें। एक एजेंट ने टाँका भिड़ा लिया है। वह कहता है - साहेब जरा जल्दी करा दीजिए। दुलहिन बलहिन हैं। घर पर छोटे बच्चे रो रहे होंगे।

इस झुंड में कुछ महिलाएँ घूँघट निकाल कर दूसरे के नाम पर वोट देने आई हैं। उन औरतों के बोलने से पहले एजेंट ही उनका नाम बता देता है। थोड़ी देर तक एजेंटों में काँव-काँव होती है फिर शांति छा जाती है।

महिला पोलिंग अफसर थोड़ा मेहरबान लगती है। वह भरसक ऐसी दुलहिनों की उँगली पर अमिट स्याही का निशान नहीं लगाएगी। लगाएगी भी तो जरा-मरा। दोपहर बाद जब साड़ी बदल कर अपने असली नाम से वोट देने आएगी तब लगाएगी।

गाँव की जो लड़कियाँ ससुराल में हैं, जो बहुएँ मायके में हैं, जो लोग परदेश में हैं, किसी का वोट छूटना नहीं चाहिए।

दूसरी पार्टी ने दूसरा रास्ता निकाला है। पर्ची बाँटने वाले टेंट से थोड़ा पहले गली के मोड़ पर एक किशोर अपने खास वोटरों की पहली उँगली पर गूलर का दूध पोत रहा है। इसी पर पोलिंग के समय स्याही लगेगी। गूलर के दूध के ऊपर लगाने पर अमिट स्याही 'अमिट' नहीं रह जाएगी। जरा सा रगड़ते ही दूध की परत के साथ निकल आएगी। अब यह उँगली दुबारा वोट देने के लिए 'रेडी' है।

वोटर लिस्ट से खाला का नाम ही गायब है। पीठासीन अधिकारी को अपना वोटर आई डी कार्ड दिखा कर देर तक चिरौरी की, फिर लड़ीं। वह बार-बार हाथ जोड़ता रहा। बूथ के बाहर घंटे भर तक अदृश्य को सरापने के बाद लाठी टेकती लौट गईं।

सफेद दाढ़ी मूँछ की खूटियों और सन जैसे सफेद बिखरे बालों वाले पहाड़ी बाबा झिलंगा खटिया पर बैठे धूप सेंकते मुँह में बचे आखिरी तीन लंबे पीले दाँत दिखाते रिरिया रहे हैं - ए भइया। कोई हम्मै भी लै चलो। हम भी दे आवें।

जग्गू सबेरे-सबेरे आया था। कह गया कि अभी ले चलेंगे। लेकिन लगता है भूल गया। बूढ़ा उधर से गुजरने वाले हर आदमी को टेर रहा है - ए भइया...

बूढ़े की पतोहू अंदर से निकलकर डाँटती है, 'एकदम्मै सठिया गए हैं क्या? कबर में पाँव लटकाए हैं और वोट देने के लिए मरे जा रहे हैं।

कंधे पर बैठकर वोट डालने जाने की 'इच्छा' खाली चली जाएगी क्या?

लड़ते झगड़ते चैलेंज करते एजेंटों ओर 'स्टान्च सपोर्टरों' के मुँह से तीन चार बजते-बजते फिचकुर निकल आया है। सारी चिक-चिक, झाँय-झाँय ठंडी। कहाँ तक जान देंगे? होने दो जो हो रहा है।

आखिरी वक्त में फिर कोलाहल। सील होते बैलेट बाक्स के मुँह पर सब अपनी अपनी सील लगाने को आतुर।

दोनों बक्सों को सँभालती पोलिंग पार्टी ट्रक पर लद गई। धुएँ का काला गुबार गाँव के मुँह पर मारता ट्रक गड़गडाता हुआ चल पड़ा।

खटिक टोले का गोलू साइकिल नचाते गाते हुए जा रहा है -

प्रजातंत्र को चोट दे गए।

मुर्दे आकर वोट दे गए।।

पहले तो लोग ध्यान नहीं देते। तुक्कड़ जोड़ता है। कवि सम्मेलनों में जाता है। कहीं सुन लिया होगा, गा रहा है। लेकिन फिर लोग चौकन्ने होते हैं। खुसर पुसर होती है। थोड़ी देर में बात फैलती है कि साल भर पहले दिवंगत हुई पदारथ की अम्मा वोट डाल गईं। मुसलमान टोले की तीन 'मरहूमाएँ' भी डाल गईं। गजब।

काउंटिंग आठ बजे से है।

पंद्रह बीस दिन से रात दिन दौड़ते-दौड़ते ठाकुर को हरारत आ गई है। ठंड से बचाव भी हो जाय और हनक भी बढ़ जाय इसलिए काउंटिंग में चलने के लिए बोलेरो बुक की गई है।

अगर शुभ समाचार रहा तो वापसी में चौराहे से जुलूस बना कर गाँव में प्रवेश का मंसूबा बनाया गया है। बहुत दिनों बाद गढ़ी में जश्न मनाने का मौका आने वाला है।

जग्गू ठाकुर के दरवाजे पर नहा धोकर पहुँचा तो बोलेरो आ गई थी लेकिन रामसिंह ने बताया - अभी तो बाबू साहेब उठे ही नहीं।

क्यों? दालान में जाकर खिड़की से झाँक कर देखा - रजाई से सिर ढँका है।

लम्मरदार। उसने पुकारा।

ठाकुर ने मुँह खोला। लेकिन जग्गू का चेहरा देख कर उनकी देह में सिहरन दौड़ गई। जूड़ी आएगी क्या?

मेरी तबियत ठीक नहीं है। वे कमजोर आवाज में कहते हैं - तुम रामसिंह के साथ चले जाओ।

रात के सपने ने उनकी आवाज में कंपन पैदा कर दिया है। सपना देखा कि जग्गू हाथी की नंगी पीठ पर बैठा उन्हीं की ओर आ रहा है। उसके हाथ में लंबा अंकुश है। उनको देख कर अट्टहास करता है - तुम्हीं को खोज रहा हूँ ठाकुर। और हाथी उनकी तरफ दौड़ा देता है। निचाट मैदान में वे अकेले भागे जा रहे हैं लेकिन पैर ही नहीं उठते। पीछे हाथी की चिग्घाड़। राम सिंह पहले ही भाग खड़ा हुआ।

उनकी धोती खुल गई है। धोती की लाँग लंबी होकर पूँछ की तरह घिसट रही है। पैरों में लिपट रही है।

जगने के बाद भी उनकी साँस देर तक धौंकनी की तरह चल रही थी। वे राम सिंह को इस बात के लिए डाँटने जा रहे थे कि वह उन्हें अकेला छोड़कर भागा क्यों? लेकिन समझ गए।

वे बोलेरो वापस कर देते हैं। राम सिंह जग्गू को लेकर मोटर साइकिल से चला जाता है। वे फिर लेट जाते हैं लेकिन सपने का असर डेढ़ दो घंटे में समाप्त होता है तो पछताने लगते हैं - चले जाना चाहिए था।

ग्यारह बजते-बजते बेचैनी बढ़ जाती है - काउंटिंग में भी बेईमानी हो सकती है। मौके पर जो पार्टी कमजोर होती है उसी के वोट सबसे ज्यादा 'इनवैलिड' होते हैं।

वे राम सिंह को फोन मिला कर सचेत करते हैं - इनवैलिड होने वाले अपने हर वोट पर हल्ला-गुल्ला करना और जब तक बैलेट पेपर फिर सील न हो जाय वहाँ से हटना नहीं।

फिर हर आधे घंटे बाद रामसिंह को फोन मिलाते हैं - क्या पोजीशन है?

दोपहर बीतते-बीतते उन्हें ठकुराइन पर तेज गुस्सा आता है - पता नहीं अंदर घुसी अकेले क्या सिंगार-पटार कर रही हैं। यह नहीं आकर थोड़ी देर पास बैठें।

चार बजे रामसिंह बताता है - फुलझरिया आठ वोट से आगे चल रही है। उनका जी धक् से हो जाता है। फिर बड़ी देर तक राम सिंह का फोन नहीं मिलता।

अँधेरा होते-होते रामसिंह बताता है - मुंदर पंद्रह वोट से आगे है।

बाप रे। उनकी धड़कन बढ़ जाती है - हार जाएँगे क्या? फिर पूछते हैं - मुस्लिम टोले के बक्से की गिनती हो गई?

नहीं, अब शुरू हुई है।

वे ठकुराइन को आवाज देते है - जरा एक गिलास और प्याज, दालमोठ दे जाओ।

रामसिंह का मोबाइल स्विच आफ आ रहा है। जग्गू का मोबाइल नंबर उन्होने फीड नहीं किया। किया होता तो भी अब मिलाने की हिम्मत नहीं है। लगता है, जो नहीं होना था वही हो गया। अच्छा किया जो जमीन कब्जे में कर लिया।

सात बजे के करीब जग्गू का फोन आता है - सात वोट से जीत गए, लम्मरदार।

अरे वाह! ...अब यह दूसरी तरह की धड़कन है - धाड़-धाड़...

वे मास्टराइन को गले लगाने के लिए दौड़कर आँगन में जाते हैं लेकिन उनके पास जमीन में बैठ कर कर महरिन की बेटी सब्जी काट रही है। उनके कदम थम जाते हैं। वहीं से बताते है - तुम्हारी विजय हो गई रानी। जरा नहाने के लिए पानी गरम करवाइए।

फिर लौट कर अपनी 'शेविंग किट' ढूँढ़ने लगते हैं।

जग्गू का फोन फिर आया - पदारथ चिल्ला रहे हैं कि बेईमानी हो गई। रिकाउंटिंग के लिए हाईकोर्ट तक जाएँगे।

सुप्रीम कोर्ट तक जाएँ। कौन रोकता है? पदा-पदा कर झिलंगा कर देंगे। उनकी भुजाएँ फड़कने लगी हैं - किस प्वाइंट पर कोर्ट जाएँगे सरऊ।

उनके चौंतीस वोट इनवैलिड हुए हैं अपने इक्कीस, चिल्ला रहे हैं कि फर्जी इनवैलिड करके हराया गया।

चिल्लाने दो। पाँच साल तक चिल्लाते रहें। तुम प्रमाण पत्र लेने के बाद ही हटना। और राम सिंह के मोबाइल का क्या हुआ?

उसकी बैटरी डिस्चार्ज हो गई।

वे कुछ और पूँछना चाहते थे कि... कट गया।

जीत का प्रमाण पत्र पकड़ते हुए जग्गू के हाथ काँप रहे हैं। वह छोटे से बेरंग कागज को सिर से लगाता है फिर ट्यूबलाइट के पास आकर पढ़ता है - प्रमाणित किया जाता है कि श्री जगत नारायण पुत्र श्री बदलू राम साकिन... नाहरगढ़...

जग्गू का विजय जुलूस पक्की सड़क से गाँव की ओर मुड़ा तो वे नहा धोकर प्रेस किया हुआ कुरता, धोती, जाकिट, मोजा ओर काला पंप शू पहन कर तैयार हो चुके थे। कंट्रोल में रहने की अंदर से मिल रही चेतावनी के तहत दो पेग के बाद गिलास तखत के नीचे रख चुके थे।

विजय जुलूस दरवाजे पर आए तो उन्हें खुद माला पहना कर जग्गू का स्वागत करना चाहिए।

अरे, वे ठकुराइन को आवाज देते हैं - भाई, राम सिंह तो है नहीं। किसे कहें। जरा सामने से दस-बारह गेंदे के फूल तोड़ कर एक माला बना दो, प्लीज।

जब से उन्हें 'प्लीज' की ताकत पता चली है, ठकुराइन से कोई अप्रिय कार्य कराने के लिए वे इसी का सहारा लेते हैं - प्ली-ई-ई-ज।

राजगढ़ स्टेट की राजकुमारी ठकुराइन शिवराज कुँवरि आँखें तरेर कर देखती है। यानी मैं माला गूँथूँगी? जगुआ के लिए?

गूँथना पड़ेगा रानी। ठाकुर आजिजी से कहते हैं - जमाने के साथ चलना पड़ेगा। समझो वह नहीं, मै जीता हूँ। असल में तो परधानी मुझे ही करनी है। वह ससुरा तो चिड़ी का गुलाम है।

ठाकुर उनके पास जाकर उनकी लंबी केश राशि पर हाथ फेरने लगते हैं - वह जीत का जुलूस लेकर तुम्हारे दरवाजे पर आ रहा है।

कंधे से पकड़ कर वे ठकुराइन को पलँग से नीचे उतारते हैं।

उन्हें राम सिंह पर गुस्सा आ रहा हैं जुलूस में शामिल होने के बजाय उसे सीधे घर आना चाहिए था। अभी आधा गाँव उनके दरवाजे पर बधाई देने जुटेगा। दो चार डिब्बे मिठाई मँगवा लेते। कुछ पान, बीड़ी, सिगरेट। दस-बीस कुर्सियाँ...

वे खुद गैसबत्ती जलाने लगते हैं।

कितनी देर कर रहे हैं ससुरे? वहीं नाचते रहेंगे कि आगे भी बढ़ेंगे?

...अरे, जुलूस तो लगता है सीधे जग्गू के घर की ओर मुड गया।

वे बेचैन हो जाते हैं। रात का सपना याद आ जाता है - हाथी की चिग्घाड़!

शिवराज कुँवरि हाथ में माला लिए उनसे एक कदम पीछे बगल में खड़ी हैं। वे उनकी ओर देखते हैं। उनका चेहरा भी झाँवा हो गया है। वे उनका हाथ पकड़ कर खींचते हुए कहती हैं - जाने दीजिए हरामजादे को। दोगला निकला। आप अंदर चलिए।

वे गुस्से में हाथ की माला सामने चौकी के नीचे फेंक देती हैं।

लेकिन थोड़े असमंजस के बाद तय करते हैं कि वे खुद जाएँगे। जाना ही होगा। एक लाख से ज्यादा 'इनवेस्ट' कर चुके हैं। बात बिगड़नी नहीं चाहिए।

चौकी के नीचे से माला निकाल कर वे कुर्ते की बगल वाली जेब में डालते हैं। मंकी टोपी उतार कर फेंकते हैं और कुबरी लेकर निकल पड़ते हैं।

गोले दग रहें हैं। छुरछुरिया छूट रही हैं। सरगबान आकाश में छेद कर रहे हैं। दो पेट्रोमेक्स की रोशनी नाचने वालों के लिए कम पड़ रही है।

जग्गू को बीच में करके हाथ की बोतल नचा नचा कर वही लड़के मटक रहे हैं जिनकी सूरत ठाकुर को पसंद नहीं। प्रचार के दौरान ये लड़के एक बार भी उनके दरवाजे पर नहीं आए।

लंगड़ और बिदेशी टोले के पुराने नचनिया हैं। इनकी टक्कर आज भी कोई नौजवान नहीं ले सकता। लंगड़ के सिर पर लाल अँगौछा डाल कर किसी ने घूँघट बना दिया है। एक पैर की भचक अलग समाँ बाँधती है। दोनों हाथ फेंक कर मटक-मटक कर गा रहे हैं - जग्गू जाँबाज ने जग जीत लिया, दइया रे...

नहीं - ई-ई... एक लड़का चीखता है - जग्गू नहीं, टाइगर। जीत गया भई जीत गया। जे एन टाइगर जीत गया।

ठाकुर बड़ी देर तक उपेक्षित से भीड़ के बाहर खड़े रह जाते हैं। कोई उनकी तरफ देख नहीं रहा। मन करता है कुबरी उठा कर सीधे जग्गू की खोपड़ी पर...

नहीं। गाली और गुस्सा दोनों उनके खानदानी दुश्मन रहे हैं। इन पर काबू पाना होगा। पिताजी कहते थे - जब सब साथ छोड़ जाते हैं तो धीरज साथ देता है।

वे भीड़ को चीरते हुए सीधे जग्गू के सामने आ जाते हैं। जेब से माला निकाल कर उसके गले में डालते हैं और उसे अपनी भुजाओं में भर लेते हैं। देर तक भरे रहते हैं। जकड़ से छूटते ही जग्गू अपने गले की माला निकाल कर ठाकुर के गले में डाल देता है।

बाजे की लय थोड़ी भंग होती है फिर तेज हो जाती है। एक लड़का लड्डू का डिब्बा उनकी ओर बढ़ाता है। वे एक लड्डू उठा कर मुँह में डाल लेते हैं। दूसरा लड़का उन्हें पानी का गिलास पकड़ाना चाहता है लेकिन वे टाल जाते हैं।

पानी नहीं पिएँगे? पीजिए।

ठाकुर अनसुना करके मुँह घुमा लेते हैं। लेकिन वह बदमाश फिर आगे आ जाता है। ठाकुर उसे घूरते हैं। हाथ से मना करते हैं।

जब आप हम लोगों के गिलास का पानी नहीं पी सकते, हम को अभी भी 'वही' समझते हैं तो हमारा आपका साथ कितने दिन निभेगा?

ठाकुर की भृकुटि पल भर के लिए टेढ़ी होती है फिर सामान्य हो जाती है। कहते हैं - पानी पीने से ही साथ पक्का होता हो तो कहो बाल्टी भर पी जाऊँ।

कहने के साथ वे लड़के के हाथ से गिलास लेकर गट-गट पी जाते हैं।

एक लड़का उन्हें नाचने के लिए लड़कों की गोल की ओर खींचता है। दूसरा उनके पंजे में पंजा फँसाकर दाएँ बाएँ हिलाते हुए कहता है - जरा कमरिया भी लचकाइए ठाकुर।

नाचते हुए लड़कों के बीच कुबरी वाला हाथ उठाकर वे मटकने-लचकने लगते हैं।