बनारसी गुरु / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
देश के विभिन्न भागों में लोग एक दूसरे को पुकारते समय मिस्टर, मोशाय (महाशय), स्वामी, श्रीमान्, जनाब, हजूर, सरदारजी और सरकार आदि सम्बोधनों का प्रयोग करते हैं। चूँकि बनारस में हर प्रान्त के निवासी रहते हैं इसलिए ये सभी सम्बोधन शब्द यदा-कदा सुनाई पड़ते हैं। लेकिन इन सम्बोधनों के अलावा कुछ विशेष सम्बोधन यहाँ अधिक प्रचलित हैं जो बनारसियों के लिए परम प्रिय हैं ही-उनके बिलकुल अपने हैं खालिस बनारसी! ‘राजा’, ‘मालिक’, ‘सरदार’ और ‘गुरु’ ये ऐसे सम्बोधन हैं जो बनारस के सिवा अन्यत्र सुनाई नहीं देंगे। सच पूछिए तो इन सम्बोधनों में जो रस है, वह प्रान्तीयता-जातीयतावादी सम्बोधनों में दुर्लभ है। इसके अलावा एक और सम्बोधन है - ‘का हो!’ इस सम्बोधन का प्रयोग तभी होता है जब आगे जानेवाला व्यक्ति परिचित है या नहीं, यह भ्रम उत्पन्न हो जाए। इस सम्बोधन को सुनते ही प्रत्येक बनारसी एक बार पीछे मुड़कर पुकारनेवाले को देखेगा। परिचित हुआ तो कोई बात नहीं, वरना अपनी राह चल देगा। ‘राजा’ और ‘मालिक’ सम्बोधन हर वर्ग के व्यक्ति अपने समवयस्कों के लिए प्रयोग करते हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनका ‘सभ्यता’ से जरा घनिष्ठ सम्बन्ध है, उन्हें ऐसे सम्बोधन अरुचिकर और भोंड़े लगते हैं। लेकिन सच्चा बनारसी इन सम्बोधनों पर कुर्बान हो जाता है। उसके लिए मिस्टर, जनाब से कहीं अधिक अपनत्व और रसपूर्ण ये सब सम्बोधन हैं। उदाहरण के लिए ‘सरदार’ सम्बोधन को ही लीजिए। यह सम्बोधन यहाँ के अहीरों के लिए रिजर्व है। यदि कल्लू अहीर को मिस्टर कल्लूराम या जनाब कल्लूप्रसाद कहें तो एक बारगी आपको सर से पैर तक इस तरह देखेगा, मानो आपने भारी बदतमीजी की है। उसकी शान में बट्टा लगा रहे हैं। ठीक इसी प्रकार ‘गुरु’ सम्बोधन यहाँ के ब्राह्मणों के लिए रिजर्व है। चाहे वह पौसरे पर बैठकर पानी पिलानेवाला हो या पान का दुकानदार, कथावाचक हो या वेदपाठी, सभी ‘गुरु’ हैं। अगर किसी ‘गुरु’ को आपने मिस्टर पांडेय या बाबू शुक्ल जी सम्बोधित कर दिया तो उसे लगेगा, जैसे आपने उसे बीच बाजार में झापड़ लगा दिया हो। सम्भव है आपके नमस्कार करने पर आशीर्वाद देना तो दूर रहा, वह रुख भी न मिलाये। लेकिन उसी जगह यदि आप ‘पालागी गुरु’ कहिए तो वे तुरन्त शहद की तरह मीठे हो जाएँगे और महात्मा बुद्ध की भाँति मुद्रा बनाकर आशीर्वाद देते कह उठेंगे - 'मस्त रहऽ बाट तऽ मजे में?'
बनारस में गुरुओं का बहुत बड़ा वर्ग है। हर मेल के, हर टाइप के गुरु यहाँ हैं। इनमें कौन छोटा है, कौन बड़ा है इसका निर्णय करना कठिन है। कौन कितना महान है, किसमें कितनी प्रतिभा छिपी हुई है - यह उतना ही गूढ़ विषय है जितना आज की नयी कविता में भाव।
गुरु के अनेक रूप
साधारणतः गुरु शब्द से जो तात्पर्य समझ में आता है उसके कई रूप हैं। आज से नहीं मनु महाराज के युग से गुरु उस व्यक्ति को कहा जाता है जो विद्यादान देता है। प्राचीन काल में गुरु लोग छात्रों को विद्यादान देते थे, कुल-पुरोहित का कार्य करते थे और राजकार्य में सहायता करते थे। जिस प्रकार आजकल गैर-सरकारी संस्थाओं में क्लर्कों के जिम्मे काफी काम लदे रहते हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल में गुरुओं के जिम्मे देश-समाज के अनेक कार्य लदे रहते थे। इसीलिए उनका प्रभाव बहुत व्यापक होता था। वे खिजलाकर कभी राजकुमारों को चपत लगा दिया करते थे। कभी ज्ञान-दंड से, कुंठित बुद्धि वाले छात्रों की बुद्धि को कोंचते थे। पानी भरवाना, खेत जोतवाना, पैर दबवाना और जंगल से काटकर लकड़ी मँगवाना तो साधारण बात थी। आजकल विद्यादान करनेवाले गुरु जरा कुछ ऊपर उठ गये हैं। अब वे प्रोफ़ेसर और मास्टर साहब हो गये हैं। इसलिए उनका प्रभाव घट गया है, या उन्हें यह सुविधा प्राप्त नहीं है।
कुल-पुरोहित तथा कथावाचकों का एक अलग दल बन गया है। हवन-यज्ञ तो होते ही नहीं, क्योंकि आजकल भारतीय इतना खाने लगे हैं कि विदेशों से अन्न मँगाना पड़ रहा है। शुद्ध घी तो आँखों में लगाने को नहीं मिलता। डालडा तक ढाई रुपये का सेर भर मिलता है। फिर कौन यज्ञ-हवन करे!
धनुषबाण के युग में छात्रों को अश्वत्थ और वट वृक्ष के नीचे शिक्षा दी जाती थी। लेकिन एटम के युग में वह युनिवर्सिटी, कॉलेज और स्कूलों में दी जाने लगी है। ऐसे गुरुओं के बनारस में दो वर्ग हैं। एक वे जो सरकारी संस्थाओं में पढ़ाते हैं, दूसरे वे जो अपने घरों में मृतभाषा (संस्कृत) पढ़ाते हैं। घर में पढ़नेवाले छात्र संयमी होते हैं, वे अपने गुरुओं का आदर करते हैं भले ही वह अभिनय हो। अन्य गुरुओं की, खासकर जो प्रश्न-पत्र पर नम्बर देते हैं उनकी, जान खतरे में रहती है। इसीलिए आजकल बीमा कम्पनियों की गोटी लाल हो रही है। घर पर पढ़नेवाले छात्रों को सरकारी नौकरी नहीं मिलती, केवल कथा वाचना, विवाह, अनुष्ठान आदि करना, तीर्थ-पुरोहित बनकर संकल्प लेना और पोथी-पत्र देखकर जीवन का भविष्य बताना इनका मुख्य पेशा है।
कलाकार गुरु
गुरुओं का दूसरा वर्ग है जिन्हें कलाकार कहा जाता है। वे अपने चेलों को हुनर सिखाते हैं। इन्हें गुरू (गुरु नहीं) या उस्ताद कहा जाता है। ये गुरू अपने चेलों को चित्रकला सिखाएँ या चौर्यकला! दस्तकारी सिखाएँ या हाथ की सफाई। सभी ‘कला’ की श्रेणी में आ जाते हैं। चूँकि ऐसे गुरुओं में सभी वर्ग के लोग उस्ताद या गुरू बन जाते हैं, इसलिए इन्हें राष्ट्रीय गुरू कहा जाता है।
तीसरे किस्म के गुरु जरा रजिस्टर्ड किस्म के होते हैं, जिनका आम पेशा है -कान में मन्त्र फूँककर चेला-चेलियों की फ़ौज तैयार करना। ये गुरु पूर्णिमा के दिन पाद-पूजा करवाकर सालभर का राशन एकत्रित करते हैं। कभी सत्संग के नाम पर तो कभी वर्षा-वास के नाम पर चेला-चेलियों के यहाँ अड्डा जमाकर उन्हें कृतार्थ करते हैं। इनमें कुछ गुरु ऐसे भी हैं जो धर्मशाला, पाठशाला और औषधालय के निर्माण के नाम पर ‘टूर’ करते रहते हैं।
लेकिन सच पूछिए तो बनारसी गुरु जरा अलग किस्म के होते हैं। वे इन सब हथकंडों से दूर रहते हैं। उन्हें अपना सम्मान सबसे अधिक प्रिय होता है। आज भी बनारस में ऐसे गुरुओं की संख्या कम नहीं है जो दूसरों के यहाँ भोजन नहीं करते, मृतक भोज में सम्मिलित नहीं होते और साधारण दान नहीं लेते।
प्राचीन काल में गुरु और सरदार दोनों ही बनारस की नाक समझे जाते थे। आनेवाले हर बाहरी संकटों में मुकाबला करना ही इनके जीवन का मुख्य ध्येय था। नेतृत्व का सारा भार गुरुओं पर था। उनके एक इशारे पर जान पर खेल जानेवाले अनेक सरदार होते थे। खाली समय में गुरु लोग छात्रों को पढ़ाने के बाद अखाड़ों में पट्ठों को तैयार करते थे। उन्हें युद्ध-कौशल सिखाया करते थे। लाठी, गड़ांसा, बल्लम, तलवार आदि अस्त्रों का चलाना तथा युद्ध में व्यूह रचना सिखाया करते थे। देश-समाज में अमन-चैन कैसे रखा जाय इसकी नीति बताया करते थे। जो गुरु जितना प्रभावशाली होता था उसके पीछे उतने ही पट्ठे ‘सेंगरी’ लिये चला करते थे। इन्हें सामने से आते देख बड़े-बड़ों की धोती ढीली हो जाती थी। लोगों की निगाहें गुरु के कदमों को चूमा करती थीं। अपनी शक्ति पर घमंड करनेवाले बड़े-बड़े ‘बारहाँ’ भी गुरु के आगे भीगी बिल्ली बन जाते थे। अर्थ-लोभ के कारण उन्होंने न तो कभी अन्याय-अत्याचार को प्रोत्साहन दिया और न किसी गरीब-बेकस को सताया। किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह घर या बाहर किसी प्रकार का अनाचार करे। गुरु के एक इशारे पर किसी के धड़ से सर अलग हो जाना मामूली बात थी। आज वह युग नहीं रहा। न्याय करने और दंड देने का अधिकार सरकार के हाथों में है। फिर भी उस परम्परा को जीवित रखने के लिए नागपंचमी के दिन अखाड़ों में दंगल और होली के दिन मीरघाट पर धर्मयुद्ध का नाटक खेला जाता है। निर्जला एकादशी के दिन उस पार कबड्डी में कुछ लोग हाथ-पैर तोड़वा आते हैं।
बनारस में गुरु कहलाने का एकमात्र अधिकार ब्राह्मणों को है, चाहे वह किसी वर्ग का ब्राह्मण क्यों न हो। जिस प्रकार दफ़्तरों में बड़े बाबू अपने सहकारियों से इस बात की आशा करते हैं कि उन्हें देखते ही लोग एक किनारे से ही उन्हें नमस्कार करने लगेंगे और कुर्सी छोड़कर खड़े हो जाएँगे, ठीक उसी प्रकार बनारसी गुरु भी सभी परिचित यजमानों से ‘पालागी गुरु’ का कांक्षी होता है। यह उनका जातीय हक है। आज भी बनारस में कई ऐसे गुरु हैं जिनसे गाली सुनने और तिथि तारीख आदि जानने की गरज से कुछ लोग उन्हें नमस्कार करते हैं।
गुरुओं की महत्ता
कौन गुरु कितना महान है, इसकी साधारण जानकारी आप सिर्फ दो बातों से कर सकते हैं। भोजन और भाँग। जो गुरु जितना डटकर भोजन करता है, उसी अनुपात में वह भाँग छानता है। भोजन के लिए चौचक प्रबन्ध भले ही न हो पर भाँग के लिए जरूर चाहिए। फिर जब गुरु भाँग छान लेते हैं तब इस तरह वे भोजन करने लगते हैं, मानो अब एक हफ्ते तक उन्हें भोजन नहीं करना है।
साधारणतः गुरु लोग सफेद धोती, एक चद्दर और एक लाल गमछा कन्धे पर डाले बनारस की गलियों में चलते-फिरते दिखाई देते हैं। मस्तक पर चन्दन का तिलक, गले में लहराता हुआ यज्ञोपवीत, हाथ में पूजनसामग्री अथवा पोथी-पत्रा लिये रहते हैं। कुछ गुरु लोग ‘सेंगरी’ (तेल पीकर लाल बनी लाठी) लेकर भी चलते हैं। इनकी चाल में जितनी मजबूती रहती है, उतनी ही मस्ती भी। चप्पल या बूट पहनना वे पसन्द नहीं करते। कपड़ेवाला जूता या चमरौधा जिसमें नाल जड़े हों - वे अधिक पसन्द करते हैं। विशाल काया, जिसे देखते ही बच्चे सहम जाते हैं, मटके की भाँति तोंद, जो न जाने कितना आसव अरिष्ट और पकवान खाकर फूलती है, भव्य मुख पर छोटी-घनी मूँछें और विजया के मद में डूबी लाल आँखें देखते ही लोगों का माथा श्रद्धा से झुक जाता है, जैसे आती हुई गाड़ी को देखकर सिगनल झुक जाता है। जाड़ा हो या बरसात, पर गुरु लोग कोट-पतलून पहनना पसन्द नहीं करते। नंगे बदन रहना, थोड़े में सन्तुष्ट हो जाना उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। याद रखिए यह युग प्रचार का है। विज्ञापन के जरिये आज बहुत-सी वस्तुओं का उपयोग कैसे किया जाता है - हमने सीखा है। ठीक उसी प्रकार पोशाक-आकृति या टीम-टाम से आप बनारसी गुरुओं को पहचानने में गलती न कर बैठें। जिस ब्राह्मण को आप कोरा ब्राह्मण समझ रहे हों, मुमकिन है कि वह कई विषयों का आचार्य हो। इसके विरुद्ध तेजस्वी लगने वाले ब्राह्मण अँगूठा लगाकर हस्ताक्षर करते हों। यद्यपि ये दोनों प्रकृतिवाले यहाँ गुरु माने जाते हैं और दोनों ही पूज्य हैं, लेकिन यजमानों में श्रद्धा अलग-अलग किस्म से उत्पन्न होती है। जो गुरु जितना महान होगा वह उतना ही ‘अजगर प्रवृत्ति’ का होगा। ऐसे गुरु अपनी सारी प्रतिभा अपने साथ लिये चले जाते हैं। इन्हें न तो मौका दिया जाता है और न लोग इनकी विद्वत्ता ही जान पाते हैं। नतीजा यह होता है कि उचित सम्मान न पाने के कारण वे स्वाभिमानी बन जाते हैं और धीरे-धीरे यह स्वाभिमान हठ का रूप धारण कर लेता है।
इसके विरुद्ध रंग गाँठनेवाले या महापंडित लगनेवाले पंडित समाज में आदरणीय बने रहते हैं। सच पूछिए तो ऐसे गुरु सिर्फ कमाने-खाने वाले होते हैं। इनकी महत्ता विशेष नहीं होती। लेकिन विद्वान गुरुओं से कहीं अधिक इनका रंग रहता है।
विद्वान पंडित कभी रंग गाँठने का प्रयत्न नहीं करता। वह बहुत ही भोला-भाला सीधा-सादा प्रकृति का होता है।
पंडित समाज
बनारस में गुरुओं की एक जमात है जिसे ‘पंडित समाज’ कहा जाता है। गुरुओं का असली रूप इस समाज में देखने को मिलता है। जब दो गुरु संस्कृत में झाँव-झाँव करने लगते हैं तब एक अजीब नजारा देखने में आता है। लगता है अब शीघ्र ही मल्ल युद्ध देखने को मिलेगा। सभापति और अन्य पंडित मौन मजा लेते रहते हैं। आखिर जब एक पंडित थक जाता है तब दूसरा उससे वाक्-युद्ध करने के लिए उठ खड़ा होता है, फिर प्रत्येक गुरु कछुए की तरह गर्दन बढ़ाकर इस तरह लड़ने लगता है, मानो भीषण मारपीट की नौबत आ गयी हो। इस प्रकार बनारसी गुरुओं की गुरुआई प्रकट होती है। इन गुरुओं की साख सिर्फ बनारस में ही नहीं, समूचे भारत में हैं। जिस बात को ये अस्वीकार कर दें, उसकी मान्यता भारत में हो ही नहीं सकती। भारत के महामान्य राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने भी इन गुरुओं का सम्मान पैर धोकर किया है।
इन गुरुओं की जमात बुलाना साधारण बात नहीं। बहुत सोच-समझकर और आवश्यकता को समझते हुए ये लोग एकत्रित होते हैं। ये सिर्फ देश-समाज व आसन्न संकट का फैसला करने के लिए एकत्रित होते हैं। इनका फैसला अटल होता है। इनके आने की एक लम्बी फीस बुलानेवालों को चुकानी पड़ती है। आज से नहीं, बहुत दिनों से इनकी एक फीस निश्चित है - उस पर मँहगाई, अलाउंस या बोनस का रंग नहीं चढ़ा है। और न डॉक्टरों की भाँति सीनियारटी-जूनियारटी के हिसाब से इनकी फीस घटती-बढ़ती है। हमेशा एक रेट। जिस वक्त ये लाउडस्पीकर के सामने खड़े होकर भाषण देने लगते हैं, लाउडस्पीकर का दिवाला पिट जाता है। बिना लाउडस्पीकर के ही ये हजार-दो-हजार की भीड़ में गरजते रहते हैं।
गुरु पूर्णिमा के दिन गुरुओं का बढ़ा रंग रहता है। उस दिन बनारस के हर गुरु पूजे जाते हैं।
अत्युक्ति का दोष न दें तो मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि हर बनारसी अपने को ‘गुरु’ समझता है।