बनारसी पान / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
बनारसी पान सारे संसार में प्रसिद्ध है। बनारस में पान की खेती नहीं होती। फिर भी बनारसी बीड़ों की महत्ता सभी स्वीकार करते हैं। लगभग सभी किस्मों के पान यहाँ, जगन्नाथ जी, गया और कलकत्ता आदि स्थानों से आते हैं। पान का जितना बड़ा व्यावसायिक केन्द्र बनारस है, शायद उतना बड़ा केन्द्र विश्व का कोई नगर नहीं है। काशी में इसी व्यवसाय के नाम पर दो मुहल्ले बसे हुए हैं। सुबह सात बजे से लेकर ग्यारह बजे तक इन बाजारों में चहल-पहल रहती है। केवल शहर के पान विक्रेता ही नहीं, बल्कि दूसरे शहरों के विक्रेता भी इस समय इस जगह पान खरीदने आते हैं। यहाँ से पान ‘कमाकर’ विभिन्न शहरों में भेजा जाता है। ‘कमाना’ एक बहुत ही परिश्रमपूर्ण कार्य है—जिसे पान का व्यवसायी और उसके घर की महिलाएँ करती हैं, यही ‘कमाने’ की क्रिया ही बनारसी पान की ख्याति का कारण है। इस समय भी बनारस में दस हजार से अधिक पुरुष और स्त्रियाँ ‘कमाने’ का कार्य करते हैं। कमाने का महत्त्व इसी से समझा जा सकता है कि इस समय जो पान बाजार में हरी देशी पत्ती के नाम पर चालू है, उसे ही लोग एक साल तक पकाते हुए उसकी ताजगी बनाये रखते हैं। ऐसे पानों को ‘मगही’ कहा जाता है। मगही जब सस्ता होता है तब पैसे में बीड़ा मिलता है, लेकिन जब धीरे-धीरे स्टाक समाप्त होने लगता है तब चार आने बीड़ा तक दाम देने पर प्राप्त नहीं होता।
यों बनारस जनता मगही पान के आगे अन्य पान को ‘घास’ या ‘बड़ का पत्ता’ संज्ञा देती है, किन्तु मगही के अभाव में उसे जगन्नाथी पान का आश्रय लेना पड़ता है, अन्यथा प्रत्येक बनारसी मगही पान खाता है। इसके अलावा साँची-कपूरी या बंगला पान की खपत यहाँ नाम मात्र की होती है। ‘बंगला पान’ बंगाली और मुसलमान ही अधिक खाते हैं। मगही पान इसलिए अधिक पसन्द किया जाता है कि वह मुँह में जाते ही घुल जाता है।
पान खाने की सफाई
बनारस के अलावा अन्य जगह पाना खाया जाता है, लेकिन बनारसी पान खाते नहीं, घुलाते हैं। पान घुलाना साधारण क्रिया नहीं हैं। पान का घुलाना एक प्रकार से यौगिक क्रिया है। यह क्रिया केवल असली बनारसियों द्वारा ही सम्पन्न होती है। पान मुँह में रखकर लार को इकट्ठा किया जाता है और यही लार जब तक मुँह में भरी रहती है, पान घुलता है। कुछ लोग उसे नाश्ते की तरह चबा जाते हैं, जो पान घुलाने की श्रेणी में नहीं आता। पान की पहली पीक फेंक दी जाती है ताकि सुर्ती की निकोटिन निकल जाए। इसके बाद घुलाने की क्रिया शुरू होती है। अगर आप किसी बनारसी का मुँह फूला हुआ देख लें तो समझ जाइए कि वह इस समय पान घुला रहा है। पान घुलाते समय वह बात करना पसन्द नहीं करता। अगर बात करना जरूरी हो जाए तो आसमान की ओर मुँह करके आपसे बात करेगा ताकि पान का, जो चौचक जम गया होता है, मज़ा किरकिरा न हो जाए। शायद ही ऐसा कोई बनारसी होगा जिसके रूमाल से लेकर पायजामे तक पान की पीक से रँगे न हों। गलियों में बने मकान कमर तक पान की पीक से रंगीन बने रहते हैं। सिर्फ इसी उदाहरण से स्पष्ट है कि बनारसी पान से कितनी पुरदर्द मुहब्बत करते हैं। भोजन के बाद तो सभी पान खाते हैं, लेकिन कुछ बनारसी पान जमाकर निपटने (शौच करने) जाते हैं, कुछ साहित्यिक पान जमाकर लिखना शुरू करते हैं और कुछ लोग दिन-रात गाल में पान दबाकर रखते हैं।
बनारसी पान का महत्त्व
बनारसी पान का खास महत्त्व यद्यपि उसके ‘कमाने’ से सम्बन्धित है तथापि बनारसी पान में व्यवहृत होने वाली सामग्रियों का भी कम महत्त्व नहीं है। यद्यपि इन्हीं सामग्रियों से देश के प्रत्येक कोने में पान लगाया जाता है, तथापि बनारसी पान-विक्रेता उसमें अपनी मौलिकता दे देता है। हर पान को लगाने के पहले ख़ूब साफ कर लिया जाता है, फिर गीले कपड़े से सुपारी काटकर पानी में भिगो दिया जाता है जिससे उसका कसैलापन दूर हो जाए। इसके बाद भीगी हुई सुपारी प्रयोग में लाते हैं। कड़ापन न रहने से यह सुपारी मगही या अन्य पान के साथ तुरन्त घुल जाती है।
बनारसी पान में कत्था विशेष ढंग से बनाकर प्रयोग किया जाता है। पहले कत्थे को पानी में भिगो देते हैं। अगर उसका रंग अधिक काला हुआ तो उसे दूध में भिगोते हैं। फिर उसे पकाकर एक चौड़े बर्तन में फैला दिया जाता है। कुछ घंटे बाद जब कत्था जम जाता है तब उसे एक मोटे कपड़े में बाँधकर सिल या जाँता जैसे वजनी पत्थर के नीचे दबा देते हैं। इससे कसैलापन और गरमी निकल जाती है। इसके पश्चात सोंधापन लाने तथा बाकी कसैलापन निकालने के लिए उसे गरम राख में दबा दिया जाता है। इतना करने पर वह कत्था थक्का-सा हो जाता है। उसका रंग काफी सफेद हो जाता है। कत्थे के इस थक्के में पानी मिलाकर खूब घोंटकर और इत्र-गुलाबजल आदि मिलाकर तब पान में लगाया जाता है। इस तरह से बनाया हुआ कत्था बनारसी पान की जान है।
बनारसी पान में जिस प्रकार कत्था-सुपारी अपने ढंग की होती है, उसी प्रकार चूना भी। ताजा चूना यहाँ कभी प्रयोग में नहीं लाते। पहले चूने को लाकर पानी में बुझा दिया जाता है, फिर तीन-चार दिन बाद उसे खूब घोंटकर कपड़े से छान लिया जाता है। इससे चूने के सारे कंकड़ वगैरह छन जाते हैं। छने हुए चूने का पानी जब बैठ जाता है तब उसके नीचे का चूना काम में लाया जाता है। यदि चूना तेज रहता है तो उसमें दूध या दही का पानी मिलाकर उसकी गरमी निकाल दी जाती है।
पान की दुकान की मर्यादा
बनारस में पान की हजारों दुकानें हैं। इसके अलावा ‘डलिया’ में बेचनेवालों की संख्या कम नहीं है। प्रत्येक चार दुकान या चार मकान के बाद आपको पान की दुकानें मिलेंगी। महाल के मकानों, गलियों और सारे शहर की सड़कों पर पान की पीक की मानो होली खेली जाती है। पान में इतनी सफाई रहने के बावजूद पान खानेवाले शहर को गन्दा किये रहते हैं। वैसे यहाँ का दुकानदार अपनी दुकान में किसी किस्म की गन्दगी रखना पसन्द नहीं करता। सिवाय अपने हाथ और कपड़ों को कत्थे के रंग से रँगकर रखने के, वह सभी सामान खूब साफ रखता है। आदमकद शीशा, कत्थे का बर्तन, चूने की कटोरी, सुपारी का बर्तन और पीतल की चौकी माँज-धोकर वह इतना साफ रखता है कि बड़े-बड़े कर्मकांडी पंडित के पानी पीने का गिलास भी उतना नहीं चमक सकता।
याद रखिए कोई भी बनारसी पान विक्रेता अपने पान की दुकान की चौकी पर हाथ लगाने नहीं देगा और न लखनऊ, दिल्ली, कानपुर, आगरा की तरह चूना माँगने पर चौकी पर चूना लगा देगा कि आप उसमें से उँगली लगाकर चाट लें। आप सुर्ती खाते हैं तो आपको अलग से सुर्ती देगा—यह नहीं कि जर्दा पूछा और अपनी इच्छा के अनुसार जर्दा छोड़ दिया। यहाँ तक कि चूना भी आपको अलग से देगा। आप उसकी दुकान छू दें, यह उसे कतई पसन्द नहीं, चाहे आप कितने बड़े अधिकारी क्यों न हों! आपको पान खाना है, पैसा चौकी पर फेंकिए, वह आपके लिए दिल्ली, लखनऊ की तरह पहले से पान में चूना-खैर लगाकर नहीं रख छोड़ता। आपकी माँग के अनुसार वह तुरन्त लगाकर आपको पान देगा। कुछ जगहों पर पहले चूना लगाकर उस पर कत्था लगाते हैं। बनारस में यह नियम नहीं है। इससे पान जल जाता है और पूरा स्वाद नहीं मिलता। यहाँ चूने को थोड़ा-सा एक कोने में लगा देते हैं। प्रत्येक बनारसी पीली सुर्ती या इधर नयी चली सादी सुर्ती खाना अधिक पसन्द करता है; काली सुर्ती से उसे बेहद चिढ़ है। पीली सुर्ती तेजाबी होने के कारण सेहत को नुकसान पहुँचाती है, इसीलिए इधर सादी सुर्ती का प्रचलन हुआ है। सादी सुर्ती को पहले पानी से खूब धो लेते हैं और सारा गर्द-गुबार साफ कर लेने के बाद उसमें बराश, छोटी इलायची, पिपरमिंट के चूर तथा गुलाबजल मिलाकर बनाया जाता है। सादी सुर्ती में सबसे बड़ी खूबी यह है कि अधिक खा लेने पर भी चक्कर नहीं देती।