बनारसी पिकनिक / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
बनारसी पिकनिक किस ढंग से की जाती है, वह क्या है, उसका स्थान कहाँ-कहाँ पर है और कैसे लोग उसमें सम्मिलित होते हैं, इन सब प्रश्नों का उत्तर बिना बनारसी पिकनिक देखे नहीं दिया जा सकता। इसमें सन्देह नहीं कि बनारसी पिकनिक अपने ढंग की निराली है। बड़े-बड़े भोज या पार्टी में वह मजा नहीं, वह जीवन नहीं और न वह मस्ती या बहार है, जो बनारसी पिकनिक में है। बनारस में रहकर जो व्यक्ति बनारसी पिकनिक में नहीं गया, वह अपने को बनारसी कहने का गर्व नहीं कर सकता। कहने का मतलब यह है कि बनारसी पिकनिक करनेवाला शुद्ध बनारसी है। इन पिकनिकों में बनारसियों का सही रूप और उनका जीवन देखा जा सकता है। कुछ देर के लिए दर्शक भी आत्मविस्मृत-सा हो जाएगा। इस दुनिया के परे भी कोई दुनिया है, जहाँ न हाइड्रोजन बम है, न राष्ट्रसंघ की चों-चों है और न हैं जीवन की बेबसियाँ। वहाँ तो सारी दुनिया के ग़म को भुलाकर मौज-मस्ती की दरिया में अपने-आपको डुबा लेना ही मुख्य कार्य समझा जाता है।
कहा जाता है कि एकबार जयपुर के महाराज प्रतापसिंह के साथ पद्माकर जी श्रावण में काशी आये थे। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि बनारसी लोग श्रावण में ही पिकनिक का आयोजन करते हैं। सडक पर कुछ गौनहारिनें गाती हुई जा रही थीं और उनके पीछे कुछ गुंडे ‘रंग है री रंग है’ आवाज़ देते हुए चल रहे थे। इस दृश्य का कोई तात्पर्य महाराज की समझ में नहीं आया। फलस्वरूप पद्माकरजी को कहना पड़ा -
सावन सखी री मनभावन के संग बालि
क्यों न चलि झूलत हिंडोरैं नव रंग पर;
कहै पद्माकर त्यों जोबन उमंगनि तैं
उमगि उमंगित अनंग अंग-अंग पर।
चारु चुनरी की चारों तरफ तरंग तैसी
तंग अँगिया है तनी उरज उतंग पर;
सौतनि के बदन बिलोकै बदरंग होत
रंग है री रंग तेरी मेंहदी सुरंग पर॥
पिकनिक के स्थल
बनारसी पिकनिक के खास स्थल हैं। सभी जगह मनाने का रिवाज नहीं है और न आनन्द ही आता है। बनारसी भाषा में जिसे ‘निछद्दम’ कहा जाता है—ऐसे स्थानों पर बनारसी पिकनिकों का आयोजन होता है। बनारस में ऐसे स्थान तीन श्रेणी के हैं। रामनगर, वेदव्यास, सारनाथ और राजातालाब प्रथम श्रेणी वाले स्थान हैं। दुर्गाजी, भास्करा, बेचूवीर और औंरातले द्वितीय श्रेणी वाले हैं। तीसरी श्रेणी में तो अनेक स्थान आ जाते हैं। इसके अलावा कुछ लोग विन्ध्याचल आदि स्थानों में भी चले जाते हैं। प्रथम श्रेणी वाले स्थानों पर खास-खास समय पर मेले लगते हैं जो अपने ढंग के निराले होते हैं। रामनगर और वेदव्यास जाड़े के दिनों में, राजातालाब बरसात के प्रथम चरण में, चकिया, सारनाथ बरसात के दिनों में जाते हैं। चूँकि गर्मी बड़ी बेशर्म होती है और उन दिनों बादशाही ढंग से मनाना सम्भव नहीं होता, इसलिए गर्मी में पिकनिक के आयोजन नहीं होते। यह याद रखिएगा कि बनारसी पिकनिक में कंजूसी नहीं बरती जाती। एक बड़ी पार्टी में जो खर्च बैठता है, बनारसी पिकनिक में उससे कहीं अधिक खर्च होता है।
पिकनिक का आयोजन
बनारसी पिकनिक एक-दो व्यक्तियों के गुट से नहीं होता। कम-से-कम तीन या उससे अधिक व्यक्ति एक आयोजन में रहते हैं। हाँ, दो परिवार अगर रहें तो ठीक रहता है, क्योंकि परिवार में केंची-पेंची और रेजगारियाँ (बच्चे) भी सम्मिलित रहते हैं। लेकिन एक बनारसी पिकनिक में अधिक व्यक्तियों को सम्मिलित भी नहीं करना चाहता। उसके शब्दों में ‘भउसा’ हो जाता है। अन्य पार्टी या भोज की तरह बनारसी पिकनिक में मेज पर बना बनाया भोजन प्लेट में परोसा हुआ नहीं मिलता। वहाँ जानेवाले व्यक्ति ‘भोजन’ बनाने में मेहनत करते हैं। इसलिए वहाँ जाकर अमुक वस्तु नहीं है, कहाँ मिलेगी—इस चिन्ता से मुक्त रहने के लिए सभी आवश्यक सामान साथ ले जाते हैं। मेले के अवसर पर हँड़िय़ा, पुरवा, पत्तल, गोहरा और मसाला आदि का टोटा पड़ जाता है तथा महँगा भी मिलता है। इसलिए कुछ लोग घर से ये सामान भी ले जाते हैं—पर बहुत कम लोग ऐसा करते हैं। हाँ, कलछुल, बेलना, कड़ाही और पौना वगैरह ले जाते हैं। यह कोई जरूरी नहीं कि सभी लिट्टी-चुरमा खाएँ। कोई पूड़ी-पोलाव भी खाता है तो कोई पकौड़ी भी तलता है। कहने का मतलब जिसके मन में जो आता है, वही बनाकर खाते हैं।
यह सारी तैयारियाँ कर घर से चलते हैं। जब हुजूम चलता है तब की छटा देखने लायक होती है। रंग-बिरंगी साड़ियाँ, सलवारें, साफा, दुपट्टा, और घर-गृहस्थी का पूरा डेरा रिक्शे, ताँगे और इक्के पर चलते हैं। घोड़ों की टापों से सडक काँप उठती है और मीलों तक सड़क गुंजायमान हो उठती है। लगता है, जैसे दिल्ली से राजधानी दौलताबाद बसने जा रही है। सम्भवत: आपको विश्वास न हो इसलिए आपको लगे हाथ एक उदाहरण दे दूँ। आज से 150 वर्ष पूर्व महाराज जयनारायण घोषाल काशी आये थे। बनारसियों के अलमस्त जीवन का वर्णन उन्होंने जिस ढंग से किया है उसे पढ़ने के पश्चात बनारसियों के पिकनिक और जन-समारोह के शौक का पता चल जाता है—
नगरेर जत लोक करिया भोजन,
दुर्गायात्रा हेतु सभे करेन गमन।
केहो पालकी चढ़े केहो रथे जाय,
केहो गज, केहो बाजी, जारे जेई भाय।
पद ब्रजे असंख्य लोकेर आगमन,
गले गुल्फे बाहुते बिजटा आभरण।
शिरे पाग गोलाबी, कुसुमी गोलेलार,
शोषणि हरि रंग जतेक प्रकार।
कदाचित सादा पाग काहारो माथाय,
अंग-भंग-रंग-संग युवाजन जाय।
चौड़ा लाल किनारीर धूति केहो परि,
रेशमी किमर्मिजी धूति जरीर किनारी।
नाना रंगे किमखाब फुलाम मसरू,
केहो बागलता गोल बदन अमरू।
कत शत जरिर उड़ानि देखि गाय,
एईमत सारि-सारि सर्वलोक जाय।
कि लिखि शोभार कथा लय मम मने,
जे मत फुटिलो फूल आनन्द कानने।
इसके बाद निश्चित जगह जाकर स्थान तजवीजते हैं। जहाँ पास में पानी की सुविधा हो, वहीं डेरा जमाते हैं।
पिकनिक की बहार
डेरा जम जाने के बाद गोहरा, हँड़िया का इन्तजाम कर चूल्हा सुलगाकर उस पर अलग-अलग सामान बैठा दिया जाता है। भात, दाल, तरकारी, खिचड़ी, लिट्टी, पोलाव, पकौड़ी और पूड़ी बनाई जाती है। कोई पानी ला रहा है, कोई मसाला पीस रहा है, कोई चावल बीन रहा है, कोई तरकारी छील रहा है और कोई साफा लगा रहा है। इन पिकनिकों में साफा लगाना और भाँग छानना प्रधान कार्य माना जाता है। उधर हँड़िये में खदबद कर भोजन तैयार हो रहा है, इधर गुरू लोग भाँग काट रहे हैं, साफा लगा रहे हैं। साबुन की पूरी बट्टी एक ही धोती पर घिस जाती है। पेड़ के हर तने पर सफेद धोतियाँ टँग जाती हैं। लगता है—जैसे धोबी घाट है। बनारसी साफा लगाने में अपनी शान समझते हैं—भले वह धोती कल ही धोबी के घर से क्यों न आयी हो, भाँग तो बाबा का प्रसाद है—नशा नहीं।
आँखों में गुलाबी डोर खींचे खेतों में निपटने चले जाते हैं, फिर स्नान कर दिव्य हो, भोजन पर आ जुटते हैं। नंग-धड़ंग बदन और बाँहों की गुल्लियाँ कसरती बनारसी का रंग उभार देती हैं। भोजन के पश्चात साफा लगाये हुए कपड़ों को पहनकर मन्दिरों में या दर्शनीय स्थलों को देखने चल पड़ते हैं। ‘आगे आत्मा पीछे परमात्मा’ कहावत यहीं लागू होती है। इसके बाद शाम तक यह काफ़िला घर लौटता है। इसे कहते हैं बनारसी पिकनिक। जहाँ मन की ही नहीं, तन की भी आजादी रहती है। है दुनिया के किसी परदे में ऐसी आजादी?