बनारसी रईस / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
हिन्दुस्तानी नवाबों की नगरी लखनऊ और रईसों की नगरी बनारस है। हाँ, अगर आप इन दोनों शहरों के बाशिन्दे न हुए तो नाराज हो सकते हैं। इसलिए पहले आपकी नाराजगी दूर कर दूँ। सर्चलाइट लेकर तलाश करने पर हिन्दुस्तान के हर गली-कूचे में रईस और नवाब खचियों मिल जाएँगे पर जो सिफत बनारसी रईसों में है और जो नजाकत लखनवी नवाबों में है, वह उनमें कभी नहीं पाइएगा। आधुनिक युग में करोड़पति या लखपति जाड़े के दिनों में अधिक-से-अधिक दो या तीन लिहाफ ओढ़ता होगा। अगर यही बात किसी लखनवी नवाब से पूछिए तो किस दिन कितना जाड़ा पड़ा था इसका नाप-जोख वह लिहाफ़ों की संख्या में बताएगा। है दुनिया के किसी ठंडे मुल्क में बसे नवाबों में यह नजाकत? ठीक इसी प्रकार बनारसी रईस भी भोजन में पीसे हुए बासी मसाले की शिकायत से लेकर बिस्तर की तीसरे चद्दर की सिकुड़न का बयान दे सकता है।
रईस कौन?
सच पूछिए तो रईस न तो किसी साँचे में ढाले जाते हैं और न किसी फैक्टरी में बनाये जाते हैं। उन्हें मार-पीटकर भी रईस नहीं बनाया जाता। रईस लोग अपनी प्रवृत्तियों के कारण बनते हैं। मेरा मतलब उन रईसों से नहीं है जो जलपान गृह, रेस्तराँ और सिनेमा के पास विचरण करते हुए अपने मित्रों से कह उठते हैं - ‘आओ यार, तुम भी क्या कहोगे किसी रईस से पाला पड़ा था।’ याद रखिएगा, रईसी किसी की बपौती नहीं है और न किसी जाति विशेष की अमलदारी। रईस हर वर्ग का हर व्यक्ति बन सकता है, बशर्ते उसमें नफासत हो, नजाकत हो और शराफत हो।
बनारसी रईसी का मतलब साधारण तौर पर उदारता और शाहखर्ची से लगाया जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अनैतिक कार्यों में भी शाहखर्च बननेवाला रईस की उपाधि पा जाए। बनारसी रईस उस व्यक्ति को कहा जाता है जो व्यक्तिवादी नहीं होता और जन समारोहों में अपना परिचय विलक्षण मुक्त हस्ती से देता है। लगे हाथ एक उदाहरण सुन लीजिए।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से अधिकांश लोग परिचित हैं। बनारस में अनेक साहित्यिक पैदा हुए और होते रहेंगे, पर इनकी उदारता का गुणगान आज के प्रत्येक काशीवासी की जबान पर है। इनकी रईसी देखकर एक बार काशी नरेश के मन में भी ईर्ष्या उत्पन्न हो गयी थी। उन्होंने कहा था - 'बबुआ, एत्तरे खर्चा करबा त एक दिना बाप-दादा का बिरासत डूब के रह जाई...'
भारतेन्दु ने छूटते ही जवाब दिया - 'इस धन ने मेरे दादा को खाया, मेरे बाप को खाया और अब मुझे भी खा जाना चाहता था। इसलिए मैंने सोचा लाओ मैं ही इसे खा जाऊँ। न रहे बाँस और न बजे बाँसुरी।'
स्मरणीय कवि-सम्मेलन
भारतेन्दु कितने बड़े रईस और साहित्य प्रेमी थे निम्नलिखित उदाहरण से जाना जा सकता है -
एक बार इनके यहाँ तीन दिनों तक अखंड कवि-सम्मेलन होता रहा। पन्द्रह-बीस हलवाई पूड़ी-तरकारी बनाते रहे। कुछ लोग भाँग घोटते रहे। बाहरी मेहमान और कविगण खाते-पीते-सोते और कवि-सम्मेलन में भाग लेते रहे। लेकिन सम्मेलन कुछ देर के लिए भी रुका नहीं। सारा शहर उलट पड़ा था। है कोई माँ का लाल, जो आज के युग में इतने कवियों का तीन दिनों तक खर्चा और नखरा बर्दाश्त कर सके।
बुढ़वा मंगल के वे प्राण थे। उन दिनों बुढ़वा मंगल में भाग लेने के लिए काशी नरेश भी आया करते थे। इस उत्सव में हज़ारों रुपयों के सोने-चाँदी का वर्क उड़ जाता था। साहित्य के नाम पर इस महान पुरुष ने जितना त्याग किया और दान दिया है, वह आज के युग में कभी सम्भव नहीं है।
एक बार दो तमोलियों को नशा-पानी के लिए कुछ रकम की आवश्यकता थी। तुरन्त कहीं इन्तजाम हो नहीं सकता था। बस, एक ने कुछ तुकबन्दियाँ कीं और चल पड़े भारतेन्दु के यहाँ। उनके सामने जाकर जब अपनी कविता सुनायी तब उन्हें उनका वास्तविक उद्देश्य समझते देर नहीं लगी। एक दुशाला और एक अँगूठी देते हुए बोले - 'कविता तुम्हारे बस की नहीं है। जाकर पान लगाओ। इसके चक्कर में मत पड़ो।' आज के युग में कौन-सा ऐसा साहित्य प्रेमी या धन्नासेठ है जो तुकबन्दी के नाम पर दुशाला और अँगूठी का दान कर सकता है?
शाहखर्ची और उदारता के अलावा बनारसी रईस कुछ झक्की भी होते हैं। राजाओं के बाद बनारस में रईसों का दर्ज़ा माना जाता है। कुछ मायने में जनता राजाओं से कहीं अधिक सम्मानित रईसों को समझती है। जिस प्रकार राजा अपनी तमाम प्रजाओं का खयाल रखता है, उसी प्रकार रईस अपने आश्रितों, अपने परिचितों तथा अपने अंचल के लोगों का खयाल रखते हैं। राजा केवल दर्शनीय होता है, अपनत्व के बाहर का व्यक्ति। लेकिन रईस अपनी महफिल का आदमी होता है जिससे हर ढंग से बातचीत की जा सकती है। वह कुछ मायनों में राजाओं से महान होता है, उसकी इस महानता को कुछ लोग ‘सनकीपन’ समझते हैं।
अशर्फी सुखाई जाती थी
तीन लोक से न्यारी काशी में रईस लोग भी निराले ढंग के हो चुके हैं। काशी में झक्कड़ साव के घराने की अनेक कहानियाँ बच्चों की जबान पर चहल-कदमी करती हैं। इनके बारे में यह बात अधिक प्रसिद्ध है कि एक बार आपको यह झक सवार हुई कि सन्दूकों में अशर्फियाँ काफी दिनों से पड़ी हैं, इन्हें धूप में डलवाकर सुखा लेना चाहिए। यह सनक सवार होते ही नौकरों को आदेश दिया गया कि तमाम अशर्फियाँ इकट्ठी करें। जब अशर्फियाँ इकट्ठी की गयीं तब उसके इतने ढेर लग गये कि गिनने के बजाय उन्हें तौलकर सूखने के लिए ऊपर भेज दिया गया। दिनभर सूखने के बाद जब पुनः तौली गयीं तब उन्हें जानकर आश्चर्य हुआ कि कम क्यों नहीं हुई। फलस्वरूप नौकरों पर बुरी तरह फटकार पड़ी - सब जांगरचोर हैं, काम ठीक से नहीं करते। कोई काम ठीक से नहीं होता।
दूसरे दिन फिर वही क्रिया दुहराई गयी। अन्त में नौकरों ने कुछ अशर्फियाँ अपनी जेब में रख लीं। इस प्रकार जब उस दिन वजन कम हो गया तब उन्हें विश्वास हो गया कि हाँ, आज अशर्फियाँ सचमुच सुखाई गयी हैं।
झक्कड़ साव की एक और कहानी इस प्रकार है। आप में एक आदत यह थी कि शाम को पान घुलाकर दो-तल्ले में बैठ जाते थे। जो व्यक्ति खूब साफ कपड़े (बुर्राक) पहनकर उनकी गली से गुजरता तो देख-दाखकर उस पर थूक देते थे। यह मानी हुई बात है कि आप जिस पर थूकेंगे वह आपकी इस ‘पुनीत-कृपा’ पर मौन नहीं रह सकेगा। फलस्वरूप वह व्यक्ति नीचे से काफी गालियाँ देता था जिसे सुनकर वे बड़े प्रसन्न होते थे। जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता था, उसे गदाई कहकर अपने आप में ही पेंचोताब खाकर रह जाते थे। कम्बख्त ने रईसी का रुआब नहीं माना।
हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक स्वर्गीय किशोरीलाल गोस्वामी महाराज भी यही क्रिया करते थे और झक्कड़ साव की भाँति आप भी गाली देनेवाले को ऊपर बुलाकर माफ़ी माँगते और नये वस्त्र पहनाकर उसे विदा कर देते थे।
एक पैसा जुर्माना
काशी के प्रसिद्ध रईस थे - लल्लन-छक्कन। इनका इतना बड़ा तबेला (अस्तबल) है कि आज वहाँ लड़कियों का सरकारी स्कूल खुल गया है। एक बार इन्हें अजीब सनक सवार हुई। इन्होंने अपनी बग्घी में इतने घोड़े जुतवाए, जो कानून के खिलाफ था। फलस्वरूप इन पर मुकदमा चला और जुर्माना हुआ। इससे चिढ़कर इन्होंने यह तय किया कि देखें सरकार कब तक कितना जुर्माना करती है। नित्य जुर्माना देते गये और नित्य एक घोड़ा बग्घी में बढ़ता गया। अन्त में एक दिन जज ने तंग आकर इन पर एक पैसा जुर्माना किया।
जज के इस फैसले से चिढ़कर कि क्या मेरी हस्ती एक पैसे की हो गयी, इन्होंने उस दिन के बाद से बग्घी पर बैठना छोड़ दिया।
बनारस के भीक्खू साव का नाम आज के बच्चे-बच्चे की जबान पर है। उनकी दैनिक क्रियाओं का साहित्य में वर्णन करना अनुचित होगा, इसलिए उनके बारे में कुछ नहीं लिख रहा हूँ। सच पूछिए तो वे बनारस के दर्शनीय व्यक्तियों में एक थे।
बनारस में रईस कितने हैं, इसका सही आँकड़ा आज भी ज्ञात नहीं हो सका, क्योंकि यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति कुछ-न-कुछ अवश्य है। मसलन यहाँ के सभी ब्राह्मण गुरु, अहीर सरदार, क्षत्री ठाकुर साहब, मजदूर पेशेवाले मिस्त्री, दुकानदार साव-महाजन, यहाँ तक कि सड़क पर झाड़ू लगानेवाला भी मेहतर नहीं जमादार साहब है।
समझने को बनारस का धोबी भी अपने को रईस समझता है। अगर उसके पीठ पर कपड़े का गट्ठर न हो अथवा शीतला वाहन के साथ न हो तो उसे किसी कालेज का छात्र या अध्यापक समझा जा सकता है। जिनका बनारसी धोबियों से पाला पड़ा है वे इस बात को महसूस करते हैं।
नगरपालिका जिस दिन मेहतरों को वेतन देती है उसी दिन शाम को मेहतरों का दल कलवरिया में अपनी रईसी का जो दृश्य उपस्थित करता है, वह बड़े-बड़े रईसों के लिए ईर्ष्या का विषय बना हुआ है।
साधारण तौर पर रईस लोग सुबह 8-9 बजे के पहले बिस्तर नहीं छोड़ते। प्रातःक्रिया समाप्त करने के पश्चात हजरत के बदन की मालिश एक घंटे तक होती है, फिर नहा-धोकर खा-पीकर आराम से गावतकिया के सहारे सटक पीते हुए आराम फरमाते हैं। जब दोपहरिया ढल जाती है तब मौसमी फलों का रस लेते हैं। इसके पश्चात शाम के समय यारों की महफिल जमती है। उसमें खान-पान का दौर भी चलता है, हर रंग की बातचीत होती है। बनारसी रईस घर से बहुत कम बाहर निकलते हैं। कुछ ऐसे भी रईस हैं जिन्हें सड़क पर निकले तीन-चार वर्ष हो गये हैं। छोटे सरकार (लड़का) कारोबार देखते हैं और बड़े सरकार घर में रईसी का आनन्द लेते हैं।
रईसी बनारसवालों का पैदाइशी हक है। हर आदमी मौके-मौके पर अपनी रईसी प्रगट करता है। सबके अन्त में रईसी का एक अनोखा उदाहरण दे दूँ। बिजली के पंखे लोग स्वयं अपने उपयोग के लिए रखते हैं, पर सोनारपुरा में एक मिठाई की दुकान पर टेबिल-फैन से भट्ठी सुलगाने का काम लिया जाता है। शुद्ध रेशमी परिधान में मुँह में पान घुलाये भिखमंगे भी अपनी काशी में आसानी से मिल जाएँगे, जिनका केवल ऊपरी-खर्च, किसी प्रोफ़ेसर की तनख़्वाह से अधिक ही बैठता है।
जमाना था, जब बनारस की रईसी की इज्जत होती थी, पर अब तो इत्र का फाहा बनाकर कान में खोंसने में भी अड़चन होती है।