बनारसी सांड / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
‘सांड’ शहर से मेरा मतलब उस चौपाये से है, जिसे पूँछ तो रहती है, साथ ही त्रिशूल के फल की तरह दो सींग भी है, जिन्हें बधिया नहीं बनाया जाता। नगरपालिका की कूड़ा गाड़ी को कौन कहे, बैलगाड़ी अथवा हल में भी जो कभी जोते नहीं जा सकते। जो हर गली और हर सडक पर मस्ती के साथ झूमते हुए चलते हैं। जिन्हें दायें-बायें की कोई फ़िक्र नहीं रहती, जो दफा 144, कर्फ्यू अथवा मार्शल लॉ के कानून के पाबन्द नहीं हैं। ‘यह सड़क मरम्मत के लिए बन्द है’, ‘यहाँ मल-मूत्र करना मना है’—इन कानूनों का उल्लंघन करना जिनका जन्मसिद्ध अधिकार है, ऐसे ही एक दर्शनीय जीव को हम सांड के नाम से सम्बोधन करते हैं।
सांड एक ऐसी नस्ल का, एक ऐसी कौम का और ऐसे निरीह किस्म का जानवर है जो हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में ही नहीं, बल्कि दुनिया के तमाम मुल्कों में पाया जाता है। फर्क सिर्फ रंग और डील-डौल का होता है। रूसी साँड़ चितकबरे और प्रकृति से कम्युनिस्ट होते हैं, अमेरिकी साँड़ बादामी रंग के पूँजीवादी टाइप के होते हैं, फ्रांसीसी जरा दुबले-पतले और नाजुक होते हैं। पाकिस्तानी साँड़ बुर्कापोश और हिन्दुस्तानी साँड़ सफेदपोश होते हैं। कहने का मुख्य मतलब यह है कि जंगल और मैदानी इलाकों में हर जगह हर किस्म के साँड़ पाये जाते हैं।
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सांड़ो की नगरी
लेकिन दुनिया में पाये जानेवाले किसी भी स्थान से कहीं अधिक साँड़ बनारस में हैं। कम्युनिस्ट, पूँजीवादी, आतंकवादी, समाजवादी, गाँधीवादी और सर्वहारा—सभी प्रकार के साँड़ यहाँ घूमते रहते हैं। कहा जाता है कि तीन लोक में एक ही साँड़ था जिस पर बाबा विश्वनाथ सवारी करते थे। आज के जितने साँड़ सारे संसार में हैं, वे सब उसी साँड़ की औलाद हैं, जैसे आदम की औलाद आदमी और मनु के पुत्र मनुष्य दुनिया में बिखर गये हैं।
काशी तीन लोक से न्यारी है। वह शेषनाग के फन पर अथवा शंकर के त्रिशूल पर स्थित है। चूँकि काशी बाबा की राजधानी है, जाड़े के दिनों में वे यहीं रहते हैं, गर्मी में पहाड़ पर आबोहवा बदलने चले जाते हैं, इसलिए यह जरूरी है कि साँड़ अपने मालिक के राज्य में काफी तादाद में रहें, क्योंकि ज़माना तटस्थ रहते हुए भी गुर्राहट और हमले की आशंका से भयभीत है। ऐसी हालत में पता नहीं, कब किसकी और कितनी संख्या में जरूरत पड़ जाए। यही कारण है कि काशी को अपना अस्तबल समझकर साँड़ इतनी आजादी से रहते हैं।
इसके अलावा काशी में साँड़ों की अधिकता होने का दूसरा कारण यह है कि कुछ लोग बगैर इनकम टैक्स, सेल टैक्स और सुपरटैक्स अदा किये बेरोक-टोक शिवलोक जाना पसन्द करते हैं। मुमकिन है ऐसे ही शरीफों के लिए तुलसीदासजी ने काशी को मुक्ति, ज्ञान की खान कहा है। हर तरह के जरायम यानी हत्या करने के बाद भी काशी में चले जाइए। यह निश्चित है कि आपको मुक्ति मिल ही जाएगी, बशर्ते आप गोदान न कराकर अपने जीवित काल में ही वृषोत्सर्ग करा दें अथवा अपने वारिस को चेतावनी दे दें कि गया में पिंडदान, तेरही का भोज, बर्सी और गोदान भले न करें, लेकिन वृषोत्सर्ग अवश्य कर दें। इससे आपको दोहरा पुण्य लाभ होता है। पहला यह कि वृषोत्सर्ग से शिवलोक का रास्ता खुल जाता है, यह शास्त्रीय मत से पुण्य है। दूसरे एक बेचारे निरीह पशु को जिसे ये नरपिशाच बधिया बनाकर आजीवन किसी हल या बैलगाड़ी के नीचे जोत देते हैं, उसे मुक्ति मिल जाती है।
कहा जाता है बनारस नगरपालिका के किसी सदस्य ने एक बार यह सुझाव दिया था कि काशी की सडकों पर जो बहुत-से साँड़ लावारिस घूमते हैं उनका उपयोग कूड़ागाड़ी खींचने में किया जाए। इसकी सूचना काशी के साँड़ों को मिल गयी। एक दिन जब वे स्टेशन से घर वापस आ रहे थे तब दो साँड़ों ने उनकी ऐसी खातिर की कि बेचारे महीनों अस्पताल में पड़े रहे। इस घटना के बाद किसी सदस्य ने इन साँड़ों के प्रति आक्षेप नहीं किया।
खैर, यह कहानी कहाँ तक सच है, कहा नहीं जा सकता। लेकिन यह स्पष्ट है कि नगरपालिका भूलकर भी कभी इनका उपयोग नहीं करती। दुनिया के तमाम चौपायों के लिए कांजीहौज का दरवाजा खुला रहता है, लेकिन इन साँड़ों के लिए खुला दरवाजा भी बन्द हो जाता है। अगर कहीं आँख बचाकर चले भी गये तो मारकर भगा दिये जाते हैं।
दो-चार साँड़ों को छोडकर, जो ग्वाल के खास हैं, बाकी सभी दगे हुए साँड़ वास्तव में बनारसी साँड़ हैं। यों मनौती मनानेवाले बकरे का भी कान काटकर छोड़ देते हैं। वृषोत्सर्ग किये साँड़ों के पीठ पर छोटा त्रिशूलवाला लोहा दागकर छोड़ा जाता है। बकरा छोड़ देने के बाद कुछ दिनों तक इधर-उधर दिखाई देता है, फिर कहीं गायब हो जाता है। लेकिन साँड़ों की संख्या ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। बनारस यदि पाकिस्तान में होता तो शायद साँड़ों की संख्या इतनी न होती।
साँड़ पूज्य हैं
काशी के साँड़ों की पूजा होती है। शिव-वाहन होने के कारण ही वे पूज्य हैं। क्योंकि उनकी पीठ पर कूबड़ के रूप में स्वयं शिव जी विराजमान रहते हैं। जो साँड़ जितना मोटा होगा, उसका कूबड़ उतना ही बड़ा होगा। इनसान को भले ही खाने को न मिले, लेकिन इन्हें फल, मीठा और फूल खिलाया जाता है। बाकायदे पाँव दबाये जाते हैं, नमस्कार किया जाता है। जैसे किसी मन्त्री से काम निकालने के लिए उनके प्राइवेट सेक्रेटरी की खातिर की जाती है ठीक उसी प्रकार शिव भक्ति का प्रदर्शन साँड़ों के जरिये किया जाता है।
कुछ ऐसे भी साँड़ हैं जो भोजन न पाने पर किसी ... में घुस जाते हैं, भर पेट न सही, भर मुँह अवश्य खा लेते हैं। खोमचों वालों का थाल उलट देना, किसी होटलवाले के यहाँ मेहमान बन जाना मामूली बात है। मजा यह कि इतना होने के बावजूद इन्हें सजा नहीं दी जाती।
पाकिस्तान के निर्माता
बनारस में अब तक जितने भी दंगे हुए उन सबकी मूल में इन साँड़ों का ही हाथ रहा। चौक में या अन्य कहीं दो साँड़ आपस में जुट गये, बस भगदड़ मच गयी और यह अफवाह फैल गयी कि ‘चल गयी’ यानी दंगा शुरू हो गया। फिर झटपट दुकान बन्द, भगदड़ और इसी बीच किसी गुंडे ने किसी के पेट में कुछ झोंक दिया तो सवेरे नमक मिर्च मिलाकर लोगों की जबान चल गयी और समाचार पत्रों में घटना छप गयी।
रामराज्य परिषद् के एक सदस्य से मैंने पूछा, क्यों साहब! आप लोग गोवध बन्दी आन्दोलन चला रहे हैं, ठीक है। लेकिन साँड़ रक्षक आन्दोलन क्यों नहीं चलाते? अगर साँड़ नहीं रहेंगे तो गायों की संख्या कैसे बढ़ेगी, आप दूध, दही, मक्खन कैसे खाएँगे?
उन्होंने फरमाया - हम इस आन्दोलन में साँड़ों की वकालत इसलिए नहीं कर रहे हैं कि वे दरअसल गद्दार हैं, इतिहास के कलंक हैं। बनारस में ही नहीं, विभिन्न नगरों में हुए दंगों के मूल जन्मदाता यही हैं। यदि ये दंगे न होते तो आज भारत अखंड बना रहता और पाकिस्तान बनने की नौबत न आती। पर हकीकत यह है कि ये पाकिस्तान के मित्र हैं। यहाँ मुफ्त का माल खाकर मोटे हो रहे हैं।
गौरैया शाही
गौरैया शाही काशी की एक अद्ïभुत घटना है। सन्ï 1852 में काशी में फाटक बन्दी तोडने का हुक्म जारी हुआ, उन्हीं दिनों वृषोत्सर्ग किये गये साँड़ पकड़ कमसरियट पहुँचाने का भी हुक्म जारी हुआ। जनता ने इसका विरोध करना शुरू किया। इनके तत्कालीन अगुआ भाऊ जानी तथा वीरेश्वर जानी थे। इसका खास कारण था। उन दिनों गुजरात, काठियावाड़ तथा अन्य स्थानों के आस्तिक हिन्दू अपने पितरों के नाम जो साँड़ ‘वृषोत्सर्ग’ करके छोड़ते थे, उनके भूसे के लिए कुछ वार्षिक भेजा करते थे। उक्त सारी रकम वीरेश्वर व भाऊ जानी के पास आती थी। इसी से उन्होंने साँड़ों को कमसरियट पहुँचाने का विरोध किया, लेकिन इस विरोध का कोई असर नहीं हुआ। तत्कालीन कलेक्टर श्री ग्राविंस ने जनता के प्रतिनिधियों को नाटी इमली पर एकत्र किया, परन्तु समझौता नहीं हो सका। इतने में ही जनता कुम्हार की दुकान से गौरैया उठा-उठाकर कलेक्टर और पं. गोकुलचन्द कोतवाल पर फेंकने लगी। कई अफसर इसी हुड़दंग में घायल हो गये। इसी कांड को ‘गौरैया शाही’ कहते हैं। नतीजा यह हुआ कि फाटक बन्दी तो तोड़ दी गयी, लेकिन दगे साँड़ों का पकड़ा जाना रोक दिया गया।
बेताज के बादशाह
बुलबुल की लड़ाई, तीतर, बटेर, मुर्ग की लड़ाई आपने देखी होगी। मेढ़ा, भैंस, बिल्ली और कुत्तों की लड़ाई भी आपने देखी होगी। इनके लडने का समय और स्थान होता है, पर साँड़ों की लड़ाई में न समय देखा जाता है और न बाजी लगायी जाती है। जब जी चाहा और जहाँ तबियत हुई लड़ पड़े। यह आपकी शराफत है कि आप बगल हट जाते हैं और अपनी दुकान समेट लेते हैं।
जब किसी साँड़ को लड़ने की इच्छा होती हैं तब वह गधे की तरह चिल्लाता नहीं। एक मनोवैज्ञानिक ने लिखा है कि गधे हर घंटे पर इस तरह चिल्लाते हैं कि जनता को समय का अन्दाजा लग जाए। लेकिन साँड़ उस समय गरजेगा जब उसका सिर खुजलाएगा। किसी गली की मोड़ पर आकर गरज उठेगा अर्थात ‘है कोई लड़ने वाला’? अगर उस गली में कोई हुआ तो एक बार निगाह उठाकर गरजनेवाले की ओर देखेगा। अगर वह यह समझ जाता है कि मैं इसे पछाड़ दूँगा तो वह विपक्षी से भी तेज आवाज में गरज उठेगा—‘आओ बेटा, एक हाथ हो जाए’। वरना चुपचाप चल देगा। कभी-कभी दो साँड़ सड़क के दोनों ओर से केवल फुँकारते हुए गुजर जाते हैं, दोनों ही एक-दूसरे को पहलवान समझते हैं, लेकिन एक दूसरे की बेइज्जती करना नहीं चाहते।
अगर लड़ने की इच्छा हुई तो एक बार फुत्कारा और खटाक् से, जैसे दो प्रेमियों की आँखें या दिल आपस में टकरा जाते हैं, इसके बाद आगे-पीछे खिसकते रहते हैं, उस समय सारा आवागमन रुक जाता है। यदि कोई साँड़ कमजोर होता है और भागने की फिक्र में रहता है तो दूसरा ज्यों ही यह भाँप लेता है त्यों ही जहाँ मौका मिला सींग से मारना शुरू कर देता है। अगर उस समय ‘हुर्र छे’ की आवाज़ हुई तो कायर साँड़ भी शेर बन जाते हैं। इस तरह इनकी लड़ाई केंचुए-सी लसड़-पसड़ चलती रहती है और तब तक चलती है जब तक कि दोनों लहू-लुहान न तो जाएँ। बहादुरी और ज़िन्दादिली के ये जीते-जागते प्रतीक हैं।
पता नहीं, किस दिलजले ने ‘रांड, सांड, सीढ़ी, संन्यासी’ की तुक में इनका नाम जोड़ दिया। आज अगर ‘दास मलूका’ जीवित होते तो उन्हें यह पद्य फिर से इस तरह लिखना पड़ता—
अजगर करे न चाकरी साँड़ करे नहिं काम
दास मलूका कह गये सबके दाता राम