बनारसी / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
इलाहाबादी, मुरादाबादी और बनारसी आदि शब्दों के आगे-पीछे यदि अमरूद, लोटा, लँगड़ा आम जैसे शब्द न जोड़े जाएँ तो इसका अर्थ होगा - इन शहरों के निवासी। उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहाँ के शहरों के नाम के पीछे ‘ई’ लगा देने से उसका अर्थ वहाँ के निवासी से हो जाता है जैसे बनारसी, मलीहाबादी, आजमगढ़ी, सहारनपुरी, गोरखपुरी, रामपुरी, इलाहाबादी, मिरजापुरी और फर्रुखाबादी आदि। किसी शहर में बस जाने का यह मतलब नहीं कि उस व्यक्ति को उस शहर का निवासी मान लिया जाए। अक्सर आपने लोगों को कहते सुना होगा - ‘भाई, गाँव जाना है।’ ‘देश में बहिन की शादी है’ ‘घर पर हालत ठीक नहीं, रुपये भेजने हैं’ आदि। इससे यह स्पष्ट है कि वह व्यक्ति मौजूदा समय जहाँ है, उसे अपना शहर नहीं मानता और न वहाँ का रजिस्टर्ड बाशिन्दा हो गया है - इसे स्वीकार करता है, रोजी-रोजगार के लिए टिका हुआ है। भले ही वह बाहर जाकर अपने को उस शहर का निवासी घोषित करे, लेकिन मन, वचन और कर्म से वह उस शहर का निवासी नहीं है। ठीक इसी प्रकार बनारस में रहनेवाले सभी बनारसी नहीं हैं।
बनारसी कौन?
आखिर असली बनारसी है कौन? उनकी पहचान क्या है? पहले आपको यह जान लेना चाहिए कि बनारसी कहना किसे चाहिए। बनारस में पैदा होने या पैदा होकर मर जाने से बनारसी कहलाने का हक हासिल नहीं होता। इस प्रकार के अनेक बनारसी नित्य पैदा होते हैं और मरते हैं। क्या वे सभी बनारसी हैं? कभी नहीं। बनारस में पैदा होना, बनारस में आकर बस जाना या बनारसी बोली सीख लेना भी बनारसी होने का पक्का सबूत नहीं है। हिन्दुस्तान को इस बात का फख़्र है
कि उसके कुछ शहर ऐसे हैं (और उनमें बनारस का महत्त्व सर्वोपरि है) जहाँ के निवासियों की अदा अपनी है। दूसरों का उसमें मिल सकना उतना ही कठिन है जितना तेल का पानी में मिलना। आप कुछ ही दिन के अभ्यास से लन्दनवी, न्यूयार्की, बम्बईया या कलकतिया भले ही बन जाएँ, परन्तु बनारसी बन सकना कठिन होगा। प्रसंगवश एक घटना याद आ गयी। हिन्दी के एक (अपने को धाकड़ कहनेवाले) लेखक कुछ ही महीने के लिए कलकत्ते से आकर बनारस में टिक गये। उन्होंने आव देखा न ताव, चटपट एक कहानी बनारस की ‘रियल’ अलमस्ती को आधार बनाकर लिख डाली। परिणाम वही निकला जो सूरज पर थूकने से निकलता है। ऐसे ही ‘डालडा ब्रांड’ बनारसियों का वर्ग आज समूचे भारत में बनारस को बदनाम कर रहा है। बनारस के बाहर बनारसी को इतना खतरनाक समझा जाता है कि कोई भी शरीफ आदमी उसे अपने यहाँ नौकर नहीं रखना चाहता। लेकिन इस अपवाद को स्वीकार करने के पहले इस बात को दिमाग में फिट कर लीजिए कि असली बनारसी बनारस के बाहर जाकर रहना पसन्द नहीं करता। यदि उसे काफी इज्जतदार नौकरी मिले तो शायद चला भी जाए लेकिन उसका मन बनारस में ही अटका रहेगा।
बम्बई, कलकत्ता, कानपुर, दिल्ली और पटना आदि नगरों में रहते हुए जो लोग अपने को बनारसी कहते हैं, उनसे अगर कभी वह पूछें कि आप बनारस के किस मुहल्ले में रहते हैं तो कहेंगे - ‘मेरा घर देहात में है।’ फिर ऐसे गाँव का नाम बताएँगे जिसका नाम आपने कभी न सुना होगा। लगभग सारे भारत में एक बड़ा वर्ग पानवालों का है जो ‘बनारसी पानवाला’ का साईनबोर्ड लगाकर कमा-खा रहे हैं। गोया बनारस से जो बाहर जाते हैं, सभी पनवाड़ी होते हैं अथवा बनारस में पनवाड़ियों का कोई विश्वविद्यालय है जहाँ पनवाड़ी की डिग्री दी जाती है, जिसे लेकर लोग बनारस का नाम रौशन करने के लिए बैठ गये हैं। झूठ तो नहीं कहना चाहता, पर लगभग सारे देश में ‘टहरान’ दे चुकने के बाद मुझे यह अनुभव हो गया कि बनारस के अलावा अन्य शहरों में जितने बनारसी पानवाले हैं, उनमें अधिकतर ‘नान-रियल’ हैं। यदि आपको विश्वास न हो तो - ‘बनारस में कवने महल्ला में घर हवऽ, केतना दिन से इहाँ हउवऽ?’ पूछें तो स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगा। जब दो बंगाली, मद्रासी या गुजराती आपस में मिलते हैं तब अपनी भाषा में ही बातचीत करते हैं। उसी प्रकार परदेस में जब अपने शहर का निवासी मिल जाता है तब बड़ी प्रसन्नता होती है। लेकिन हजरत बनारसी भाषा की सड़क पर अड़ियल टट्टू ही सिद्ध होते हैं। फिर, ‘अपना घर देहात में है’ बताएँगे ताकि आगे आप और सवाल न पूछ सकें। अगर वह अपने को इस पर भी बनारसी कहे तो उसके पान लगाने के ढंग से आप अच्छी तरह समझ जाएँगे कि ये हजरत बनारस के उस गाँव के निवासी भी नहीं हैं। महज अपनी साख जमाने के लिए ‘बनारसी पानवाला’ बने हुए हैं।
मर्त्यलोक ही नहीं, त्रैलोक्य को पान (ताम्बूल) के मैदान में बनारस आसानी से चित कर सकता है। बनारसी पान का वही महत्त्व समझना चाहिए, जो समुद्र-मन्थन के सार अमृत का है। खाँटी बनारसी भोजन भले ही रोक ले, परन्तु पान का वियोग वह सह नहीं पाएगा। बनारस में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिनके ‘पान का खर्च’ किसी भी परिवार के ‘घर-खर्च’ से उन्नीस ठहरता हो। बनारसी पान के मुख पर दूसरे शहरों में पैसा बटोरकर तारकोल लगानेवालों के लिए अगर वाजिब सजा का अधिकार बनारसी को मिल जाए तो वह क्या तजवीजेगा, इसे कोई बनारसी ही सोच सकता है।
दिल्ली के चाटवाले, आगरे के लच्छेवाले, मथुरा के पेड़ेवाले जिस प्रकार हर शहर में पाये जाते हैं, ठीक उसी प्रकार लखनऊ, बरेली और आगरा में कुछ खोमचेवाले अपने को बनारसी खोमचावाला कहते हैं। वे गुड़ की पट्टी, सोहन पापड़ी और तिल के लड्डू बेचते हैं। ऐसी थर्डग्रेडी वस्तुओं का कोई खास महत्त्व बनारस में नहीं परन्तु बनारस के नाम पर दूसरे शहर में कमाई का अच्छा साधन तो है ही।
तीसरा ग्रुप है - साड़ीवालों का। कुछ लोग अपने को बनारसी साड़ीवाला का नाम देकर बाहर अच्छा रोजगार जमाये हुए हैं। साफ-साफ यह नहीं कहेंगे कि बनारस में ठिकाना नहीं लगा अथवा अन्य जगहों की साड़ी की पूछ नहीं है और बनारसी साड़ी के नाम पर अच्छा पैसा मिल जाता है, इसलिए यह रूप धारण किया है। ऐसे लोग सिर्फ बनारस से साड़ी मँगाकर बेचते हैं। असली बनारसी कारीगर बनारस के बाहर कभी नहीं जाता। गत कई वर्षों में, भारत के बँटवारे के बाद, कुछ लोग पाकिस्तान तक टहल आये और फिर वापस आकर बस गये। इसलिए नहीं कि वहाँ कारीगरों की पूछ नहीं हुई, बल्कि इसलिए कि बनारस के बाहर उनकी कला की कीमत आँकनेवाला कोई मिलता नहीं। बनारस में रहकर वे यहाँ गरीबी और मुँहताजी भले ही स्वीकार कर लेंगे लेकिन पाकिस्तान की बादशाहत उन्हें स्वीकार नहीं। एक बार बनारसी साड़ी के कलाकारों को भूखों मरने की बारी आयी तो वे वरुणा नदी के पास जाकर इबादत करते रहे कि इस पीड़ा को दूर किया जाए। यदि उन्हें बनारस से मुहब्बत न होती तो कहीं भी जाकर अपना कारोबार कर सकते थे। जहाँ हजारों नकली बनारसी कमा-खा रहे हैं, वहाँ कुछ असली बनारसी कारीगर कमा-खा सकते थे, लेकिन उन्हें यह पसन्द नहीं था कि जिस शहर में वे पनपे, इज्जत कमाई और कलाकार बने, उस शहर की मुहब्बत को कुछ तकलीफों की वजह से छोड़ देते। यही वजह है, आज भी लाख मुसीबत झेलते हुए वे बनारस में पड़े हुए हैं। इन्हीं की वजह से बनारसी साड़ियों का नाम सारे संसार में रौशन है।
चौथा ग्रुप सुर्तीवालों का है। भारत के छोटे-बड़े शहरों में बनारसी जर्दा के एकमात्र विक्रेता बन बैठे हैं। माना कि यह प्रचार का युग है - रोजगार है, लेकिन एक बनारसी सुर्ती विक्रेता अपनी दुकान पर अन्य घासलेटी सुर्ती बेचना पसन्द नहीं करेगा, लेकिन कई शहरों में बनारसी जर्दा के नाम पर अन्य सुर्तियाँ भी बेची जाती हैं। जिस प्रकार बी.एस.सी. कम्पनी का साइनबोर्ड लगाये जूते के दुकानदार बाटा कम्पनी के जूतों के अलावा अन्य कम्पनियों के चालू जूते भी बेचा करते हैं, ठीक उसी प्रकार ऐसे बनारसी सुर्तीवाले भी कई शहरों में कमा-खा रहे हैं। अब अगर उस शहर में बनारसी जर्दे की खपत नहीं है तो बनारस को क्यों बदनाम करते हैं? इससे अच्छा होगा कि आप यह साइनबोर्ड टाँग दें कि ‘यहाँ बनारसी जर्दा भी बिकता है।’ जिसे बनारसी जर्दे का चस्का होगा स्वयं खरीदकर खाएगा।
बनारस का लेबिल लगाकर अगर किसी चीज पर सबसे अधिक घपला होता है तो वह है - ‘लँगड़ा आम’। बनारस का लँगड़ा आम - नाम सुनकर देश ही नहीं; विदेशों में भी लोगों की जिह्वा पर ‘मुखरस गंगा’ लहर उठती है। यही कारण है कि लँगड़ा आम बनारस में, वर्ष में अधिक-से-अधिक दस-पन्द्रह दिन दिखाई पड़ता है। भाई लोग लँगड़े आम के मामले में स्वयं बनारसियों को ही आसानी से धोखा देते हैं।
कहने का मतलब यह है कि इस प्रकार लोग बाहर जाकर अपने को बनारसी कहते हैं। क्या ऐसे लोग बनारसी हैं? ‘कत्तई’ नहीं। यह तो बनारस के नाम का प्रताप है कि लोग कमा-खा रहे हैं।
बनारस के बनारसी
अधिक दूर क्यों, खास बनारस में रहनेवाले सभी बाशिन्दे बनारसी नहीं हैं। इसमें कितने नकली हैं और कितने असली-इस भेद को जानने के पहले जरा और पीछे चलना पड़ेगा। काशी के इतिहास से यह ज्ञात होता है कि पूर्वकाल में काशी की अधिकांश भूमि जंगलों से आवृत थी। अत्यन्त पवित्र तथा तीर्थभूमि रहने के कारण अधिकतर ब्राह्मण रहते थे। ब्राह्मणों के बाद जनसंख्या की दृष्टि से अहीरों का दूसरा नम्बर था। इन लोगों की सेवा के लिए कुछ शूद्र भी रहते थे। इन तीनों जातियों के अलावा अन्य कोई जाति नहीं थी। ‘मुक्ति-क्षेत्र’ होने के कारण पहले लोग अन्तिम काल के समय यहाँ आते थे। पहले यह प्रथा थी कि घर कोई व्यक्ति जो बीमारी से या अन्य किसी कारणवश मरणासन्न हो जाता था उसे गंगायात्री मानकर काशी ले जाते थे। ऐसे लोग श्मशान में असहाय अवस्था में तब तक पड़े रहते थे जब तक इस दुनिया से सफर न कर जाएँ। उनके मरने के बाद ही उनके साथ आये व्यक्ति, उनके घर वापस जाते थे। कभी-कभी श्मशान की शुद्ध हवा पीकर जब मरणासन्न व्यक्ति में स्वस्थ होने के लक्षण दिखाई देने लगते थे तब साथ आये व्यक्ति उसका गला घोंट देते थे। कभी-कभी उसे असहाय अवस्था में छोड़कर चल देते थे। ऐसे व्यक्ति जब स्वस्थ हो जाते तब पुनः अपने कुनबे में वापस नहीं जा पाते थे। अपने परिवार में वे मृत मान लिये जाते थे। गंगायात्री व्यक्ति को यह अधिकार नहीं था कि वह पुनः अपने गाँव वापस जाय। कभी-कभी साथ आए व्यक्ति मरणासन्न व्यक्ति से अधिक प्रेम रखने के कारण उनके साथ यहाँ रह जाते थे। इस प्रकार गंगायात्री और उनके परिवार के लोगों से काशी की आबादी बढ़ती गयी। फिर धीरे-धीरे हर वर्ग के लोग यहाँ आकर बसते गये।
इसके बाद आया यहाँ संन्यासियों का जत्था। गंगायात्री वाले यहाँ आकर ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते, उनकी कथा सुनते और अन्तकाल में मर जाते थे। उनकी दक्षिणा का रेट बड़ा ‘हाई’ था। कुछ लोगों ने देखा - गंगायात्रियों की सारी रकम धर्म के नाम पर ये ब्राह्मण हजम किये जो रहे हैं तो उन्होंने यह धन्धा शुरू किया। वे भी घर-घर जाकर मधुकरी लेने लगे। उन्होंने यजमानों की सुविधा के लिए यह शर्त रखी - हम दक्षिणा नहीं लेंगे, सिर्फ भोजन लेंगे। अग्नि नहीं छुएँगे, सिला हुआ कपड़ा नहीं पहनेंगे। ब्राह्मणों का पत्ता काटने के लिए इनका एक समुदाय बन गया।
बनारस का प्रायः हर व्यक्ति दार्शनिक है। अगर एक चांडाल शंकराचार्य को ज्ञान का उपदेश दे सकता है तो यहाँ का पंडित क्या नहीं कर सकता? यहाँ के लोग कितने पहुँचे हुए सन्त हैं, इसका अन्दाज़ा यहाँ गर्मियों के मौसम में देखा जा सकता है। शहर के हर क्षेत्र में बड़े-बड़े दार्शनिक टहलते हुए नजर आते हैं। दर्शन के गूढ़ रहस्यों की व्याख्या खुलेआम करते हैं। अब उससे लाभ उठाना न उठाना आपका कर्तव्य है। कुछ लोग इन दार्शनिकों को ‘पागल’ कहते हैं। यदि ये सचमुच पागल हैं तो क्यों नहीं सरकार इन्हें पागलखाने भेज देती। सरकार इस बात को जानती है कि ये पागल नहीं है - सबके सब पहुँचे हुए सन्त हैं। गीता, रामायण, महाभारत, कुरान और बाइबिल के अनेक उपदेश बकते रहते हैं।
इसके बाद एक फौज आयी - विधवाओं की। जहाँ घर में नयी बहू आयी और उससे सास की पटरी नहीं बैठी, बस चली आयी काशीवास करने। फिर जब तक उनकी अर्थी नहीं उठेगी - जाने का नाम नहीं लेतीं। सिर्फ प्रौढ़ा विधवाएँ आतीं तो गनीमत थी। इनके साथ कुछ ऐसी महिलाएँ भी आयीं जो विधवा नहीं थीं। अगर भरी जवानी में किसी विधवा, सधवा या कुमारी महिला ने गलत कदम रखा तो अपनी नाक बचाने की गरज से परिवार के लोग ग्रहण के मौके पर या तीर्थयात्रा के नाम पर काशी में लाकर उन्हें छोड़ देते थे अर्थात इन महिलाओं के लिए बनारस अंडमान-निकोबार द्वीप बन गया। इस प्रकार की कहानियों की कमी हिन्दी-साहित्य में नहीं है। यदि उनका संस्करण बन्द न हो गया हो तो आज भी पढ़ सकते हैं।
चौथी फौज उन लोगों की आयी जो जिन्दगी-भर दूसरों को सताते रहे, जरायम पेशा करते रहे और अन्तिम काल में रिटायर्ड होते ही बनारस में आकर बस गये, ताकि गंगास्नान और विश्वनाथ दर्शन से सारे पाप धुल जायँ। बनारस क्या हो गया, मुक्तिदान का कार्यालय हो गया। मजा यह कि ऐसे लोग भी अपने को पक्का बनारसी कहते हैं।
अन्तिम दल उन लोगों का आया जो नौकरी और रोजगार के सिलसिले में आकर बनारस में बस गये। ऐसे लोग भी बड़े गर्व से अपने को बनारसी कहते हैं। अभी जुमा-जुमा आठ रोज हुए आपको आये, दूध के दाँत भी नहीं गिरे अर्थात न अच्छी तरह आपने बनारस छाना, लेकिन अपने को पक्का बनारसी समझने लगे। ऐसे लोग महीने में दस खत, एक मनीआर्डर अपने गाँव भेजते हैं और स्वयं एक बार साल में वहाँ का चक्कर काट आते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बनारस में रहते हुए भी बनारस को ‘कंडम’, ‘गदाई’ और ‘लोफरों का शहर’ कहते फिरेंगे। ऐसे लोगों में उनकी ही संख्या अधिक है जिन्हें ‘बनारसी’ बनने के प्रयत्न में मुँह की खानी पड़ी है। बेचारों को खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोंचते देखकर सच्चे बनारसियों के मुख से सहानुभूति के शब्द निकल जाते हैं - ‘बउरायल हौ।’
हजरत रहते हैं बनारस में, लेकिन अखबार पढ़ेंगे कलकत्ता, पटना, अमृतसर, दिल्ली और नागपुर के। उनका बनारस के समाचार से कोई ताल्लुक नहीं। इससे साफ स्पष्ट है कि ऐसे लोग बनारस को अपना नहीं समझते।
अब आप ही सोचिए, क्या ऐसे लोग बनारसी हैं? क्या इनमें कभी बनारसी पन आ सकता है? जब यही लोग तीन-चार पुश्त रह जाएँगे और इनकी औलादों में बनारसी हवा का असर हो जाएगा तब वे गर्व से अपने को बनारसी कहने लगेंगे-फिर भी रहेंगे अधकचरे ही।
असली बनारसी
एक बनारसी जो सही मायने में बनारसी है, जिसके सीने में एक धड़कता हुआ दिल है और उस दिल में बनारसी होने का गर्व है, वह कभी बनारस के विरुद्ध कुछ सुनना या कहना पसन्द नहीं करेगा। यदि वह आपसे तगड़ा है तो जरूर इसका जवाब देगा, अगर कमजोर हुआ तो गालियों से सत्कार करने में पीछे न रहेगा। बनारस के नाम पर कलंक का धब्बा लगे ऐसा कार्य कोई भी बनारसी स्वप्न में भी नहीं कर सकता। जिसे अपने बनारस पर नाज है, बनारस के अलावा अन्य जगह जिसे ‘गदाई’ लगती है, जो बनारस के बाहर जाकर बेचैन रहता है, भले उसे वहाँ स्वर्गीय सुख प्राप्त हो, पर हमेशा तकलीफ महसूस करता रहे - वही असली बनारसी है।
अगर वह घर के भीतर गावटी का गमछा पहनकर नंगे बदन रहता है तो वह उसी तरह गंगास्नान या विश्वनाथ दर्शन भी कर सकता है। उसके लिए यह जरूरी नहीं कि घर में फटी लुंगी या निकर पहनकर रहे और बाहर निकले तो कोट-पतलून पहने। दिखावा तो उसे पसन्द नहीं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह दरिद्र है या कपड़ों का उसे शौक नहीं। वह कपड़ों का या सफाई का कितना शौकीन है, इसका अन्दाज़ा घाट पर और उसके घर पर लग सकता है।
आजकल बड़े शहरों में लोग घर पर मेहमान आ जाने से चिढ़ जाते हैं, पर बनारसी चिढ़ता नहीं। उसके लिए मेहमान भगवान से कम नहीं होता। वह क्या करे, कौन-सी निधियाँ लाकर इकट्ठी कर दे कि मेहमान प्रसन्न हो उठे - भरसक यही प्रयत्न कराता है। मेहमानों के स्वागत में वह पलकों के पाँवड़े बिछा देता है। चलते-चलते वह मेहमान को पूरे बनारस से परिचित ही नहीं कराता बल्कि कुछ ऐसे मधुर संस्मरण भी दे देता है कि मेहमान का हृदय आनन्द से गद्गद हो उठता है। फिर शायद ही वह बनारस के प्रवास को भूल सके। लेकिन यह याद रखें कि बनारस की संस्कृति अपनी है। एक बनारसी आपको जिस कदर रखना चाहे, उसी प्रकार रहें, तभी वह आपका सम्मान हृदय से करेगा।
मस्त रहना बनारसियों का सबसे बड़ा गुण है। इस हाइड्रोजन बम के युग में जब कि चारों तरफ हाय-हाय मची हुई है, मार्क्सवाद-डालरवाद का झगड़ा चल रहा है, ऐसे समय में भी बनारसी लोग अपनी मस्ती से अलग रहना पसन्द नहीं करते। हड़ताल हो या तूफान आये, पर बनारसी दैनिक कर्मों में व्यवधान नहीं आने देता। गैवी पर गहरी छनती है, उस पार दिव्य निपटान के बाद स्नान करते हैं, तब जाकर उनकी काया तृप्त होती है। बनारसियों में सबसे बड़ा गुण है-आत्मीयता। यदि आप परदेसी हैं, रास्ता भूल गये हैं तो आपको वह सही रास्ता ही नहीं बताएगा, बल्कि खाली रहने पर मंज़िले-मकसूद तक पहुँचा देगा। ऐसी आत्मीयता अन्यत्र दुर्लभ है।
बनारसी स्वभाव का बहुत उदार और विशाल हृदयवाला होता है। भगवान शंकर के नागरिकों को गरीबी भले ही मिली हो, पर उन्हें सन्तोष का गुण सबसे अधिक मिला है। वह जो कुछ करेगा या कहेगा दिल खोलकर, चाहे आपको बुरा लगे या भला। जरूरत पड़ने पर वह दस-बीस से मोर्चा ले सकता है, मैदान में दो-तीन लाशें गिरा सकता है। अपनी आन और शान के लिए प्राणों की बाजी लगा देना उसके लिए मामूली बात है। एक ओर वह मक्खन की तरह नरम है तो दूसरी ओर पत्थर की तरह सख़्त। जब एक बनारसी यह कहे-‘इ बनारस हव, धुर्री बिगाड़ देब’ या ‘जानलऽ बनारस कऽ रहेवाला हई’ तब यह समझ लीजिएगा कि अब इससे छेड़खानी करना कल्याणकर नहीं।
बनारसियों के दिल में इस बात की बड़ी कसक रहती है कि बड़े-बड़े विदेशी नेता जब कभी बनारस आते हैं तब इतना पर्दानशीन होकर चलते हैं जैसे मुगलकाल में बेगमें जाती थीं। बनारस आकर अगर बनारसी गुरुओं की संगत नहीं की, भाँग नहीं छाना, साफा नहीं लगाया, गहरेबाज़ी नहीं की और नाव पर सैर नहीं की तो बनारस नहीं देखा। लम्बी-चौड़ी गर्द से ढकी सड़कों पर क्या रखा है? टूटे-फूटे घाटों के किनारे ऊँचे महलों में क्या रखा है? पुलिस की संगीनों के साये के नीचे आनन्द क्या मिलेगा? जब तक उस परिधि के बाहर आकर साधारण बनारसियों से घुल-मिलकर उनसे परिचय प्राप्त नहीं करेगा, बनारस क्या, एक बनारसी को भी कोई समझ नहीं सकेगा।