बनारस की गंगा, दिल्ली की जमुना / जयप्रकाश चौकसे

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बनारस की गंगा, दिल्ली की जमुना
प्रकाशन तिथि : 22 जून 2013


बहुत लंबे अरसे बाद एक विशुद्ध प्रेम-कथा परदे पर प्रस्तुत हुई और आजकल फिल्म मंडी में सतही प्रेम-कथाएं बन रही हैं, जिन्हें युवा केन्द्रित बाजार के मिथ को मजबूत करने के लिए बनाया जा रहा है। इस समय फिल्म उद्योग में प्रेम कहानियों के गुरु इम्तियाज अली माने जा रहे हैं और उनके शागिर्द अयान मुखर्जी का भी बहुत नाम हो रहा है, परंतु इन दोनों को 'रांझणा' के आनंद एल. रॉय और हिमांशु शर्मा से कुछ सीखना चाहिए। 'रॉकस्टार' के प्रदर्शन के बाद हिमांशु शर्मा और आनंद राय ने प्रेम को अपने सुख और सनक से हटाकर प्रेम में त्याग के महत्व को स्थापित करने के लिए 'रांझणा' लिखना शुरू किया। इस फिल्म की हीर बनारस में रहने वाले सरकारी अफसर की बेटी जोया है और रांझा ब्राह्मण पुजारी का बेटा है। हीर-रांझा में परिवार दुश्मन थे, इसमें धर्म का अंतर है और हीर-रांझा में हीर यह जानते हुए भी कि कच्चे मटके पर बैठकर नदी पार नहीं की जा सकती, परंतु उसे तो डूबना है - प्यार की नदी में डूबना है। इस फिल्म में नायक उस मंच की ओर जा रहा है, जहां मौत उसका इंतजार कर रही है और वह राजनीति की इस 'कच्ची मिट्टी' की तासीर जानता है, परंतु प्रेमिका की इच्छा है तो जाना है।

फिल्म का पहला भाग युवा प्रेम में पगा हुआ है और सारे पात्र सच्चे लगते हैं तथा संवाद में 'विट' कुछ ऐसा है कि बरबस पी.जी. वुडहाउस और बर्नाड शॉ की याद ताजा करते हैं। नायक के मित्र के रूप में जिशान ने कमाल किया है। रजनीकांत के दामाद धनुष अपने श्वसुर से बेहतर कलाकार हैं और प्रेमी की तड़प को उन्होंने जिया है, उसका अभिनय नहीं किया है। प्रेम कहानी में निहित आत्मा का ताप फिल्म में खूब महसूस होता है। बनारस की गलियां, गंगा का तट, काशी विश्वविद्यालय का परिसर पात्रों की तरह जीवंत है। बचपन से ही ब्राह्मण के बेटे ने जोया को पहली नजर देखा और उसे प्यार हो गया। बात उजागर होने पर जोया को अलीगढ़ तथा बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय भेज दिया गया। वह लौटी तो बचपन भूल चुकी थी, परंतु बामन के बेटे के दिल में तो बचपन और उसकी मोहब्बत 'स्थायी' रूप से मौजूद है। प्रेम में इनकार के बाद अपनी हीर को उसके रांझा से मिलाने के लिए बनारस का यह युवा जमीन-आसमान एक कर देता है। मध्यांतर के बाद पृष्ठभूमि विश्वविद्यालय और राजनीति की है तथा इसी हिस्से में प्रेम-कथा कुछ बोझिल हो जाती है, परंतु फिल्मकार तो पहले हिस्से में ही इसके बीज बो चुका है। बहरहाल, फिल्म में सतह के नीचे बहुत अर्थ छुपे हैं और फिल्मकार उनके संकेत देता रहता है। मसलन दिल्ली के शिक्षा परिसर और देश की राजनीति में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले साधारण समस्याओं को सुलझाने में असफल हो जाते हैं। तब हमारा अनपढ़ नायक अपनी व्यावहारिक समझ से समस्याएं सुलझा लेता है, क्योंकि वह मनुष्य के माथे पर किसी सिद्धांत का लेबल नहीं चिपकाता, उसे उसका मनुष्य होना ही पर्याप्त लगता है। फिल्मकार का इशारा स्पष्ट है कि वर्तमान में मनुष्य राजनीति का केन्द्र नहीं है, वरन महज मोहरा है और गरीबी सिर्फ बिसात है, उसे दूर कर देंगे तो मोहरे क्या मंत्री की मेज पर चलेंगे।

इसी लेखक-निर्देशक की जोड़ी ने 'तनु वेड्स मनु' बनाई थी और इस सफल फिल्म के भी मध्यांतर के बाद वाले हिस्से में थोड़ी-सी कमी रह गई थी। क्या मनुष्य को गलती की आदत हो जाती है? दरअसल, इस फिल्म के आखिरी हिस्से में राजनीति की दुनिया में जाने के कारण नायक विश्वविद्यालय की राजनीति में शामिल होता है और उसके इस साहस की ओर ही वह आकर्षित हुई थी। आम दर्शक प्रेम-कथा में राजनीति नहीं चाहता, परंतु राजनीति की पृष्ठभूमि में प्रेम-कथा वह पसंद कर लेता है। अगर दिल्ली विश्वविद्यालय का दूसरा नायक कवि होता तो रांझणा की प्रेम-कथा की दिशा ही अलग हो जाती। इसमें 'प्यासा' का हल्का-सा रंग आ जाता। बहरहाल, रांझणा का प्रथम भाग इतना आनंददायी और भावनाप्रधान है कि उसकी लहर का वेग हमें दूसरे दुरूह भाग में दुर्घटनाग्रस्त नहीं करता। इस फिल्म में चरित्र भूमिकाओं में जिशान औरस्वरा भास्कर ने कमाल का अभिनय किया। इस फिल्म की लहर बनाने में ए.आर. रहमान और गीतकार का भी बहुत योगदान है। इसी निर्देशक की 'तनु वेड्स मनु' में एक गीत था कि 'अफीम खाकर रंगरेज पूछता है कि रंग का कारोबार क्या है' और इसी तर्ज पर हम निर्देशक से पूछते हैं कि प्रेम की अफीम चखाकर राजनीति का विष क्यों दिया। पहले हिस्से में पॉपकॉर्न की ओर ध्यान नहीं गया, परंतु आखिरी एक घंटे में पॉपकॉर्न बहुत काम आए, परंतु पहले डेढ़ घंटे के लिए फिल्म देखी जानी चाहिए।