बनारस की गलियाँ / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
जो लोग बम्बई, कलकत्ता और दिल्ली जैसे शहरों में एक बार हो आये हैं अथवा किसी कारणवश अब वहीं रहने लग गये हैं, ऐसे लोग जब कभी किसी छोटे शहर में आएँगे तो उस शहर के बारे में इस तरह बातचीत करेंगे मानो परमाणु बम का भेद बता रहे हों। चूँकि हम कभी दिल्ली, बम्बई गये नहीं इसलिए हम उनकी बातें मुँह बाकर इस तरह निगल जाते थे जैसे बरसात में छिपकलियाँ पतिंगों को। कभी-कभी हम यह महसूस करने लगते, नाहक हमारी पैदाइश बनारस जैसे शहर में हुई। काश! हम बम्बई, कलकत्ता जैसे शहरों में पैदा हुए होते। वहाँ की ऊँची-ऊँची इमारतों से नीचे की ओर झाँककर देखते कि आदमी अँगूठे से कितना बड़ा होता है, चौपाटी और मिलावर हिल से समुद्र की अजगर सरीखी लहरें गिनते।
इन शहरों की तारीफ में खास चर्चा मकानों और सड़कों के बारे में होती है। वहाँ के मकान इतने ऊँचे हैं कि सड़क पर खड़े होकर ऊपर देखो तो टोपी गिर जाए। सड़कें इतनी खुशनुमा हैं कि पैर फिसल जाते हैं। चौड़ाई तो इतनी कि यहाँ की तीन एक ही में घुस जाएँ। गलियाँ तो वहाँ हैं ही नहीं, और जो हैं भी, वे यहाँ की सड़कों की नानी से कम नहीं। धीरे-धीरे उनकी बातचीत का असर इस कदर होता है कि हम यह फरमान जारी कर देते हैं - इस साल चाहे जैसे हो कलकत्ता, बम्बई जाकर ही रहेंगे। हमारे इस एलान को सुनकर हजरत यों मुँह सिकोड़ लेते जैसे 100 ग्रेन कुनैन का मिक्स्चर पी लिया हो। मस्तक पर मुट्ठी भर बल डाले इस अन्दाज से कह उठते, 'खुदा झूठ न बोलाए। आज तीन साल हो गये वहाँ रहते, पर अभी तक हम यह नहीं जान सके कि कौन सड़क किधर जाती है। फलाँ जगह जाने के लिए किन-किन सड़कों से या किस बस पर सवार होकर जा सकते हैं, नहीं बता सकते। रात को कौन कहे, दिन को भी हम अकसर रास्ता भूल जाते हैं। फिर आप जैसे आदमी जाएँ तो खो जाने में कोई शुबहा नहीं। दायें-बायें का खयाल न रखें तो हवालात में बन्द हो जाएँ या सीधे नरक का टिकट कटाएँ। अगर आप किसी ठग या सुन्दरी के चक्कर में आ गये तो बेड़ा गरक ही समझिए।'
चूँकि हम अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान और अपनी बेगम के इकलौते मियाँ हैं, इसलिए मुफ्त में खो जाना या हवालात में बन्द होकर नरक का टिकट कटाना कतई पसन्द नहीं करते। जबकि हम पैदा होते ही अपने बाप को यह सर्टिफिकेट दे चुके हैं कि आपकी गैरमौजूदगी में मैं और मेरी औलाद आपको पितृपक्ष के दिनों पानी जरूर देंगे। नतीजा यह होता है कि हम अपना फैसला चुपचाप वापस ले लेते हैं, फिर कभी उधर जाएँगे - यह ख्वाब में भी नहीं लाते।
यह अजीब इत्तिफाक की बात है कि एक बार हमारे घर एक नजूमी आया और उसने बताया कि मैं बम्बई, कलकत्ता और दिल्ली जैसे शहरों में जरूर जा सकता हूँ। बात ठीक निकली। वह अरमान जो कि कुचल दिया गया था, पुष्पित हो उठा। हम गये और वापस भी चले आये। न कहीं खोये, न कहीं पैर फिसला। न कहीं टोपी गिरी, न हवालात में बन्द हुए। ठग और सुन्दरी से भेंट हुई, पर हम उनकी चकल्लस में नहीं आये। लेकिन जो मजा बनारस की गलियों में है, वह मजा दुनिया के किसी पर्दे में नहीं है। जो आजादी यहाँ के हर गली-कूचे में है उसे ये सात जन्म में नहीं पा सकते। बनारसी गलियों का कुछ मजा सिर्फ मथुरा में मिल सकता है।
बनारस की सड़कें
बनारस में जितनी सड़कें हैं, उससे सौ गुनी अधिक गलियाँ हैं। यदि आप बनारस की सड़कों का मुआइना कर बनारस के बारे में फैसला देंगे तो यह सेंट-परसेंट अन्याय होगा। असली मजा तो बनारस की गलियों में दुबका हुआ है। बनारसी भाषा में उन्हें ‘पक्का महाल’ - ‘भीतरी महाल’ कहते हैं। काशी खंड के अनुसार विश्वनाथ खंड-केदारखंड की तरह वर्तमान बनारस भी दो भागों में बसा हुआ है - भीतरी महाल (पक्का महाल) और बहरी तरफ। आपने सिर्फ बाहरी रूप अर्थात कच्चा रूप देखा है। पक्का रूप देखना हो तो गलियों में टहरान दीजिए।
यहाँ की सड़कें अभी जुमा-जुमा आठ रोज हुए बनी हैं यानी ‘लली’ है। बेचारी ठीक से सूख भी नहीं पायी हैं। यकीन न हो तो किसी दिन गर्मी के मौसम में पैदल चलकर देख लीजिए। सुकतल्ला सड़क पर चिपककर रहा जाएगा और हवाली जूता आपके पैरों में। यदि जूता काफी मजबूत हुआ तो बनारस की धरती इस कदर प्यार से आपके कदमों को चूमेगी कि उससे अपना दामन छुड़ाने में आपको छठी का दूध याद आ जाएगा। अगर आपकी यह कसरत बनारसी-पट्ठों ने देखी तो - ‘बोल छमाना छे, खिचले रहे पट्ठे, जाए न पावे’ फिकरा कस ही देंगे। कहने का मतलब यह कि बनारस की सड़कें हर पैदल चलनेवाले मुसाफिरों से बेहद मुहब्बत करती हैं। इनकी मुहब्बत हर मौसम में अलग ढंग से पेश आती है। बरसात में इनकी होली देश विख्यात है और वसन्त ऋतु में जब ये आप पर ‘गुलाल’ बरसाने लगती हैं तो मत पूछिए! आनन्द आ जाता है।
स्कूलों में आप ज्योमेट्री की शिक्षा पा चुके होंगे। मुमकिन है कि उसकी याद धुँधली हो गयी हो। यदि आप बनारस की सड़कों पर टहलान दें तो मजबूरन ज्योमेट्री के प्रति दिलचस्पी पैदा हो जाएगी। जब कोई बैलगाड़ी, ट्रक, जीप या टैक्सी इन सड़कों पर से गुजरती है तब हर रंग की, हर ढंग की समानान्तर रेखाएँ त्रिभुज, चतुर्भुज और षट्कोण के ऐसी अजीब-गरीब नक्शे बन जाती हैं कि जिसका अंश बिना परकार की सहायता के ही बताया जा सकता है। नगरपालिका को चाहिए कि वह अपने यहाँ के अध्यापकों को इस बात का आदेश दे दे कि वे अपने छात्रों को सड़क पर बने हुए इस ज्योमेट्री का परिचय अवश्य करा दे। सुना है काशी के कुछ मार्डन आर्टिस्ट इन नक्शों के सहयोग से प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं।
यहाँ की सड़कें डॉक्टरों की आमदनी भी बढ़ाती हैं। यही वजह है कि अन्य शहरों से कहीं अधिक बनारस में डॉक्टर हैं। यदि आप किसी रिक्शे पर सवार होकर एक बार शहर परिक्रमा कर लें तो इसका अनुभव हो जाएगा। बनारस के बाशिन्दे तो इसके आदी हो गये हैं। यहाँ के कुछ गुरुओं का, (जो लन्दन, पेरिस और अमेरिका हो आये हैं) कहना है कि उन्हें हवाई जहाज या समुद्री जहाज में चक्कर देनेवाली बीमारी इन सड़कों के हिचकोले खाने के कारण हुई। इसलिए आपको जब कभी विदेश जाने को जरूरत हो तो एक बार बनारस आकर रिक्शे की सवारी पर हिचकोले जरूर खाइए। यहाँ हर पाँच कदम पर गड्ढे हैं। जब इन गड्ढों में रिक्शे का पहिया फँसेगा तब पेट का सारा भोजन कंठ तक आ जाएगा। दूसरे दिन बदन में इतना दर्द हो जाएगा कि आपको डॉक्टर का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा।
अँग्रेजी शासनकाल में जब कोई गवर्नर या अधिकारी काशी-दर्शन के लिए आता था तब उसे खास सड़कों से ले जाया जाता था। जब लगातार लोग यहाँ आने लगे तब कैंट से नदेसर तक और कैंट से पानीकल तक सीमेंट की सड़कें बना दी गयीं। विश्वविद्यालय के छात्र खुराफाती होते ही हैं। एक बार उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व गवर्नर माननीय कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशीजी की मोटर लंका से अस्सी की ओर इन लोगों ने चलवा दी। नतीजा यह हुआ कि नगरपालिका ने उस सड़क की खाज को दूसरे साल मलहम-पट्टी लगाकर कुछ हद तक ठीक कर दिया। भगवान करे हर प्रान्त के गवर्नर यहाँ आवें और इस प्रकार प्रत्येक सड़क का खाज-एग्जीमा दूर होता रहे।
गलियों की विशेषता
काशी में सड़कों का कोई महत्त्व नहीं है, इसलिए बहुत कम लोग सड़कों पर चलते हैं। सड़कों का उपयोग जुलूस निकालते समय होता है। उस पर पैदल से अधिक लोग सवारी से चलते हैं। इधर कुछ ऐसे लोग (शायद मेंटल हास्पिटल से छूटकर) आ गये हैं जो सड़कों को महत्त्व देने लग गये हैं। ऐसे लोग लबे सड़क ‘मकान बिकाऊ है,’ ‘दुकान खाली है,’ अथवा ‘भाड़े पर लेना है’ का विज्ञापन छपवाते हैं।
काशी की अधिकांश गलियाँ ऐसी हैं जहाँ सूर्य की रोशनी नहीं पहुँचती। कुछ गलियाँ ऐसी हैं जिनमें से दो आदमी एक साथ गुजर नहीं सकते। इन गलियों की बनावट देखकर कई विदेशी इंजीनियरों की बुद्धि गोल हो गयी थी! जो लोग यह कहते हैं कि बम्बई-कलकत्ता की सड़कों पर खो जाने का डर रहता है, वे काशी की गलियों का चक्कर काटें तो दिन भर के बाद शायद ही डेरे तक पहुँच सकेंगे। आज भी ऐसे अनेक बनारसी मिलेंगे जो बनारस की सभी गलियों को छान चुके हैं, कहने में दाँत निपोर देंगे।
इन गलियों से गुजरते समय जहाँ कहीं चूके तुरन्त ही दूसरी गली में जा पहुँचेंगे। कलकत्ता, बम्बई की तरह सड़क की मोड़ पर अमुक दुकान, अमुक निशान रहा-याद रहने पर मंजिल तक पहुँच सकते हैं - पर बनारस में इस तरह के निशान-दुकान-साइनबोर्ड भीतरी महाल में नहीं मिलेंगे। नतीजा यह होगा कि काफी दूर आगे जाने पर रास्ता बन्द मिलेगा। उधर से गुजरनेवाले आपकी ओर इस तरह देखेंगे कि यह ‘चाँइया’ इधर कहाँ जा रहा है। नतीजा यह होगा कि आपको पुनः गली के उस छोर तक आना पड़ेगा जहाँ से आप गड़बड़ाकर मुड़ गये थे। कुछ गलियाँ ऐसी हैं कि आगे बढ़ने पर मालूम होगा कि आगे रास्ता बन्द है, लेकिन गली के छोर के पास पहुँचने पर देखेंगे कि बगल से एक पतली गली सड़क से जा मिली है। अकसर इन गलियों में जब खो जाने में आता है, खासकर रात के समय, तब लगता है जैसे ऊँचे पहाड़ों की घाटियों में खो गये हैं। इन गलियों में लोग चलते-फिरते कम नजर आते हैं। जो नजर भी आते हैं, वे उस गली के बारे में पूर्ण विवरण नहीं बता सकते। हो सकता है, वे भी आपकी तरह चक्कर काट रहे हों। गलियों का तिलिस्म इतना भयंकर है कि बाहरी व्यक्ति को कौन कहे अन्य लोग भी जाने में हिचकते हैं। कुछ गलियाँ ऐसी हैं जिनसे बाहर निकलने के लिए किसी दरवाज़े या मेहराबदार फाटक के भीतर से गुजरना पड़ता है।
बम्बई, कलकत्ता की तरह यहाँ की सड़कों में चार से अधिक रास्ते नहीं हैं, पर गलियों में चार से चौदह तक रास्ते हैं। किस गली से आप तुरन्त घर पहुँच सकते हैं यह बिना जाने या बिना पूछे नहीं जान सकते। जिस गली से आप घर पहुँच सकते है उसी से आप श्मशान या नदी किनारे भी जा सकते हैं।
गलियों का नगर
शैतान की आँत की भाँति यह भूल-भुलैया संसार का एक आश्चर्यजनक दर्शनीय स्थान है। इन गलियों में कितनी आजादी है। नंगे घूमो, गमच्छा पहिने चलो, जहाँ जी में आए बैठो और जहाँ जी आए सो जाओ। कोई बिगड़ेगा नहीं, भगाएगा नहीं और न डाँटेगा। गावटी का गमच्छा या सिल्क का कुरता पहने बनारसी रईस भी इन गलियों में छाता लगाये चलते हैं। शायद आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिस गली में सूर्य की रोशनी नहीं पहुँचती, बरसात का मौसम नहीं है, फिर भी लोग वहाँ छाता लगाकर क्यों चलते हैं? कारण है - गन्दगी। मान लीजिए आप बाजार से लौट रहे हैं, अचानक ऊपर से कूड़े की बरसात हो गयी। यह बात अच्छी तरह जान लीजिए - बनारसी तीन मंजिले या चार मंजिले पर से बिना नीचे झाँके थूक सकता है, पानी फेंक सकता है और कूड़ा गिरा सकता है। दुकान झाड़ बटोरकर आपके चेहरे पर सारा गर्द फेंक सकता है। यह उसका जन्म-सिद्ध अधिकार है; नीचे इस सत्कार्य से घायल व्यक्ति जब गालियाँ देता है तब सुनकर भाई लोग प्रसन्न हो उठते हैं। उनका रोम-रोम गाली देनेवाले को साधुवाद देगा। अगर कहीं वे सज्जन चुपचाप चले गये तो इसका उन्हें अपार दुख होगा और उस दुख को मिटाने के लिए मुख से अनायास ही निकल जाएगा - ‘मुर्दार निकसल!’
किसी-किसी गली में बनारसी रईसों का पनाला इस अदा से चूता है कि फुहारे का मजा आ जाता है! गरमी के दिनों में रात को ऐसी गलियों से गुजरना और खतरनाक होता है। सोते समय ‘शंका समाधान’ के लिए बनारसी अपने को अधिक कष्ट नहीं देगा। परिणामस्वरूप छत के पनाले से आप पर ‘शुद्ध गंगाजल’ बरस सकता है। गुस्सा उतारने के लिए ऐसे घरों में आप घुसने की हिम्मत नहीं कर सकते। एक तो बाहर का भारी दरवाजा बन्द है, दूसरे भीतर जाने पर भी यह पता चलना मुश्किल है कि यह सत्कार्य किसने किया है। मुँह आपका है, गालियाँ बक लीजिए और राह लीजिए, बस! खासकर नंगे पैर चलना तो और भी मुश्किल है। घर के बच्चे ‘दीर्घशंका’ गलियों में रात को कर देते हैं।
अगर इन गलियों में भगवान शंकर के किसी मस्ताने वाहन से भेंट हो गयी अर्थात उसने नाराज होकर आपको हुरपेटा तो जान बचाकर भागना मुश्किल हो जाएगा। खासकर उन गलियों में जो आगे बन्द मिलती हैं। क्योंकि आप पीछे भाग नहीं सकते, आगे रास्ता बन्द है, बगल के सभी मकानों में भीतर से भारी साँकल लगी है और इधर साँड़ महाराज हुरपेटे आ रहे हैं! साल में दो-एक व्यक्ति इन साँड़ों के कारण काशी-लाभ करते हैं। लगे हाथ एक उदाहरण सुन लीजिए। अब्राहिम लिंकन के बाद जनरल ग्रांट अमेरिका के राष्ट्रपति हुए थे। एक बार जब वे हिन्दुस्तान में दौरे पर आये तब बनारस भी आये थे। उन्होंने इस शहर को ‘ए सिटी ऑफ लेन्स’ अर्थात गलियों का शहर कहा है। कहा जाता है कि उनकी पत्नी को शंकर भगवान के वाहन ने अपने सींग पर उठा लिया था।
कहा जाता है कि राजा रामचन्द्र के सुपुत्रों (लव और कुश) से बुरी तरह शिकस्त खाकर पवनसुत हनुमान जी अपनी बिरादरी के साथ बनारस में आकर बस गये हैं। आज वे इन गलियों में क्रीड़ा-स्थल बनाकर परम प्रसन्न हैं। ऐसी घटनाएँ प्रायः सुनने में आती हैं कि गली से गुजरते समय अचानक ऊपर छत से पत्थर का बड़ा रोड़ा सिर पर आ गिरा और बड़ी आसानी से स्वर्ग में सीट रिजर्व हो गयी। असल में यह पवनसुत के वंशजों का महज खिलवाड़ है। ‘खिलवाड़’ में अगर कोई सीधे स्वर्ग पहुँच जाता है तो वह अपराध कैसे हो सकता है? पवनसुत के वंशजों का तर्क कानून शास्त्रियों को घपले में डाल देता है। इस आसमानी खतरे से बचने के दो ही उपाय हैं - एक तो सिर पर फौजियों वाली लोहे की टोपी या फिर आपका अपना भाग्य! क्योंकि इस तरह की फौजदारी की घटना किसी थाने में दर्ज नहीं होती और न इसके मुकदमे अदालत में स्वीकार किये जाते हैं।
इन गलियों के नामकरण और उनकी दूरी को यदि आप नजरअन्दाज करें तो बनारस के पोस्टल विभाग की प्रशंसा करेंगे। हर बनारसी अपने को ‘सरनाम’ (प्रसिद्ध) समझता है। मुहल्ले का एक व्यक्ति समूचे मुहल्ले की जानकारी रखता है। उसका विश्वास है कि मुहल्ले के डाकिये से मुख्यमन्त्री तक उसके नाम से परिचित हैं। काशी में ‘दसपुतरिया गली’ महज आठ-दस मकानों का एक मुहल्ला है, पर वहाँ के रहनेवालों को ‘दसपुतरिया गली’ के नाम पर पत्र मिल जाते हैं। इस प्रकार छोटी-छोटी गलियाँ यहाँ काफी प्रसिद्ध हैं। नगरपालिका भले ही नेताओं के नाम पर गलियों का नामकरण करे, पर बनारसवाले अपनी पुरानी परम्परा को नहीं बदल सकते।
इन गलियों में गर्मी के दिनों में शिमले का मजा, जाड़े में पुरी का मजा और बरसात में पहाड़ी स्थानों का मजा अनायास मिलता रहता है। यही वजह है कि बनारसी लोग पहाड़ी स्थानों में कभी नहीं जाते। रहा गन्दगी का प्रश्न, सो कहाँ नहीं है। जिस गली में इमली के बीज बिखरे हों, समझ लें इस गली में मद्रासी रहते हैं। जिस गली में मछली महकती हो, वह बंगालियों का मुहल्ला है। जिस गली में हड्डी लुढ़की हो, वह मुसलमान दोस्तों का मुहल्ला है। इस प्रकार हर गली में प्रत्येक वर्ग का ‘साइनबोर्ड’ लटकता रहता है। अध्ययन करनेवालों को इन साइनबोर्डों से बड़ी ‘हेल्प’ मिलती है। मदनपुरा, पांडे हवेली, सोनारपुरा आदि मुहल्लों में साड़ियाँ बनती हैं और रानीकुआँ, कुंजगली आदि मुहल्लों में बिकती हैं। गोबिन्दपुरा, राजादरवाज़ा, रानीकुआँ, कोदई की चौकी में सोने-चाँदी का व्यवसाय होता है। कचौड़ी गली की कचौड़ी, ठठेरी बाजार के पीतल के बर्तन, विश्वनाथ गली की चूड़ियाँ, लकड़ी के खिलौने भारत में प्रसिद्ध हैं। मिश्रपोखरा स्थित जर्दे के कारखाने, लोहटिया और नखास में लोहे, लकड़ी का व्यवसाय होता है। अधिक दूर क्यों, काशी में मंगलामुखियों का व्यवसाय भी गलियों में ही होता है। दालमंडी-छत्तातले, मडुवाडीह में आशिक लोग नित्य शाम को जुटा करते हैं।
मतलब यह कि बनारस की प्रसिद्धि जिन वस्तुओं के कारण है, उन वस्तुओं का व्यवसाय गलियों ही होता है।