बनारस की चौपाटी / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
काशी को दुनिया से न्यारी कहा जाता है और यह सारा 'न्यारापन' बनारसी चौपाटी-दशाश्वमेध घाट पर खिंच आया है, यह निस्सन्देह कहा जा सकता है।
जो बम्बई की चौपाटी की चाट खा आये हैं, उन्हें दशाश्वमेध घाट की चौपाटी कहते जरा झिझक होती है। ऐसे लोगों को असली बनारसी 'गदाई' के विशेषण से युक्त करने में कभी संकोच नहीं होगा। किसी बनारसी को अगर बम्बई में छोड़ दिया जाए तो वह अपने को 'पागल' समझने को विवश हो जाएगा बस कुछ ही दिनों में। बम्बई में पाश्चात्य चमक भले ही हो, पर भारतीयता की झलक तो अपने बनारस में ही मिलती है। खैर।
यह निश्चिन्त मन से स्वीकारा जा सकता है कि बम्बई की चौपाटी का दशाश्वमेध घाट से कोई मुकाबला नहीं। एक में बाजारू सौन्दर्य है तो दूसरे में शाश्वत।
मुलाहजा फरमाइए-
सुबह होते ही, घाट पर मालिश का बाजार गर्म हो जाता है। बनारसी के लिए स्नान के पूर्व मालिश का वही महत्त्व है, जो आधुनिकों के लिए स्नोक्रीम-पाउडर का। एक पैसे की दक्षिणा में कपड़ों की चौकीदारी, स्नानोपरान्त आईने-कंघी की व्यवस्था से लेकर तिलक लगाने तक की सेवा आप यहाँ उपस्थित घाटिये से ले सकते हैं। ब्राह्मण का आशीर्वाद फोकट में मिल जाएगा।
जरा सामने निगाह उठाइए तो गंगा की छाती पर धीरे-धीरे उस पार की ओर सरकती नौकाएँ आपका ध्यान तुरन्त आकर्षित कर लेंगी। बनारस के 'गुरु' और रईस शहर में मल-त्यागना अपराध समझते हैं, सो उस पार निछद्दम में निपटान को जाते हुए बनारसी की दिव्य छटा से आपकी आत्मा तृप्त हो जाएगी। ये निपटान-नौकाएँ, अधिकतर पर्सनल होती हैं और इनका दर्शन शाम को भी किया जा सकता है। स्नानार्थियों में कम-से-कम सत्तर परसेंट महिलाएँ होती हैं, इसलिए कुछ बीमार किस्म के 'आँख सेंकते' भी दिखाई पड़ेंगे। बनारस की महिलाएँ जरा मर्दानी किस्म की होती हैं, सो ऐसे बीमारों की कतई परवाह नहीं करतीं।
अस्सी और वरुणा-संगम के मध्य में होने के कारण यहाँ से सम्पूर्ण बनारस की परिक्रमा आप कर सकते हैं, इसलिए कि काशी का 'रस' यहाँ के घाटों में ही की सन्निहित है।
अब घाट से ऊपर आइए और देखिए कि बनारस कितना कंगाल है - सड़क पर अपनी गृहस्थी जमाये भिखमंगों को देखकर स्वाभाविक है कि बनारस के प्रति आपका आइडिया खराब हो जाए, यह अनभिज्ञता और भ्रम का परिणाम है। काशी के भिखमंगों की माली हालत आफिस में कलम रगड़नेवाले सफेद-पोश बाबुओं से उन्नीस नहीं होती। मरने के बाद उनके लावारिस गूदड़ के अन्दर से सरकार को अच्छी-खासी आमदनी हो जाती है। भिखमंगों के बनवाये हुए अनेक भवन-धर्मशालाएँ बनारस में स्थित हैं। एक बार चितरंजन पार्क के पास एक बूढ़ी भिखमंगिन जब मरी तब उसके गूदड़ से सात सौ अट्ठासी रुपये, साढ़े तेरह आने की मोटी रकम प्राप्त हुई थी। मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि आप उन्हें 'छिपा रईस' समझ कर उनका जायज हक हड़प कर लें। भीख माँगना उनका पेशा है और पेशे का सम्मान करना आपका धर्म।
शाम को इस बनारसी चौपाटी का वास्तविक सौन्दर्य दीख पड़ता है। कराची की फैशनपरस्ती, लाहौर की शोखी, बंगाल की कलाप्रियता, मद्रास की शालीनता, गुजरात-महाराष्ट्र सब उमड़ पड़ता है। यद्यपि दशाश्वमेध का क्षेत्र बहुत ही सीमित है तथापि गागर में सागर का समा जाना आप खूब अनुभव कर लेंगे।
विश्वनाथ गलीवाली नुक्कड़ से सिलसिलेवार स्थित तीन रेस्तराँ आपको सर्वाधिक आकर्षित करेंगे। उनके अनुचर मोची से लेकर श्रीमान तक को बिना किसी भेदभाव के भाई साहब, चचा, दादा और बहनजी आदि पुनीत सम्बोधनों से निहाल कर देंगे; भले ही आपकी जेब में एक कप चाय तक की कीमत न हो।
उपर्युक्त तीनों जलपान घरों का ऐतिहासिक महत्त्व है। बनारस के इकन्निया ब्रांड से लेकर रुपये ब्रांड तक के साहित्यकार, शाम को इन्हें अपने आगमन से पवित्र करना अपना कर्तव्य समझते हैं। थोड़ा प्रयत्न करें तो घाट के किसी अँधेरे कोने में साहित्यकारों की मंडली किसी गम्भीर साहित्यिक समस्या में उलझी हुई मिल जाएगी। यों काशी का ऐसा कोई साहित्यकार आपको नहीं मिलेगा जो दशाश्वमेध में न जमता हो। अनेक साहित्यिक वादों का प्रसार और उनके आपरेशन का थियेटर भी दशाश्वमेध ही है। अधिकतर साहित्यिक गोष्ठियाँ भी यहीं आयोजित होती हैं।
घाट पर शाम को धर्मों की जो धारा लहरती है, वह अन्यत्र दुर्लभ ही है। कथावाचक रामायण, महाभारत, चैतन्य चरितावली, भागवत आदि की पुनीत कथा से वातावरण को गमका देते हैं।
इस स्थान की प्रशंसा भारतीयों ने की ही है, दूसरे देशवालों ने भी इसका गुणगान किया है। प्रसिद्ध पर्यटक श्री जे.बी.एस. हाल्डेन की पत्नी ने कहा है कि मुझे यह जगह न्यूयार्क से अच्छी लगती है। एक रूसी पर्यटक ने इसे पेरिस से सुन्दर नगरी कहा है। विश्व स्वास्थ्य संघ के एक अधिकारी ने इसे सारे जहाँ से अच्छा स्थल माना है। मेरे एक मित्र, जो लन्दन गये हुए हैं, उन्होंने जब स्वेज नहर का दृश्य देखा तब उन्हें बनारस के घाटों के दृश्य याद आ गये।
प्राचीन काल में दशाश्वमेध का नाम 'रूपसरोवर' था। इसके बगल में घोड़ा घाट है। पहले इसका नाम गऊघाट था। काशी की गायें यहाँ पानी पीने आती थीं। गोदावरी-गंगा का संगम-स्थल आज घोड़ाघाट बन गया है। त्रेतायुग में दिवोदास ने यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ करवाये थे, तभी से इस स्थान का नाम दशाश्वमेध घाट हो गया है। आज भी ऊपर दशाश्वमेधेश्वर की मूर्ति है।
शायद ही ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी होगी जिसकी सभा इस घाट पर न हुई हो। खासकर सन 42 के आन्दोलन के पूर्व के सभी उपद्रव इसी घाट से प्रारम्भ किये जाते थे। शहर का प्रत्येक जुलूस इसी स्थान से सज-धजकर चलता है। शहर की सबसे बड़ी सट्टी (तरकारी बाजार) यहीं है और महामना मालवीय ने हरिजन-शुद्धि का आन्दोलन इसी घाट से प्रारम्भ किया था।
अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री की कृपा से इस घाट का पुनर्निर्माण शुरू हुआ है। निर्माण कार्य समाप्त हो जाने पर यह निश्चित है कि यह स्थान काशी का सर्वाधिक आकर्षक केन्द्रस्थल बन जाएगा।
बम्बइया चौपाटी को मात देने के लिए उत्तर प्रदेशीय सरकार ने भी एक मार्वेलेस प्लान कार्यान्वित करने का निश्चय कर लिया है। राजघाट-सारनाथ सड़क के पुल के फाटक बन्द करके वरुणा नदी से विशाल झील निर्मित होगी। शान्त वातावरण में इस झील में जल-विहार कितना मनोरम होगा, अनुमान ही मन में स्फुरण भर देता है।