बनारस की संस्कृति / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
बनारस धार्मिक क्षेत्र ही नहीं है, पंडितों की नगरी भी है। धर्म और संस्कृति का पंडिताऊपन जितना यहाँ है, उतना अन्यत्र नहीं है। आज भी ज्योतिष शास्त्र में काशी के स्टैंडर्ड समय और ज्योतिष की मान्यता सारे देश में है। शायद इसीलिए इस शहर को सांस्कृतिक राजधानी कहा गया है।
सात वार नौ त्योहार की नगरी
हिन्दी में एक कहावत है—‘काशी का अद्ïभुत व्यवहार, सात वार नौ त्योहार।’ अगर आप काशी में दो एक साल रह जाएँ और आपकी पत्नी कुछ अधिक धर्मपरायण हो तो यकीन मानिए इन त्योहारों में खर्चा करते-करते करोड़पति की भी लुटिया डूब जा सकती है। यही वजह है कि बनारस वाले खाने के अधिक शौकीन हैं। पहनने के शौकीन इसलिए नहीं है कि खाने से अधिक पैसा बच ही नहीं पाता, क्या करें बेचारे। जो लोग यहाँ सडक़ों पर पुट-पानी देकर टहरान देते हैं, सही माने में वह केवल उनका दिखावा है, अन्तस् से वे असली बनारसी नहीं हैं।
हमें एक बात का गर्व है कि बनारस के अलावा हिन्दुस्तान के किसी भी शहर में इतने प्रेम से इतने अधिक त्योहार नहीं मनाये जाते। भले ही उनका रूप यहाँ साधारण हो, अधिक टीम-टाम न हो और उनमें ऐश्वर्य के दर्शन न हों, लेकिन त्योहार तो श्रद्धा-भक्ति और संस्कृति के अंग होते हैं, उसमें ऐश्वर्य के दर्शन का अर्थ केवल दिखावा मात्र होता है। लखपति के घर के शालिग्राम सोने के सिंहासन पर रहते हैं और गरीब के घर पेपरवेट की तरह ज़मीन पर बेलपत्र और शुद्ध गंगाजल सेवन करते हैं। बड़ों के घर भगवान किराये के पंडित द्वारा पूजित होते हैं और गरीब के घर अशुद्ध मन्त्र पाठ द्वारा पूजित होते हैं, इन दोनों रूपों का सामंजस्य यहाँ के मेलों में, पर्वों में और मन्दिरों में देखा जा सकता है।
सच पूछिए तो पर्व और सामाजिक प्रथाएँ ही संस्कृति के अंग हैं। बनारस में त्योहारों का रूप देखकर यह अनुभव नहीं होता कि हम हाइड्रोजन बम के युग में हैं, भारत में अन्न संकट है, हम विदेशी सहायता पर पल रहे हैं और देश में भयंकर गरीबी है। यद्यपि यह बात ठीक है कि आजकल पहले की तरह पर्व नहीं मनाये जाते, फीका-फीका-सा अनुभव होता है, फिर भी उनका रूप आज भी मौजूद है।
उदाहरण के लिए सूर्यग्रहण को ही ले लीजिए, यह एक बे-मौसम का पर्व है। सूर्यग्रहण का महत्त्व कुरुक्षेत्र में है और चन्द्रग्रहण का बनारस में। लेकिन सूर्यग्रहण के अवसर पर बनारस के कुरुक्षेत्र की दशा देखकर यह विश्वास नहीं होता कि इतनी दुर्गति पंजाब (वर्तमान हरियाणा) के कुरुक्षेत्र की होती होगी।
बनारस का वर्ष प्रथम मेला ‘रथयात्रा’ माना जाता है। यदि पुरी को भारत के नक्शे से गायब कर दिया जाए तो बनारस के रथयात्रा मेला की तुलना कहीं से नहीं की जा सकती। गर्मी से दग्ध आकुल हृदयों का यहाँ तीन दिनों तक अखंड सम्मेलन होता है। नानखटाई और देशी पान का प्रथम भोग इसी मेले से शुरू होता है। शायद ही ऐसा कोई अरसिक व्यक्ति होगा जो यहाँ की छटा देखकर मुग्ध न हो जाय।
रथयात्रा के बाद बनारस में मेलों की बाढ़ आ जाती है। गर्मी में घरों में बन्द रहने के पश्चात्ï यहाँ के नागरिक मेला या पर्व में उसी प्रकार भाग लेने लगते हैं, जैसे गौशाला से बाहर उन्मुक्त हवा में आकर गायें उछलने लगती हैं। दुर्गाजी, सारनाथ, संकटमोचन, लोलार्क, सोरहिया, बेचूबीर, प्याले का मेला और अनन्त चौदस आदि पर्व आषाढ़ से भादों तक मनाये जाते हैं। नाग पंचमी के दिन भोर के समय बनारस के गली-कूँचे में ‘छोटे गुरु का बड़े गुरु का नाग लो भाई नाग लो’ की आवाज गूँजने लगती है। दोपहर तक सभी अखाड़ों में बनारसी पंडों का दंगल चालू रहता है। यहाँ की ‘नाग नथैया’ (कालियादहन) जैसी खतरनाक लीला करने का ताव शायद ही किसी शहरवाले को हो। इस लीला को देखकर एक बार बड़े-बड़े सूरमा भी ‘दहल’ जाते हैं। बाढ़ के दिनों में यह लीला देखने के लिए सारा शहर उमड़ पड़ता है। अब तो दुर्घटनाएँ कम होती हैं, वरना प्रतिवर्ष भीड़ और बाढ़ के कारण इस लीला में दो-चार लोगों की जीवनलीला पूरी हो जाती थी।
अनन्त चौदस के बाद बनारस के हर मुहल्ले की रामलीला शुरू हो जाती है। बहुत कम लोगों को यह बात मालूम है कि काशी में रामलीला के जन्मदाता और प्रथम व्यास गोस्वामी तुलसीदासजी रहे। कहने को काशी शिव की नगरी है, पर रामलीलाओं का रूप देखकर यह अनुभव होता है कि मानो त्रेतायुग में रामचन्द्रजी अयोध्या में नहीं, बनारस में रहते थे। यों तो रामनगर की लीला सारे भारत में प्रसिद्ध है और नित्य बनारस से काफी लोग उस पार ‘झाँकी’ (लीला) देखने जाते हैं। रामनगर का लंका दहन, लक्सा की फुलवारी, धनुषयज्ञ, चेतगंज, खोजवाँ, शिवानगर और काशीपुरा की नककटैया अपने ढंग की निराली होती है। बनारस की सबसे प्रसिद्ध लीला चेतगंज की नककटैया और नाटी इमली का भरत-मिलाप है। चेतगंज की नककटैया देखने के लिए लोग रात बारह बजे से सुबह आठ बजे तक तपस्या करते हैं। नाटी इमली का भरत-मिलाप अपनी सादगी के लिए बेजोड़ है। कहा जाता है, एक बार कोई अंग्रेज सज्जन उधर से गुजर रहे थे। इस लीला को देखकर वे रुक गये। परिहासवश उन्होंने अपने चपरासी से पुछवाया कि रामायण के हनुमान तो समुद्र लाँघ गये थे, क्या यह हनुमान सामनेवाली वरुणा नदी लाँघ सकते हैं?
सुना जाता है—यह चैलेंज सुनकर हनुमान बना व्यक्ति राम बने व्यक्ति से आज्ञा माँगकर इस पार से उछलकर वरुणा के उस पार पहुँच गया और तत्काल मर गया। आज भी उसके मुकुट की पूजा होती है। बनारस की यही एक लीला है, जिसके लिए सम्पूर्ण बनारस का कारोबार बन्द रहता है। पाँच मिनट की झाँकी के लिए सारा शहर उमड़ पड़ता है। उस दिन वहाँ दो रुपये से चौंसठ रुपये तक के बैठने के टिकट बिकते हैं। एक यही लीला है जिसे देखने के लिए महाराज बनारस आते हैं।
काशी को तीन लोक से न्यारी सिर्फ एक-दो गुणों के कारण नहीं कहा गया है। यहाँ अनेक अजीब बातें होती हैं। उदाहरण के लिए बनारस में प्रत्येक पर्व दो दिन मनाया जाता है। प्रथम दिन शैव मत वाले मनाते हैं और दूसरे दिन उदया तिथि पर वैष्णव मत वाले मनाते हैं। अगर कहीं दोनों का एक ही दिन निश्चित हुआ तो पूछना ही क्या। कभी-कभी तो कोई पर्व तीन-तीन दिन मनाया जाता है। मसलन जन्माष्टमी, शिवरात्रि आदि। दो दिन तो सभी त्योहार मनाये जाते हैं। नवरात्र का मेला यहाँ वर्ष में दो बार मनाया जाता है। एक बार आश्विन में, दूसरी बार चैत में। कुछ लोगों का कहना है कि कलकत्ता के बाद बनारस का दशहरा पर्व दर्शनीय होता है। पूर्वी देशों से भी इस अवसर पर इतने यात्री आते हैं कि रिक्शावालों का मिजाज नहीं मिलता। दीपावली का महत्त्व और चाहे जिस रूप में हो, बनारस में इसका अन्नकूट से और सोलहपरी के नाच से घनिष्ट सम्बन्ध है। दीपावली के दिन जुआ न खेलने से छछुन्दर का जन्म होता है। पिशाचमोचन का मेला मूली और भंटा के लिए प्रसिद्ध है। इसी माह में औरातरे (आँवला वृक्ष के नीचे) पिकनिक मनाना भी पर्व में शामिल किया गया है।
माघ मास में ‘वेदोव्यास’ इसलिए दर्शन किया जाता है ताकि बनारसवालों के लिए उन्होंने जो शाप दे रखी है, उससे मुक्ति मिल जाए। पिकनिक का पिकनिक और पुण्य मुनाफे में लूटने का यह बनारसी हथकंडा है। कहने का मतलब वक्त जरूरत पर लोग भगवान को भी चरका देते हैं।
बरसाने की होली उन दिनों देख चुका हूँ जब यहाँ चार आने सेर रबड़ी और छह पैसे सेर दूध बिकता था। मिथिला की कीचड़ की होली देख चुका हूँ। उस ढंग की होली यद्यपि बनारस में नहीं होती, लेकिन बनारस में जिस ढंग की होली होती है उस ढंग की और कहीं नहीं। धर्मयुद्ध के नाम पर होली के दिन मीरघाट पर गुरू लोग आपस में लड़ते हैं। यहाँ घायल होने पर न तो थाने पर रिपोर्ट की जाती है और न यहाँ के युद्ध में मर जाने पर फाँसी की सज़ा होती है। बहादुरी के साथ लडऩेवालों की गणना पहलवानों में की जाती है। घायल व्यक्ति कराहते हुए मारनेवाले की लाठी की दाद देता रहता है। बनारस की होली की यह विशेषता विश्व में बेजोड़ है।
होली के पश्चात प्रथम मंगलवार के दिन से बनारस के बुड्ढे अपना रंग दिखाने लगते हैं। ‘भर फागुन बुढ़ऊ देवर लागे’ कहावत के अनुसार यहाँ का अनोखा पर्व ‘बुढ़वा मंगल’ शुरू हो जाता है। पहले इस अवसर पर अनेक अनाचार होते रहे। नावों पर वेश्याएँ नाचती थीं, लोग नशे में बुत बने बैठे तमाशा देखा करते थे। इस तरह रातभर प्रोग्राम चालू रहता था।
बुढ़वा मंगल की छटा का वर्णन आज से 150 वर्ष पूर्व अपनी आँखों देखा वर्णन कवि जयनारायण घोषाल कर गये हैं—
मयूरपंखी घोड़दौड़ देखि कदाचित, कतक पाटेली मध्ये चाँदोया विहित। ए’ सकल नौका मध्ये करिया विछाना, गागासि संग में नौकालय सर्वजना। एई मत नौका हय चारि पाँच शत शकले भाटिया चले सहर पर्यन्त। पचगंगा घाट यथा तत दूरे अन्त।
अर्थात पटी हुई तीव्रगामी नौकाएँ, बजरें, डोगियाँ, मयूरपंखी और घोड़दौड़ नावें दिखाई देती हैं। पटी हुई नौकाओं पर चँदवा तना होता है। अस्सी से लेकर पंचगंगा घाट तक नावों का जाल बिछा रहता है। लगभग चार-पाँच सौ नौकाएँ एक-दूसरे से बँधी रहती हैं। इन नौकाओं पर नाच-तमाशे इस प्रकार होते थे—
बड़-बड़ पाटलिते पंखरिया नाचे, भाउरा छोकरा भाँडकत काचकाचे।
तबला सारंगी बांशी सेतार मुचंग, मन्दरा रबाब वीणा तम्बूरा मृदंग।
कहने का मतलब इन नौकाओं पर भाँड़ और वेश्याएँ नाचती थीं। तबला, सारंगी, सितार और तम्बूरा आदि वाद्यों से सारा वातावरण मुखरित रहता था।
इन दर्शकों को नौकाओं पर ही सारा सामान मिल जाता था—
कोन पाटलिर परे बसे हालो आई,
चूला चाकी लइया पाक करये मिठाई।
मतिचूर पानितूया खाजा आदंरसा,
मग्दल बेसन लाडू संगन पछन्द,
पेड़ा बरफी बुँदिया मिछरी चीनी कन्द।
छोहरी कचोरी पूरी सर्व द्रव्य ताजा।
मोरब्बा आचार शाक तरकारी भाजा
जखन जाहार क्षुधा हइलो उदय
नौका-नौका लागाइया जा चाहे ता लय
कोनो-कोनो नौका ते ताम्बूली वास करै
दिव्य पान सांची छूटा केहो बीड़ा धरे
छोट-छोट नौका ते तामाक भाँग गाँजा, बिकि किनि करिया अनेक करे मजा।
एई रूपे केहो निशि करे जागरण, अपर दिवस डेढ़ प्रहर जखन।
नौका हइते उतरिया सभे घरे जाय, एई खंड हइते होलिर विदाय।
बुढ़वा मंगल का पर्व काशी का अनूठा पर्व रहा। जालियाँ बाग वाले हत्याकांड के बाद से बनारस में बुढ़वा मंगल ही नहीं, गुलाबबाड़ी तक बन्द कर दिया गया। इधर कुछ वर्षों से पुन: आयोजन हो रहा है, पर वह समाँ नहीं, वह रौनक नहीं और न इसके पुराने शौकीन ही रह गये। गत वर्ष से काशी के कुछ पत्रकारों ने होली के पूर्व ‘युवक मंगल’ मनाने का अनूठा आयोजन किया है और शायद आगे चलकर इसे भी ‘पर्व’ मान लिया जा सकता है।
आजाद शहर
भारत को सन 1947 में आजादी मिली। अब हम आजाद हैं। आजादी का क्या उपयोग है, इसकी शिक्षा लेनी हो तो बनारस चले आइए। बनारसवाले 1947 से ही नहीं, अनादिकाल से अपने को आजाद मानते आ रहे हैं। इन्हें नयी व्यवस्था, नया कानून या नयी बात कतई पसन्द नहीं। इसके विरुद्ध वे हमेशा आवाज़ उठाएँगे। बनारस कितना गन्दा शहर है, इसकी आलोचना नेता, अतिथि और हर टाइप के लोग कर चुके हैं, पर यहाँ की नगरपालिका इतनी आजाद है कि इन बातों का खयाल कम करती है। खास बनारसवाले भी सोचते हैं कि कौन जाए बेकार का सरदर्द लेने। हिन्दुस्तान में सर्वप्रथम हड़ताल 24 अगस्त, सन 1790 ई. में बनारस में हुई थी और इस हड़ताल का कारण थी—गन्दगी। सिर्फ़ इसी बात के लिए ही नहीं, सन 1809 ई. में जब प्रथम गृहकर लगाया गया तब बनारसी लोग अपने मकानों में ताला बन्द कर मैदानों में जा बैठे। शारदा बिल, हिन्दू कोड बिल, हरिजन मन्दिर प्रवेश, गल्ले पर सेल टैक्स और गीता कांड आदि मामलों में सर्वप्रथम बनारस में हड़तालें और प्रदर्शन हुए हैं। कहने का मतलब बनारसवाले हमेशा से आजाद रहे और उन्हें अपने जीवन में किसी की दखलन्दाजी पसन्द नहीं आती। यहाँ तक कि वेश-भूषा में परिवर्तन लाना पसन्द नहीं हुआ। आज भी यहाँ हर रंग के, हर ढंग के व्यक्ति सड़कों पर चलते-फिरते दिखाई देंगे। एक ओर ऊँट, बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी है तो दूसरी ओर मोटर, टैक्सी, लारी और फिटन है। एक ओर अद्धी तंजेब झाड़े लोग अदा से टहलते हैं तो दूसरी ओर खाली गमछा पहने दौड़ लगाते हैं।
आप कलकत्ता की सड़कों पर धोती के ऊपर बुशर्ट पहनें या कोट-पैंट पहनकर पैरो में चप्पल पहनें तो लोग आपको इस प्रकार देखेंगे मानों आप सीधे राँची (पागलखाना) से चले आ रहे हैं। यही बात दिल्ली और बम्बई में भी है। वहाँ के कुली-कबाड़ी भी कोट-पैंट पहने इस तरह चलते हैं जैसे बनारस में ई.आई.आर. के स्टेशन मास्टर। यहाँ के कुछ दुकानदार ऐसे भी देखे गये हैं जो ताश, शतरंज या गोटी खेलने में मस्त रहते हैं, अगर उस समय कोई ग्राहक आकर सौदा माँगता है तो वे बिगड़ जाते हैं। ‘का लेब? केतन क लेब? का चाही, केतना चाही?’ इस तरह सवाल करेंगे। अगर मुनाफेदार सौदा ग्राहक ने न माँगा, तबियत हुई दिया, वरना माल रहते हुए वह कह देंगे—नाहीं हव - भाग जा। खुदा न खास्ता ग्राहक की नजर उस सामान पर पड़ गयी तो उस हालत में भी वह कह उठते हैं—‘जा बाबा, जा, हमें बेचे के नाहीं हव।’
है किसी शहर में ऐसा कोई दुकानदार? कभी-कभी झुँझलाकर वे माल का चौगुना दाम बता देते हैं। अगर ग्राहक ले लेता है तो वह ठगा जाता है और दुकानदार ... की उपाधि मुफ्त में पा जाता है।
बनारस की सड़कों पर चलने-फिरने की काफी आजादी है। सरकारी अफसर भले ही लाख चिल्लाएँ, पर कोई सुनता नहीं। जब जिधर से तबियत हुई चलते हैं। अगर किसी साधारण आदमी ने उन्हें छेड़ा तो तुरन्त कह उठेंगे—‘तोरे बाप क सडक हव, हमार जेहर से मन होई, तेहर से जाब, बड़ा आयल बाटऽ दाहिने-बायें रस्ता बतावे।’ जब सरकारी अधिकारी यह कार्य करते हैं तब उन्हें भी कम परेशानियाँ नहीं होतीं। लाचारी में हार मानकर वे भी इस सत्कार्य से मुँह मोड़ लेते हैं।
सडक पर घंटों खड़े होकर प्रेमालाप करना साधारण बात है, भले ही इसके लिए ट्रैफिक रुक जाए। जहाँ मन में आया लघुशंका करने बैठ जाते हैं, बेचारी पुलिस देखकर भी नहीं देखती। डबल सवारी, बिना बत्ती की साइकिल चलाना और वर्षों तक नम्बर न लेना रोजमर्रे का काम है। यह सब देखते-देखते यहाँ के अफसरों का दिल पक गया है। पक क्या गया है, उसमें नासूर भी हो गया है। यही वजह है कि वे लोग साधारण जनता की कम परवाह करते हैं। परवाह उस समय करते हैं जब ये सम्पादक नामधारी जीवाणु उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं। कहा गया है कि खुदा भी पत्रकारों से डरता है।
मतलब यह कि हिन्दुस्तान का असली रूप देखना हो तो काशी अवश्य देखें। बनारस को प्यार करनेवाले कम हैं, उसके नाम पर डींग हाँकनेवाले अधिक हैं। सभ्यता-संस्कृति की दुहाई देकर आज भी बहुत लोग जीवित हैं, पर वे स्वयं क्या करते हैं, यह बिना देखे नहीं समझा जा सकता। सबके अन्त में यह कह देना आवश्यक समझता हूँ कि बनारस बहुत अच्छा भी है और बहुत बुरा भी।