बनारस की सीढ़ियाँ / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी
इनसे बचे तो सेवे काशी
पता नहीं, कब किस दिलजले ने इस कहावत को जन्म दिया कि काशी की यह कहावत अपवाद के रूप में प्रचलित हो गयी। इस कहावत ने काशी की सारी महिमा पर पानी फेर दिया है। मुमकिन है कि उस दिलजले का इन चारों से कभी वास्ता पड़ा हो और काफी कटु अनुभव हुआ हो। खैर, चाहे जो हो, पर यह सत्य है कि काशी आनेवालों का इन चारों से परिचय हो ही जाता है। फिर भी आश्चर्य का विषय यह है कि काशी में आनेवालों की संख्या बढ़ती जा रही है और जो एक बार यहाँ आ बसता है, मरने के पहले टलने का नाम नहीं लेता, जबकि पैदा होनेवालों से कहीं अधिक श्मशान में मुर्दे जलाये जाते हैं। यह भी एक रहस्य है।
इन चारों में सीढ़ी के अलावा बाकी सभी सजीव प्राणी हैं। बेचारी सीढ़ी को इस कहावत में क्यों घसीटा गया है, समझ में नहीं आता। यह सत्य है कि बनारस की सीढ़ियाँ (चाहे वे मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर अथवा घर या घाट - किसी की क्यों न हों) कम खतरनाक नहीं हैं, लेकिन यहाँ की सीढ़ियों में दर्शन और अध्यात्म की भावना छिपी हुई है। ये आपको जीने का सलीका और जिंदगी से मुहब्बत करने का पैगाम सुनाती हैं। अब सवाल है कि वह कैसे? आँख मूँदकर काम करने का क्या नतीजा होता है, अगर आपने कभी ऐसी गलती की है, तो आप वह स्वयं समझ सकते हैं। सीढ़ियाँ आपको यह बताती रहती हैं कि आप नीचे की जमीन देखकर चलिए, दार्शनिकों की तरह आसमान मत देखिए, वरना एक अरसे तक आसमान मैं दिखा दूँगी अथवा कजा आयी है - जानकर सीधे शिवलोक भिजवा दूँगी।
काशी की सीढ़ियाँ चाहे कहीं की क्यों न हों, न तो एक नाप की हैं और न उनकी बनावट में कोई समानता है, न उनके पत्थर एक ढंग के हैं, न उनकी ऊँचाई-नीचाई एक-सी है, अर्थात हर सीढ़ी हर ढंग की है। जैसे हर इनसान की शक्ल जुदा-जुदा है, ठीक उसी प्रकार यहाँ की सीढ़ियाँ जुदा-जुदा ढंग से बनाई गयी हैं। काशी की सीढ़ियों की यही सबसे बड़ी खूबी है। अब आप मान लीजिए सीढ़ी के ऊपर हैं, नीचे तक गौर से सारी सीढ़ियाँ आपने देख लीं और एक नाप से कदम फेंकते हुए चल पड़े, पर तीसरी पर जहाँ अनुमान से आपका पैर पड़ना चाहिए नहीं पड़ा, बल्कि चौथी पर पड़ गया। आगे आप जरा सावधानी से साथ चलने लगे तो आठवीं सीढ़ी अन्दाज से कहीं अधिक नीची है, ऐसा अनुभव हुआ। अगर उस झटके से अपने को बचा सके तो गनीमत है, वरना कुछ दिनों के लिए अस्पताल में दाख़िल होना पड़ेगा। अब आप और भी सावधानी से आगे बढ़े तो बीसवीं सीढ़ी पर आपका पैर न गिरकर सतह पर ही पड़ जाता है और आपका अन्दाज़ा चूक जाता है। गौर से देखने पर आपने देखा यह सीढ़ी नहीं, चौड़ा फर्श है।
खतरनाक सीढ़ियाँ क्यों
अब सवाल यह है कि आखिर बनारसवालों ने अपने मकान में, मन्दिर में, या अन्य जगह ऐसी खतरनाक सीढ़ियाँ क्यों बनवायीं? इसमें क्या तुक है? तो इसके लिए आपको जरा काशी का इतिहास उलटना पड़ेगा। बनारस जो पहले सारनाथ के पास था, खिसकते-खिसकते आज यहाँ आ गया है। यह कैसे खिसककर आ गया, यहाँ इस पर गौर करना नहीं है। लेकिन बनारसवालों में एक खास आदत है, वह यह कि वे अधिक फैलाव में बसना नहीं चाहते, फिर गंगा, विश्वनाथ मन्दिर और बाजार के निकट रहना चाहते हैं। जब भी चाहा दन से गंगा में गोता मारा और ऊपर घर चले आये। बाजार से सामान खरीदा, विश्वनाथ-दर्शन किया, चट घर के भीतर। फलस्वरूप गंगा के किनारे-किनारे घनी आबादी बसती गयी। जगह संकुचित, पर धूप खाने तथा गंगा की बहार लेने और पड़ोसियों की बराबरी में तीन-चार मंजिल मकान बनाना भी जरूरी है। अगर सारी जमीन सीढ़ियाँ ही खा जाएँगी तो मकान में रहने की जगह कहाँ रहेगी? फलस्वरूप ऊँची-नीची जैसे पत्थर की पटिया मिली, फिट कर दी गयी - लीजिए भैयाजी की हवेली तैयार हो गयी। चूँकि बनारसी सीढ़ियों पर चढ़ने-उतरने के आदी हो गये हैं, इसलिए उनके लिए ये खतरनाक नहीं हैं, पर मेहमानों तथा बाहरी अतिथियों के लिए यह अवश्य हैं।
काशी के घाट
विश्व की आश्चर्यजनक वस्तुओं में बनारस के घाटों को क्यों नहीं शामिल किया गया - पता नहीं, जब कि दो मील लम्बे पंक्तिवार घाट विश्व में किसी नदी-तट पर कहीं भी नहीं हैं। ये घाट केवल बाढ़ से बनारस की रक्षा नहीं करते, बल्कि काशी के प्रमुख आकर्षण केन्द्र हैं। जैन ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन काल में काशी के घाटों के किनारे-किनारे चौड़ी सड़कें थीं, यहाँ बाजार लगते थे। वर्तमान घाटों की निर्माण-कला देखकर आज भी विदेशी इंजीनियर यह कहते हैं कि साधारण बुद्धि से इसे नहीं बनाया गया है। रामनगर, शिवाला, दशाश्वमेध, पंचगंगा और राजघाट का निर्माण पानी के तोड़ को दृष्टि में रखते हुए किया गया है ताकि रामनगर तट से धक्का खाकर शिवाला में नदी का पानी टकराये, फिर वहाँ से दशाश्वमेध से मोर्चा ले, पंचगंगा और अन्त में राजघाट से टक्कर ले और फिर सीधी राह जाए। अगर आपने इस कौशल की ओर गौर नहीं किया तो कभी करके देख लें। इस कौशलपूर्ण निर्माण का एकमात्र श्रेय राजा बलवन्त सिंह को है, जिन्होंने अपने समकालीन राजाओं की सहायता से बनारस को बाढ़ों से मुक्ति दिला दी, अन्यथा अन्य शहरों की तरह बनारस को भी बाढ़ बहा ले जाती।
घाटों की सीढ़ियों की उपयोगिता
सीढ़ियों का दृश्य काशी के घाटों में ही देखने को मिलता है। चूँकि काशी नगरी गंगा की सतह से काफी ऊँचे धरातल पर बसी है इसलिए यहाँ सीढ़ियों की बस्ती है। काशी के घाटों को आपने देखा होगा, उन पर टहले भी होंगे। लेकिन क्या आप बता सकते हैं कि केदारघाट पर कितनी सीढ़ियाँ हैं? सिन्धिया घाट पर कितनी सीढ़ियाँ हैं? शिवाले से त्रिलोचन तक कितनी बुर्जिंयाँ हैं? साफा लगाने लायक कौन-सा घाट अच्छा है? आप कहेंगे कि यह बेकार का सरदर्द कौन मोल ले। लेकिन जनाब, हरिभजन से लेकर बीड़ी बनानेवालों की आम सभाएँ इन्हीं घाटों पर होती हैं। हज़ारों गुरु लोग इन घाटों पर साफा लगाते हैं, यहाँ कवि-सम्मेलन होते हैं, गोष्ठियाँ करते हैं, धर्मप्राण व्यक्ति सर्राटे से माला फेरते हैं, पंडे धोती की रखवाली करते हैं, तीर्थयात्री अपने चँदवे साफ करवाते हैं। यहाँ भिखमंगों की दुनिया आबाद रहती है और सबसे मजेदार बात यह है कि घर के उन निकलुओं को भी ये घाट अपने यहाँ शरण देते हैं जिनके दरवाजे आधी रात को नहीं खुलते। ये घाट की सीढ़ियाँ बनारस का विश्रामगृह हैं, जहाँ सोने पर पुलिस चालान नहीं करेगी, नगरपालिका टैक्स नहीं लेगी और न कोई आपको छेड़ेगा। ऐसी हैं बनारस की सीढ़ियाँ।