बनारस की सुबह / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
बनारस की सुबह, इलाहाबाद की दोपहर, लखनऊ की शाम और बुन्देलखंड की रात सारे भारत में प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि आत्महत्या के लिए उद्यत व्यक्ति को यदि सुबह बनारस में, दोपहर को इलाहाबाद में, शाम को लखनऊ में और रात को बुन्देलखंड में घुमाया जाए तो उसे अपने जीवन के प्रति अवश्य मोह उत्पन्न हो जाएगा और शायद उसमें कवित्व की भावना भी जागृत हो जाए। उत्तर प्रदेश के साहित्यिक गढ़ इसके प्रमाण हैं।
यदि आपने बनारस की सुबह नहीं देखी है तो कुछ नहीं देखा। बनारस का असली रूप यहाँ सुबह को ही देखने को मिलता है। अब सवाल यह है कि बनारस में सुबह होती कब है? अँग्रेजी सिद्धान्त के अनुसार या हिन्दू ज्योतिष के अनुसार, इसका निर्णय करना कठिन है। लगे हाथ उसका उदाहरण भी ले लीजिए। अपने राम पैदाइशी ही नहीं, खानदानी बनारसी हैं, इस शहर की गलियों में नंगे होकर टहले हैं, छतों पर कनकौवे उड़ाये हैं, पान घुलाया है, भाँग छानी है और गहरेबाजी भी की है। लेकिन आज तक हम खुद ही नहीं जान पाये कि बनारस की सुबह होती कब है?
दो-तीन वर्ष पहले की बात है, हम काशी के कुछ साहित्यिकों के साथ कवि सम्मेलन से लौट रहे थे। जाड़े की अँधियारी रात। बारह बज चुके थे। घाट किनारे नाव लगी। हमने आश्चर्य के साथ देखा - एक आदमी दातौन कर रहा था। जब यह पूछा गया कि इस समय दातौन करने का क्या तुक है, तब उसने एक बार आसमान की ओर देखा और फिर कहा, 'सुकवा उगल बाय, अब भिनसार में कितना देर बाय।' अर्थात शुक्र तारे का उदय हो गया है, अब सवेरा होने में देर ही कितनी है? इतना कहकर उसने कुल्ला किया और बम महादेव की आवाज लगाता हुआ डुबकी मार गया। यह दृश्य देखकर कोट-चादर के भीतर हमारे बदन काँप उठे।
सुबह के चार बजे से सारे शहर के मन्दिरों के देवता अँगड़ाई लेते हुए स्नान और जलपान की तैयारी में जुट जाते हैं। मन्दिरों में बजनेवाले घड़ियालों और घंटों की आवाज से सारा शहर गूँज उठता है। सड़क के फुटपाथों पर, दुकान की पटरियों पर सोयी हुई जीवित लाशें कुनमुना उठती हैं। फिर धीरे-धीरे बीमार तथा बूढ़े व्यक्ति - जिन्हें डॉक्टरों की खास हिदायत है कि सुबह जरा टहला करें - सड़कों पर दिखाई देने लगते हैं। मकानों के वातायन से छात्रों के अस्पष्ट स्वर, गंगा जानेवाले स्नानार्थियों की भीड़ और गहरेबाज इक्कों और रिक्शों के कोलाहल में सारा शहर खो जाता है।
कंचनजंगा की सूर्योदय की छटा अगर आपने न देखी हो अथवा देखने की इच्छा हो तो आप बनारस अवश्य चले आइए। यह दृश्य आप काशी के घाटों के किनारे देख सकते हैं। मेढक की छतरियों जैसी घुटी हुई अनेक खोपड़ियाँ, जिन्हें देखकर चपतबाजी खेलने के लिए हाथ खुजलाने लगता है, नाइयों के पास लेटे हुए मालिश कराते हुए जवान पट्ठे, आठ-आठ घंटे स्पीड के साथ माला फेरते हुए भक्त, ध्यान में मग्न नाक दबाये भक्तिनें, कमंडल में अक्षत-फूल लिये संन्यासियों तथा स्नानार्थियों का समूह, अशुद्ध और अस्पष्ट मन्त्रों का पाठ करती दक्षिणा सँभालती हुई पंडों की जमात, साफा लगानेवाले नवयुवकों की भीड़ और बाबा भोलानाथ की शुभकामनाओं का टेलीग्राफ पहुँचाने वाले भिखमंगों की भीड़-सब कुछ आपको काशी के घाटों के किनारे सुबह देखने को मिलेगा।
मिर्ज़ा ग़ालिब की वकालत
अगर आपको मेरी बात का यकीन न हो तो नजमुद्दौला, दबीरुल्मुल्क, निजाम जंग मिर्ज़ा असदुल्ला बेग ख़ाँ उर्फ़ मिर्ज़ा ग़ालिब का बयान ले लीजिए-
त आलल्ला बनारस चश्मे बद दूर
बहिश्ते खुर्रमो फ़िरदौसे मामूर
इबातत ख़ानए नाकूसियाँ अस्त
हमाना कावए हिन्दोस्तां अस्त
[हे परमात्मा, बनारस को बुरी दृष्टि से दूर रखना क्योंकि यह आनन्दमय स्वर्ग है। यह घंटा बजानेवालों अर्थात हिन्दुओं की पूजा का स्थान है यानी यही हिन्दुस्तान का क़ाबा है।]
बुतानशरा हयूला शोलए तूर
सरापा नूर, ऐजद चश्म बद दूर
मिया हा नाज़ुको दिल हा तुवाना
जे नादानी बकारे ख्वशे दाना
तबस्सुम बस कि दर दिल हा तिबी ईस्त
दहन हा रश्के गुल हाए रबी ईस्त
जे अंगेजे कद अन्दाज़े खरामे
ब पाये गुल बुने गुस्तरदः दामे
[यहाँ के बुतों अर्थात मूर्तियों और बुतों अर्थात सुन्दरियों की आत्मा तूर के पर्वत की ज्योति के समान है। वह सिर से पाँव तक ईश्वर का प्रकाश है। इन पर कुदृष्टि न पड़े। इनकी कमर तो कोमल है, किन्तु हृदय बलवान है। यों इनमें सरलता है, किन्तु अपने काम में बहुत चतुर हैं। इनकी मुस्कान ऐसी है कि हृदय पर जादू का काम करती है। इनके मुखड़े इतने सुन्दर हैं कि रबी अर्थात चैत के गुलाब को भी लजाते हैं। इनके शरीर की गति तथा आकर्षक कोमल चाल से ऐसा जान पड़ता है कि गुलाब के समान पाँव के फूलों का जाल बिछा देती हैं।]
ज ताबे जलवये ख़्वेश आतिश अफरोज
बयाने बुतपरस्तो बरहमन सोज
ब लुत्फ़े मौजे गौहर नर्म रू तर
ब नाज अज खूंने आशिक गर्म रू तर
[अपनी ज्योति से, जो अग्नि के समान प्रज्वलित है, यह बुतपरस्त तथा बरहमन की बोलने की शक्ति भस्म कर देती है अर्थात यह इनका सौन्दर्य देखकर मूक हो जाते हैं। पानी में उनका विलास मोती की लहरों से भी नर्म और कोमल जान पड़ता है। पानी में स्नान करनेवाली जो अठखेलियाँ करती हैं, उनसे जो पानी के छींटे उठते हैं, उनकी ओर कवि का संकेत है। उनका नाज अर्थात हास-विलास आशिक के खूनन से भी गर्म है।]
व सामाने गुलिस्तां बर लबे गंग
ज ताबे रुख चिरागां वर लबे गंग
रसादः अज अदाए शुस्त व शूए
ब हर मौज़े नवेदे आबरूए
कयामत क़ामतां, मिजगां दराजां
ज मिजगां बर सफ़े-दिल तीरः बाज़ां
ब मस्ती मौज रा फरमूदः आराम
ज नगज़े आब रा बख़शिन्दा अन्दाम
[गंगा किनारे यह क्या आ गयीं, एक उद्यान आ गया है। इनके मुख के प्रकाश से गंगा के किनारे दीपावली का दृश्य हो गया है। उनके नहाने-धोने की अदा से प्रत्येक मौज को आबरू का आमन्त्रण मिलता है। इन सुन्दर डील-डौलवाली तथा बड़ी-बड़ी पलकोंवाली सुन्दरियों से कयामत आती है। यह दिल की पंक्ति पर अपनी बड़ी बरौनियों से तीर चलाती हैं। अपनी मस्ती से इन्होंने गंगा की लहरों को शान्त कर दिया है। अपनी सुन्दरता से इन्होंने पानी को स्थिर कर दिया है।]
फतादः शौरिशे दर क़ालिबे आब
ज माही सद दिलश दर सीना बेताब
ज ताबे जलवा हा बेताब गश्तः
गोहर हा दर सदफ हा आव गश्तः
ज बस अर्ज़े तमन्ना मी कुनद गंग
ज मौजे आबहा वा मी कुनद गंग
[पुनः पानी के शरीर के अन्दर इन्होंने हलचल उत्पन्न कर दी और सीने में सैकड़ों दिल मछली के समान छटपटाने लगे। अपने सौन्दर्य की उष्णता से विकल होकर वह पानी में चली गयीं और ऐसा जान पड़ता है जैसे सीप में मोती हों। गंगा भी अपने हृदय की अभिलाषा प्रकट करती है और पानी की अपनी लहरों को खोल देती है कि आओ इसमें स्नान करो।]
बनारस की सुबह की तारीफ में मिर्ज़ा ग़ालिब का यह कलाम पेश करने के बाद यह जरूरी नहीं कि ऐरों-गैरों की भी गवाही पेश करूँ। गोकि एक शायर ने यह तकरीर पेश की है कि सुबह के वक्त आसमान के सारे बादल बनारस की गंगा में डुबकी लगाकर पानी पीते हैं और फिर उसे सारे हिन्दुस्तान में ले जाकर बरसा देते हैं। उस शायर का नाम याद नहीं आ रहा है, इसके लिए मुझे दुख है।
बनारसी निपटान
सुबह के समय पहले लोग प्रातःक्रिया से निवृत्त होते हैं, इस क्रिया को बनारसी शब्द में ‘निपटान’ कहते हैं। बनारस नगरपालिका की कृपा से अभी तक भारत की सांस्कृतिक राजधानी और अनादिकाल की बनी नगरी में सभी जगह ‘सीवर’ नहीं गया है। भीतरी महाल में जाने पर भी वहाँ गर्मी की दोपहर को लाइट की जरूरत महसूस होती है। फलस्वरूप अधिकांश लोगों को बाहर जाकर निपटना पड़ता है। निपटान एक ऐसी क्रिया है जिसे बनारसी अपने दैनिक जीवन का सबसे बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य समझता है। बनारस से बाहर जाने पर उसे इसकी शिकायत बनी रहती है। एक बार काशी के एक प्रकांड पंडित सक्खर गये। वहाँ से लौटने पर सक्खर-यात्रा पर लेख लिखते हुए लिखा - 'हवाई जहाज पर निपटान का दिव्य प्रबन्ध था।' कहने का मतलब यह कि हर बनारसी निपटान का काफ़ी शौक रखता है।
बनारस में एक ओर जहाँ मन्दिरों की घंटियों की आवाजें गूँजा करती हैं, वहीं सूर्योदय के पहले से ही बनारस की हर गली और सड़क पर ‘लैऽल पोतनी मट्टी, गोपीगंज का बंडा, रामनगरी भंटा, जौनपुरी पियाज, पहाड़ी आलू, माघी मिर्चा, कन्धारी अनार, काबुली सेव और बम्बइया केला’ की आवाजें गूँजा करती हैं। यहाँ भारत की प्रसिद्ध तरकारियाँ बिकती हैं, मेवे बिकते हैं, भले ही उनकी उपज बनारस के आस-पास तक न हो।