बनारस के कलाकार / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी

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काशी जितनी महान नगरी है, उतने ही महान यहाँ के कलाकार हैं। जिस नगरी के बादशाह (शिव) स्वयं नटराज (कलागुरु) हों, उस नगरी में कलाकार और कला पारखियों की बहुलता कैसे न हो? बनारस का लँगड़ा इंडिया में ‘सरनाम’ (प्रसिद्ध) है, ठीक उसी प्रकार बनारस का प्रत्येक कलाकार अपने क्षेत्र में ‘सरनाम’ है। बनारस में यदि कलाकारों की मर्दुम-शुमारी की जाए तो हर दस व्यक्ति पीछे कोई-न-कोई एक संगीतज्ञ, आलोचक, कवि, सम्पादक, कथाकार, मूर्त्तिकार, उपन्यासकार, नाट्यकार और नृत्यकार अवश्य मिलेगा। पत्रकार तो खचियों भरे पड़े हैं। कहने का मतलब यह कि यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति कोई-न-कोई ‘कार’ है, बेकार भी अपनी मस्ती की दुनिया का शासक-सरकार है।

काशी ही एक ऐसी नगरी है जहाँ प्रत्येक गली-कूचे में कितने महान और अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कलाकार बिखरे पड़े हैं। सब एक-से-एक दिग्गज और विद्वान हैं। इनका पूर्ण परिचय समाचार पत्रों, मकानों में लगी ‘नेमप्लेटों’ और लेटरपैड पर छपी उपाधियों से ज्ञात होता है।

संगीतज्ञ

अब आप ही बताइए भारत को बिस्मिल्ला खाँ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का कलाकार किसने दिया? भारत प्रसिद्ध सितारिया मुश्ताकअली ख़ाँ को किसने जन्म दिया? किसी जमाने में माने जाने वाले ‘ठुमरी के बादशाह’ जगदीप जी को किसने बढ़ावा दिया? भारत प्रसिद्ध तबला वादक कंठे महाराज (जिनके हाथों को उस्ताद फैयाजअली खाँ ने चूम लिया था) जैसे कलाकार को किसने पनपाया?

बनारस के शिवा-पशुपति अपने जमाने के धुरन्धर गायक रह चुके हैं। यों दोनों सहोदर भाई ध्रुपद अंग के गायक थे। केवल ध्रुपद-धमार ही नहीं, खयाल और टप्पा गाने में भी बेजोड़ रहे। काशी के इन कलाकारों का व्यापक प्रभाव नेपाल से बंगाल तक पड़ा। बनारस तो ‘पूर्वी बाज’ का हमेशा से केन्द्र रहा है। काशी के बड़े रामदास और छोटे रामदास की गणना भारत के उच्च कोटि के गायकों में की जाती है। संगीत के हर अंग और हर ताल के वे माने हुए विशेषज्ञ हैं। ठुमरी के कलाकारों में श्री जगदीपजी और मुईजुद्दीन ख़ाँ की चर्चा आज भी होती है। रसूलन बाई, सिद्धेश्वरी देवी और श्रीमती गिरिजा देवी ठुमरी गायिकाओं में अखिल भारतीय स्थान रखती हैं।

तबले के ‘बनारस बाज’ के प्रवर्तक रामसहायजी काशी की ही विभूति रहे। कहा जाता है कि उनकी वादनशैली से प्रभावित होकर नवाब वाजिदअली शाह ने सवा लाख रुपया नगद और चार हाथी पुरस्कार स्वरूप भेंट किये थे। वर्तमान तबला वादकों में श्रीकंठे महाराज, गोदई (शामता प्रसाद) और किशन महाराज प्रमुख हैं। श्री आशु बाबू तबला मर्मज्ञ ही नहीं, बल्कि काशी के सर्व संगीत मर्मज्ञ भी हैं। श्री अनोखे लाल काशी के बेजोड़ कलाकार रहे। अभी हाल ही में उनका स्वर्गवास हो गया है।

संगीत की भाँति कत्थक नृत्य के लिए प्राचीन काल से ही काशी नगरी एक विशिष्ट केन्द्र मानी गयी है। काशी की नृत्य शैली पर लखनऊ घराने का प्रभाव है। वर्तमान समय में काशी के घराने ने इस कला को बहुत प्रोत्साहन दे रखा है। इस घराने के कलाकारों की ख्याति भारत में ही नहीं, अपितु देश-विदेशों तक पहुँच गयी है। इस घराने में शुकदेव महाराज और उनके पुत्र कृष्ण प्रसाद नृत्यकला के आचार्य माने जाते हैं। आज भी इस घराने में चौबे, सितारा, अलकनन्दा और गोपीकृष्ण जैसे ख्यातिप्राप्त कलाकार हैं। काशी निवासी संगीत-नृत्य में कितनी दिलचस्पी लेते हैं, यह सिर्फ इसी से जाना जा सकता है कि यहाँ ‘संगीत-समाज’ और ‘संगीत-परिषद्’ जैसी संस्थाएँ भारत के सभी ख्यातिप्राप्त कलाकारों की कलाओं का प्रदर्शन नागरिकों के सम्मुख यदा-कदा उपस्थित करती हैं।

अब तो हालत यह है कि स्टुडियो में फ़िल्म बनती हैं और काशी के दुधमँहे बच्चे भी ‘तन डोले मन डोले’ आदि विभिन्न फ़िल्मों के गीत गली-कूचे में गाते फिरते हैं।

चित्रकार

काशी में कुछ स्थान दर्शनीय हैं और कुछ व्यक्ति भी। यदि इन व्यक्तियों का दर्शन न किया गया तो काशी-दर्शन का पुण्य तो दूर रहा - बनारस को समझने में भी कठिनाई होती है। काशी के दर्शनीय व्यक्तियों में श्रीकेदार शर्मा ऐसे ही एक हैं। लोग अपना परिचय और उपाधि लेटरपैड पर छपवाते हैं अथवा दरवाजे पर ‘नेमप्लेट’ के साथ फिट कर देते हैं। शर्माजी का निराला साइनबोर्ड देखकर बिना सींग-पूँछवाले भड़क जाते हैं, क्या शर्माजी ने अपना निजी चित्र बाहर टाँग रखा है? क्या ऐसी ही उनकी शक्ल है? सच पूछिए तो यह एक हँसमुख और निराली काशी के निराले चित्रकार का डाक बँगला है - इस बात का यह प्रगतिशील विज्ञापन है। केदारजी सही माने में खाँटी बनारसी हैं और यही वजह है कि उनकी कलम से असली बनारसी जीवन की झलक अंकित होती है।

शर्माजी के शिष्यों में स्वर्गीय श्रीरमाकान्त कंठाले, श्रीकेशव दुवाड़ी, कार्टूनिस्ट वीरेश्वर और बैजनाथ आदि हैं।

काशी में लखनऊ स्कूल के कलाकारों में श्री एम.एन. चड्ढा, अम्बिकाप्रसाद दुबे और इनके शिष्य कर्णमान सिंह तथा दर्शनजी उल्लेखनीय हैं। श्री चड्ढा काशी के असाधारण कलाकार हैं।

श्री मनोरंजन कांजिलाल काशी के श्रेष्ठ चित्रकारों में हैं। आपकी प्रतिभा बहुमुखी है। इधर आपकी ख्याति कार्टूनों के सम्बन्ध में विदेशों में पहुँच-पैठ करने लगी है।

टैगोर शैली के कलाकारों में शारदा उकील और रणदा उकील को नहीं भुलाया जा सकता। श्रीनन्दलाल वसु के दो शिष्य श्रीशान्ति वसु और मन्मथदास काशी के श्रेष्ठ कलाकारों में हैं।

काशी शैली के प्रवर्तकों में श्रीरामचन्द्र शुक्ल तथा महेन्द्रनाथ सिंह उल्लेखनीय हैं। शुक्लजी चित्रकार से अधिक चित्रकला के पारखी और लेखक हैं।

काशी के उभरते हुए कलाकारों में श्रीगोपेश्वर, मधुर, शिवराज, इब्राहिम ‘भारती’ विभूति और विश्वम्भरनाथ त्रिपाठी आदि प्रमुख हैं।

मूर्तिकार

बंगाल और मथुरा के बाद उत्तर भारत में काशी की मूर्तिकला अधिक लोकप्रिय है। यों काशी के कुछ मेलों में काशी की लोककलाओं के दर्शन होते हैं, परन्तु काशी के कुम्हार जाति के लोग इस कला के प्रमुख कलाकार हैं। इनकी भित्ति चित्रकला भी काशी की लोक-कला में प्रमुख स्थान रखती है।

काशी के मूर्तिकारों में महादेवप्रसाद, गिरिजाप्रसाद, पशुपति मुखर्जी और पाँचू गोपाल प्रमुख हैं।

साहित्यकार

काशी की मिट्टी का ऐसा प्रभाव है कि राज्यपाल (अब्दुर्रहीम खानखाना) से लेकर गो-पाल (महान जनकवि बिहारी) तक यहाँ आकर मुखरित हो उठे। डाकू, महामुनि, महापंडित, वैरागी, जुलाहा, मोची और रईस - सभी वर्गों के लोग काशी की मिट्टी में पलकर साहित्यिक बन गये। अगर आपको इन बातों पर एतबार न हो तो तवारीख उलटकर देख सकते हैं।

धार्मिक क्षेत्र होने के कारण काशी में हजारों यात्री धन की गठरी लिये पुण्य की गठरी लूटने चले आते थे। इस बात का पता वाल्मीकि जी को लग चुका था। वे यहाँ के जंगलों में उन गठरियों को खाली करते रहे। पता नहीं, नारदजी को क्या सूझा कि उन्होंने ऐसे तिकड़म में उन्हें उलझाया कि वे पेशा छोड़ बैठे। हाँ, हमेशा के लिए अमर जरूर हो गये। ‘उल्टा नाम जपा जग जाना, वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।’

बनारसवाले विद्वानों का हमेशा से उचित सम्मान करते आये हैं, लेकिन रंग गाँठने वालों को गर्दनियाँ देने से बाज नहीं आते। आज भी यही स्थिति है, यही वजह है कि प्रतिभावान कलाकार यहाँ आकर यहाँ के बन जाते हैं।

वेदव्यास को घमंड था कि उन्होंने शंकर के पुत्र से क्लर्की करवायी है, इसलिए वे भी महान हैं। बनारसवालों से उनका ‘रंग गाँठना’ देखा नहीं गया। नतीजा यह हुआ कि उन्हें गंगा उस पार जंगल में छोड़ आये, जहाँ मरने पर शीतला वाहन होना पड़ता है। यकीन न हो तो शीतला मन्दिर से सीधे उस पार जाकर उनसे भेंट कर सकते हैं।

जहाँ का चांडाल शंकराचार्य जैसे महात्मा को ब्रह्मज्ञान दे सकता है, वहाँ के ऊँचे कलाकार कितने महान होंगे, इसका अनुमान आप स्वयं कर सकते हैं। कहा जाता है, महामुनि पतंजलि जब बनारस आये थे, तब यहाँ के गुरुओं ने उन्हें इतनी गहरी बूटी दे दी कि उन्होंने तुरत नागकूप पर बैठे-बैठे व्याकरण महाभाष्य लिख डाला। बनारस में लोग मुक्ति पाने की गरज से मरने के लिए आते थे, साथ में अजीबो-गरीब बीमारियाँ लाते थे। इन बीमारों को देखकर महाराज दिवोदास (जिन्हें धन्वन्तरि भी कहा गया है) का दिल ‘टेघर’ (पिघल) गया और उन्होंने जड़ी-बूटियों वाली पोथी (आयुर्वेद) लिख डाली।

गोस्वामी तुलसीदास अयोध्या में बैठे-बैठे रामायण लिख रहे थे। अचानक उनका मूड बिगड़ा और फिर नहीं जमा। कहा तो यहाँ तक जाता है कि अयोध्या में रहकर भी अयोध्या कांड वे नहीं लिख सके। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अयोध्या कांड का प्रथम श्लोक है। शंकर के दरबार में रहकर पहले उनकी वन्दना न कर रामायण की गाड़ी आगे बढ़ाना उनके लिए सम्भव नहीं था। बाबा का माल खाकर नानी का घर आबाद रहे, कैसे कहते? आज तो हालत यह है कि कितने प्रकाशक, टीकाकार और कथावाचक उनके नाम पर नून-रोटी खा रहे हैं। संसार में बाइबिल के बाद सबसे अधिक विक्रय वाली पुस्तक रामायण मानी गयी है। तुलसीदास जी आज अगर जीवित होते तो उन्हें भारतरत्न की उपाधि, लेनिन शान्ति पुरस्कार और नोबुल पुरस्कार तो मिलता ही, साथ ही रायल्टी की कितनी रकम मिलती और उस पर उन्हें कितना इनकम टैक्स देना पड़ता-राम जाने।

कबीरदास जी पैदा हुए हिन्दू के औरस से और पले मुसलमान के घर। वे सचमुच हिन्दू रहे या मुसलमान, इसका निर्णय उनके जीवनकाल में नहीं हो सका। फलस्वरूप इन दोनों सम्प्रदायवालों को उल्टी-सीधी वाणी में गाली देते रहे। वही गालियाँ हिन्दी साहित्य में रहस्यवादी कविता बन गयीं। कहने का मतलब जो चीज समझ में न आये वह रहस्यवादी है। इनकी कविता से प्रेरणा लेकर रवीन्द्रनाथ कविगुरु और महादेवी वर्मा सर्वश्रेष्ठ कवयित्री बन गयीं।

रैदास जी सड़क की किसी पटरी पर बैठे टूटे चप्पल-जूते सीते रहे और मन की मौज में कुछ गुनगुनाते रहे। आखिर बनारसी पानी का असर उन पर क्यों न होता! उनका गुनगुनाना बनारस वालों के निकट ‘भक्त रैदास की वाणी’ बन गयी।

राजनीति में चर्चिल का, साम्यवाद में लेनिन का, विज्ञान में आइंस्टीन का, दाल में हींग का और चूरमा में चीनी का जितना महत्त्व है, उतना ही वर्तमान हिन्दी में भारतेन्दुजी का। काशी को इस बात पर गर्व है कि उसने आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता को अपने यहाँ जन्म दिया जो किसी बादशाह से कम नहीं था। जिसकी देन को हिन्दी जगत् तब तक याद रखेगा जब तक एक भी हिन्दी भाषा-भाषी मौजूद रहेगा।

भारतेन्दुजी के समकालीन साहित्यिकों में बाबा दीनदयाल गिरि, काष्ठ जिह्वा स्वामी, सरदार कवि, लच्छीराम कवि, पं. दुर्गादत्त, हनुमान, सेवक, पं. ईश्वरदत्त, राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’, चैतन्यदेव, रामकृष्ण वर्मा, कार्त्तिक प्रसाद खत्री, महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी, प्रतापनारायण मिश्र और बाबू राधाकृष्ण आदि थे।

इसके बाद तो काशी हिन्दी साहित्य का गढ़ हो गया। गद्य साहित्य के लेखकों में किशोरी लाल गोस्वामी, रामदास गौड़, बाबू श्यामसुन्दरदास और पं. रामनारायण मिश्र की सेवाएँ अमूल्य हैं।

लाखों अहिन्दी भाषा-भाषियों को हिन्दी सीखने के लिए पेनिसिलिन का इंजेक्शन देनेवाले बाबू देवकीनन्दन खत्री काशी की ही विभूति रहे। काशी का लमही ग्राम उस दिन से अमर हो गया जिस दिन यहाँ उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्दजी ने जन्म लिया।

ब्रजभाषा के अन्तिम कवि जगन्नाथ प्रसाद ‘रत्नाकर’ और छायावाद के प्रवर्तक प्रसादजी काशी की गलियों में आँखमिचौनी खेलते रहे। हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रथम कहानी ‘उसने कहा था’ काशी की ही देन है।

मेरी नजरों में हिन्दी में तीन सर्वश्रेष्ठ कथाकार हैं। स्वर्गीय बलदेव प्रसाद मिश्र, द्विजेन्द्र प्रसाद मिश्र ‘निर्गुण’ और राधाकृष्ण। इनमें प्रथम दोनों काशी की ही विभूति हैं। यों तो काशी में कथाकारों का पूरा स्टाक भरा है, उनमें कौन कितना महान है, यह बताना मुश्किल है। उनकी महानता का पता उनकी रचनाओं में नहीं लगता, बल्कि चाय-चुस्कियाँ लेते हुए जब वे अपने बारे में बताना शुरू करते हैं तब श्रोताओं को उनकी महानता ज्ञात होती है। सभी अपने को गोर्की, चेखव, मोपांसा, लारेन्स, कुप्रिन, माम, हेनरी और प्रेमचन्द समझते हैं। कुछ लोग तो ठोंक-पीटकर गदहों को घोड़ा बनाते हैं, यानी अनाड़ियों को लेखक बना देते हैं। इधर नये लेखक भी ऐसे बेरहम हैं कि जहाँ उनकी रचना कहीं छपी बस वे अपने को गुरु समझने लगे। कहने का मतलब -

अक्षोहिणियाँ सृष्टाओं की, चेले कम उस्ताद बहुत हैं।
तिकड़म के बल पर बन जाने वाले कपिल कणाद बहुत हैं॥
ग्रन्थों की संख्या विशाल है सर्जन कम, उन्माद बहुत हैं।
है स्वतन्त्रता, भाई साहब! देने वाले दाद बहुत हैं॥
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काशी के वर्तमान कथाकारों में वयोवृद्ध श्रीविनोद शंकर व्यास, रुद्र काशिकेय, मोहनलाल गुप्त, शिवप्रसाद सिंह, हरिमोहन, कमला त्रिवेणी शंकर, राजकुमार, गिरिजाशंकर पांडेय, हरीश और उदीयमान कंचनकुमार आदि हिन्दी साहित्य का भंडार भरते जा रहे हैं।

एक विशेष शैली के कथाकारों में श्री कामताप्रसाद कुशवाहा कान्त अपने पाठकों के निकट सर्वाधिक लोकप्रिय रहे। कान्तशैली के लेखकों में काशी के प्रमुख उपन्यासकार श्री ज्वालाप्रसाद गुप्त ‘केशर’, गोविन्दसिंह और ब्रह्मदेव ‘मधुर’ उल्लेखनीय हैं। अपनी रचनाओं के द्वारा अल्पकाल में इन लोगों ने जितने पाठक बनाये, वह किसी भी लेखक के लिए गर्व का विषय हो सकता है। श्रीकेशर की गणना इन दिनों काशी के प्रमुख उपन्यासकारों में की जा रही है।

हिन्दी आलोचना के जनक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. श्यामसुन्दर दास, आचार्य केशवप्रसाद मिश्र और लाला भगवान ‘दीन’ जो स्थान बन चुके हैं, उसे स्पर्श कर पाना आज भी मुहाल हो उठा है। आधुनिक समालोचकों में स्वर्गीय चन्द्रबली पांडेय, डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी, विश्वनाथप्रसाद मिश्र, डॉक्टर रामअवध द्विवेदी, डॉक्टर जगन्नाथ प्रसाद शर्मा और शान्तिप्रिय द्विवेदी अपने विषय के महारथी हैं।

तरुण आलोचकों में सर्वश्री महेन्द्रचन्द्र राय, त्रिलोचन शास्त्री, चन्द्रबली सिंह, नामवर सिंह, विजयशंकर मल्ल और बच्चन सिंह प्रमुख हैं। श्री महेन्द्रजी मार्क्सवादी आलोचकों में ऊँचा स्थान रखते हैं। आप लिखते बहुत कम हैं, लेकिन जो लिखते हैं वह बिलकुल ठोस। हिन्दी और बांग्ला में आप समान गति में लिखते हैं। शास्त्री लिखते कम हैं, भाषण के रूप में प्रसारित अधिक करते हैं। चन्द्रबली सिंह जी बड़े संगदिल आलोचक हैं, कुछ लोग इन्हें ‘जानमारू’ आलोचक कहते हैं। उभरते हुए आलोचकों में नामवर सिंह प्रगति पर हैं। वह दिन दूर नहीं है जब काशी के ये आलोचक हिन्दी साहित्य में मूर्घन्य स्थान प्राप्त कर लेंगे।

इतिहास, दर्शन, धर्म और संस्कृति के विद्वानों में महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज, डॉ. भगवानदास, डॉ. मंगलदेव शास्त्री, महामहोपाध्याय पं. नारायण शास्त्री खिस्ते, पं. दामोदर गोस्वामी, डॉ. सम्पूर्णानन्द, पं. गंगाशंकर मिश्र, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, डॉ. मोतीचन्द, डॉ. राजबली पांडेय और रायकृष्णदास की सेवाएँ अविस्मरणीय हैं।

मूल लिपि में बौद्ध साहित्य के विश्व में एकमात्र अन्वेषक आचार्य नरेन्द्रदेव और प्रसिद्ध समाजशास्त्री तथा विचारक राजाराम शास्त्री की सेवाओं से हिन्दी साहित्य गौरवान्वित हुआ है। प्रसिद्ध कोशकार बाबू रामचन्द्र वर्मा, मुंशी कालिकाप्रसाद और मुकुन्दीलाल जी काशी की ही विभूति हैं।

===हिन्दी हास्य साहित्य के स्तम्भ===
हिन्दी में हास्य साहित्य के लेखकों की अगर मर्दुमशुमारी की जाए, तो नब्बे परसेंट बनारसी ही मिलेंगे। हास्य व्यंग्य की जान बाबू अन्नपूर्णानन्द वर्मा का नाम बाँग्ला के परशुराम, उर्दू के चुगताई-थानवी, मराठी के पी.के. अत्रे और गुजराती के ज्योतीन्द्र दवे के नाम के साथ लिया जा सकता है।

बेढब बनारसी की मुहावरेदार भाषा आज के नवीन हास्य लेखकों को बराबर प्रेरणा दे रही है, बेढबजी सिर्फ हास्य साहित्य में ही ‘मास्टर साहब’ नहीं हैं, बल्कि गम्भीर साहित्य में आपका अध्ययन और देन भी विशिष्ट है। बेढबजी की तुलना उर्दू के किसी भी हास्य लेखक से की जा सकती है। सही माने में वे आज हिन्दी के हास्य लेखकों के लिए ‘मास्टर साहब’ बने हुए हैं। चोंचजी के शब्दों में आप हिन्दी के अकबर नहीं, हुमायूँ हैं।

भाषा और शैली के अप्रतिम कलाकार उग्रजी की करारी चोट से आज भी बहुत से धुरन्धर तिलमिला उठते हैं। उग्रजी के नाम पर आज के कुछ प्रगतिवादी नाक-भौं सिकोड़ते हैं, पर उन्हें उग्रजी के शब्दों में दिया गया बयान याद रखना चाहिए -



न जानूँ नेक हूँ, या बद हूँ, पर सोहबत मुख़ालिफ है

जो गुल हूँ तो गुलखन में, जो खस हूँ तो हूँ गुलशन में

बेधड़क बनारसी वह हस्ती हैं जिसने हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में युगान्तरकारी कार्य किया है। द्वितीय महायुद्ध के समय हिन्दी के दैनिक अखबार रविवार विशेषांक प्रकाशित नहीं करते थे। इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयास उन्होंने किया और आज सभी पत्र अपना रविवार विशेषांक निकालकर न जाने कितने लेखकों की सृष्टि कर रहे हैं। उखड़ते हुए कवि-सम्मेलनों को जमाना आपके बायें हाथ का खेल है।

भैया जी बनारसी ‘दादा’ के रूप में उतने ही ख्यातिप्राप्त हैं जितना ‘अरबी न फारसी’ [दैनिक ‘आज’ का एक विशिष्ट कालम] के लिए। आपकी हास्य कहानियाँ हमें उर्दू के प्रसिद्ध लेखक कन्हैयालाल कपूर और कैप्टन शफीकुर्रहमान की याद दिलाती रहती हैं।

रुद्र काशिकेय के नाम से गम्भीर और गुरु बनारसी के नाम से हास्यरस की गंगा बहानेवाले पं. शिवप्रसाद मिश्र काशी के दर्शनीय व्यक्तियों में हैं। नीलकंठ की तरह आप कई भाषाओं के रस को आकंठ पान कर चुके हैं जिसका परिचय यदा-कदा उनकी लेखनी से मिलता रहता है। ‘बहती गंगा’ आपकी अमर कृति है। बनारसी भाषा में जो चीज निकलती है, वह साहित्य में ‘माइलस्टोन’ का काम करती है।

स्वर्गीय बलदेवप्रसाद मिश्र का नाम लेते ही हृदय में एक टीस-सी उत्पन्न होती है। काश! हिन्दी साहित्य के कर्णधार इनकी कीमत आँक पाते। हास्य ही नहीं, साहित्य के सभी अंगों पर समान अधिकार रखनेवाले इस महान कलाकार का मूल्यांकन आज भी हिन्दी जगत नहीं कर सका है। मिश्रजी जैसे प्रतिभाशाली कलाकार बहुत दिनों बाद हिन्दी साहित्य में पैदा होते हैं।

कौतुकजी ‘शिवजी’ के नाम से प्रगतिशील बनकर आजकल ज्योतिषाचार्य बन गये हैं। अच्छा हुआ कि आपने अपना चोला बदल लिया वरना साहित्य में भुखमरी के अलावा कुछ नहीं मिलता। आपके ‘छीटों’ का मुकाबला आज के बड़े-बड़े महारथी भी नहीं कर पाते।

चोंचजी जबसे ‘राजहंस’ बने पाठकों में उदासी छा गयी थी। अब वे पुनः कमर कसकर मैदान में उतर आये हैं। नया जोश, नयी जवानी और नया रंग देखकर बड़े-बड़े अखाड़िया और ‘यार’ लोग आजकल बिदकने लगे हैं।

हिन्दी-संस्कृत के प्रकांड विद्वान, नाट्य साहित्य के आचार्य और प्रसिद्ध भाषाशास्त्री पं. सीताराम चतुर्वेदी हास्य लिखते कम हैं, पर जो लिखते हैं, बिलकुल ‘कटारी मार’।

अशोकजी जब तक बनारसी रहे, तब तक उनकी कलम से बनारसी मस्ती बहती रही। आजकल वे सरकारी अधिकारी हो गये हैं।

डॉक्टर भानुशंकर मेहता के हास्य में उनकी अपनी मौलिकता है। कुछ पत्रकारों को उनके हास्य में पैथॉलॉजिस्ट की ‘बू’ मालूम पड़ती है। फिर भी यह मानना पड़ेगा कि ये जो हास्य देते हैं वह पूर्ण मौलिक और नयी सूझ में ढला होता है।

बनारस के नवोदित हास्य लेखक हीरालाल चौबे को लोग अभी ‘बतिया’ समझते हैं पर एक दिन वे पूर्ण कूष्मांड बन जाएँगे - इसमें सन्देह नहीं।

बनारस के ‘गहरेबाज’ की ‘गहरेबाजी’ केवल बनारस में ही नहीं, पूर्वी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक लोकप्रिय है। श्री पुरुषोत्तम दवे ऋषिजी की ‘खैरात’ को भी नजर-अन्दाज नहीं किया जा सकता। स्वर्गीय इन्द्रशंकर मिश्र, झपसटराय बनारसी, पं. केदार शर्मा और बेखटक बनारसी काशी के हास्य लेखकों में अपना स्थान रखते हैं।

साहित्य के आधार

निराला साहित्य के मर्मज्ञ अपनी वर्चस्वी प्रतिभा के धनी त्रिलोचन शास्त्री आलोचक की अपेक्षा कवि रूप में अधिक तगड़े हैं। त्रिलोचन शास्त्री उर्दू की रवानगी के बहुत क़ायल हैं।

‘समय की शिला पर मधुर चित्र कितने...’ के यशस्वी गायक डॉ. शम्भूनाथ सिंह का काशी के कवियों में जो स्थान है, उससे सभी परिचित हैं। काशी को अपने इस गायक कवि पर नाज है।

बड़े बूढ़ों में श्री अटलजी, अवस्थीजी और श्रीमाली अधिक शक्तिसम्पन्न हैं। तरुण कवियों में श्री ठाकुरप्रसाद सिंह, केदारनाथ सिंह, ब्रजविलास और रवीन्द्र ‘भ्रमर’ हिन्दी साहित्य में अपना स्थान ग्रहण कर चुके हैं। श्री रत्नशंकर, प्रदीप जी, लालजी सिंह, क़ैस बनारसी, नज़ीर, राहगीर, चन्द्रशेखर, महेन्द्र राजा, प्रवासीजी, विष्णुचन्द्र शर्मा और श्री शंकर शुक्ल आदि हिन्दी कविता को निरन्तर प्रवाहमान रखते आ रहे हैं।

हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘बनारस अखबार’ से ‘बनारस’ तक अनेक महान पत्रकार हो चुके हैं। पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर, पं. लक्ष्मण नारायण गर्दे, बाबू सम्पूर्णानन्द, पं. गंगाशंकर मिश्र, श्री श्रीप्रकाश, पं. कमलापति त्रिपाठी और खाडिलकर की सेवाएँ अविस्मरणीय रहेंगी।

काशी में इतिहास, राजनीति, मनोविज्ञान, प्राणीशास्त्र, गणित और भूगर्भ शास्त्र के अनेक विद्वान हैं और उनकी रचनाओं से हिन्दी साहित्य का भंडार निरन्तर भरता जा रहा है। इनमें सर्वश्री भिक्षु धर्मरक्षित, डॉ. गणेशप्रसाद उनियाल, डॉ. भोलाशंकर व्यास, डॉ. श्रीकृष्ण लाल, डॉ. सितकंठ मिश्र, कन्हैयालाल वर्मा, पं. करुणापति त्रिपाठी, लालजीराम शुक्ल, प्रो. बी.एल. सहानी, ब्रजरत्नदास, सुधाकर पांडेय, पं. लक्ष्मीशंकर व्यास, विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी, शारदा शंकर द्विवेदी, गंगानाथ झा, शिवनाथ, एम.ए. (आजकल शान्ति निकेतन में हैं), पारसनाथ सिंह, माधवप्रसाद मिश्र, कमलाप्रसाद अवस्थी, पद्मा अग्रवाल, विनोद जी, चन्द्रकुमार जी, डॉक्टर राय गोविन्दचन्द और पद्मावती ‘शबनम’ आदि का नाम आदर से लिया जाता है।

स्पेशल नोट - प्रस्तुत लेख में मैंने भरसक काशी के सभी विद्वानों का, अपने इष्ट मित्रों का, यहाँ तक कि जितने नाम मिल सके उन सभी का उल्लेख किया है। बाहर से आये साहित्यिकों का जो यहाँ कुछ दिन रहे और चले गये उनकी चर्चा नहीं की है। फिर भी जो लोग छूट गये हों, उनसे नम्र निवेदन है कि वे नाराज न हों। जिनका नाम मस्तिष्क में नहीं आया, वे लोग मेरे अवचेतन में जरूर हैं। अगले संस्करण में उनकी चर्चा अवश्य कर दूँगा और इस ‘स्पेशल नोट’ को ‘डिलीट’ कर दूँगा।