बनारस के मकान / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी

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बनारस के मकानों पर कुछ लिखने के पहले एक बात साफ कर देना चाहता हूँ। मेरा मकसद यह नहीं है कि बनारस में कहाँ, किस मुहल्ले में, कितने किराये पर, कौन-सा मकान या फ्लैट खाली है अथवा बिकाऊ है, इन सब बातों की रिपोर्ट पेश करूँ। काफी जोर-शोर के साथ अगर तलाश की जाए तो भगवान मिल जाएँगे, पर नौकरी और मकान नहीं। आजकल इन बातों का ठेका अखबारों के विज्ञापन मैनेजरों ने और हथुआ कोठी के रेंट कंट्रोलर साहब ने ले रखा है। आपके दिमाग में यह खयाल पैदा हो गया हो कि आपका भी बनारस में 'इक बँगला बने न्यारा' और इस मामले में आपकी मदद करूँगा (मसलन मकान बनवाने के नाम पर सरकार से किस प्रकार कर्ज लिया जा सकता है, यह सब तिकड़म बताऊँगा) तो आपको गहरा धोखा होगा। मैं तो सिर्फ बनारस के मकानों का भूगोल और इतिहास बताऊँगा।

अब आप शायद चौंकें कि मकानों का भूगोल-इतिहास कैसा? मकान माने मकान। चाहे वह बम्बई में हो या बनारस में। लेकिन दरअसल बात यह नहीं है। मकान माने महल भी हो सकता है और झोपड़ी भी हो सकती है। बम्बई में एक मकान अपने लिए जितनी जमीन घेरता है, बनारस में उतनी जमीन में पचास मकान बन सकते हैं। यह बात अलग है कि बम्बई के एक मकान की आबादी बनारस के पचास मकान के बराबर है।

दूसरी जगह आप मकान देखकर मकान-मालिक के बारे में अन्दाजा लगा सकते हैं। मसलन वह बड़ा आदमी है, सरकारी अफसर है, दुकानदार है, जमींदार है अथवा साधारण व्यवसायी है। लेकिन बनारस के मकानों की बनावट के आधार पर मकान-मालिक के बारे में कोई राय कायम करना जरा मुश्किल काम है।

मान लीजिए आपने एक मकान देखा, जिसमें मोटर रखने का गैरज भी है। खामख्वाह यह खयाल पैदा हो ही जाएगा कि मकान-मालिक बड़े शान से रहता है। रईस आदमी है। लेकिन जब आपकी उससे मुलाकात हुई तो नजर आया, गलियों में 'रामदाना के लडुवा, पइसा में चार' की चलती-फिरती दुकान खोले है। राह चलते किसी की शक्ल देखकर आपने नाक सिकोड़ ली, पर वही आदमी शहर का सबसे सज्जन और कई मकानों का मालिक निकला। इसके विरुद्ध टैक्सी पर चलनेवाले, गैवर्डीन का सूट पहने सज्जन खपरैल के मकान में किराये पर रहते मिलेंगे।

बनारस में अन्नपूर्णा मन्दिर की बगल में राममन्दिर के निर्माता श्री पुरुषोत्तमदास खत्री जब बाहर निकलते थे तब उनके एक पैर में बूट और दूसरे में चप्पल रहता था।

बाहर से भव्य दीखनेवाला महल भीतर खँडहर हो सकता है और बाहर से कंडम दीखनेवाला मकान भीतर महल हो सकता है। इसीलिए बनारस के मकानों का भूगोल-इतिहास जानना जरूरी है।

भूगोल

अगर आपने आगरे का स्टेशन बाजार, लाहौर का अनारकली, बम्बई का मलाड, कानपुर का कलक्टरगंज, लखनऊ का चौक, इलाहाबाद का दारागंज, कलकत्ते का नीमतल्ला घाट और पुरानी दिल्ली देखा है तो समझ लीजिए उनकी खिचड़ी बनारस में है। हर मॉडल के, हर रंग के और ज्योमेट्री के हर अंश-कोण के मकान यहाँ हैं।

बनारस धार्मिक दृष्टि से और ऐतिहासिक दृष्टि से दो भागों में बँटा हुआ है। धार्मिक दृष्टि से केदार खंड, विश्वनाथ खंड और ऐतिहासिक दृष्टि से भीतरी महाल और बहरी अलंग। प्राचीन काल में लोग गंगा किनारे बसना अधिक पसन्द करते थे ताकि टप् से गंगा में गोता लगाया और खट् से घर के भीतर। सुरक्षा-की-सुरक्षा और पुण्य मुनाफे में। नतीजा यह हुआ कि गंगा किनारे आबादी घनी हो गयी। आज तो हालत यह है कि भीतरी महाल शहर का अंग न होकर पूरा तिलस्म-सा बन गया है। बहुत मुमकिन है, 'चन्द्रकान्ता' उपन्यास के रचयिता बाबू देवकीनन्दन खत्री को भीतरी महाल के तिलस्मों से ही प्रेरणा मिली हो।

काश! उन दिनों इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट होता, तो हमारे बाप-दादे मकान बनवाने के नाम पर हमारे लिए तिलस्म न बनाते। चौड़ी सड़कों को तंग गलियों का रूप न देते। यदि इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट जैसी संस्था उन दिनों बनारस में होती हो सम्भव था बनारस लन्दन या न्यूयार्क जैसा न सही, मास्को अथवा मेलबोर्न जरूर बन जाता।

बुजुर्गों का कहना है कि काशी की तंग गलियाँ और ऊँचे मकान मैत्री भावना के प्रतीक हैं। भूत-प्रेत की नगरी में लोग पास-पास बसना अधिक पसन्द करते थे ताकि वक्त जरूरत पर एक दूसरे की मदद कर सकें। मसलन, आज किसी के घर आटा नहीं है तो पड़ोस से हाथ बढ़ाकर माँग लिया, रुपया उधार माँग लिया, नया पकवान बना है तो कटोरे में रखकर हाथ बढ़ाकर पड़ोसी को दे दिया, कोई सामान मँगनी में माँगना हुआ अथवा सूने घर का अकेलापन दूर करने के लिए अपने-अपने घर में बैठे-बैठे गप्प लड़ाने की सुविधा की दृष्टि से भीतरी महाल के मकान बनाये गये हैं। इससे लाभ यह होता है कि चार-पाँच मंजिल नीचे न उतरकर सब काम हाथ बढ़ाकर सम्पन्न कर लिये जाते हैं। कहीं-कहीं पड़ोसियों का आपस में इतना प्रेम बढ़ गया कि गली के ऊपर पुल बनाकर आने-जाने का मार्ग भी बना लिया गया है। यही वजह है कि भीतरी महाल के मकानों में चोरी की घटनाएँ नहीं होतीं। इस इलाके में रहना गर्व की बात मानी जाती है। बनारस के अधिकांश रईस-सेठ और महाजन इधर ही रहते हैं। बाकी कुली-कबाड़ी और उचक्कों के लिए बाहरी अलंग है। लेकिन जब से बनारस की सीमा वरुणा-असी की सीमा को तोड़कर आगे बढ़ गयी है तब से भीतरी महाल की स्थिति चिर विधवा-सी हो गयी है। भले ही गर्मी में शिमले का मजा मिले, पर आधुनिक युग के लोग उधर रहना पसन्द नहीं करते।

इसका मुख्य कारण है - यातायात के साधनों की कमी। आधी रात को आपके यहाँ बाहर से कोई मेहमान आये अथवा सपत्नीक बारह बजे रात-गाड़ी से सफर के लिए जाना चाहे तो बक्सा बीवी के सिर पर और बिस्तर स्वयं पीठ पर रखकर सड़क तक आइए, तब कहीं रिक्शा मिलेगा। भीतरी महाल में रात को कौन कहे, दिन में भी कुली नहीं मिलते। गलियाँ इतनी तंग हैं कि कोई भी गाड़ी भीतर नहीं जाती। दुर्भाग्यवश आग लगने अथवा मकान गिरने की दुर्घटना होने पर तत्काल सहायता नहीं मिलती। हाँ, यह बात अलग है कि मरीज दिखाने के लिए डॉक्टरों को ले जाने में सवारी का खर्च नहीं देना पड़ता।

जिस प्रकार एक ही शक्ल के दो आदमी नहीं मिलते, ठीक उसी प्रकार बनारस के दो मकान एक ढंग के नहीं हैं। कोई छह मंजिला है तो उसकी बगल में एक मंजिला मकान भी है। किसी मकान में काफी बरामदे हैं तो किसी में एक भी नहीं। भीतरी महाल के कमानों का निचला हिस्सा सीलन, अन्धकार और गन्दगी से भरा रहता है। बाहरी अलंग के मकानों की हालत कुछ अच्छी है।

पुराने जमाने में बाप-दादों के पास धुआँधार पैसा रहा, औलाद के लिए एक से एक महल बनवा गये। बेचारे औलाद की हालत यह है कि राशन की दुकान में गेहूँ तौल रहा है। उसे इतनी कम तनख्वाह मिलती है कि मरम्मत कराना तो दूर रहा, दीपावली पर पूरे मकान की सफेदी तक नहीं करा पाता।

बनारस में छोटे-बड़े सभी किस्मके मकानदारों की इज्जत एक-सी है। कोई बड़ा मकानवाला छोटे मकानवाले की ओर उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देख सकता। यहाँ तक कि बड़े मकान में रहनेवाले अपने मकान से पड़ोस के छोटे मकान में झाँककर कुछ देख नहीं सकते। अगर आपने ऐसी गलती की तो दूसरे दिन पूरा परिवार लाठी लेकर आपके दरवाजे पर आ डटेगा, और सबसे पहले तो शब्दकोश के तमाम शब्दों के द्वारा आपका स्वागत करेगा। अगर आप ताव में आकर बाहर चले आये तो खैरियत नहीं। इसके बाद भले ही आप 99 पर (पुलिस उड़ाका दल) फोन कीजिए, थाने में रिपोर्ट लिखवाइए और दावा दायर कीजिए। छोटे मकान-मालिकों की इस हरकत से आज-कल लोगों ने ऊँचा मकान बनवाना छोड़ दिया है। बनारस में दूसरों के मकान में झाँकना शराफत के ख़िलाफ काम समझा जाता है।

एक कानून है - हक सफा। अन्य शहरों में यह क़ानून लागू है या नहीं, यह तो नहीं मालूम, पर बनारस में इस कानून के जरिये कमजोर पड़ोसी को परेशान किया जा सकता है। अगर कोई मकान बेच रहा है तो उसे अपने पीछे, अगल-बगल तीनों को इत्तलाकर उनसे सलाह लेकर बेचना होगा। वह चुपचाप यह काम नहीं कर सकता अन्यथा अड़ंगा लगा देने पर वह मकान किसी भी कीमत में नहीं बिक सकता।

इतिहास

काशी के प्राचीन इतिहास से पता चलता है कि काशी पहले वरुणा नदी के तट पर थी। इसका निरीक्षण फाह्यान, ह्वेनच्याँग और अलबैहाकी तक कर गये हैं।

काशी कितनी प्राचीन है, यह तो राम जाने। लेकिन यहाँ का प्रत्येक मुहल्ला इतिहास से सम्बन्धित है और प्रत्येक मकान ऐतिहासिक है। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि सरकार ने जिन मकानों को महत्त्वपूर्ण समझा है उनके लिए आदेश दिया है कि वे मकान गिरने न पाएँ, अगल-बगल, इधर-उधर चारों तरफ से चाँड़ लगाकर उन्हें गिरने से रोका जाए। आज अधिकांश मकान इस हुक्म के कारण अपनी जगह पर खड़े हैं, उन्हें गिरने से रोका गया है। बनारस के दस प्रतिशत मकान जिन्हें नींद आ रही थी, चाँड़ लगवाने के कारण सुरक्षित हैं।

कुछ भाई लोगों के मकान इस किस्म के हैं कि अगर उनके तीनों तरफ का मकान गिर जाए तो उनका मकान नंगा हो जाएगा। कहने का मतलब पड़ोसी के मकान से ही भाई साहब अपना काम चला लेते हैं और उनके दबाव में इनके मकान का लिफाफा खड़ा है।

बनारस का प्रत्येक मुहल्ला ऐतिहासिक है। मसलन जब दाराशिकोह यहाँ पढ़ने आया था तब जहाँ ठहरा उसका नाम दारानगर हो गया। औरंगजेब आया तो औरंगाबाद बसा गया। नवाब सआदतअली खाँ बनारस में आकर जहाँ ठहरे उस स्थान का नाम नवाबगंज हो गया। उनके घसियारे जहाँ ठहरे वह स्थान घसियारी टोला और खोजा जहाँ ठहरे खोजवाँ हो गया। बुल्लासिंह डाकू के नाम पर बुलानाला महाल बस गया। मानमन्दिर, मीरघाट, राजघाट और तुलसीघाट के बारे में सभी जानते हैं। डॉक्टर सम्पूर्णानन्द के मतानुसार अगस्तकुंडा में महामुनि अगस्त्य रहते थे। इस प्रकार देखा जाए तो बनारस का प्रत्येक स्थान पौराणिक और ऐतिहासिक महत्त्व रखता है।

चेतगंज मुहल्ला चेतसिंह के नाम पर बसा तब जगतसिंह को अपने नाम पर मुहल्ला बसाने की सूझी। नतीजा यह हुआ कि सारनाथ के धर्मराजिक स्तूप को उखाड़कर उन्होंने जगतगंज मुहल्ला बसा डाला। कुछ लोग कहते हैं, इसे जगतसिंह ने नहीं बसाया है, वे सिर्फ यहाँ रहते थे। यह मुहल्ला तो बौद्धकालीन वाराणसी की बस्ती है। अब इसका ठीक-ठीक निर्णय तभी हो सकता है जब जगतगंज को खुदवाकर उसकी जाँच पुरातत्त्व विभागवाले करें।

बनारस में तीन किस्म के मकान बने हैं। पत्थर के बने मकान बौद्ध काल के बाद के हैं; लखवरिया ईंटोंवाले मकान बौद्ध युग के पूर्व से मुगलकाल तक के हैं। नम्बरिया ईंटों के बने मकान ईस्ट इंडिया कम्पनी से लेकर 14 अगस्त, सन 1947 ई. तक बने हैं। आजकल की नम्बरिया ईंटों की साइज नौ गुणा साढ़े चार इंच की हो गयी है। इस साइज की ईंटों के बने मकान काँग्रेसी शासनकाल के हैं।

यद्यपि काशी में मुहल्ले और मकान काफी हैं, पर हवेली साढ़े तीन ही हैं। महल कई हैं। हवेलियों में देवकीनन्दन की हवेली, काठ की हवेली, कश्मीरीमल की हवेली और विश्वम्भरदास की हवेली काशी में प्रसिद्ध है। इनमें आधी हवेली कौन है, इसका निर्णय आज तक नहीं हुआ। पांड़े हवेली को हवेली क्यों नहीं माना जाता, यह भी बताना मुश्किल है, जब कि इस नाम से भी एक मुहल्ला बसा हुआ है।

यदि आपको भ्रमण का शौक है और पैसे या समय के अभाव से समूचा हिन्दुस्तान देखने में असमर्थ हैं तो मेरा कहना मानिए, सीधे बनारस चले आइए। यहाँ हिन्दुस्तान के सारे प्रान्त मुहल्ले के रूप में आबाद हैं। हिन्दुओं के तैंतीस करोड़ देवता काशीवास करते मिलेंगे, गंगा उत्तरवाहिनी है, तिलस्मी मुहल्ला है, ऐतिहासिक मकान हैं और जो कुछ यहाँ है, वह दुनिया के सात पर्दे में कहीं नहीं है। बनारस-दर्शन से भारत-दर्शन हो जाएगा। यहाँ एक-से-एक दिग्गज विद्वान और प्रकांड पंडित हैं। प्रत्येक प्रान्त का अपना-अपना एक मुहल्ला भी है।

बंगालियों का बंगाली टोला, मद्रासियों तथा दक्षिण भारतीयों का हनुमान घाट, केदारघाट, पंजाबियों का लाहोरीटोला, गुजरातियों का सूतटोला, मारवाड़ियों की नन्दनसाहू गली, कन्नड़ियों का अगस्तकुंडा, नेपालियों का बिन्दुमाधव, ठाकुरों का भोजूबीर, राजपूताने के ब्राह्मणों की रानीभवानी गली, सिन्धियों का लाला लाजपतराय नगर, महाराष्ट्रियों का दुर्गाघाट, बालाघाट, मुसलमानों का मदनपुर, अलईपुर, लल्लापुर और काबुलियों का नयी सड़क-बेनिया मुहल्ला प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा चीनी, जापानी, सिंहली, फ्रांसीसी, भूटानी, अंग्रेज और अमेरिकन भी यहाँ रहते हैं। सारनाथ में बौद्धों की बस्ती है तो रेवड़ी तालाब पर हरिजनों की। व्यवसाय के नाम पर भी अनेक मुहल्ले आबाद हैं।