बनारस के मन्दिर / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
धार्मिक ग्रन्थों की गवाही पर यह कन्फर्म हो चुका है कि हिन्दुओं के पूरे तैंतीस करोड़ देवता हैं। लेकिन आज तक इन तैंतीस करोड़ देवताओं की सम्पूर्ण परिचय-तालिका किसी भी ‘धार्मिक गजेटियर’ में प्रकाशित नहीं हुई। भारत के किसी भी पंडित ने यह दावा नहीं किया कि मैं तैंतीस करोड़ देवताओं के नाम बता सकता हूँ। धर्म के नाम पर अपनी जेब हल्की करनेवाले महानुभावों को चाहिए कि वे इन देवताओं की एक सूची जरूर तैयार कराएँ। यह तथ्य प्रकट होना आवश्यक है कि तैंतीस कोटि फिगर्स में कितने अपनी उपासना करा रहे हैं और कितनों के सामने ‘टु लेट’ बोर्ड लटक रहा है!
सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह है कि इतने देवताओं की उत्पत्ति कैसे हुई जबकि प्राचीन काल में भारत की आबादी बहुत कम रही? धार्मिक ग्रन्थों में जब तैंतीस करोड़ देवताओं की चर्चा है तब बात झूठ नहीं हो सकती। भारत मुख्यतः धर्म-परायण देश है। यहाँ की अधिकांश आबादी आस्तिकों की है। नास्तिक तो मूर्ख होते हैं, अतः उनकी चर्चा ही व्यर्थ है। इसलिए तैंतीस करोड़ देवताओं के अस्तित्व के बारे में अविश्वास करने की गुंजाइश नहीं।
मेरे एक मित्र हैं, मैंने उनसे अपनी शंका प्रकट की तो बोले - जिस प्रकार रेनाल्ड साहब ने अड़तालीस भाग में ‘लंडन रहस्य’ लिखा है - उसे देखकर हमारे बनारसी रईस बाबू देवकीनन्दन खत्री ने ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘भूतनाथ’ मिलाकर बावन भाग लिखे हैं, ठीक उसी प्रकार जब आर्य अर्थात हिन्दू यहाँ आये तब अनार्यों के बत्तीस करोड़ देवताओं की संख्या देखकर सम्भव है, उन्होंने अपने देवताओं की संख्या तैंतीस करोड़ बना ली हो। यद्यपि बात कुछ जमी नहीं, तथापि मेरी शंका की बोलती बन्द हो गयी।
इन देवाताओं की उत्पत्ति का विषय जितना रहस्यमय है, उतना ही इनकी आवासभूमि भी। यदि कोई फर्स्ट डिविजनर मास्टर ऑफ आर्ट्स इस विषय पर थीसिस लिखे तो अनायास उसे डॉक्टर की उपाधि मिल सकती है। जाति विशेष के विषय पर अन्वेषण करनेवाले विद्यार्थियों को जब स्कॉलरशिप मिलती है तब इस विषय पर आसानी से मिल सकती है। अब तक कतिपय देवताओं के निवास-स्थल का पता चला है, जैसे रामचन्द्रजी का अयोध्या, कृष्ण का मथुरा, कामक्षा का कामरूप, जगन्नाथ का पुरी, लक्ष्मी का बम्बई, काली का कलकत्ता, सीताजी का जनकपुरी और शिव का काशी। मुझे आशा है, इस सड़क पर समयानुसार कोई महाशय अवश्य थीसिस का खच्चर हाँकेंगे।
मन्दिरों की नगरी
काशी को साक्षात शिवपुरी कहा गया है। यहाँ का प्रत्येक कंकड़ शंकर कहा जाता है। कुछ लोग तो इसे मन्दिरों की नगरी भी कहते हैं। संख्या-अन्वेषकों के मतानुसार यहाँ मकानों से अधिक मन्दिरों की संख्या है। शायद यह बात ठीक भी है क्योंकि सड़क चौड़ी करने के नाम पर इम्प्रूवमेन्ट ट्रस्ट मकान गिरा सकता है, दुकान तुड़वा सकता है और बगीचे का घेरा सड़क में ले सकता है, लेकिन मन्दिर-मसजिद का अंश छूने की हिम्मत उसमें नहीं है। कौन मन्दिरों के देवता और भक्तों से मुफ्त झगड़ा मोल लेने जाए!
बनारस में कितने मन्दिर हैं अथवा यहाँ की आबादी में कितने आस्तिक हैं, इस बात का अन्दाजा किसी परिवार में कुछ दिन बिना रहे नहीं लग सकता। गृहस्वामी रोजी-रोजगार में बरक्कत हो इस उद्देश्य से नित्य सवेरे गंगा-स्नान कर अन्नपूर्णा के मन्दिर में पंडितजी से जाप करवाते हैं, दुकान में गणेशजी को माला पहनाते हैं, धूप सुँघाते हैं और अन्त में ‘शुभ-लाभ’ शब्द के आगे श्रद्धा से सर झुकाते हैं। गृहस्वामिनी नाती-पोते का मुँह देखने के लिए और पति-पुत्र के कुशल-मंगल के लिए दुर्गा भवानी का दर्शन करती हैं। साहबजादे की नसों में जवानी अँगड़ाइयाँ लेती है, इसलिए वे महावीरजी के उपासक हैं, संकटमोचन के नियमित दर्शन करते हैं और सवा पाव दलबेसन का जलपान करते हैं। पुत्रवधू माँ बनने तथा पति को वश में रखने के लिए तुलसी के पौधे को सींचती है, पीपल के पेड़ में पानी देकर फेरी लगाती है।
प्राचीनकाल में भले ही हमारे घरों में एक ही कुल देवता रहे हों, लेकिन आज एक से अधिक देवता का पूजन प्रत्येक परिवार में होता है। पता नहीं, कब कौन देवता सन्तुष्ट होकर छप्पर फाड़कर धन दे दे या मनोकामना पूरी कर दे! कुछ लोग ऐसे भी हैं जो एक अरसे तक एक देवता के उपासक बने रहने के बाद जब कुछ नहीं पाते तब मित्रों की राय के अनुसार अपने पुराने देवता को रिटायर्ड कर किसी दूसरे देवता के उपासक बन जाते हैं। आज जिन परिवारों में एक से अधिक देवताओं का पूजन होता है, वहाँ देवताओं का बड़ा रंग रहता है। प्रत्येक देवता का सिंहासन, पंचपात्र, शंख, धूपदान और पहनावा अलग-अलग होता है। यहाँ तक कि रुचि के अनुसार उन्हें नैवेद्य भी चढ़ाये जाते हैं।
मन्दिरों की अधिकता क्यों?
यह तो हुई गृह-देवताओं की कहानी। इसके अलावा सार्वजनिक मन्दिरों की अलग कहानी है। जिस प्रकार बनारस के हर चौराहे पर खचियों डॉक्टर, दर्जनों पानवाले और सैकड़ों खोमचेवाले मिलते हैं, ठीक उसी प्रकार मन्दिरों की भरमार है। काशी में प्राण त्यागना स्वर्ग में सीट रिजर्व कराने का सुगम मार्ग माना जाता है। कहा जाता है, ऐसे पुण्यात्माओं के वंशज अपने बाप-दादा की स्मृति में - जो कि उनकी अन्तिम इच्छा रहती है - पूरी करने के लिए - मन्दिर बनवा देते हैं। भले ही आगे चलकर उन मन्दिरों में बनारस शहर के स्थायी कोतवाल भैरवनाथ अपना अस्तबल बना लें। आज पंचकोशी में ऐसे अनेक शिव मन्दिर हैं जहाँ के शिव अक्षत-फूल को कौन कहे पानी के लिए तरसते हैं। पंचकोशी करनेवाले यात्री मन्दिर तक न जाकर सड़क पर से ही उनके मन्दिर के सामने पानी छिड़ककर आगे बढ़ जाते हैं और रात को उन मन्दिरों में भैरवनाथ के खास वाहन (कुत्ता) सोते रहते हैं। चूँकि शंकर साक्षात आशुतोष हैं, इसलिए केवल पानी पाकर सन्तुष्ट हो जाते हैं।
‘राजतरंगिणी’ के अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन काल में कश्मीर के प्रायः सभी नरेश अपने नाम पर, अपनी प्रियतमा के नाम पर और अपने पूर्वजों के नाम पर मन्दिर बनवाया करते थे। इस प्रकार उनके नाम देवी-देवता की कोटि में आ जाते थे। शायद उन लोगों ने गीता का अध्ययन किया था, इसीलिए ‘नराणां च नराधिपम्’ श्लोक को यथार्थवाद का रूप दे देते रहे। यह परम्परा केवल कश्मीर में ही नहीं, अपितु समस्त भारत में रही। फिर काशी जैसे मोक्ष-धाम में लोग यह परम्परा लागू कर पुण्य लूटने में पीछे क्यों रहते? जो लोग मन्दिर बनवाने में असमर्थ होते हैं, वे मन्दिरों की दीवालों या फर्श पर संगमरमर का एक टुकड़ा चिपकवाकर पुण्यात्मा बन जाते हैं, जैसे किसी तीर्थयात्री के वापस आने पर पैर धुलानेवाला बिना तीर्थ गये पुण्य का भागी बन जाता हैं। बनारस के अधिकांश मन्दिरों की यही हालत है। एक ने मन्दिर बनवाया; दूसरे ने फर्श, तीसरे ने घंटा टँगवाया, चौथे ने चहारदीवारी बनवायी और पाँचवें ने मरम्मत या सफेदी करवा दी। इस प्रकार मन्दिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार होता रहता है। अधिक दूर क्यों, स्वयं काशी विश्वनाथ मन्दिर की यही हालत है। जब से वे ज्ञानवापी के कुएँ में गिर पड़े, वहाँ से फिर निकले नहीं। पुराना मन्दिर मसजिद के कारण अपवित्र हो चुका था, इसलिए वहाँ से हटकर नवीन मन्दिर रानी अहल्या बाई ने बनवाया। घंटा टँगवाया नेपाल नरेश ने, मन्दिर के ऊपर सोने का पत्तर चढ़वाया महाराज रणजीत सिंह ने और नौबतखाना बनवाया अजीमुल मुल्कअली इब्राहीम खाँ ने। कहने का मतलब बाबा विश्वनाथ की सारी सामग्री दान की है। रात को आरती का प्रबन्ध नाटकोट छत्रवालों की ओर से होता है। यही हाल अन्नपूर्णा मन्दिर का है। वहाँ का एक हिस्सा और मूर्तियाँ श्री पुरुषोत्तमदास खत्री की बनवायी हुई हैं।
कुछ लोग ऐसे भी हैं जो न तो मन्दिर बनवा सकते हैं और न जीर्णोद्धार करा पाते हैं; ऐसे लोग मन्दिरों की दीवालों पर अपना नाम-ग्राम लिखकर भक्ति प्रदर्शित करते हैं। मुमकिन है, उनका यह कार्य यमराज के पुण्यवाले खाते में दर्ज हो जाता हो!
इतिहासकारों का मत है कि अकबर के शासनकाल में अकेले राजा मानसिंह ने बनारस में सवा लाख मन्दिरों का निर्माण करवाया था। उनमें से अकबर के परपोते औरंगजेब और उसके सैनिकों ने कितनों को तोड़ डाला; इसका रेकार्ड किसी भी इतिहास में प्राप्य नहीं है। काशी के पंडित प्रत्येक मन्दिर को सतयुग, द्वापर और त्रेता के समय का है, बताते हैं। पुरातत्त्ववाले काशी के मन्दिरों के बारे में कहते हैं कि सभी का निर्माण काल तीन सौ वर्ष के अन्तर्गत है। केवल कर्दमेश्वर का मन्दिर इसका अपवाद है। कर्दमेश्वर का मन्दिर दसवीं शताब्दी का है। लेकिन कुछ प्रगतिशील लोग इस प्रश्न पर शंका प्रकट करते हैं कि तुलसीदास के युग में अर्थात सोलहवीं शताब्दी के समय जब भदैनी शहर का बाहरी अंचल माना जाता था तब कर्दमेश्वर जैसे स्थान में यह मन्दिर कैसे बन गया? अभी तक यह प्रश्न ज्यों-का-त्यों खड़ा है - इसे अभी हल करके बैठाया नहीं जा सका। कहने का मतलब पुरातत्त्ववालों का कथन और प्रगतिशील व्यक्तियों की शंका अपनी-अपनी जगह ठीक है।
यह निर्विवाद सत्य है कि बनारस में मन्दिरों की अधिकता इसलिए है कि भारत के सभी धर्मप्राण व्यक्ति जिन्हें कुछ काम नहीं था, यहाँ आकर मन्दिर बनवाते रहे अथवा अपनी यह सद्-इच्छा मरते समय अपने वंशजों पर प्रकट कर देते रहे ताकि उनके वंशज काशी में जाकर उनके नाम पर मन्दिर जरूर बनवा दें।
यदि पुरातत्त्ववालों का यह विचार सही मान लिया जाए कि सभी मन्दिर तीन सौ वर्ष के भीतर बने हैं तो यह मान लेना पड़ेगा कि इसके पहले के सभी मन्दिर या तो मसजिदों के रूप में परिणत हो गये या लुप्त हो गये, जैसे गंजी खोपड़ी से बाल लुप्त हो जाते हैं। फिर इन तीन सौ वर्षों में जबकि भारत गुलाम रहा, पैसे की कमी रही, चारों तरफ मार-काट मची हुई थी, इतने मन्दिर कैसे बन गये? इस विषय पर कई रायें हैं जिनमें एक राय मुझे अधिक संगत प्रतीत होती है। वह है - बनारस की गन्दगी।
बनारस में गन्दगी
बनारस में गन्दगी के दो कारण हैं - पहला नगरपालिका की असीम ‘कार्यपटुता’ और दूसरा बनारसियों की आदत। बनारस की किसी भी गली से आप गुजरिए उधर के सभी त्रिमुहानी, कोना अथवा सन्नाटावाले स्थानों में कर्मनाशा बहती है। सेन्ट से तर रूमाल भी नाक पर बिलबिलाने लगता है। कुछ प्रमुख स्थानों में नगरपालिका का कूड़ा गोदामघर है - जैसे बैंकवाले बड़े-बड़े फर्मों का रखते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिस तरह बैंकवाले उतना ही माल पार्टी को उठाने देते हैं जितने माल का भुगतान पार्टी करती है, ठीक उसी प्रकार नगरपालिका भी जब जितना जरूरत समझती है उतना ही कूड़ा इकट्ठा करती है और उठाती है। नगरपालिका की सरकारी गाड़ी (कूड़ा ढोनेवाली भैंसागाड़ी) जिस वक्त किसी सँकरी गली से गुजरती है, ट्रैफिक रुक जाता है।
नगरपालिका की इस आदत को छुड़ाने के लिए नागरिकों ने दूसरा कदम अख्तियार किया। जिन क्षेत्रों में कूड़े का अम्बार लगा रहता था, वहाँ के नागरिक पहले उन कूड़ों के ऊपर दरी बिछाकर नगरपालिका के मेम्बरों और चेयरमैन को बुलाकर सभा करवाते रहे। इससे भी जब समस्या हल नहीं हुई तो चन्दा इकट्ठा कर एक दिन वहाँ एक मन्दिर बनवा दिया। फिर उसमें किसी देवता को प्रतिष्ठित कर दिया। इनमें महाबीरजी, चौरामाई और शंकर प्रमुख हैं। इसके बाद कुछ लोग नियमित रूप से वहाँ पूजा-पाठ हवन करने लगे। कथाएँ हुईं। अरसे तक भीड़-भाड़ होती रही। इस प्रकार वह स्थान पवित्र हो गया। इतनी गनीमत है कि नगरपालिका के अधिकांश अधिकारी आस्तिक हैं, खासकर कूड़ा-अधिकारी; इसलिए जो-जो स्थान इस तरह पवित्र होते गये, उन्हें पुनः अपवित्र करने की चेष्टा नहीं की गयी। इस प्रकार बनारस में मन्दिरों की संख्या बढ़ती गयी।
काशी के प्रमुख मन्दिर
बनारस में सिर्फ विश्वनाथ मन्दिर ही नहीं है, बल्कि समस्त भारत के देवी-देवता और तीर्थस्थान भी हैं। यदि आप चारों धाम नहीं कर सकते अथवा समस्त देवी-देवता के दर्शन से वंचित हैं तो आज ही काशी चले आइए। बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वर, जगन्नाथ जी, कामक्षा, काली, पशुपतिनाथ, कृष्ण कन्हैया, द्वारकाधीश, महालक्ष्मी और दुर्गा आदि के मन्दिरों को देख लीजिए। गंगोत्री, पुष्कर, वैद्यनाथ, भास्कर और मानसरोवर आदि तीर्थस्थान देख लीजिए।
तुलसीदास जी का बनवाया हुआ संकटमोचन का मन्दिर जहाँ का बेसन का लड्डू परम प्रसिद्ध है, गोपाल मन्दिर जहाँ का ठोर (एक प्रकार की मिठाई) बिना दाँत का व्यक्ति खा जाता है और दुर्गाजी का मन्दिर जहाँ रामजी की सेना रहती है - बनारस के प्रमुख मन्दिरों में हैं। काशी करवट का शिव मन्दिर तो इतना प्रसिद्ध है कि दोपहर के वक्त शिवजी बिजली की रोशनी में दर्शन देते हैं। यहाँ का इतिहास आज भी बड़े-बूढ़ों की जबान पर है। बराहीदेवी के मन्दिर में औरतें नहीं जाने पातीं। कहा जाता है किसी समय वे एक लड़की को निगल गयी थीं। चूँकि उनके मुँह में उस लड़की की चुनरी लटकी हुई थी, इसलिए यह पता चल गया कि वे निगल गयी हैं, वरना लड़की का गायब होना रहस्य बना रह जाता। इस घटना के बाद से औरतें ऊपर से दर्शन करती हैं, केवल पुरुष भीगे हुए वस्त्र पहनकर नीचे जाते हैं। काशी में आदि विश्वेश्वर का मन्दिर है जहाँ गोपाष्टमी के समय शहर की वारांगनाएँ मुफ्त में आकर मनोविनोद करती हैं। पास ही सत्यनारायण मन्दिर में श्रावण के झूले में भगवान का ऐसा लाजवाब शृंगार होता है कि देखकर भगवान के भाग्य पर ईर्ष्या होती है। लाट, भूत, आनन्द और बटुक आदि आठ भैरव, सोलह विनायक और नव दुर्गा के मन्दिर अपने-अपने मौसम में बनारस के नागरिकों को बुलाते हैं।
काशी में कला की दृष्टि से दो मन्दिर दर्शनीय हैं। एक भारतमाता का मन्दिर, दूसरा नेपाली मन्दिर। यह तो अपनी-अपनी भावना है कि कुछ लोग मन्दिरों का निर्माण बेकार समझते हैं, बुर्जुआवादी और पोंगापन्थी समझते हैं। उनका खयाल है कि मन्दिरों में अनाचार होते हैं। लेकिन आस्तिकजन (जिनमें मैं स्वयं भी हूँ) ऐसा नहीं मानते। ये दोनों मन्दिर जीवन के लिए एक दर्शन है। एक से देशभक्ति, दूसरे से काम-जीवन की शिक्षा मिलती है।
बनारस में दो मन्दिर ऐसे भी हैं जिनके पास बैंक हैं। उनमें एक राम रमापति और दूसरा शिव बैंक है। इन बैंकों में राम नाम और शिव नाम जमा होते हैं - उधार दिए जाते हैं। सोचिए, विश्व में ऐसे बैंक भला कहीं हैं?
इन मन्दिरों के अलावा कुछ ऐसे मन्दिर हैं जिनकी पूजा वे लोग करते हैं जो अच्छे मन्दिरों में जा नहीं पाते अथवा बड़े देवताओं पर जिनका विश्वास नहीं होता। ऐसे लोग मुड़ीकट्टा बाबा, भैंसासुर बाबा, ताड़देव, पीरबाबा और बेचूबीर आदि स्थानों में जाकर शराब-गाँजा भी चढ़ाते हैं, पराठे और मोहनभोग का भी भोग लगाते हैं। इनके देवता सब कुछ प्रेम से दिया नैवेद्य स्वीकार कर लेते हैं। बरसात के मौसम में ये सभी देवता कजरी सुनते हैं, वेश्या का नाच देखते हैं और भजन भी सुनते हैं। देवता श्रद्धा के प्रेमी होते हैं, वस्तु के नहीं। इन देवताओं के उपासकों की संख्या भी कम नहीं है।
अब तो पूज्य करपात्री जी काशी में व्यक्तिगत विश्वनाथ मन्दिर का निर्माण कर चुके और उधर विश्वविद्यालय में नगर का सबसे ऊँचे शिखरवाला विश्वनाथ मन्दिर बन गया है। इस प्रकार अब बनारस में तीन-तीन विश्वनाथ मन्दिर बन गये। एक सभी हिन्दुओं का, दूसरा सवर्ण हिन्दुओं का और तीसरा विश्वविद्यालय के छात्रों का। अब किसी को विश्वनाथजी से शिकायत नहीं रहेगी कि महाराज, मुझे आपका दर्शन नहीं मिलता।