बनारस के यान-वाहन / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
जिस नगरी के राजा का वाहन सांड, रानी का वाहन सिंह, राजकुमार का वाहन चूहा, युवराज (षडानन) का वाहन मयूर और कोतवाल का वाहन कुत्ता हो, उनकी विशेषता विचित्रता की खोज में आज के भयंकर-से-भयंकर वैज्ञानिक को श्रीमती नानी की याद आये बिना न रहेगी।
राजा-रानी-युवराज-कोतवाल के इन वाहनों पर मुलाहजा फरमाएँ—सभी एक-दूसरे के जानी दुश्मन! एक ही परिवार में इतने खतरनाक ‘फिगरों’ को समेटकर रखना, सचमुच कठिन समस्या है। मजा तो यह है कि कोई भी अपने वाहनों में, ‘चेंज’ करने को तैयार नहीं।
अपना खयाल है, अपनी काशी के राजा शंकर गॉड ने, वाहनों के प्रश्न पर ‘गृह युद्ध’ न हो जाए इसीलिए सबके लिए अलग निवास की व्यवस्था कर दी।
कोतवाल साहब की ‘कोतवाली’ भैरोनाथ, राजकुमार साहब को लोहटिया तथा रानी का रनिवास शहर के एकदम दक्खिन में। पति से इतनी दूर रहने में दुर्गाजी को अखरा तो, पर अपने वाहन सिंह महोदय की ‘गुंडई’ से वे परिचित थीं सो स्वीकार कर लिया। हजरत सिंह आदतन खूनी थे। राजा के वाहन मिस्टर वृषभ को तो वे अपना ‘राशन’ ही समझते थे।
यह ‘पारिवारिक पार्टीशन’ कब हुआ?—इस पर अपने पुराणों ने चुप्पी साध ली है सो हमें भी चुप ही रहना है।
अब आइए, प्रजा के यानों (सवारी) पर...
काशी की सड़कों पर रिक्शा, ताँगा, इक्का, टैक्सी और सरकारी बसें चलती हैं। पहले यहाँ काफी तादाद में खुली तथा बन्द दोनों किस्मों की बग्घियाँ चलती थीं। खुली बग्घियों पर पुरुष और बन्द बग्घियों में महिलाएँ बैठती थीं। बग्घियों पर बैठने वाले रईस समझे जाते थे। उस जमाने में बग्घियाँ रखना साधारण बात नहीं थी। कौन इतना बड़ा ढड्ढा रखने के लिए अस्तबल बनवाये। इसके अलावा दो-दो साईस रखने पड़ते थे, वरना स्कूली लडक़े पीछे उचककर बैठ जाते थे जिससे रईसी में बट्टा लगता था। जो लड़का नहीं बैठ पाता था, वह शैतानी करने के लिए ‘‘बग्घीवान, पीछे लड़का, लगे चमोटी।’’ आवाज दे देता था। इस प्रकार लड़के मुफ्त में रईसी की शान पर चूना लगाते फिरते थे। मजबूरन पीछे चाबुक मारना पड़ता था। इसके अलावा शादी-बारात में हमेशा मँगनी भी देनी पड़ती थी। इन्हीं सब झंझटों के कारण रईसों ने बग्घी का रखना छोड़ दिया। आजकल भी कुछ लोगों के पास बग्घियाँ है पर उनका कोई खास महत्त्व नहीं, वरना उस जमाने में जनाब यों अकड़कर इस गाड़ी पर बैठते थे—मानों लॉर्ड कर्जन जा रहे हों। आजकल जो चन्द बग्घियाँ सड़कों पर दिखाई देती हैं, उन पर महिलाएँ गंगा नहाने, विश्वनाथ दर्शन करने अथवा किसी सखी-सहेली से मिलने के लिए जाती हैं।
बग्घियों के बाद ताँगों का दर्जा माना जाता है। कहने का मतलब जिस प्रकार बम्बई में टैक्सी में फर्स्ट क्लास के अफसर, बस में सेकेंड क्लास के अफसर, लोकल ट्रेन में थर्ड क्लास के बाबू और ट्राम में कुली-कबाड़ी चढ़ते हैं, उस प्रकार बनारस में बग्घी का दर्जा फर्स्ट क्लास रहा तो ताँगा सेकेंड क्लास। स्वयं बनारस नगरपालिका उन्हें दोयम क्लास की सवारी का सर्टिफिकेट देती थी और आज भी देती है। स्टेशन से उतरने पर इक्के वाले भले ही दौड़ आयें, पर ताँगे वाले कभी नहीं आते थे। किराया तो हमेशा चौगुनी हाँकते थे। कुछ कहिए तो तुरन्त कहते—‘‘बाबू, ई एक्का नाहीं हौ। ताँगा हो ताँगा।’’ कहने का मतलब यह रईसों के लिए गाड़ी है, कबाडिय़ों के लिए नहीं। आपको गरज हो बैठिए और रईस बनिए, वरना इक्का तैयार है ही। उन दिनों सवारीवाले इक्कों पर चढऩा शान के खिलाफ समझा जाता था। इक्के की गणना थर्ड क्लास की सवारियों में होती थी। ताँगे पर बैठनेवाला आदमी रईस न सही, बड़ा आदमी जरूर समझा जाता है।
ताँगों के बाद बनारस में इक्कों का नम्बर आता है। ऊपर जैसा कि कहा जा चुका है कि इक्का थर्ड क्लास की सवारी समझी जाती है—यह बात सभी इक्कों के लिए लागू नहीं है। सवारी इक्का उन इक्कों को कहा जाता है जो कचहरी, स्टेशन, विश्वविद्यालय या मुख्य बाजारों में चलते हैं। जिसके घोड़े महीने में 15 दिन सात्विक भाव से एकादशी व्रत रखते हैं। ‘कम खाना, गम खाना’ उनका गुरुमन्त्र होता है और जो मंजिले-मकसूद तक जाने के लिए दस कदम आगे तो पाँच कदम पीछे हटना अपना ‘पुण्य नियम’ मानते हैं।
नगरपालिका के नियम में ऐसे इक्कों पर तीन सवारी पर बन्धन भले ही हो, परन्तु इक्केवाले सवारी की संख्या पाँच होने में विशेष ‘सन्तुष्टि’ प्रकट करते हैं। अगर कहीं ऐसा न हुआ तो समझ लीजिए, रास्ते भर, चनेवाले पंसारी, घासवाले घसियारों के प्रति उसके मुख से ऐसे ‘पुनीत सम्बोधन’ प्रसारित होंगे कि सवारी को ‘आनन्द’ आ जाता है। बेचारे घोड़े की माँ-बहनों से अपना निकट सम्बन्ध, चाबुक की फटकार में, वह समाँ बाँधेगा कि फिर...
इसके ठीक विपरीत इक्कों की दूसरी श्रेणी होती है—गहरेबाज! इसके घोड़े हेल्थ बनाने के लिए दूध-घी मलाई का भी सेवन करते हैं। इस पर बैठना सौभाग्य में शुमार किया जाता है। अधिकतर ये प्राइवेट होते हैं। एक पुराने रईस ने अपने ‘गहरेबाज’ घोड़ों के लिए कबीर चौरा मुहल्ले के पास, किसी ज़माने में, जो ‘तबेला’ बनवाया था, वह छोटे-मोटे महल से होड़ लेता था। आज भी ‘लल्लन-छक्कन का तबेला’ देखकर उस रईसी की चमक का अनुमान लगाया जा सकता है।
गहरेबाज
गहरेबाज का अर्थ अपने आप में इतना ठोस है कि उसकी अधिक व्याख्या करने की ज़रूरत नहीं। सीधे-सादे शब्दों में—गहरेबाज इक्का उस गाड़ी को कहते हैं जो ‘तीन सवारी से अधिक मत बैठाओ, बाँयें से चलो, दस मील की रफ्तार से चलो’ इत्यादि क़ानून को धक्का लगाना अपनी शान समझता हो। अगर कोई इक्का गहरेबाज है तो वह दुलकी चाल से भी चल सकता है और सरपट चाल से भी। बनारस में एक कहावत मशहूर है कि दमकल जब आग बुझाने के लिए चलता है तब उसके लिए सात खून माफ़ रहता है अर्थात दमकल गन्तव्य स्थान पर पहुँचते-पहुँचते सात लाश सडक पर बिछा दे तो उसे रोका नहीं जा सकता और न उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार जब बनारसी गहरेबाज सडक पर चल रहा है तब उसके लिए कितने खून माफ हैं, इसका परिमाण नहीं है। यही वजह है कि ट्रैफिक पुलिस भूलकर भी कभी गहरेबाजों का चालान नहीं करती। जब तक वह हाथ उठाकर गाड़ी को रोके या नोटबुक निकालकर कुछ दर्ज करे तब तक गाड़ी भाष्करा, गैबी या रोहनिया पहुँच जाती है।
गहरेबाज रखना साधारण कलेजे की बात नहीं है। गहरेबाज रखना हाथी पालने के बराबर माना जाता है। ऐरे गैरे नत्थू खैरे इसे रख ही नहीं सकते, भले ही करोड़पति या लखपति का साइनबोर्ड अपने पीछे क्यों न लटकाये हुए हों! अब अधिकतर बहरी अलंग के शौकीन गुरु, रईस और सरदार लोग के पास गहरेबाज दिखाई पड़ते हैं जिनकी तबीयत गहरेबाजी किये बिना नहीं मानती।
गहरेबाजों का रेस अब तो नहीं के बराबर होता है। जब बनारस इतना गुलजार नहीं था तब सड़के अधिकतर सूनी रहती थीं। गहरेबाज की गहरेबाजी शाम को अथवा सुबह होती थी। उन दिनों गहरेबाजों की टापों से बनारस की सडकें काँपा करती थीं। क्या मजाल कि गहरेबाज को काटकर दूसरा गहरेबाज निकल जाए। यह अपनी शान के खिलाफ बात मानी जाती थी। हमेशा एक-दूसरे को पिछाड़ने के लिए—वाह ... भिड़ल रहे, कहाँ जाला सरवा—हटल रहे बाँयें से—जाये न पावे—आदि नारों से वातावरण मुखारित करते रहते हैं। घोड़ों को भी अपनी जवानी की सारी ताकत अपने प्रतिद्वन्द्वी को पिछाड़ने में लगा देनी पड़ती थी। जब यह रेस किसी सडक पर शुरू होती है तब देखने लायक दृश्य होता है। मीलों दूर रहने वाले लोगों को यह मालूम हो जाता है कि गहरेबाज आ रहा है। फलस्वरूप लोग एक किनारे हट जाते थे। घोड़ों की नाल से चिनगारियाँ छूटने लगती हैं, उस पर सवार लोग प्राण हथेली पर रखे, खूँटी पकड़े घोड़े को बढ़ावा देते हुए आगे बढ़ जाते थे। बम टूट जाना, आपस में भिड़ जाना और घायल हो जाना साधारण बात थी। रेस में पिछड़ जाना, मुख पर कालिख पुत जाने से कुछ अधिक ही समझा जाता है। पहले लोग हारे हुए घोड़ों को मनहूस मानकर गोली मार देते थे और इक्के में आग लगा देते थे।
आज भी मड़ुआडीह के उस पार, सारनाथ और रामनगर के मेले में गहरेबाजी का दृश्य देखने में आता है।
टैक्सी, जीप, लारी और पिकअप तो बनारस के कुली कबाड़ियों के पास भी है, पर बनारसी इक्का चुने हुए लोगों के पास है। आपको मोटर, लारी और हवाई जहाज तक किराये पर मिल सकते हैं और जीप, टैक्सी तथा पिकअप जरूरत पर मँगनी में भले ही मिल जाएँ, पर बनारसी गहरेबाज न मँगनी में मिलेगा और न किराये पर।
आप अपने मन में भले ही गर्व कर लें कि अब तक आप जहाज, स्टीमर और समुद्री जहाज में सफर कर चुके हैं; बचपन से अब तक खच्चर, गदहा, ऊँट और घोड़े पर चढ़ चुके हैं, पर अब तक आपको गहरेबाज पर चढ़ने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ होगा। गहरेबाज पर आप तभी सवारी कर सकते हैं जब आपकी जान-पहचान किसी बनारसी रईस से हो और उसके पास गहरेबाज हो। साथ ही उसे नित्य बहरी अलंग जाकर नहाने-निपटने का शौक हो। बनारसी गहरेबाज बनारस के साधारण यानों में नहीं है, बल्कि उसे बनारसी शान समझा जाता है। इस यान को इतनी इज्जत दी गयी है कि एक विशुद्ध बनारसी इस गाड़ी के आगे रोल्स रायस की मोटर को दो कौड़ी का समझता है।
गाँधी ब्रांड यान
बग्घी, ताँगों के बाद तृतीय श्रेणी की सवारी रिक्शा को माना गया है। यही एक सवारी बनारस की सभ्यवादी सवारी है। कुछ लोग इसे गाँधी ब्रांड (थर्ड क्लास) सवारी कहते हैं। इस पर सईस से लेकर रईस तक, मन्त्री से पद्म-विभूषण तक बिना संकोच बैठते हैं। एक बात यह बता देना आवश्यक समझता हूँ कि बनारसी रिक्शों का किराया भारत के सभी शहरों से काफी सस्ता है। यहाँ आधा रिक्शा किराये पर मिलता है और पूरा रिक्शा भी। कहने का मतलब कोई एम.एल.ए. रिक्शे पर बैठा हो और रिक्शावाला अन्य एक सवारी की तलाश में है तो आप पैसे देकर उस पर बैठ सकते हैं। एक सवारी से दो सवारी का पैसा नहीं लिया जाता बशर्ते आपने पूरा रिक्शा न कर लिया हो!
इस गाँधी-ब्रांड यान—यानी रिक्शे ने इक्केवालों की कमर तोड़ दी है और ताँगेवालों की हालत पतली कर दी है। लोकप्रियता का प्रमाण इससे बड़ा और क्या हो सकता है कि इस समय बनारस में सम्भवत: नगर की आबादी में, दस परसेंट रिक्शाचालक हैं।
हाँ, इस प्रगति युग में भी, जबकि सरकार की मुख्य एनर्जी ‘नव-निर्माण’ में सर्फ हो रही है, कुछ सडकें ‘सौत के बच्चों’ की संज्ञा से विभूषित हैं। ऐसी सड़कों पर अगर रिक्शे पर सवारी की जाए तो लगभग वही अनुभव प्राप्त हो जाता है, जो फुटबाल को खिलाडिय़ों के पैरों का।
रिक्शेवाले ज़रा ‘तबीयतदार’ होते हैं। उनकी यह ‘तबीयतदारी’ ढालदार सडकों पर देखने में आती है। सवारी के साथ ही रिक्शे और अपने शरीर की ‘मरम्मत’ करवाने में वह ‘गौरव’ का अनुभव करता है।
आजकल रिक्शों में भी दो क्वालिटी दीख पड़ती हैं। ‘टैक्सी’ और ‘टरकाऊ’! टैक्सी उसे कहते हैं, जिनकी गद्दी और ढाँचे में ‘आधुनिकता’ घुसी रहती है और ‘टरकाऊ’, वही ‘बाबा आदमी’! स्पष्ट है, ‘टरकाऊ’, ‘टैक्सी’ के समक्ष ‘फीका’ मालूम होगा।
बनारस में टैक्सियाँ इफरात हैं, पर उनका किराया बम्बई-कलकत्ता की टैक्सियों से बीस गुना अधिक है। सारनाथ, रामनगर और विश्वविद्यालय के दर्शन के लिए इनका उपयोग किया जाता है, पर आश्चर्य होता है कि इतना किराया क्यों? क्या इसमें भी गहरेबाजी होती है? गोकि टैक्सियों की पूछ विवाह आदि के मौके पर ही अधिक होती है।
सरकारी बसें
अभी हाल से बनारस में बसें चलने लगी हैं। अब इसे बनारस में यातायात के लिए प्रमुख यान मान लिया गया है। एक तरह से इसे रिक्शों का ‘इन्लार्जमेंट’ कहा जा सकता है। रिक्शों में एक सहूलियत यह है कि उस पर माल लादकर स्वयं बैठ जाइए। आपको माल ढुलाई का किराया नहीं देना पड़ेगा—बसों में देना पड़ता है। बनारस की बसों में दो-एक नहीं, बहुत-सी विशेषताएँ हैं। मसलन यहाँ की बसें अन्य बड़े शहरों की भाँति नहीं हैं जो केवल स्टापेजों पर खड़ी होती हैं, जितनी सीट रहेगी उतनी सवारी लेंगे। यहाँ यह सब नियम नहीं है। बस कंडक्टर अधिक-से-अधिक सवारी लेने का प्रयत्न करता है, आखिर सभी को जाने की जल्दी रहती है। नाहक परेशान होगा, इस मायने में कंडक्टर बड़ा दयालु होता है। जब जहाँ जी चाहा, गाड़ी आपके सामने खड़ी हो जाएगी। अगर आपका घर या दफ्तर दो स्टापेजों के बीच है तो कंडक्टर से कह दीजिए, वह आपको दरवाजे पर उतार देगा। यहाँ ड्राइवर और कंडक्टर दोनों ही बड़े उदार, सज्जन और मानवतावादी है। बशर्ते उनकी गाड़ी लेट न हो अथवा ड्राइवर साहब का मूड बिगड़ा हुआ न हो। अगर गाड़ी लेट है और आपको जिस स्टापेज पर उतरना है, अगर आप जरा चूक गये तो तीसरे स्टापेज पर आपको उतार दिया जाएगा। अगर ड्राइवर साहब का मूड खराब है तो इस प्रकार मुँह बनाएँगे मानो महामुनि अष्टावक्र के वंशज हैं। साथ ही फरमाएँगे—‘यह सरकारी बस है, खाला जी का घर नहीं है। आपने इसे रिक्शा समझ लिया है कि जहाँ मन में आया, रुकवा लेंगे।’
आप भले ही सोचते रह जाएँ कि आखिर कल इसी ड्राइवर ने मेरे कहने पर यहाँ गाड़ी रोकी थी—आज इसे क्या हो गया! इसे अपना-अपना ‘मूड’ कहते हैं—भाई साहब!