बनारस के राजा / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
बनारस के राजा का मतलब आप कहीं काशी नरेश अथवा प्राचीन काल के काशी नरेशों से न लगा बैठें, इसलिए इस विषय पर कुछ कह देना आवश्यक है। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद ‘लौह पुरुष’ का धक्का खाकर राजाओं का अस्तित्व सेंट की तरह उड़ गया। आजकल मन्त्रियों का जमाना है। राजाओं का अस्तित्व इतिहास की पुस्तक और शतरंज की मुहरों तक ही है। प्राचीन काल में काशी किन-किन राजाओं के अधिकार में रही, कितने राजा यहाँ के शासक बने - यह सब विषय इतना लम्बा-चौड़ा है कि उसके लिए रीमों कागज काला करने की जरूरत है। फिर उनसे मतलब क्या? अतएव विषयान्तर न करके अपने विषय पर उतर रहा हूँ।
धार्मिक ग्रन्थों और नागरिकों के विश्वास के आधार पर यह कहा जा सकता है कि काशी नरेशों का इस नगरी पर अधिकार भले ही रहा हो परन्तु काशी की जनता हमेशा बाबा भोलेनाथ को ही अपना राजा मानती आयी है। बाबा भोलेनाथ हमेशा नगर के मध्य अपनी फेमिली सहित रहते आये हैं। आज भी वे अन्नपूर्णा, गणेश और अपनी पूरी कचहरी के साथ जमे हुए हैं। हिमालय से अपने साले (सारनाथ) को बुलाकर एक इलाका उन्हें भी दे दिया है। लोगों का दुःख-सुख सुनते हैं। जिनका नहीं सुनते वे लोग उनकी पत्नी अन्नपूर्णा या उनके कोतवाल भैरवनाथ के यहाँ जाकर सिफ़ारिश करते हैं। यही वजह है कि काशी की जनता इन पर अगाध श्रद्धा रखती है। इनके पास जाने के लिए न विजिटिंग कार्ड भेजने की आवश्यकता है और न ट्रंककाल करके टाइम फिक्स करने की जरूरत। न अचकन-चपकन पहनने की जरूरत है और न गांधी ब्रांड। किसी भी अवस्था में, किसी भी समय आप उनसे जाकर मिल सकते हैं। सिर्फ बम-बम या घंटा बजाकर उनके नशे को दूर करने की आवश्यकता पड़ती है। प्यार से उनके बदन पर हाथ फेर सकते हैं, उन्हें नहला सकते हैं, सर पर हाथ फेरकर भक्ति दिखा सकते हैं, गो कि कुछ दिन यह छूट नहीं रह गयी थी। कुछ हरिजनों ने और कुछ उनके पर्सनल असिस्टेंटों ने झगड़ा कर उन्हें जँगले में बन्द कर दिया था। तब वे सिर्फ नुमाइशी जीव बन गये थे, झरोखे से झाँकी मात्र देते थे।
इनके पास जाने के लिए डाली या उपहार ले जाने की जरूरत नहीं है। एक गिलास पानी काफी है। अगर आप वह भी न ले जाना चाहें तो कोई हर्ज नहीं, खाली हाथ जाइए। भक्ति का पारा हाई हो तो एक पैसे की माला और कुछ बेलपत्र काफी है। काशी के ये राजा जिस पर ख़ुश होते हैं - छप्पर फाड़कर धन देते हैं, मुँह माँगी मुराद मिल जाती है। अपुत्रक को दर्जनों बच्चे, रोजी रोजगार में बरक्कत, मुकदमे में जीत, गरीब-मुँहताज को जमीन में गड़े मोहरों का पता और अन्तकाल में मोक्ष का सर्टिफिकेट तो साधारण बात है। कहा जाता है कि जो लोग अधिक पाप करते हैं या जिन पर विश्वनाथजी की मुक्ति सर्टिफिकेट का काम नहीं करती, वे केदारनाथजी के इलाक़े में जा बसते हैं। इनका अपना एक अलग इलाका है। यह इलाका महर्षि वेदव्यास के झमेले के कारण बसाया गया है। कुछ लोगों ने (जिनके पास दिव्यचक्षु हैं) मणिकर्णिका घाट पर मुर्दों के पास शंकर भगवान को साक्षात रूप में उनके कानों में कुछ कहते देखा है। लेकिन यह तयशुदा बात है कि काशी में शंकर का ही राज्य है। यहाँ के हर गली-कूचे में वे विराजमान हैं।
उनकी नींद इतनी गहरी होती है कि उन्हें जगाने के लिए हिन्दू जनता सुबह होते ही गाल बजाते हुए ‘हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ गंगे’ के नारों से काशी का कोना-कोना गुलज़ार कर देती है।
आजकल प्रत्येक प्रान्त की ग्रीष्मकालीन राजधानियाँ बन गयी हैं। मेरी समझ से लोगों ने यह प्रेरणा शंकर भगवान से ली है। शंकर की ग्रीष्मकालीन राजधानी कैलास है। भक्तों का कहना है कि यहाँ की गर्मी से घबराकर वे कैलास चले जाते हैं। पंडितों का कहना है कि द्वितीय विवाह के पश्चात उन्हें ससुराल से अधिक मोह हो गया है, इसलिए चार माह ससुराल जाकर मौज-पानी लेते हैं। कुछ प्रगतिशील विचारवालों की राय है कि अपनी द्वितीय पत्नी गंगा से मिलने के लिए जाते हैं। इस तर्क में कौन कितना सही है, यह तो मैं नहीं जानता। यदि भोले बाबा कभी किसी पत्रकार को इन्टरव्यू दें तो सही बात प्रकाश में अवश्य आ जाए।
यह निश्चित है कि जब राजा राजधानी में नहीं रहेगा तो राज्यशासन में कुछ गड़बड़ी हो ही जाती है। फलस्वरूप ये चार महीने बड़े मुश्किल से गुजरते हैं। अक्सर जब वे कैलास से जल्द वापस नहीं लौटना चाहते - जिसका पता यहाँ तुरन्त पानी बरसने में देर होते देख लग जाता है - तब भक्तों का दल गंगा का पानी घड़े में भरकर मन्दिरों में लाकर छोड़ने लगता है। इतना पानी छोड़ा जाता है कि पानी की वह धारा एक छोटी नदी का रूप धारण कर लेती है। शायद भक्तों की इस हरकत की सूचना उन्हें मिल जाती है और वे तुरन्त नन्दी पर सवार होकर चल देते हैं। ये चार महीने वे शान्ति से बिताने की गरज से कैलास जाते जरूर हैं पर वहाँ भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। उन दिनों समूचे भारत के आस्तिकजनों का दल पर्वतीय भूमि को गुलजार कर देता है। इधर काशी की जनता उन्हें अलग परेशान करती है। कैलास से वापस आने पर उन्हें और ही दृश्य देखने को मिलता है। उनके भक्तगण उनसे नाराज होकर दुर्गादेवी, लक्ष्मीदेवी, संकटमोचन और सारनाथ के उपासक बन जाते हैं। यह दृश्य देखकर उन्हें कितना सदमा होता है यह तो पता नहीं, पर वे इस बात की प्रतिज्ञा जरूर करते होंगे कि आगे से वे ससुराल में ऐसी लम्बी नहीं ताना करेंगे। तीन-चार माह बाद कहीं भक्तों का मिजाज ठीक होता है और तब पुनः पहले जैसा उनका सम्मान होने लगता है। लेकिन हर साल गर्मी आते ही उनका मिजाज खड़बड़ा जाता है और इधर उनके भक्त भी कम नहीं। उन्हें अपनी उचित शिक्षा देने का हथकंडा ज्ञात है। अब तो दोनों ही इस बात के आदी हो गये हैं। किसी को किसी से शिकायत नहीं।
काशी नरेश
भोले बाला के जीवित संस्करण हैं - काशी नरेश। राह-बाट कहीं भी मुलाकात हो, आप ‘हर-हर महादेव’ की आवाज लगाइए, वे स्वयं आपको सलाम करेंगे। काशी की जनता अपने इस नरेश का जितना सम्मान करती है उतना किसी का नहीं। एक बार जब सारिपुत्त-महामोद्गल्यायन की अस्थियाँ सारनाथ आयी थीं, उस समय माननीय पन्त जी से लेकर विदेशों के अनेक राजदूत, सिक्कम के राजकुमार, मन्त्री और अधिकारी उपस्थित थे। काशी की जनता उन्हें देखती रही। लेकिन ज्यों ही महाराज बनारस आये और अस्थि कलश हाथ में लिया - ‘हर-हर महादेव’ के नारों से सारा सारनाथ काँप उठा। महाराजा साहब के पीछे-पीछे भीड़ चल पड़ी। अन्य महानुभावों का वही महत्त्व हो गया जो लँगड़े आम के आगे खरबूजे का हो जाता है।
काशी के नागरिक काशी नरेश के आगे बड़ों-बड़ों को बामुलाहिजा गरदनियाँ दे देते हैं। यही वजह है जब जहाँ मौका मिला ‘हर-हर महादेव’ के नारों से उनका स्वागत करते हैं। एक बार की बात है, कुछ गुरु लोग भाँग छानकर दुर्गाजी के मन्दिर के पास मैदान में निपटान देने जा रहे थे। हाथ में हँड़िया, तन पर लँगोट और कान पर यज्ञोपवीत चढ़ा था। ठीक इसी समय महाराजा साहब की मोटर आ गयी। ऐसी हालत में उनसे आँखें चुरा लेना स्वाभाविक धर्म नहीं माना जाता। गुरु लोगों ने आव देखा न ताव, हँड़िया नीचे रख दोनों हाथ उठाकर ‘हर-हर महादेव’ की आवाज बुलन्द कर ही दी। भले ही महाराजा साहब ने उन लोगों को न देखा हो, पर आदत के अनुसार हाथ उठाकर उन्होंने भी अभिवादन किया। उनकी इस सतर्कता से काशी की जनता निहाल हो जाती है।
स्वयं महाराजा साहब भी बनारसियों से कम मुहब्बत नहीं करते। उस पार की सारी जमीन, दुर्गाजी मन्दिर, लंका, वेदव्यासजी की भूमि बनारसियों को नहाने-निबटने, भाँग छानने और तफरीह करने के लिए छोड़ दी है। साल में एक बार काफी धूमधाम से महीनों तक रामलीला करवाते हैं। उन दिनों बनारस की आधी जनता गहरेबाज पर सवार होकर उस पार पहुँचती है। साल में स्वयं एक बार महाराजा भरत-मिलाप देखने चले आते हैं। विश्वनाथ दर्शन या कोठी पर आराम करने भी आते-जाते रहते हैं। बनारसी जनता से काशी के इस राजा का सम्पर्क बहुत दिनों से इस प्रकार स्थापित है और आगे रहेगा भी।
अन्य राजा
काशी नरेश के अलावा काशी में कुछ ऐसे भी राजा हुए जो आज भी राजा के नाम से पुकारे जाते हैं। मसलन राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द, राजा औसानसिंह, राजा बलदेवदास बिड़ला और राजा मोतीचन्द। इन लोगों को ब्रिटिश सरकार की ओर से राजा की उपाधियाँ प्राप्त हुई थीं और तब से इनके नाम के आगे यह शब्द जुड़ा हुआ है। इनमें राजा बलदेवदास और राजा मोतीचन्द ने काशी की जनता से सम्पर्क स्थापित कर कुछ सेवा-कार्य भी किया है। कुछ ऐसे स्मारक बनवाये हैं कि आगे आनेवाली पीढ़ी भी इनका यशोगान करती रहेगी।
यों काशी में अनेक राजाओं की कोठियाँ मौजूद हैं और काशी के निर्माण में लगभग सभी ने भाग लिया है, पर जनता उन नरेशों को अधिक मान्यता नहीं देती। काशीवासी मौज-पानी लेने के लिए प्रसिद्ध हैं। इसके लिए वे अपना सब कुछ लुटा देने को तैयार रहते हैं। जो लोग इनके इस आनन्द में शरीक होते हैं, वे ही इनके लिए राजा के तुल्य हैं। महाराजा कुमार विजयानगरम् इसी कोटि के राजाओं में हैं। काशी की जनता इन्हें ‘राजा इजानगर’ कहती है। कहा जाता है लक्सा की रामलीला का प्रारम्भ स्वयं इन्होंने करवाया था। उन दिनों चार ब्राह्मण के लड़के और लड़कियाँ खोजकर प्रत्येक वर्ष राम-लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न और उनकी पत्नियों के लिए चुने जाते थे। बाकायदा विवाह आदि समस्त कार्य रामलीला के अन्तर्गत किया जाता था। इसके पश्चात सम्पूर्ण लीला में उनसे अभिनय करवाकर उन्हें छोड़ दिया जाता था। इस प्रकार प्रति वर्ष चार ब्राह्मण बच्चों का विवाह ब्राह्मण कुमारियों के साथ हो जाता था और उनके माता-पिता इस खर्च से बच जाते थे।
बेताज के बादशाह
इन राजाओं के अलावा काशी में दो अन्य राजा हैं, जिन्हें सरकार ने उपाधि नहीं दी और न उनका कहीं राज्य है। बनारस की जनता की ओर से उन्हें राजा की उपाधि प्राप्त है। उनमें राजा किशोरीरमण आज भी जीवित हैं। वर्तमान समय में लक्सा रामलीला का भार इन्हीं पर है। रामनगर की लीला के बाद लक्सा की रामलीला का ही महत्त्व है। चूँकि काशी की जनता का इससे अधिक मनोविनोद हो जाता है और साल में कुछ दिनों तक उनकी कोठी में लोग मौज-पानी लेते हैं, बस इस ख़ुशहाली में लोग उन्हें राजा कहकर पुकारने लगे।
काशी के दूसरे राजा हैं - स्व. शिवप्रसाद गुप्त। कहा जाता है जब तक वे जीवित थे, काशी की नाक थे। कभी कोई माँगनेवाला उनके यहाँ से खाली हाथ नहीं लौटा। काशी की गरीब जनता उन्हें दानवीर कर्ण मानती रही। बनारस के नागरिक कब क्या चाहते हैं, इसका उन्हें अनुभव था। यद्यपि उनकी देन कम है, पर उनकी महानता इस देन से कहीं अधिक है। इनके बारे में जनता में अनेक कहानियाँ प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि एक बार दंगे के समय जब काशी की जनता पर छह हजार रुपये प्यूनिटी टैक्स लगा तब बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने ब्रिटिश सरकार से कहा कि मैंने आपको बाईस हजार रुपये कर्ज दे रखा है। उसमें से छह हजार रुपये टैक्स की रकम काटकर बाकी सोलह हजार रुपये के चाँदी के सिक्के मुझे वापस कर दीजिए। ब्रिटिश सरकार के खज़ाने में इतना सिक्का नहीं था, इसलिए उसने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। यह बात अपने में कहाँ तक सच है, यह तो पता नहीं, पर आज भी बड़े-बूढ़े इस बात को दुहराते हैं।
कुछ लोगों का विचार है कि काशी में रेडियो स्टेशन सरकार सिर्फ इसलिए नहीं लगा रही है कि उसके पास पैसे की कमी है। यदि आज बाबू शिवप्रसाद गुप्त जीवित होते तो शायद उतनी रकम सरकार को देकर रेडियो स्टेशन खुलवा देते। कहने का मतलब आज भी काशी की जनता के हृदय में इस बेताज बादशाह के प्रति काफी इज़्ज़त है। बनारस के हड़ताल के इतिहास में बाबू शिवप्रसाद गुप्त के निधन दिवस पर जैसी जबर्दस्त हड़ताल हुई, वैसी महात्मा गांधी, महामना मालवीय के निधन दिवस के अलावा अन्य किसी के निधन दिवस पर नहीं हुई थी।
बनारस के राजाओं का एक जानदार वर्ग स्वयं यहाँ के अलमस्त निवासी हैं। सबेरे के समय गंगा के घाटों तथा मन्दिरों के आसपास अगर आप टहलने का कष्ट करें तो - ‘का राजा, नहा के आवत हउवा?’ चौंककर देखेंगे तो पाएँगे, जिसे ‘राजा’ सम्बोधित किया गया है, वह कमर में गावटी का भीगा गमछा लपेटे कोई फक्कड़ बनारसी होगा। ‘राजा’ यहाँ का परम पवित्र सम्बोधन है, जिस तरह ‘मिस्टर’, ‘महाशय’ और ‘महोदय’ आदि।