बनारस के सन्यासी / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
और मामलों में आप बनारस को भले ही फिसड्डी नगर कह लें, लेकिन धर्म के मामले में बनारसवालों का बड़ा गहरा रंग है। बनारसवाले अपनी ‘विल पावर’ के जरिये सम्पूर्ण भारत को धार्मिक एकता में बाँध रखने में सफल हुए हैं। धर्म के मामले में यहाँ की संसद में जो प्रस्ताव पास हुए वह सम्पूर्ण देश में मार्शल-ला की भाँति लागू हो गये।
भारत की राजधानी के रूप में कोई नगर अनादिकाल से रजिस्टर्ड नहीं रहा। इन्द्रप्रस्थ, दिल्ली, दौलताबाद, आगरा और नयी दिल्ली आदि नगरों को भारत की राजधानी बनने की ‘टेम्परेरी रजिस्ट्री’ हो चुकी है। यद्यपि बनारस ने भूलकर भी यह गौरव स्वीकार नहीं किया, फिर भी वह हिन्दू धर्म का रजिस्टर्ड हेड ऑफिस अनादि काल से बना हुआ है। इतिहास और धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन से भी यह पता नहीं चलता कि आर्य धर्म के इस हेड ऑफिस का कभी स्थानान्तरण हुआ था। अगर कहीं कुछ परिवर्तन हुआ है तो केवल नगर के नाम में। काशी, काशिका, स्वर्गपुरी, तीर्थराज्ञी, वाराणसी, बनारस, मुहम्मदाबाद, बेनारेस और अब अपने बाबू साहब की कृपा से फिर वाराणसी।
धार्मिक महत्ता
बनारस को इतनी धार्मिक महत्ता कब, क्यों और कैसे मिली - इसका उल्लेख कहीं नहीं है, यद्यपि यह बात सही है कि भारत में प्रचलित सभी सम्प्रदायों के जन्मदाता अपनी-अपनी थीसिस लेकर बनारस आये। यहाँ उन्हें उचित मार्क-शीट ही नहीं प्राप्त हुई, बल्कि नया धर्म चलाने का लाइसेन्स भी दिया गया। बिना यहाँ से परमिट प्राप्त किये कोई भी धर्म भारत में पनपा नहीं। ‘भगवान बुद्ध’ से लेकर निरक्षर भट्टाचार्य ‘बिहारी’ तक की साधना-भूमि काशी रही। प्रत्येक सम्प्रदायवालों के मठ-मन्दिर और अखाड़े यहाँ हैं। सभी धर्माचार्य यहाँ की कसौटी पर रगड़े जा चुके हैं। कहने को यहाँ तक कहा जाता है कि ईसा मसीह भी काशी आये थे।
स्कन्दपुराण के अनुसार 'त्रिलोक में वाराणसी सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है।' महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज के मतानुसार 'तीर्थों में श्रेष्ठतम तीर्थ काशी ही है, क्योंकि यह कर्मक्षेत्र नहीं अपितु ज्ञान का क्षेत्र है। यहाँ कर्म बीज वपन नहीं किया जाता, पर ज्ञान बीज बपन किया जाता है। इस दृष्टि से समग्र काशी को गुरुधाम कहा जा सकता है।'
यहाँ तक तो हम मान लेते हैं कि काशी अत्यन्त पवित्र नगरी है जिसकी चर्चा वेद से लेकर बौद्ध दर्शन तक और उपनिषद् से लेकर उपन्यासों तक में हो चुकी है। लेकिन एक बात साफ नहीं होती कि इससे धर्म का क्या सम्बन्ध है?
बहुत सम्भव है आर्यों में जब वर्ण व्यवस्था प्रारम्भ हुई तब ब्राह्मण वर्ग के व्यक्ति अपना ‘रिटायर्ड’ काल ‘निछद्दम’ में बिताने के लिए यहाँ चले आये। उन दिनों काशी में भयंकर जंगल था। (विश्वास न हो तो ईस्ट इंडिया काल में बने बनारस जिले का नक्शा देखें) मौज-पानी का दिव्य प्रबन्ध था। गुरु बनाम ब्राह्मण लोग यहाँ चले आये। उन्हें भरपेट भोजन के अलावा कुछ नहीं चाहिए था। इस प्रकार जब अधिकांश गुरु लोग यहाँ चले आये तब सार्थ में बच्चों को शिक्षा देनेवाला कोई नहीं रह गया। इसीलिए उन दिनों लोग अपने बच्चों को शिक्षा के लिए यहाँ भेजने लगे। गुरुओं को और कुछ काम था नहीं, खाना, निपटना और छात्रों को ठोंक-पीटकर पढ़ाना जीवन का लक्ष्य बन गया। खाली समय में अपने स्वार्थ के लिए उन्होंने जो नियम बनाये - वही धर्म बन गया। इस प्रकार एक ढेले में दो शिकार हो गये, अर्थात धर्म का प्रचार भी हुआ और काशी सम्पूर्ण भारत के लिए शिक्षालय भी बन गया। यही वजह है कि धर्म और शास्त्रार्थ के मामले में काशी की ख्याति आज भी है। आज भी ब्राह्मणों का यहाँ आधिपत्य है। भले ही आप उनकी अवज्ञा करें, पर वे जानते हैं कि जन्म, विवाह और मृत्यु के समय आप उन्हें अपने यहाँ अवश्य बुलाएँगे, भले ही आपकी पैदाइश रूस में हुई हो या आप घोर नास्तिक हों, बिना उनके सहयोग के आप नरकगामी बनेंगे।
संन्यासियों की पहली पलटन
हिन्दू धर्म में ऋषि-मुनियों की बड़ी महत्ता है। अधिकतर ऋषि-मुनि ब्राह्मण ही होते थे। ब्राह्मणों को ही शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी। गैर ब्राह्मणों को पास फटकने नहीं दिया जाता था। नतीजा यह हुआ कि नाऊ-धोबी बनारस नहीं आ सके। गुरुओं की दाढ़ी, जटा बढ़ने लगी, कपड़े चीथड़े हो गये, उनका एक अजीब रूप हो गया। आगे चलकर ये ही लोग ऋषि-मुनि कहलाने लगे। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि हमारे ऋषि-मुनि पंडित थे और विवाहित होते थे। ऐरे-गैरे को चेला बनाकर अपनी इज्जत अपने हाथ से नहीं गँवाते थे। गृहस्थी के लिए सर्वदा मंगल-कामना करते थे। उन दिनों खाने-पीने की कमी रही नहीं, मार्क्सवाद-पूँजीवाद का झगड़ा नहीं था, डॉलरवाद-स्टर्लिंगवाद की समस्या नहीं थी, नाटो-सीटो पैक्ट नहीं थे और न परमाणु और हाइड्रोजन बम का भय था। फलस्वरूप जिन लोगों को बुद्धि की अपच की बीमारी हो जाती थी, वे लोग जंगल में भाग जाते थे और तप करने बैठ जाते थे। जब उनकी दाढ़ी और जटा बढ़ जाती थी तब तप के आधार पर उन्हें ऋषि-मुनि की उपाधि दे दी जाती थी। ऐसे लोग जंगल में रहते थे। बस्ती में आने के लिए दफा 144 लागू रही, क्योंकि नंगे-अधनंगे रहते थे। शहर में कभी-कभी नमक-गुड़ माँगने चले आते थे। कन्द-मूल को अपना राशन समझते थे। मठ-मन्दिर के पचड़े में नहीं पड़े। अपनी हजामत कभी नहीं बनाते थे और न स्वार्थ के लिए दूसरे की बनाते थे। खाने-पीने और रहने के मामले में अपना ‘स्टैंडर्ड’ कभी गृहस्थों से ‘हाई’ नहीं किया। इसीलिए वे पूज्य रहे, श्रद्धेय रहे। उनमें वरदान देने की, शाप देने की और भस्म कर देने की शक्ति रहती थी।
बौद्ध संन्यासी
ऋषि-मुनियों की परम्परा कब तक भारत में प्रचलित रही, यह आज भी अज्ञात है। इसके बाद अचानक भगवान बुद्ध का नाम आता है। ऋषि-मुनियों के साधारण संस्करण संन्यासियों के प्रथम जन्मदाता सिद्धार्थ थे। बौद्ध धर्म की उत्पत्ति के पूर्व उन्हें कौन जानता था? बोधि वृक्ष के नीचे जब उन्हें ज्ञान की उपलब्धि हुई तब वे सीधे बनारस चले आये। वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि आज भी बनारस में अच्छे-अच्छे तपस्वी और धर्माचार्य रहते हैं, जब तक उनसे मान्यता नहीं मिलेगी और बनारसवालों पर रोब गालिब नहीं होगा, तब तक मुझे सफलता नहीं मिलेगी। अगर बनारसवालों की उपेक्षा कर गया तो मेरे सम्प्रदाय की ‘हत्यात्मक’ आलोचना ही नहीं होगी, बल्कि इसे उलट भी दिया जाएगा। इस बात को उन्होंने स्वयं आजीवक के सामने स्वीकार किया है :
वाराणसीं गमिष्यामि गत्वा वै काशिकां पुरीम्
धर्मचक्रं प्रवर्तिष्ये लोके स्वप्रतिवर्तितम्
बनारस आकर वे शहर के बाहर सारनाथ में ही ठहर गये। भीतर जाने की हिम्मत नहीं हुई। उन दिनों भी सारनाथ शहर का बाहरी अंचल माना जाता था। कौडिन्य आदि पाँच भिक्षु वहाँ तप कर रहे थे। सबसे पहले उन्होंने इन पाँचों को अपना चेला बनाया। महाबग्ग के अनुसार इस समय समग्र पृथ्वी पर केवल छह धर्मात्मा थे। इसके बाद वे अन्य लोगों की तलाश में रहने लगे। उन्हीं दिनों की बात है कि नगर सेठ का पुत्र यश मानसिक अशान्ति से परेशान होकर एक दिन सारनाथ की ओर जा रहा था। एकाएक एक पेड़ की आड़ से भगवान बुद्ध बाहर निकल आये और उसके सामने पड़ गये। यश उन्हें देखकर घबरा गया। बुद्ध ने कहा, 'मैं बुद्ध हूँ, तुम आकर बैठो, मैं तुम्हें उपदेश दूँगा।' इसके बाद वे तब तक उसे अपने पास रोके रहे जब तक यश को खोजते हुए उसके माँ-बाप नहीं आ गये। उन सबसे जमकर बमचख हुई तब कहीं जाकर वे परास्त हुए। लाचारी में बेटे के साथ-साथ पूरे परिवार ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। इस प्रकार बौद्ध धर्म की पहली पलटन सारनाथ में बन गयी। भगवान बुद्ध के चेले के चेले और उनके चेलों ने इतना ‘उपद्रव-अनाचार’ किया कि उसका वर्णन लाखों पृष्ठों में लिखा गया। इतिहास इसके लिए बौद्ध धर्म का एहसानमन्द है कि उनके इन कार्यों के कारण तत्कालीन भारतीय समाज की अवस्था का पूरा-पूरा चित्रण हुआ है। अगर वे उपद्रव न करते तो सम्भवतः हमें अतीत का इतिहास ज्ञात न होता।
भारत में ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण एशिया में बौद्धों की अच्छी-खासी पलटन तैयार हो गयी। हीनयान-महायान से तन्त्रशास्त्र के ज्ञाताओं की पलटन बन गयी। चूँकि बौद्ध धर्म का प्रसार और उत्पत्ति सारनाथ से हुई थी, इसलिए अशोक से लेकर कनिष्क तक तथा उसके बाद पालसेन राजाओं ने भी वाहवाही लूटने की गरज से ढेरों स्तूप, हज़ारों खम्भे, सैकड़ों मन्दिर और दर्जनों विहार बनवा दिये, जिनमें बौद्ध संन्यासियों का स्थायी डेरा जम गया था। इस फ़िजूलखर्ची की कठोर आलोचना चीन के तत्कालीन प्रसिद्ध अर्थशास्त्री (?) फाह्यान, वित्तमन्त्री (?) ह्वेनच्यांग और एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट के प्रोफेसर (?) इत्सिंग तक कर गये हैं।
महापंडित राहुलजी के शब्दों में बौद्ध भिक्षुओं का बयान सुन लीजिए-
'बाहर से भिक्षु के वस्त्र पहने रहने पर भी भीतर से वे गुह्य समाजी थे। वज्रयान के विद्वान प्रतिभाशाली कवि चौरासी सिद्ध विलक्षण प्रकार से कहा करते थे। कोई पनही या जूता बनाया करता था, उसे पनहीपा कहते थे। कोई कम्बल ओढ़े रहता था, उसे कमरीपा कहते थे। कोई डमरू रखने से डमरूपा कहा जाता था। कोई ओखल रखने से ओखरीपा। ये लोग मदिरा में मत्त, कपाल चषक लिये रहा करते थे। खुल्लमखुल्ला मदिरा और नारियों का उपयोग करते थे। राजा इन्हें अपनी कन्याएँ प्रदान करते थे। इन पाँच शताब्दियों में धीरे-धीरे एक प्रकार से सारी भारतीय जनता इनके चक्कर में पड़कर काम-व्यसनी, मद्यप और मूढ़ विश्वासी बन गयी।'
आचार्य शंकर की पलटन
भगवान बुद्ध के पश्चात संन्यासियों की सबसे बड़ी पलटन के निर्माता थे - आचार्य शंकर। पता नहीं उन्हें क्या सूझी कि 656 ई. में केरल से लपके हुए काशी चले आये। अपनी थीसिस की गलती सुधारने के मूड में एक दिन घाट पर ‘गंजिंग’ कर रहे थे कि एक चांडाल को न जाने क्या सूझी कि उसने आचार्य को ब्रह्मज्ञान का तिकड़म बता दिया। सिर्फ यही नहीं, यहाँ सीख पढ़कर गये, कुमारिल भट्ट से भी इन्होंने ज्ञान प्राप्त कर लिया। अगर इन लोगों को यह ज्ञात होता कि मेरी इस गलती के कारण बनारसवालों की नींद हराम हो जाएगी, भविष्य में इनके चेलों से बचकर रहना पड़ेगा तो शायद वह ऐसी गलती न करते।
बौद्ध धर्म का मजा गृहस्थ लोग देख चुके थे। इसलिए इस बार इस धर्म को गृहस्थों ने नहीं अपनाया। गृहस्थों का असहयोग देखकर इस धर्म में एक कानून यह बनाया गया कि इस धर्म के अनुयायी गृहस्थों के मध्य जाकर उन्हें प्रवचन देंगे, उनके कान फूकेंगे और वक्त जरूरत पर मूड़ते रहेंगे। इस कानून से लाभान्वित होने के लिए बहुत से अवसरवादी, बेकार और बेरोजगार लोग भी इस पार्टी में भर्ती हो गये। आचार्य की कृपा से हिन्दुस्तान के चार कोनों में चार अड्डे बनाये गये और वहाँ से इस तरह प्रयत्न किये गये कि बौद्ध धर्म का दबदबा घटने लगा।
अपना प्रभाव बढ़ते देख प्रचारकों ने एक नया सुझाव रखा-दाढ़ी-जटा का झंझट हटा दिया जाए। एक तो इसमें चीलर-खटमल अपना महल बनाते हैं, दूसरे इस बोझ से चेहरे की रवानी खत्म हो जाती है। इस शर्त को मान लेने के बाद एक विवाद उठा और संन्यासियों का वर्गीकरण किया गया। गिरी, भारती, पुरी, आश्रम, वन, उपवन, अरण्य और सागर आदि नामों से दसनामी संन्यासियों की पलटनें बनीं। इनके कृत्य सम्पूर्ण भारत में शीघ्र प्रसिद्ध हो गये। इनके बारे में साधारण जनता में ये कहावत प्रसिद्ध हो गयी :
नारि मुई सम्पत्ति भई नासी
मूड़ मुड़ाये भये संन्यासी
आन क आटा आन क घी
बइठ के मजा लें बाबा जी
रांड सांड सीढ़ी सन्यासी
इनसे बचे तो सेवे कासी
छत्तरे भोजन मठे निद्रा।
कहावत है चौबे जी छब्बे बनने गये तो दूबे बनकर लौटे। जनता ने बौद्ध भिक्षुओं से परित्राण पाने के लिए इन्हें अपनाया तो ये ऐसे गले पड़े कि छुड़ाये नहीं छोड़ रहे हैं। आज तो हालत यह है कि जहाँ गृहस्थी में कुछ कठिनाई हुई, जीवन की लड़ाई से भागना चाहा, दो आने में बेल घुटवाया, दो पैसे में धोती रँगकर दो लुंगी बनायीं, कहीं से एक खप्पर और कमंडल जुटाया - ‘अलख निरंजन’ या ‘नारायण हरि’ की आवाज लगाते हुए मधुकरी माँगने लगे। बन बैठे आचार्य ऑफ हिन्दू धर्म और पहुँचे हुए महात्मा। यकीन मानिए, सिर्फ काशी में नहीं, अयोध्या, प्रयाग, मथुरा, वृन्दावन, उत्तराखंड, नासिक, पुरी, हरिद्वार और उज्जैन आदि क्षेत्रों में यही क्रिया होती है। इन पंक्तियों के लेखक ने जो-जो दृश्य देखा है उनका उल्लेख करना साहित्य-धर्म के विरुद्ध होगा, वरना उसका उल्लेख कर दिया जाता। शराब पीना, व्यभिचार करना, खून, हत्या और धर्म के नाम पर अच्छे घरों को बर्बाद कर देने का उन्होंने व्रत ले रखा है। इतिहास गवाह है कि इनके द्वारा आधुनिक समाज या अड़ी भीड़ पर कोई भी उपकार नहीं हुआ। अगर ये चाहते तो दंगे के दिनों में काम आते, शरणार्थी समस्या सुलझाने के लिए आगे बढ़ते, विदेशी दासता से मुक्त कराने के लिए सक्रिय बनते, अकाल और बाढ़ पीड़ितों की सेवा में अपने को आगे करते तो आज इनके प्रति शिक्षित समाज में जो घृणा की भावना फैल रही है, न फैलती। आज के संन्यासी सही माने में उन कामरेड कवियों के बड़े भाई हैं जो साहित्य में प्रगतिवादी हैं और जीवन में ‘अवगतिवादी’। आज जबकि राष्ट्र की आवश्यकता इस बात की है कि अधिक उत्पादन बढ़ाएँ, देश की आर्थिक समस्या को ठीक करें और ज़ोर-शोर के साथ उन सभी संकटों का मुक़ाबला करें जिसके कारण हमारा मुल्क अन्य देशों से पिछड़ा हुआ है, यहाँ ये मुफ़्त की रोटी खा-खाकर जनता में अवास्तविक धर्म का इंजेक्शन देकर उन्हें और भी बेकार बना दे रहे हैं।
मेरा मतलब यह नहीं कि सम्पूर्ण साधु-समाज दोषी है। आज भी अनेक लोग जनसेवी हैं। जनता की सेवा में ही उनका जीवन बीत रहा है। उदाहरण के लिए स्वामी दयानन्द, रामकृष्ण, विवेकानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, काष्ठजिह्वा स्वामी, तैलंग स्वामी और कीनाराम बाबा आदि महात्माओं ने जनता जनार्दन की जो सेवाएँ की हैं, उनकी कहानी बन गयी है। ऐसे अनेक संन्यासी आज भी जनता की सेवा में संलग्न हैं जिनका हमें नाम तक नहीं मालूम। लेकिन एक मछली तालाब को गन्दा बना देती है और गेहूँ के साथ घुन भी पीसा जाता है। ठीक यही हाल भारतीय संन्यासियों का है।
भारत को राहत मिले
भारत में भरती के इन संन्यासियों ने मठ-मन्दिर और अखाड़े इतने बेशुमार बनाये हैं कि यदि उन्हें किराये पर उठा दिया जाए तो नागरिकों की गृह समस्या हल हो जाए। उनसे प्रवचन सुनने की जगह उन्हें नहर-बाँध अथवा पंचवर्षीय योजना के अन्य कार्यों में लगा दिया जाए तो वित्तमन्त्री की हर साल टैक्स बढ़ाने की आदत छूट सकती है। अगर इनसे खेती करवाई जाए तो हमें विदेशों से अन्न न मँगाना पड़े। अगर इनसे सेवाकार्य लिया जाए तो भारतीय नागरिकों का स्वास्थ्य स्तर ऊँचा हो जाए, डॉक्टरों की लम्बी फीस से राहत मिले और इन सबके साथ बनारस के सर पर सही-गलत तरीके से लगाया जानेवाला कलंक का टीका हमेशा हमेशा के लिए धुल जाए।
अगर ये लोग चेला बनाकर ही सन्तुष्ट होते तो ठीक था। लेकिन चेलाओं के साथ चेलियों की भी अच्छी-खासी पलटन तैयार है। इनका जमावड़ा भंडारे में देखने में आता है। आश्चर्य है कि परिवार नियोजन के इस युग में संन्यासियों की इतनी बड़ी संख्या रहते हुए भी भारत की जनसंख्या बढ़ती ही जा रही है।
आज का संन्यास धर्म इतना सस्ता हो गया है कि स्कूल-कॉलेज के बच्चे, जो गरीब हैं और फैन्सी ड्रेस प्रतियोगिता में भाग लेना चाहते हैं, वे अधिकतर संन्यासी बनते हैं।