बनारस जेल-अनशन / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
गाजीपुर से बहुतेरे साथियों के साथ हम बनारस जेल भेजे गए। भेजने के पूर्व ही हमारे गले से वह तख्ती (तौक) हटा ली गई। हम इसका रहस्य समझ न सके। बनारस के जिला जेल में हम सभी पहुँचाए गए। वहाँ कुछ लोग पहले ही युक्त प्रांत के और जिलों से लाए जा चुके थे। उनकी संख्या अभी अधिक न थी। लेकिन रोज ही आनेवालों का ताँता बँधा रहता था। वहाँ हमें अपने कपड़े पहनने को मिल गए। खाने-पीने का वहाँ स्वतंत्र प्रबंधथा। लोग अपना खाना बनाने की फिक्र अलग कर लेते थे। इसलिए मेरे खाने का प्रश्न हल हो गया और अनशन की जरूरत नहीं रही। वहीं जेल में काशी के परिचित लोग भी कभी-कभी मिल जाया करते थे। हमारे दंडी साथी भी मिल गए। हाँ, मेरा दंड जेल में साथ ही गया और हिफाजत से पड़ा रहता था। वहीं पर पहले पहल विशेष रूप से श्री कृपलानी से परिचय हुआ। उनके साथ गाँधी-आश्रम (खादी केंद्र) के बीसियों युवक भी थे। श्री संपूर्णानंद जी से तो काशी में मेरा पहले का ही परिचय था। वह भी जेल में आ गए थे। गोरखपुर के बाबा राघव दास से मुलाकात वहीं हुई। युक्तप्रांत के हर जिले के प्राय: तीन-चार सौ राजबंदी वहाँ जमा हो गए थे। उनमें सभीधर्मोंऔर संप्रदायों के माननेवाले लोग थे।
आज जो लोग गाँधीवाद के पुजारी बन गए हैं वह उस समय क्या करते थे इसका नमूना मैंने वहाँ पाया। पता चला कि युक्तप्रांत के सभी जिलों के पहले दर्जे के राजबंदी वहीं रखे जाने को थे। सरकार का यही निश्चय था। इसलिए उसी श्रेणी के लोग वहाँ लाए गए थे। फलत: उनकी मनोवृत्ति से पूरा पता चल जाएगा कि कितनी दूर तक गाँधी जी के आदेशों को वे मानते थे।
एक दिन ऐसा हुआ कि शाम को नियमानुसार गिनती होने में गड़बड़ी हुई। श्री कृपलानी जी का ही दलउसका कारण बना। उन लोगों ने अपने में से एकाधलड़कों को न जाने कैसे-कैसे कई बार छिपाया कि हर बार गिनती पूरी करने पर भी वह ठीक नहीं हो सकी। फिर सेंट्रल जेल के जेलर और उनके आदमी भी आए। रात ज्यादा हो गई, वे गिनती करने लगे। फिर भी सफल होते न देख अंत में'हो गई' कह के वे लोग चलते बने और द्वार बंद कर दिया। तब से उन्हें चिढ़ाने के लिए'हो गई, हो गई' निकाला गया। जेलवालों को देखते ही ये लोग हँस देते और'हो गई, हो गई' कह देते। लोहे के तसलों को कभी-कभी बहुत रात तक ये लोग बजाते रहते औरऊधममचाते रहते। वही एक दल था जो यह सब बातें करता था। आज तो वहीगाँधी जीका पक्का अनुयाई माना जाता है। मिस्टर हार्वी नामक एक ईसाई सज्जन वहाँ के सुपरिंटेंडेंट थे और थे भी बहुत भले। मगर सरकारी नौकर थे यही उनका भारी अपराध था। उन्हें किस कदर हमारे साथियों ने बार-बार दिक्तकिया यह कहा नहीं जा सकता। यह देख कर एक दिन मेरे जी में सहसा यह आया कि मिस्टर हार्वी ही गाँधी जी के आज्ञाधारी इस मानी में हैं कि इतने शांत हैं और हमीं लोग उनकी अपेक्षा जरायमपेशा जैसे मालूम पड़ते हैं।
बाँदा जिले के कुछ लोग वहाँ थे। पता लगा कि उनमें एक लंबी दाढ़ीवाले ब्रह्मचारी जी भी है। वह पीछे एकाएक अनशन करने लग गए। एक-दो दिनों के बाद इसकी चर्चा उनके साथियों में चली और वे लोग भी उसमें पड़ गए। तीन-चार या छ:-सात दिनों के बाद शेष लोगों में भी सनसनी मची और सबों की मीटिंग की तैयारी हुई कि अब बाकियों का क्या कर्त्तव्य है। उसी समय मैं भी बुलाया गया। तभी मुझे पता चला कि यह अनशन हफ्तों से चल रहा है। पहले यह बात इतनी न फैली थी। मीटिंग में मैंने देखा कि सभी लोग अनशन करने की ओर झुक रहे हैं।मुझे ठीक न जँचा। न जाने क्यों मैं स्वभाव से ही अनशन का और खास कर जेल के अनशन का , विरोधीरहा हूँ।
मैंने प्रश्न किया कि आखिर जान देने की तैयारी क्यों की जाए? कोई बड़ा कारण भी तो हो। कहा गया कि जब साथी लोगों ने हफ्तों से कर रखा है तो हमें भी अब उसमें पड़ना ही चाहिए। मैंने कहा कि यह रास्ता ही गलत है। किसी के आगे बढ़ जाने से हमें भी उसमें पड़ना ठीक नहीं। हाँ, अगर जिस उद्देश्य से वे लोग इसमें पड़े हैं वह ठीकहैंऔर उसका तकाजाहैकि हम पड़ें तो जरूरी ही हमें भी अनशन करना चाहिए। लेकिन अगर वही गलतहैतो हमें साफ-साफ उनसे कह देना चाहिए कि वह भी अनशन तोड़ दें।
मगर शान की बात ले कर लोगों ने मेरी बात अनसुनी कर दी। बोले कि अब हफ्तों के बाद उन्हें मना करना ठीक नहीं, वे मानेंगे भी नहीं। अत: हमारी मर्यादा का तकाजा है कि हम इसमें पड़ जाए। यह अजीब दलील थी। लेकिन कुएँ में भाँग पड़ी थी। मेरी सुनता कौन? शान की बात ऐसी ही होती है और इसी ने न जानें कितनों को बर्बाद किया है, पथभ्रष्ट किया है।
बात यह थी कि उक्त ब्रह्मचारी जी का कहना था कि हम तो राजबंदी है, चोर-डाकू हैं नहीं। अत: हमें खूब घी, दूध, हलवा वगैरह खाने को मिलना चाहिए। उन्होंने कितना मिले यह भी कुछ बताया था जो मुझे ठीक याद नहीं। वे अनशन के दिनों में लोकमान्य तिलक का फोटो सामने रख के बराबर बैठे रहते थे। यह बात तो गलत थी, गाँधी जी के आदेश के विपरीत थी और हानिकर भी थी, जैसा कि आगे लिखा है। लेकिन कही तो चुके है कि गाँधी जी की परवाह किसे थी? मर्यादा एवं प्रतिष्ठा (prestige)की बात भी तो थी।
फलत: सबने खाना-पीना छोड़ दिया। लाचार हो कर मुझे भी छोड़ना पड़ा। यह भी बता दूँ कि इससे पूर्व भी दो-एक बार विवश हो कर जेल के बाहर कई वर्ष पूर्व मुझे अनशन करना पड़ा था। एक बार तो छ: दिनों तक कुछ भी खाया-पीया न था। एक बार शायद तीन दिनों तक। बस, यही दो बार। यह तीसरा मौका था। पहली दो बार तो अंतरात्मा की पुकार से मजबूर था। लेकिन इस बार दूसरी ही मजबूरी थी। इसीलिए जहाँ पहले अनशन कतई खले न थे, तहाँ यह तीसरा खूब ही खला। अनशन लगातार चार दिनों तक चलता रहा और चौथे दिन, जहाँ तक याद है, शाम को टूटा। जब भूख लगती तो ठंडा पानी पीने से कुछ शांति मिलती। अनशन का यही कायदा है।
तीन दिनों तक कष्ट बढ़ता गया। मगर चौथे दिन कम हो गया। कहते हैं कि प्राय: तीसरे दिन तक जठरानल तेज होता रहता है। पेट में जो कुछ स्थूल मल या पदार्थ बचा-बचाया रहता है उसे जलाता है। यह बात आम तौर से तीन दिन में हो जाती है। किसी-किसी को चार दिन लगते हैं। ज्यों ही यह काम पूरा हुआ कि जठरानल भीतर घुस के सूक्ष्म मल को जलाने लगता है। फलत: चौथे या पाँचवें दिन भूख की तकलीफ कम हो जाती है। फिर जब सभी मल को जला कर शरीर को शुद्ध और नीरोग कर देता है तो ऊपर आता है। उसकी कोई अवधि नहीं। वह तो संचित सूक्ष्म मल पर निर्भर करता है कि आँत और नाड़ियों में कितना है, कम है या ज्यादा। लेकिन जब मल को जला कर वह एक बार फिर बाहर (ऊपर) आता है तो शरीर में सनसनाहट मालूम होती है। वह झन-झन करता है। इस अवस्था में खाना न मिलने पर रक्त-मांस को जलाने लगता है। तब असली कमजोरी शुरू होती है। अगर देर तक भोजन न मिला तो मौत हो जाती है। क्योंकि खून और मांस को जलाने के बाद कुछ रह जाता नहीं जहाँ प्राण रह सके। उपवास चिकित्सावाले ये सब बातें बताते हैं।
हाँ, तो जब सबने उपवास शुरू किया तो बाहर के मित्र लोग आने लगे और समझाना-बुझाना शुरू हुआ। आखिर, यह तो बेसिर-पैर की बात थी। सो भी उन दिनों जब गाँधी की बातें सबकी जबानों पर थीं। जब नौकरी, कौंसिल की मेंबरी, वकालत, सरकारी रिआयेतें और पदवियाँ आदि सभी चीजों पर हमने लात मारी तो यह मामूली सी खान-पान की रिआयेत किस खेत की मूली ठहरी? फलत: इसे लोग कैसे महत्त्व देते? इसी से बाहर के सभी लोग ताज्जुब में थे कि यह क्या हो रहा है। जेल के बाहर सभी कष्टों को भोगने की तैयारी सबने की थी और जानबूझ कर जेल में आए थे कि यही खाना-पीना मिलेगा। अच्छे खाने-पीने का प्रश्न भी कभी न उठाया, न उठाया गया था। फिर एकाएक यह क्या? बात तो ठीक ही थी।
इसीलिए बाहरी दोस्तों और लोगों के समझाने के बाद आखिर चौथे दिन लोगों को अपनी नादानी सूझी और अनशन तोड़ना पड़ा। यदि मेरी बात मान लेते तो इस जिल्लत से तो बच जाते। यह कह कर संतोष करना कि हमारे बाहरी नेताओं और मित्रों ने विवश किया, कोई समझदारी नहीं। यह तो अनशन तोड़ने के लिए एक बहाना मात्र कहा जा सकता है। क्योंकि अनशन का जो ध्येय था वह तो पूरा न हुआ। सरकार के कानों पर जूँ तक, कम-से-कम उस समय, न रेंगी। पीछे उसके फलस्वरूप सरकार ने भले ही कुछ सोचा हो। क्योंकि शायद कहा जा सकता है कि लखनऊ में फर्स्टक्लास के राज बंदियों को जो खाने-पीने की सुविधा मिली उस पर इस अनशन का असर जरूर था। चाहे जो हो, लेकिन अनशन तोड़ने के समय तो यह बात कुछ भी न थी। फिर भी वह टूटा और सबने खाया-पीया। अगर मैं भूलता नहीं तो उस ब्रह्मचारी जी ने जल्दी में खाने-पीने में ऐसी गड़बड़ी कर दी कि उन्हें हैंजा भी हो गया और शायद वह मर भी गए।
लेकिन अनशन टूटते-न-टूटते सरकार ने तय कर लिया कि बनारस जेल अब फर्स्टक्लास के बंदियों के लिए न रख के लखनऊ जिला जेल ही उनके लिए ठीक किया जाए। यह भी चर्चा होने लगी कि उन्हें अच्छा खाना-पीना यहीं से दिया जाए, या जल्द यहाँ से लखनऊ ही भेजे जाए। ठीक इसी समय मैंने एक पेचीदा प्रश्न उठाया जिसके चलते मुझे दूसरा बड़ा कटु अनुभव हुआ।
हम सबों के साथ हर जिले से सैकड़ों लोग जेल गए थे। अब अगर अच्छे खाने-पीने की बात चलती है तो इसका नैतिक परिणाम बुरा होगा और हममें जो साधारण कैदी रह जाएगे वह क्या समझेंगे? यही न, कि जब बिना स्वराज्य मिले ही सरकार की दी हुई रियायतों को हमने स्वीकार कर लिया और साथियों को यों ही छोड़ दिया, तो स्वराज्य मिलने पर उसकी परवाह कौन करेगा? यही ख्याल रह-रह के मुझे सताता था। यह भी मैं सोचता कि हमारा कितना पतन हो जाएगा अगर हमने ये सुविधाएँ स्वीकार कीं। तब नौकरियाँ, वकालतें, कौंसिलें आदि क्यों छोड़ीं? वह भी तो आखिर सरकार की रिआयेतें ही हैं। यह तो वही हुआ कि 'जन्म भर सेई काशी, पर मरने की बेर मगह के बासी'! यह तो गुनाह बेलज्जतवाली ही बात हो जाएगी और सरकार की भेदनीति पूर्णतया सफल हो जाएगी। क्योंकि हमारे वे साथी जो साधारण कैदी बन के रहेंगे, पीछे हमारा साथ छोड़ देंगे।
मैंने श्री कृपलानी जी तथा औरों के समक्ष यह प्रश्न उठाया और कहा कि मैं तो ये रिआयेतें स्वीकार न करूँगा। उन्होंने भी कहा कि ठीक ही हैं, स्वीकार तो नहीं ही करना चाहिए। लेकिन जब अनशन की बात सोची तो समझना कठिन हो गया कि वह ऐसा क्यों कहते हैं। फिर भी जब सबों की, और खास कर नेताओं की राय हुई तो ठीक ही था। यों तो राय न होने पर भी मैं तो इन्कार करता ही। यह तो सिद्धांत की बात थी और जो आदमी संन्यासी हो कर भी सिद्धांत के ही लिए राजनीति में आया वह सिद्धांत को छोड़ने क्यों लगा? यह भी बात थी कि मैं तो गाँधी जी के आदेशों का पालन अक्षरश: करता था। कष्ट सहन का आदेश तो वे बराबर देते रहते ही थे।
बात यों हुई कि गाजीपुर के चार राजबंदियों को, जिनमें मैं भी एक था, फर्स्टक्लास या फर्स्टडिवीजन का सलूक किया जाना सरकार ने निश्चय किया। सौभाग्य या दुर्भाग्य से सबसे पहले यह बात हमीं लोगों के मत्थे गुजरी। पीछे औरों को भी यह सहूलियतें दी गईं। लेकिन तब तक तो हम बनारस जेल से फैजाबाद जेल में जा चुके थे। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट मिस्टर खारे छाट के आने के पहले जेल सुपरिंटेंडेंट ने हमसे यह कहा। बाकी साथियों से अलग रहने की बात भी हुई। हमने साफ इन्कार किया कि न तो हमें आपके गद्दे चाहिए और न घी, दूध आदि। हम तो ऐसे ही भले हैं। हमारे तीन साथियों ने भी ऐसा ही कहा। इतना ही नहीं। हमने यहाँ तक कह दिया कि आप हमें अपना घी, दूध जबर्दस्ती खिला-पिला नहीं सकते यह याद रहे। फिर मजिस्ट्रेट भी आए। उन्हें भी हमने वही जवाब दिया। इस पर उनने कहा कि तो फिर चक्की चलानी होगी। हमने उत्तर दिया कि उसे तो पहले से ही सोच कर आए हैं। हमारे तीन साथियों ने तो यहाँ तक कह डाला कि चक्की चलाना क्या, गोली भी खाएँगे। हमने यह भी कह दिया कि गाजीपुर के 35 आदमी अब तक जेल में हैं। हम 31 को छोड़ क्यों दें? सब एक ही तरह रहेंगे। फिर तो मजिस्ट्रेट साहब चले गए।
इसके बाद फौरन ही वहाँ से कुल 105 बंदी फैजाबाद जेल भेजे गए जहाँ दूसरे दर्जे या सेकेंड क्लास के कैदी रखे जाने को थे। इस प्रकार हमें चक्की तो फिर भी न मिली। हमने उस समय भी देखा और अपने चले जाने पर तो खासतौर से सुना कि दूसरे जिलों के हमारे साथी बुरी तरह परेशान थे कि उन्हें फर्स्टक्लास मिला या नहीं उनकी बेचैनी का ठिकाना नहीं था। कभी जेलर से, तो कभी औरों से पूछने में सभी के सभी हैंरान थे। खूबी तो यह कि एक ने भी फर्स्ट क्लास इन्कार न किया, सिवाय बाबा राघव दास के, जो हठ करके मामूली कैदियों के लिए बना भोजन ही खाते थे। यह कितने दर्द, कितने आश्चर्य और कितने पतन की बात थी! यह मेरा दूसरा कड़घवा अनुभव था कि गाँधीजी की आज्ञा लोग कहाँ तक मानते हैं।