बन्दों का खुदा, खुदा के बन्दे / अज्ञेय
धूल, धूल, धूल...। प्रातःकाल के नाम पर मेहतर के सीढ़ियाँ उतरने की खटपट फ़्लश के पानी के बह जाने के बाद वह धूम... एक-आध बच्चे का रोना, दो-एक बूढ़े गलों का खंखारना और उबासियाँ लेना, और इन सबको एक सूत्र में गूँथनेवाली दर्जन-झाड़ुओं की रगड़ की आवाज़... और सायंकाल के नाम पर...
आनन्द ने आँखें मूँद लीं और जैसे किसी विभीषिका की कल्पना से काँप-सा गया। उफ़, सभ्य मानव ने क्या बना दिया है उस चिर रहस्यमय विभूति को, जिसे हम जीवन कहते आये हैं। नगरों की सुरक्षितता और कथित व्यवस्था में कैद होकर उसने उस ईश्वर-प्रदत्त जोखिम और अव्यवस्था से बचना चाहा है, जो कि वास्तव में जीवन की परिवर्तनशील और निरन्तर आगे ही आगे बढ़ती रहनेवाली प्रवहमान विविधता है... सभ्यताएँ आयी हैं, ईश्वर के नाम पर उन्होंने नगर बसाये हैं, मनुष्यों के भारी-भारी संघट्ट जुटाये हैं, और अन्त में इतनी भीड़ कर दी है कि वह बिचारा ईश्वर ही बहिष्कृत हो गया है।
आनन्द ने क्षण-भर ठिठक कर आयासपूर्वक इस विचार शृंखला को भी झटक कर तोड़ दिया, और जैसे सौन्दर्य को पा ही लेने के निश्चय से चारों ओर देखा।
चकरौते के ऊपर की यह सड़क घूमती और बल खाती, चीड़ और देवदार और जंगली गुलाब की बड़ी-बड़ी झाड़ियों की आड़ लेती हुई बहुत दूर चली गयी थी और एक मोड़ के पास घनी छाया में अदृश्य हो गयी थी। आनन्द कल ही चकरौते पहुँचा था, पहुँचने के बाद ही उसने गाइड-पुस्तकों में उलट-पलट कर पता लगाया था कि इसी सड़क पर डेढ़-दो मील जाकर एक ऐसा स्थल आता है जहाँ से सुदूर बदरीधाम की हिमाच्छादित पर्वतशृंग-मालाएँ दीखती हैं। सन्ध्या सूर्य के लाल आलोक में यह दृश्य एक नयी भव्यता प्राप्त कर लेगा, यह सोचकर आनन्द तीसरे पहर की लम्बी छायाओं को पैरों तले रौंदता हुआ उधर बढ़ा जा रहा था। चढ़ाई बहुत नहीं थी - उससे दम नहीं फूलता था और जितना आगे झुकना पड़ता था, उतना तो विचार की मुद्रा में आदमी अपने-आप ही झुक जाता है। अतएव आनन्द के विचार-प्रवाह में बाहरी कोई बाधा नहीं थी। किन्तु इसका यह मतलब तो नहीं है न कि आदमी जो कुछ भी जी में आये अनाप-शनाप सोचता ही जाये। न शहर के तंग घरों और तंग दिलों के जीवन के बारे में झूठ-मूठ का दर्शन बघारना चाहता था। उससे परिणाम कुछ नहीं होता, केवल मूड बिगड़ता है। और आनन्द सिद्धान्ततः जानता था कि सौन्दर्य-लाभ के लिए ग्रहणशीलता, एक खुलापन आवश्यक है...
अपने विचारों को उसने यत्नपूर्वक ऐसी दिशा में मोड़ना शुरू किया जो कि उसकी समझ में सौन्दर्य-बोझ के अनुकूल होती है। उसने अपने को याद दिलाया कि वह शहर को पीछे छोड़ आया है, जहाँ कि मकान-मालिक समूचा घर किराये पर देकर खुद गैराज में रहते हैं ताकि पैसा बचे, जहाँ मकान-मालकिन नित्य किरायेदारों से लड़ती है कि पम्प का हैंडल इतने जोर से न चलाया जाय क्योंकि उसकी ढिबरियाँ घिस जाएँगी, जहाँ दिन में किरायेदारों के बच्चे और रात में स्वयं किरायेदार अपने पड़ोसियों की देहरियों पर बैठकर पेशाब करते हैं, और जहाँ... लेकिन अब उस शहर की खूबियाँ क्यों गिनायी जाएँ! शहर तो पीछे रह गया था - अब तो चकरौता है और हिमालय का वह अनिन्द्य-अनन्द्य सौन्दर्य, जिसका आश्वासन गाइड-पुस्तकों ने दिलाया है...
पक्की सड़क का पाट पहले से कुछ तंग हो गया था। सौन्दर्य का पथ राजपथ नहीं है -जितना कि सँकरा होगा उतना ही अधिक भवितव्य की आशा से भरा हुआ। चौड़ी सड़क - ‘बिछी सड़क, चौड़ी चौरंगी, खड़ी लठ-सी तेरह मंजिल की बेशर्म इमारत... गद्दे गुल-गुल... बैठे होंगे राजा थुल-थुल...’ अथवा कि बहुत लड़ने के बाद खुत्थे हुए और नुचे पंखों को फुलाकर फिर एक-दूसरे को ललकारने वाले मुर्गों की तरह आमने-सामने अधफटे और नये विज्ञापन उघाड़ते सिनेमाघर, और दर्शकों की भीड़ें - एक तरफ शानदार चौथे सप्ताह में ‘मेरे साजन’ तो दूसरी तरफ गलपोलिया का अमर शाहकार ‘मर्दमार औरत’ - चौड़ी सड़कों से खुदा बचाये! आनन्द को याद आया कि चकरौते तक में सड़क के उस एकमात्र हिस्से पर, जिसे वास्तव में चौड़ा कहा जा सकता है, यानी चकरौता और कैलाना की सड़कों के सन्धिस्थल पर, उसने जो कुछ देखा वह सब अप्रीतिकर ही था। एक तरफ वहाँ का एकमात्र आमोद-गृह, जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था ‘केवल सैनिकों के लिए’, और उसके नीचे इतराते हुए’, यों कि ये मेमें तो व्यक्ति नहीं हैं... ये तो केवल सैनिकों की साज-सामग्री का एक अनिवार्य अंश हैं... और दूसरी तरफ एक छोटा-सा चाय-घर, जो गुलाबी रंग की लेस के पर्दों से ऐसे सजाया गया था मानो किसी अच्छे यूरोपीय बंगले को बाथरूम, और जो बाहर के बोर्ड से सूचित कर रहा था, ‘केवल यूरोपियनों के लिए’। अजीब प्राणी है मानव। कौए तक को जब रोटी का टुकड़ा पड़ा हुआ दीखता है तो वह उसे उठाने से पहले काँव-काँव करके अपनी बिरादरी को जुटा लेता है। और एक मानव है कि अच्छी चीज देखकर सबसे पहले यह सोचता है कि मैं किस-किस को किससे वंचित रख सकता हूँ। या बहिष्कृत कर सकता हूँ...
फिर दार्शनिकता? आनन्द, याद करो कि तुम चकरौते में ही, जहाँ की हवा भारत-भर की सबसे अधिक स्वास्थ्यकर हवा है, जहाँ के रास्ते भारत भर के सर्वोत्तम सैर के रास्ते हैं... ये उद्धरण गाइड-बुक के हैं तो क्या? उस सड़क के सौन्दर्य ने तुम्हें अभी ही अभिभूत नहीं कर लिया तो क्या? तुम बढ़ तो रहे हो उधर को, चढ़ तो रहे हो ऊपर, ऊपर, उस छत्र की तरफ जहाँ से हिमालय का हृदय दीखता है।
सामने आहट सुनकर आनन्द ने आँख उठाकर देखा। दो गोरे उसी ओर को चले जा रहे थे। उसने अनुभव किया कि अनजाने ही उसकी गति काफी तेज हो गयी थी। अब उसने गति कुछ और बढ़ा दी ताकि इन सैनिकों से आगे निकल जाये। गोरों से उसे घृणा है। इन कमबख्तों ने भारत के तमाम सुन्दर स्थलों को कुरूप कर रखा है... जिस पहाड़ी स्थल पर जाओ, इन ललमुँहों की छावनियाँ उसे भद्दा कर रही हैं। अच्छा बहाना है कि ठंड इनके स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। सहारा के रेगिस्तान में कहाँ की ठंड है? वहाँ क्या ये मर जाते हैं? बियर चढ़ाकर संडे से पड़े रहते हैं। और हमने क्या ठेका लिया है कि इनके लिए ठंडी जगह दें? हर जगह छावनी बनाते हैं और फिर उसका अँग्रेजी नाम रखते हैं : डलहौजी, लैंसडाउप, कैम्बलेपुर, अटपटपुर... कितने दुख की और ग्लानि की बात है कि भारत के अधिकांश सुन्दर स्थलों के नाम विदेशी हों... और तो और, हमारी पवित्रम चोटी गौरीशंकर का नाम इन्होंने एवरेस्ट कर दिया है क्योंकि गौरीशंकर भारत की ही नहीं संसार की उच्चतम चोटी थी। पुराणों ने उसे कैलाश धाम कहा तो इन्होंने एक कम ऊँची चोटी को कैलास नाम से पहचान दिया और नक्शों में लिख दिया। फिर हम लोग कैलाश से उच्चतर गौरीशंकर की बात कहने लगे तो उन्होंने एक-दूसरी चोटी को गोरीशंकर बना दिया। फिर हम लोगों ने तिब्बती नाम जाना तो वह भी एक और चोटी पर चस्पा कर दिया गया... अब अगर हम नाम कोई भारतीय या कम से कम अनांग्लीय नाम सोचेंगे तो उसे भी ‘सी-1’ ‘सी-2’ अथवा ऐसी ही किसी अब तक अनामा चोटी का नाम बता दिया जाएगा। चोटियाँ न होंगी तो कथित एवरेस्ट कोई शीशे का पहाड़ तो है नहीं, उसकी ढाल पर पच्चीसों छुटभैया चट्टानें होंगी... सारांश यह है कि गोरों से उसे घृणा है, घोर घृणा है। उनके पीछे या बराबर वह नहीं चलना चाहता।
लेकिन अब तक तो उनके पैरों की आहट भी आनन्द के पीछे कहीं मौन हो गयी थी। आनन्द उनसे बहुत आगे निकल आया था। सड़क के ऊपर की तरफ एक विशालकीय सिन्दूर वृक्ष के नीचे एक लाल टीन की छतवाला बँगला दीख पड़ा, और कुछ आगे बढ़कर उस बंगले से उतरने वाला रास्ता सड़क में आ मिला। आनन्द को रस्किन का आक्रोश याद आया - जिस तरह के घर इंग्लैंड के समझदार लोग उन्नीसवीं सदी में भी बर्दाश्त नहीं कर सके थे, उसी तरह के घर बीसवीं सदी में भारत पर थोपे जा रहे हैं।
आनन्द न कल्पना करनी चाही कि रस्किन उस समय वहाँ होता तो क्या कहता। लेकिन बँगले के रास्ते से उतरती हुई दो स्त्रियों ने उसकी कल्पना में व्याघात डाला। पाउडर का पलस्तर किये हुए चेहरे, रँगे हुए ओंठ-टीन की लाल रँगी हुई छत - जैसी घर वैसी घरनी और आनन्द फिर अपनी कल्पना की ओर लौट गया - रस्किन क्या कहता है... और रस्किन नहीं, लारेंस होता, बाँका मुहफट लारेंस, तो क्या कहता इन घरों के बार में - और इन घरनियों के बारे में... कहता कि घरों के पेट में, घरनियों के पेड़ू में, जीवनाशक्ति नहीं, भूस भरा है...
लेकिन बँगला भी पीछे रह गया। एकाएक आनन्द ने एक काँपते-से सन्नाटे का अनुभव किया। उसने अनुमान किया कि अब वह छत्री बहुत आगे नहीं होगी। आगे देखा तो धूप लाल नहीं, पर कुछ भूरी अवश्य हो गयी थी, कुछ भूरी-सी और अलसायी-सी; और वृक्षों की छायाएँ इतनी लम्बी हो गयी थीं कि अपनी ओर के पहाड़ को छोड़कर तलहटी के दूसरी पार के शृंगार को छूती-सी जान पड़ती थीं।
जैसे कोई माता नींद से चौंककर अलसायी हुई बाँह बढ़ाकर शिशु को टटोल रही हो पुनः आश्वस्त हो जाने के लिए... आनन्द ने अनुभव किया कि पवन में एक नयी शीतलता आ गयी है जो उसके नासा-पुटों में भर रही है, और मानो उन्हें प्रहर्षित कर रही है। उसने चकित हिरन की तरह मुँह उठाकर और नथुने फुलाकर हवा सूँघी। उससे मानो उसका जी कुछ हल्का हो गया और एक कौतूहल, एक रहस्यमय-प्रतीक्षा भाव उसके मन में जाग्रत होने लगा... अब बहुत देर नहीं हो सकती वह छत्री-इसी अगले मोड़ के आगे ही शायद गाइड-बुक में बतायी हुई खुली जगह आएगी और उस फर्र्लांगभर की हरियाली को लाँघकर दूसरी पार-उस पार... वह पीछे छोड़ आया है शहर को, चौड़ी सड़क को, सिनेमाघरों को, झाड़ुओं से उड़ी हुई धूल को रंगे हुए घर को, ललमुँहे सैनिकों को, गुलाबी पर्दों को, रंगी हुई औरतों को, तमाम रंगी हुई क्षुद्रताओं को-वह बाहर निकल आया है, आगे निकल आया है, द्वार पर खड़ा है मुक्ति, सौन्दर्य से उर्वर हिम-क्षेत्र के निष्ठावान उन्नत-मस्तक देवदारु वृक्षों के वन के... क्षुद्रता की छूत उससे धुल गयी है, एक नये जगत में वह प्रवेश कर रहा है, जहाँ उसके नये सखा उसे मिलेंगे, जहाँ पर्वतधुओं के तुषार-किरीट सूर्य के आशीर्वादमय स्पर्श से हेमल हो रहे होंगे, जहाँ उसके नये सखा उसे मिलेंगे, जहाँ उपत्यकाओं में एक अस्पृश्य-अलौकिक भव्यतता प्रवहमान होगी, जहाँ कुररी के साहसिक आपतन की तन्मयता होगी, जहाँ मुनाल में फैले हुए पंखों का झलमल इन्द्रधनुष होगा, ‘जहाँ भवितव्य की प्रतीक्षा से मुग्ध मुनाली रोमांचित देह को सँभालती हुई बाँके प्रणयार्थियों का रंग-तांडव देख रही होगी, जहाँ स्वच्छ वायु अपने ही आन्तरिक उल्लास को सँभाल न पाकर झूम उठती होगी, सूर्य अपने दिन भर के प्राणोन्मेषकारी उद्योग की सफलता देखकर हँस उठता होगा, जहाँ रेंगते गिरगिट भी सौन्दर्य के रहस्यमय आवरण में चमक उठते होंगे...
मुक्ति के द्वार पर, जहाँ मानव ईश्वर को प्रतिबिम्बित करता है, जहाँ ईश्वर मानव की शक्ति का प्रक्षेपण हो जाता है, जहाँ ईश्वर और मानव का साक्षात्कार होता है जीवन के अन्तिम, चरम एकान्त में - निभृत, आवाक्, रहस्यमय साक्षात् संगम - किसी चीनी दार्शनिक ने कहा, “जब मैं आनन्दित होता हूँ तब मैं मौन होता हूँ। मौन ही आनन्द की चरमावस्था है, मौन ही परम सत्य है। मौन ही परम चिन्मतता है।”
आनन्द ने वह खुली जगह भी पार कर ली थी-सामने हरे रंग से रँगी होने के कारण नीचे की घास से एकप्राण छत्री थी, जिसके अन्दर प्रविष्ट होने पर सामने की ओर खुल जाएगा सौन्दर्य का अन्तिम रहस्य फट जाएगा उसका झीना आवरण-
तब आनन्द की उद्दीप्त चेतना की अवस्था में तीव्र गति से घटनाएँ घटने लगीं।
छत्री के पिछवाड़े के किवाड़ पर खड़िया से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था। “यहाँ बैठानेवाले की माँ की-”
आनन्द किवाड़ खोल चुका था, लेकिन उसका हाथ अवश हो चला - भटकती सी, अनिश्चय-सी आँखें छत्री के अन्दर पड़ी हुई बेंच की पीठ की पट्टी पर टिक गयी - बेंच का रुख परली तरफ को था, सौन्दर्य के रहस्यगार की तरफ को-
आनन्द की अनिश्चित दृष्टि की ओर बेंच की पट्टी पर की अधपड़े हाथ की लिखावट -आनन्द के हत-निश्चय मन में एक प्रश्न, कि क्यों मैंने यात्रा के अन्त में उस बात की उपेक्षा नहीं कि जो यात्रा के साधन रेलगाड़ी के प्रत्येक डिब्बे में मैंने देखी थी, क्यों मुक्ति की कल्पना की उससे जो कि मैं अपने साथ लेकर आया हूँ-
“इस बेंच पर बैठने वाले की-”
शेष बुझ गया था या मन्द पड़ गया था-या लड़खड़ा कर गिरने के से हृत्कम्प से दर्शक की आँखों की रोशनी मन्द पड़ गयी थी।
‘जब मैं आनन्दित होता हूँ तब मैं मौन होता हूँ - हाँ, मैं अवाक् होता हूँ, अवाक्-निभृत, अवाक्, रहस्मयमय साक्षात्कार - मानव का प्रतिबिम्ब ईश्वर, ईश्वर का प्रतिबिम्ब मानव - बन्दों का खुदा, खुदा के बन्दे-’
(दिल्ली, मार्च 1941)