बन्द कमरे में क़ब्रगाह / राजकमल चौधरी

Gadya Kosh से
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आदमी कुछ कहना चाहता है मगर एक ऐसा क्षण भी आता है जब उसकी आवाज सीने में दबी रह जाती है और वह कह नहीं पाता। कह भी दे तो कोई उसकी बात समझ नहीं पाता। जरूरी नहीं कि वह बात प्यार की ही हो। प्यार जरूरी नहीं है; जरूरी है जिन्सी हविस-वह जंगली पागलपन जिसने सभ्यता के इस दौर में भी हमें सभ्य नहीं रहने दिया है। औरत और शराब, शराब और वहशत, वहशत और औरत और फिर शराब! जिंदगी एक ऐसा मर्सिया बन जाती है, जिसे आदमी खुद अपनी मौत के लिए रचता है। मौत आदमी की मंजिल है, मौत आदमी की इंतहा है। आदमी मौत के भय से ही जंगल का जानवर बन जाता है और अंधेरे में भागता रहता है। वह भागता है हर आवाज से, उजाले की हर किरण से, दिल की हर पुकार से, अपने आप से भी।

वह जगली जानवर मैं हूं, और कोई नहीं। आदम-कद शीशे में अपनी शक्ल देखता हूं तो वहां कोई आदमी नहीं पाता, एक नंगा और पागल जानवर पाता हूं। उसकी निगाहों में नफरत होती है-नफरत, दुनिया की हर चीज के लिए, सिर्फ नफरत! इस नफरत की दवा है शराब, शराब और औरत।

रंगमहल स्टूडियो के अपने दफ्तर में बैठा हुआ मैं ऐसी ही बातें सोच रहा था। मेरे सामने टेबिल पर पांव रखे हुए बैठा अमरनाथ ला-कॉरोना सिगार पी रहा था। अमरनाथ की बगल में बैठी नीलगिरि कभी मेरी ओर और कभी अमरनाथ की ओर अपनी बेजरूरत मुस्कराहट फेंक रही थी। उसके जूड़े के सफेद फूल उस बेहद गर्मी में मुरझा रहे थे और चेहरे का मेकअप पसीने में गीला हुआ जा रहा था। नीलगिरि का असली नाम शायद कुछ और था-मिस सिल्विया या मिस सोफिया, या ऐसा ही कोई और नाम। वह सांवली-सी मद्रासी लड़की थी और अमरनाथ ने यों ही उसे नीलगिरि पुकारना शुरू कर दिया था। यह नाम मुझे पसंद आ गया था। हमने तय कर लिया कि यही नाम पुकारा जाएगा। बहरहाल, नाम में क्या रखा है? नीलगिरि ही सही!

वह पहले किसी दफ्तर में टाइपिस्ट थी। वह हर शाम अपने दफ्तर के नए अफसरों के साथ ब्लूरूम रेस्तरां में जाती थी और मुस्कराती रहती थी। फिर वह अमरनाथ को पसंद आ गई-मुस्कराहटों के कारण नहीं, अपने शरीर के कारण। भरे हुए शरीर में वह बेहद कुंवारी दिखती थी। चेहरे पर बच्चों की तरह भोलापन। आंखों में नशा नहीं, केवल सादगी। कभी-कभी सादगी भी पूरी ताकत से अपनी तरफ खींचती है। अमरनाथ खिंच गया।

एक दिन वह सुबह-सुबह मेरे पास आया और बोला, “कमल बाबू, तुम्हें एक कहानी लिखनी है। मैं आदिवासियों के जीवन पर एक फिल्म बनाने जा रहा हूं। तुम हफ्ते भर में एक कहानी तैयार कर दोगे?”

“कितने पैसे दोगे, और कैसी कहानी चाहिए, मुझे बता दो। फिर कम-से-कम पांच सौ रुपए एडवांस दे दो। कहानी तैयार हो जाएगी।” -मैंने लेखक की तरह नहीं, किसी सौदागर की तरह कहा। मैं जानता हूं, अमरनाथ से ऐसे ही कहना चाहिए। नहीं तो कहानी नहीं बनेगी, पैसे नहीं मिलेंगे। वैसे यह सिर्फ फिल्म प्रोड्यूसर ही नहीं, मेरा दोस्त भी है और जरूरत के वक्त मदद करता है। पैसे रहें तो अच्छी शराब से इनकार नहीं करता। लाखों रुपए फिल्मों से पैदा कर चुका है। लाखों रुपए ऐसे धोखों में गंवा चुका है। कहता है-‘जिंदगी जुआ है और मैं दांव पर अपनी हर चीज लगा सकता हूं।‘

उसने हर चीज दांव पर लगा दी। उसकी बड़ी लड़की पागल होकर रांची के एसाइलम में पड़ी है। उसकी पहली बीवी ने तलाक ले लिया है। दूसरी बीवी अलग रहती है। पैसे लेने हों, तभी वह अमरनाथ के पास आती है। अमरनाथ किसी ंबात की परवाह नहीं करता। शराब और औरत, और इन सबके लिए रेसकोर्स और फिल्म स्टूडियो! सात नंबर का किंग ऑफ होनोलूल, प्रोडक्शन नंबर ग्यारह की फिल्म ‘रात बीत जाएगी‘ तेज दौड़ने वाले घोड़े, तेज नशे वाली शराब, तेज चलने वाली फिल्में, तेज औरतें! अमरनाथ को तेजी का नशा है। तेज चलो, और तेज! एक्सीडेंट की परवाह अमरनाथ नहीं करता।

उसने चेकबुक निकाली, “बेयरर चेक दे रहा हूं। रुपए निकाल लेना। हफ्ते भर बाद कहानी के साथ रंगमहल स्टूडियो में मिलो। मैं सोचता हूं, हीरो के लिए रामकुमार को बुक कर लूं। चंदनसिंह का म्यूजिक और फिरदौसी की फोटोग्राफी...क्यों ठीक रहेगा न?”

“हीरोइन किसे बनाओगे?” मैं पूछता हूं, “हीरोइन जैसी होगी, वैसी ही मैं कहानी लिखूंगा। श्यामाकुमारी हीरोइन होती है तो मेरी कहानी रूप के बाजार के इर्द-गिर्द घूमती रहती है और कनकलता होती है तो मैं अपनी कहानी को दार्जिलिंग और आसाम की पहाड़ियों में ले जाता हूं। कहानी को हीरोइन के आसपास रहना चाहिए ताकि फिल्म को अपनी एक खास पर्सनैलिटी मिल सके।” अमरनाथ कहता है, “हीरोइन होगी मिस नीलगिरि।”

“यह लड़की कौन है? किसी एक्स्ट्रा को लिफ्ट देना चाहते हो क्या?” मुझे आश्चर्य होता है। अमरनाथ कभी ऐसी-वैसी लड़की को लिफ्ट नहीं देता है।

“अरे वही लड़की है, जो ब्लूरूम रेस्तरां में आती है! मद्रासी लड़की है, भरतनाट्यम जानती है। फिलहाल एक दफ्तर में टाइपिस्ट है। क्यों, तुम्हें पसंद नहीं? कल उसे मैं स्टूडियो ले गया था। आवाज ठीक है। फोटोग्राफ भी अच्छे आते हैं। टेस्ट अच्छा ही रहा है। क्यों, तुम्हें पसंद नहीं?” -अमरनाथ कहता है और फोलियोबैग से नीलगिरि की तस्वीरें निकालकर दिखाने लगता है। तस्वीरों में उसका सांवलापन और भी घना हो गया है। आंखों में सादगी नहीं, खुशी की चमक है। अजंता की लड़कियों की तरह होठ, भुवनेश्वर की यक्षिणियों की तरह नितंब। हल्के कपड़ों में शरीर के चढ़ाव-उतार और भी उभर आए हैं। नीलगिरि औरत नहीं, औरत की एक बेहद खूबसूरत तस्वीर है।

और आज यह तस्वीर कभी मेरी ओर और कभी अमरनाथ की ओर देखकर मुस्करा रही है। रंगमहल स्टूडियो का मैनेजर अजीत बनर्जी आ गया। आते ही बोलने लगा, “कल और परसों दो दिन आप लोगों के लिए स्टूडियो-थ्री और स्टूडियो-फाइव बुक करा दिया है। आप नंबर सिक्स में शाट्स ले लीजिए। अभी आपका कौन-सा सेट चल रहा है?”

अमरनाथ चुप रह जाता है। कुछ बोलता नहीं। वह सोच रहा है। अगर ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला नहीं आया, अगर उसने फिनान्स नहीं किया तो कल शूटिंग नहीं हो सकेगी। रामकुमार हीरो है। उसे कल सुबह कम-से-कम तीस हजार रुपए एडवांस चाहिए। अगर ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला राजी नहीं हुआ तो? तो मिस नीलगिरि और रामकुमार की फिल्म, अमरनाथ की फिल्म, आदिवासियों के जीवन की क्लासिक फिल्म ‘जंगल का गीत‘ नहीं बन पाएगी। अमरनाथ चालीस हजार रुपए लगा चुका है। अजंता डिस्ट्रीब्यूटर्स वाले साठ हजार रुपए लगा चुके हैं। अभी तुरंत पचास हजार रुपए तो चाहिए ही। बाद में मध्य प्रदेश और बंगाल की टेरिटरी बिक जाएगी तब फिल्म पूरी हो जाएगी और रिलीज भी हो जाएगी। मगर अभी पचास हजार रुपए!

अजीत बनर्जी चला गया। टेबिल पर पांव फैलाए अमरनाथ मन-ही-मन हिसाब लगाता रहा। नीलगिरि मुस्कराती रही। सिर के ऊपर सीलिंग फैन की हवा कितनी गर्म है! दूर, स्टूडियो के मैदान में किसी फिल्म की आउटडोर शूटिंग चल रही है। ऐतिहासिक फिल्म की लड़ाई। कमर में तलवार बांधे, नकली दाढ़ी-मूंछें लगाए एक्स्ट्राओं की फौज यहां-वहां दौड़ रही है। कैमरामैन चीख रहा है, डायरेक्टर चीख रहा है। नकली जख्म खाए हुए सिपाही चीख रहे हैं।

तभी स्टूडियो के फाटक के सामने बड़ी-सी किंग्सवे रुकी। फाटक खोल दिया गया। गाड़ी अंदर चली आई। गाड़ी में बैठा हुआ मोटा सेठ ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला अंदर चला आया। ब्रह्मदत्त पांच जूट मिलों और दो इस्पात के कारखानों का मालिक है। अब पहली बार फिल्म में पैसा लगा रहा है। क्यों लगा रहा है? अमरनाथ ने मिस्त्रीवाला से कहा है कि मिस नीलगिरि कुल सत्रह साल की है, एकदम अनछुई, बिल्कुल फ्रेश! मैंने भी अमरनाथ की बात की ताईद की है, हालांकि मुझे पता नहीं! मैंने नीलगिरि को कभी खास नजर से देखा नहीं। आधी फिल्म की शूटिंग हो चुकी है। सभी गानों के ‘टेक‘ हो चुके हैं। आउटडोर पूरा हो चुका है। अमरनाथ की फिल्म-यूनिट के साथ नीलगिरि सुंदरबन के जंगलों, नैनीताल की झीलों और आसाम की पहाड़ी घाटियों में जा चुकी है। वह मुस्करा देती है, और लोगों का गुस्सा ठंडा पड़ जाता है। वह मुस्करा देती है और लोगों की आग बुझ जाती है मगर, ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला?

ब्रह्मदत्त बेहद मोटा है। उसकी आवाज बेहद भारी है। सूट पहनता है और पगड़ी बांधता है। सिगार नहीं पीता, शराब पीता है। मैं उससे कुल दो बार मिला हूं, और दोनों बार वह मुझे जूट और इस्पात का मालिक नहीं, किसी पवित्र हिंदू भोजनालय का पंडित दिखा है। इस पंडित के आते ही अमरनाथ उछलकर बरामदे से नीचे कूद गया और बोला, “ब्रह्मदत्त! तुम गाड़ी में ही बैठे रहो। हम अभी चलते हैं, पार्क स्ट्रीट में चलकर बैठेंगे।”

बात पहले से तय थी। अमरनाथ दरवाजा खोलकर ड्राइवर के पासवाली सीट पर बैठ गया। मैंने पिछला दरवाजा खोल दिया। डरी हुई बिल्ली की तरह नीलगिरि कार के स्प्रिंगदार गद्दे में धंस गई। मैं उसकी बगल में बैठा। मिस्त्रीवाला खुद गाड़ी चला रहा था। किंग्सवे वापस सड़क पर आ गई। सुभाष बोस स्ट्रीट, टालीगंज, रासबिहारी एवेन्यू, लैंसडाउन रोड, हैरिंग्टन रोड और पार्क स्ट्रीट। पार्क स्ट्रीट में एक बहुत बड़ा मकान है-करनानी मैन्शन। राजकपूर की फिल्म ‘जागते रहो‘ की पूरी शूटिंग इसी एक बिल्डिंग में हुई थी। पूरी बिल्डिंग में लगभग दो हजार फ्लैट हैं। आठ मंजिल का मकान, लंबे-लंबे बरामदे, ऊंची सीढ़ियां, लिफ्ट, कोरीडोर, बालकनी, बरामदे, अंधेरा, उजाला, धुंधलापन। एंग्लोइंडियन औरतें खड़ी हैं। नीचे लगातार मोटर गाड़ियां। लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं। इसी मकान में ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला ने अपने लिए एक प्राइवेट फ्लैट ले रखा है। बात पहले से तय है, पहले से तय रहती ही है। बोलने की जरूरत नहीं, इशारा काफी है। और अभी तो शाम ही हुई है!

मुझे वह शाम याद आती है, जब आउटडोर शूटिंग के वक्त नीलगिरि ने फोटोग्राफर फिरदौसी के गालों पर लगातार तमाचे जड़ दिए थे और खुद रोने लगी थी। मुझे कई शामें याद आती हैं, मगर बात पहले से तय है। मैं जानता हूं, अमरनाथ जानता है पर नीलगिरि नहीं जानती। उसे बताया नहीं गया है।

फ्लैट का दरवाजा खुल गया। मिस्त्रीवाला का खास बेयरा यहां तैनात रहता है। हम लोग ड्राइंगरूम में बैठ गए। ड्राइंगरूम में ही एक ओर बड़ा-सा पलंग है। पलंग एक सिंबल है, एक प्रतीक है। नाव की शक्ल का पलंग और फर्श पर रंगीन पत्थरों की लहरें बनाई गई हैं। क्या यह नाव डूब जाएगी? पत्थरों में डूब जाएगी?

नीलगिरि मुस्कराती है और कहती है, “अमरनाथ भाई, मुझे प्यास लगी है। उफ कितनी गर्मी है!”

“अभी मंगवाता हूं” -सोफे पर नीलगिरि की बगल में कुछ धंसता हुआ सेठ मिस्त्रीवाला कहता है। नीलगिरि पसीने से भीग रही है। लो-कट ब्जाउज बदन से चिपक गया है। ब्लाउज के नीचे से मेंडेस की ब्रेसरी के गोल तिकोने कप झांक रहे हैं। बेयरा कपबोर्ड से चार गिलास और स्कॉच की चौड़ी बोतल निकालकर बीच के टेबिल पर रखता है। बोतल देखकर नीलगिरि थरथराने लगती है-जैसे वह थरथराती हुई सोफे से फिसलकर फर्श पर गिर पड़ेगी। बेयरा बड़े ही अदब और प्यार से बोतल खोलकर गिलासों में बराबर-बराबर शराब डालता है। मिस्त्रीवाला कहता है, “अब प्यास बुझ जाएगी।”

और अमरनाथ कहता है, “नर्वस मत हो, नीलगिरि! यह ठर्रा नहीं, असली स्कॉच है।”

मैं किसी का इंतजार नहीं करता, गिलास उठाता हूं और गले से नीचे उतार लेता हूं। सोडा डालने की मुझे जरूरत नहीं है। मगर नीलगिरि? अमरनाथ की आंखें नीलगिरि से कहती हैं, “पूरे पचास हजार की बात है, नीलगिरि! पचास हजार रुपए बहुत होते हैं।”

नीलगिरि मेरी ओर देखती है, दो क्षण देखती रहती है और ग्लास उठाकर पूरी शराब पी जाती है। गले में शराब जाते ही वह नीलगिरि मर गई जिसने फिरदौसी की, डिस्ट्रीब्यूटर श्यामलाल की और असिस्टेंट डायरेक्टर धीरज मेहता की बार-बार इन्सल्ट की थी-ठीक ऐसे ही जैसे जंगल की शेरनी हाथी के बच्चे की इन्सल्ट करती है। मगर, स्कॉच के ग्लास के बाद शेरनी ने कहा, “एक सिगरेट तो पिलाओ अमरनाथ!”

और, बात तय हो गई। शराब के दूसरे दौर के बाद अमरनाथ ने एग्रीमेंट के कागज अपने फोलियोबैग से निकाले। ब्रह्मदत्त ने कोट की जेब से चेकबुक और फाउंटेनपेन निकाला और कागजात पर दस्तख्त हो गए। सेठ ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला फिल्म ‘जगल का गीत‘ में पचास हजार रुपए लगा रहा है। कल सुबह दस बजे मिस्त्रीवाला इंडस्ट्रीज के पचास हजार रुपए अमरनाथ फिल्म्स के एकाउंट में चले जाएंगे। बात तय होते ही मिस्त्रीवाला ने बेयरा से कहा, “बाहर से दरवाजा बंद कर दो। जरूरत होगी तो तुम्हें पुकार लूंगा।”

“हम लोग भी बाहर चले जाएं, ब्रह्मदत्त भाई!” अमरनाथ ने पूछा। मिस्त्रीवाला हंसने लगा। बोला, “यहां बैठो यार, और स्कॉच पियो। आसपास दोस्त रहते हैं तो ज्यादा मजा आता है।”

ब्रह्मदत्त की इस बात पर भी नीलगिरि शरमाई नहीं। आंखें फैलाए, सोफे पर बांहें खोले मुझे और अमरनाथ को देखती रही। मैं डरने लगा, मैंने कहा, “मैं बाहर जाता हूं।”

मुझे रोकती हुई, नीलगिरि बोली, “कहां जाओगे जी? यहीं बैठो!”

मैं बैठा रहा। हम दोनों स्कॉच की बोतल खाली करते रहे। मेरे लिए यह एकदम नई बात थी। आदमी एकांत चाहता है, अंधेरा चाहत है, रहस्य चाहता है। मगर मिस्त्रीवाला? यह नीलगिरि? पार्क स्ट्रीट की यह शाम? सेठ ब्रह्मदत्त उठा और बड़े तरीके से हैंगर पर अपना कोट, शर्ट, टाई और ट्राउजर डालने लगा। फिर उसने सारी बत्तियां बुझा दीं। सिर्फ जलता रहा एक नीला बल्व। नीली रोशनी में नीली आग की तरह जलती रही नीलगिरि। वह चुपचाप बैठी रही बांहें फैलाए, गीत गुनगुनाती हुई-जंगल का गीत, आदिम गीत।

ब्रह्मदत्त ने कहा, “कपड़े उतार डालो, नीलू। क्रीज मसक जाएगी।”

“नहीं!” -नीलगिरि ने कहा और हमारी ओर देखती हुई मुस्कराती रही। मैं डरता रहा। अमरनाथ हाथ में गिलास लिए हुए शरमाता रहा। ब्रह्मदत्त पास आ गया। उसने अमरनाथ का गिलास छीन लिया और एक ही सांस में खाली कर दिया। फिर वह सोफे की ओर मुड़ा। वह अंडरवियर बनियान पहने था। नीलगिरि वैसे ही बैठी थी मुस्कराती हुई, बांहें फैलाए। दोनों हाथों से उसने सोफे को कसकर पकड़ रखा था। मिस्त्रीवाला ने कहा, “पलंग पर चलो नीलू, यहां तुम्हें तकलीफ होगी।”

“नहीं,” नीलू ने कहा, और हमारी ओर देखती हुई मुस्कराती रही जैसे वह स्टूडियो के सेट पर हो और द्रौपदी चीरहरण की शूटिंग में हिस्सा ले रही हो, जैसे वह द्रौपदी नहीं, कृष्ण हो, कृष्ण भी नहीं, दुश्शासन हो। वह नीलगिरि नहीं, दुश्शासन है और ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला, द्रौपदी है। नाटक उल्टा चल रहा है। शूटिंग गलत हो रही है। डायरेक्टर चीखना चाहता है, ‘कट करो, शूटिंग रोक दो‘ मगर गले से आवाज नहीं निकल रही है। अमरनाथ चुपचाप अपने गिलास में स्कॉच डाल रहा है। नीलगिरि मुस्कराए जा रही है।

मिस्त्रीवाला को अचानक बहुत गर्मी महसूस हुई। चालीस साल का अधेड़ राक्षस ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला, सत्रह साल की परियों की राजकुमारी नीलगिरि! नाटक उल्टा चल रहा है। शूटिंग गलत हो रही है। डायरेक्टर के गले से आवाज नहीं निकल रही। ऐसा क्षण आ गया है जब आवाज सीने के अंदर ही गूंजती-तड़पती रह जाती है, बाहर नहीं निकल पाती। कोई कुछ बोल नहीं पाता। बोलने की जरूरत नहीं है। हवा रुक गई है, मौसम थम गया है, आवाजें और वक्त, और यह जिंदगी पार्क स्ट्रीट के एक मकान के एक बंद कमरे में रुक गई है।

नीलगिरि खिलखिलाने लगती है, जैसे दुनिया की हर बात से बेफिक्र बच्चे खिलखिलाते हैं। ब्रह्मदत्त उसकी ओर बढ़ता है मगर नीलगिरि की पीठ सोफे की दीवार से जुड़-सी गई है। प्यार आसान नहीं, वहशत आसान है, जंगली जानवर बनना बहुत आसान है।

नीलगिरि अपना बचाव नहीं कर रही। वह अचानक चुप हो जाती है, पत्थर की तरह सख्त हो जाती है, सिकुड़ जाती है और ठंडी पड़ जाती है-जैसे मर चुकी हो। जैसे नीलगिरि नहीं, मिस्त्रीवाला की गोद में एक लाश है, एक पत्थर की मूरत, अजंता या भुवनेश्वर या खजुराहो की प्रस्तर मूरत। मैं शर्म से मर चुका हूं और अमरनाथ पचास हजार रुपयों में मर चुका है। रात हो गई है-काली रात, मौत जैसी रात!

तभी एकाएक नीलगिरि आंखें खोल देती है और रेशम के गोले की तरह मिस्त्रीवाला की गोद से नीचे फर्श पर फिसल पड़ती है। फिसल पड़ती है और मुस्कराती हुई बड़े प्यारे लहजे में कहती है, “धूर्त! बस इतनी ही मर्दुमी रखते हो?”

ब्रह्मदत्त सोफे से नीचे उतरने की कोशिश करता है मगर उसके पांव थरथराने लगते हैं। वह नीलगिरि का हाथ खींचना चाहता है। मगर वक्त बीत गया है और ‘जंगल का गीत‘ फिल्म के दस्तावेज पर दस्तखत हो चुके हैं!

-नीहारिका, फरवरी 1964