बन्द कर लो द्वार / पूनम चौधरी

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रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का हाइकु-संग्रह 'बंद कर लो द्वार' आधुनिक हिन्दी काव्य में प्रयोग, संवेदना और आंतरिक अनुशासन का अप्रतिम उदाहरण है। तीन पंक्तियों में बंध कर जीवन का दर्शन व्यक्त कर देना—यह मात्र काव्य चमत्कार नहीं; बल्कि अनुभूति की साधना है। इस संग्रह के हर हाइकु में शब्दों का नहीं; बल्कि चुप्पी का विस्तार है, ये विराम की भाषा है। यहाँ प्रकृति, मनुष्य, समय, पीड़ा, स्मृति, प्रेम और मृत्यु—सब कुछ इतने सूक्ष्म और आत्मीय रूप में उपस्थित हैं कि पाठक को बार-बार लगता है कवि बहुत निकट से उसके हिरदय के कोमल तंतु छू रहा है।

इस संग्रह का शीर्षक ही एक विशेष भाव लिये है, यह शीर्षक एक साथ चेतावनी, आत्ममंथन और ध्यान का आमंत्रण है। यह द्वार बाहर की दुनिया का भी हो सकता है और भीतर के मन का भी। कवि कहता है—

दिन डूबा है

बंद करलो द्वार

विदा दो अब!

यह केवल भौतिक सुरक्षा का संकेत नहीं; बल्कि आत्मा के भीतर की यात्रा का आरंभ है। आधुनिक मनुष्य जो निरंतर भागदौड़ में अपनी शांति खो चुका है, उसके लिए यह शीर्षक एक ध्यान-सूत्र बन जाता है—द्वार बंद करने का अर्थ है संसार की भीड़ से हटकर स्वयं में उतर जाना।

'हिमांशु' का हाइकु-संसार जापानी अनुशासन का अनुकरण नहीं; बल्कि भारतीय अनुभूति का विस्तार है। उन्होंने हाइकु के तीन पंक्तियों के रूप को अपनाया, परंतु उसमें भारतीय भावलोक को प्रत्यारोपित किया। उदाहरण के लिए उनका यह हाइकु देखिए–

हुई अँजोर

बज उठी साँकल

खोलो जी द्वार!

कवि सब तर्कों, विवादों और प्रतिरोधों से थककर आत्मा की शांति की ओर लौटना चाहता है। वह हाइकु को विपरीत भावों के संतुलन का शिल्प बनाता है—पीड़ा और सौंदर्य, मृत्यु और जीवन, हानि और उपलब्धि, मौन और शब्द—ये सब उसके काव्य में साथ-साथ चलते हैं।

कवि की दृष्टि में जीवन किसी नाटकीय घटना का नाम नहीं; बल्कि सूक्ष्म प्रवाह है। उसका हाइकु जीवन को 'क्षण' के रूप में देखता है—वह क्षण जो एक फूल के झरने, एक आहट के सुनाई देने या एक मौन के उतरने में बीत जाता है। उदाहरण के लिए-

थकीं लहरें

बाँचे अनवरत

तीर की पीर।

यहाँ कवि प्रकृति के माध्यम से अपने ही मन से संवाद करता है। लहरें केवल एक प्रतीक नहीं बल्कि जीवन में अनवरत गति की सूचक है, उसकी पुकार में एक आत्मिक थकान है—एक ऐसी थकान जो आधुनिक मनुष्य के भीतर गूँजती है।

'हिमांशु' जी के हाइकु की सबसे बड़ी शक्ति उसका संवेदनात्मक अनुशासन है। वह भावुक नहीं होते, परंतु काव्य हृदय को छू जाता है। उनकी कविता नाटकीय नहीं, परंतु मर्मस्पर्शी है। तीन पंक्तियों के भीतर वह पूरे मनुष्य की व्यथा को रख देता है। उदाहरण के लिए—

दुःख-पहाड़

तो सुख राई भर,

वो भी बिखरे।

उनके दु: ख, उनकी व्यथा सुख के टुकड़े की आस में भी कम हो रही है, यह सकारात्मक हमें केवल हिमांशु जी के हाइकु को में ही मिलती है।

घना अँधेरा

सिर्फ़ एक रौशनी

नाम तुम्हारा।

अथवा

जग है क्रूर

तेरा सहारा सिर्फ़

जीने की आस।

यह हाइकु संक्षेप में प्रेम और विरह की त्रासदी कह देता है। यहाँ हर दु: ख का केवल एक ही उपचार है पूरा चित्र ही इस प्रेम के आस पर कवि खींचता है, यह बिंब केवल अनुभव की गहराई से संभव है, शब्दों के कौशल से नहीं।

इस संग्रह में प्रेम किसी रोमानी उत्सव का नहीं; बल्कि आत्मिक बोध का अनुभव है। कवि प्रेम को त्याग और मौन की भाषा में देखता है। यह प्रेम सात्विक और निस्वार्थ है।

नेह के नीर!

हर लेना प्रिय की

तू सारी पीर।

यहाँ प्रेम वियोग नहीं, जागरण बन जाता है। यह प्रेम मीरा की तरह समर्पित है, परंतु कबीर की तरह आत्मनिर्भर भी।

संग्रह का एक बड़ा पक्ष प्रकृति-बोध है। हिमांशु जी प्रकृति को केवल दृश्य नहीं; बल्कि आत्मा का प्रतिबिंब मानते हैं। उनके हाइकु में हर पेड़, हर पत्ता, हर नदी बोलती है। वह प्रकृति को मानवीय बना देते हैं और मनुष्य को प्राकृतिक। देखें—

पर्ण-पर्ण में

अम्लान छवि तेरी

आद्या अपर्णा।

अथवा

पहाड़ी नदी

बालखाती कमर

किसी मुग्धा की।

यह तीन पंक्तियाँ नदी का मानवीकरण कर दिया गया है। कवि जिस तरह से प्रकृति के चित्र रचता है वह पाठक को भाव विभोर कर देता है।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की कविताओं में संवेदना का संयमित ताप है। उनका हाइकु कभी चीखता नहीं, वह धीरे-धीरे भीतर उतरता है। वह पाठक से आग्रह करता है कि वह भी मौन हो, तभी कविता बोलेगी। यह उनकी आस्था का शिल्प है—*कविता तब जन्म लेती है जब शब्द मौन के निकट पहुँचता है। *

उनका एक हाइकु है—

कुछ तो बोलो

द्वार मन का खोलो

टूटे सन्नाटा।

यहाँ कवि स्वयं अपने भावों से मुक्त होना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि अत्यधिक भावुकता सत्य की आँखें ढँक देती है। इस दृष्टि से उनका हाइकु केवल कविता नहीं, साधना है—भावों से होकर निर्भाव तक की यात्रा।

संग्रह की एक और विशेषता है संवादात्मकता। कवि बार-बार अपने आप से, अपने प्रिय से, प्रकृति से और कभी-कभी परमात्मा से संवाद करता है। उसकी कविता में एक प्रश्न है, जो हर हृदय के भीतर गूँजता है,

कुछ तो कहो

घना हुआ अँधेरा

हाथ ये गहो।

'बंद कर लो द्वार' में कवि ने मृत्यु को भी बड़ी सहजता से स्वीकार किया है। मृत्यु उसके लिए भय नहीं; बल्कि आत्मा की अगली लय है। एक जगह वह लिखते हैं

जीवन साँझ

अनुताप क्यों करे

दीप जलाएँ

यह हाइकु मृत्यु को एक उत्सव के रूप में देखा है उसे प्रकृति का एक परिवर्तन मानकर स्वीकार करता है।

देह नश्वर

देही, प्रेम अमर

मिलेंगे दोनों।

हिमांशु की भाषा सरल है, किंतु उसकी सरलता में गहन अर्थ छिपे हैं। वह कठिन शब्दों का नहीं; बल्कि अनुभव की पारदर्शिता का कवि है। उसकी भाषा में संस्कार है, परंतु बोझ नहीं। वह 'शब्द' को नहीं गढ़ता, शब्द उसके भीतर से जन्म लेते हैं। जैसे यह हाइकु

बेचैन मन

शिला-सा भारी हुआ

अकेलापन।

इस एक हाइकु में अकेलेपन की समूची त्रासदी है। न कोई नाटकीयता, न आह्वान—बस एक सन्नाटा, जो सब कह देता है। यही हिमांशु की पहचान है—मौन में शब्द की गूँज।

कवि के यहाँ पीड़ा एक स्थायी छाया है; लेकिन वह दु: ख को बोझ नहीं बनाते; बल्कि साधना का माध्यम बना देते हैं। जैसे—

दर्द आया है,

इसलिए तय है-

चला जाएगा।

अथवा

बंधन काटूं

हर द्वार पहुँचूँ

दुःख भी बाँटू।

यहाँ दु: ख आत्मा का शोधन बन जाता है। यही वह बिंदु है जहाँ हिमांशु जी का हाइकु कला नहीं; बल्कि दर्शन बन जाता है।

इस संग्रह की उपलब्धियों में सबसे प्रमुख है—अनुभव की सघनता। तीन पंक्तियों में जीवन का सार बाँधना कोई साधारण बात नहीं। हिमांशु ने हर हाइकु को एक संवेदना-बीज बनाया है—जो पाठक के भीतर अंकुरित होता है। वह अनुभव को 'बताते' नहीं, 'जीने' देते हैं। उनकी कविता 'पढ़ी' नहीं जाती, 'महसूस' की जाती है।

उनकी दूसरी उपलब्धि है—भाषा का सत्त्व। उन्होंने हाइकु के शिल्प को हिन्दी में आत्मसात किया है। जापानी हाइकु जहाँ प्रकृति और ऋतु के संदर्भ से जुड़ते हैं, वहीं हिमांशु ने उसमें भारतीय समय और समाज के स्पर्श भरे हैं। उनकी पंक्तियों में गंगा की गंध है, मिट्टी की ध्वनि है और गाँव की आत्मा है।

कवि की तीसरी उपलब्धि—मनोवैज्ञानिक गहराई। हर हाइकु एक मानसचित्र है। उदाहरण के लिए—

बजे नगाड़े

अम्बर में मेघों के

खुले अखाड़े

यह हाइकु बाहरी दृश्य के भीतर की मनःस्थिति को प्रकट करता है।

अब यदि सीमाओं की बात करें, तो वह भी इसी सौंदर्य के भीतर हैं। कभी-कभी कवि का आत्म-चिंतन इतना सूक्ष्म हो जाता है कि सामान्य पाठक उसके भाव-सूत्र को पकड़ नहीं पाता। कुछ हाइकु इतने आत्मसंकुचित हैं कि उनका अर्थ केवल अनुभवी हृदय ही खोल सकता है। इसी के साथ, भाव-संयम के कारण कुछ कविताएँ 'भाव-शुष्क' भी प्रतीत हो सकती हैं—जैसे वे दर्शन में अधिक और रस में कम लगें; परंतु यह सीमा नहीं, हाइकु के स्वभाव की माँग है।

संग्रह का बड़ा सौंदर्य यह है कि यहाँ कवि जीवन को तर्क नहीं, अनुभूति के रूप में देखता है। उसके लिए कविता कोई अभिव्यक्ति नहीं; बल्कि अस्तित्व की स्वीकृति है। वह कहता है—

अश्रु थे अर्घ्य

उम्र-भर चढ़ाए

माने न देव

अथवा

दर्द हमारे

जब बँट जाएँगे

घट जाएँगे

यह पंक्ति पूरे संग्रह का भाव-सूत्र है—जीवन का अंत नहीं, उसका आलोक।

हिमांशु जी का हाइकु हमें यह सिखाता है कि कविता शब्दों में नहीं, चुप्पी के बीच की उन दरारों में होती है जहाँ से दर्द रिसता है। वहाँ जहाँ हम सांस लेते हैं, सोचते हैं और फिर चुप हो जाते हैं।

इसलिए 'बंद कर लो द्वार' केवल एक शीर्षक नहीं; बल्कि एक व्रत है—बाहर के शोर से भीतर के मौन तक पहुँचने का।

यह संग्रह हिन्दी हाइकु के इतिहास में एक संवेदनात्मक मील का पत्थर है, जहाँ कवि ने जापानी लघुरूप को भारतीय आत्मा दी और शब्द को साधना बना दिया।

कुल मिलाकर, 'हिमांशु' जी का यह संग्रह पाठक को यह अनुभूत कराता है कि कविता जीवन का अनुवाद नहीं; बल्कि उसकी उपस्थिति है। हर हाइकु एक दीपक है—जो जलता नहीं, बस उजाला देता है।

यह काव्य-संग्रह हमें सिखाता है कि शब्द बोलते नहीं—वे सुनते हैं और जब कवि सुनने लगता है, तब ही वह कह पाता है—

दिन डूब गया—बंद कर लो द्वार—अब भीतर दीप जलाओ।

-0-बंद कर लो द्वार (661 हाइकु) ; पृष्ठः 128, मूल्य: 250 रुपये, संस्करण: 2019, प्रकाशकः हिन्दी साहित्य निकेतन 16, साहित्य विहार, बिजनौर (उ प्र)