बन्द घड़ी की मौत / गुरदीप सिंह सोहल
मशहूर मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल।
पहला तल्ला।
वार्ड नम्बर चार।
बिस्तर नम्बर दो।
नाम कुछ भी हो, धाम कुछ भी हो, काम भी चाहे कुछ हो या ना हो। रोगी कहीं से भी, देश के किसी भी कोने से सम्बन्ध रखता हो, किसी भी सम्प्रदाय, किसी भी जाति, किसी भी धर्म, किसी भी शहर, किसी भी गांव, किसी भी घर, किसी भी लिंग या किसी भी आयु का हो, कितनी भी शिक्षा प्राप्त कर सकता हो या प्राप्त कर चुका हो, कैसी भी नौकरी कर सकता हो या करता हो, कितना भी अनुभवी हो सकता हो या हो, किसी भी हैसियत का मालिक हो सकता हो या हो लेकिन यहां पर वह केवल और केवल बिस्तर नम्बर या रोग के कारण से ही जाना जा सकता है, यहां के कर्मचारियों द्वारा पुकारा जाता है।
पिछले काफी दिनों से मैं भी यानि कि इस बिस्तर नम्बर दो का रोगी अपनी धुरी पर घूमने वाले एक विशेष बिस्तर पर लिटाया गया हू। मैं अपने आप कुछ भी नहीं कर सकता यहां तक कि अपना मुंह भी साफ नहीं कर सकता। मैं अपने शरीर का हर प्रकार का नियन्त्रण शत-प्रतिशत खो चुका हूं लेकिन मस्तिष्क का नियन्त्रण सही-सलामत है वरना मैं यहां की बजाय किसी पागलखाने में होता और यह सब न सोचता जो पता नहीं कब से मेरे दिमाग में हलचल मचाये हुए है। हमेशा मेरे पीछे ही लगा रहता है, कभी चैन ही नहीं लेने देता और जो कई प्रकार की बीमारियों का जन्मदाता है। शारीरिक रूप से मैं अब हर काम के लिये असमर्थ हूं और पूरी तरह से लोगों की मेहरबानियों पर निर्भर कर रहा हूं। उनके हाथों की कठपुतली बन चुका हूं। शायद मेरी रीढ़ की हड्डी की कोई डिस्क अपने स्थान से इधर-उधर खिसक चुकी है। मेरी हालत शिकंजे में कसी हुई उस बबूल की सख्त लड़की जैसी होकर रह गई है जिस पर बढ़ई कभी भी मनमाने ढंग से रंदा नहीं लगा पाता और अब बड़ी मुश्किल से मैं उसके हाथ लगा हूं जैसे कि वह मेरा सारा-का-सारा खुरदरापन दूर कर देना चाहता हो। मुझ पर भी दुख लगातार रंदा लगाने में लगा हुआ है ताकि मैं भी लकड़ी की तरह रंदा लगवाकर इतना अधिक चिकना हो जाऊं और गमों के, मुश्किलों के हाथों में से मेंढ़क की तरह फिसल सकूं। लेकिन अगर उसी लकड़ी पर जरूरत से ज्यादा रंदा लग जाये तो वह किसी भी काम की न रहकर बेकार हो जाती है और बढ़ई को लकड़ी खराब हो जाने का दुख होता है। ज्यादा रंदा लग जाने के कारण जो लकड़ी खराब या बेकार हो जाती है वह केवल चूल्हें में जलाने के काम ही आ सकती है। बढ़ई को फिर से नई लकड़ी की तलाश करनी पड़ती है। नये सिरे से रंदा लगाना पड़ता है। लगाये जाने वाले रंदे की मात्रा का भी ध्यान रखना पड़ता है जिससे दूसरी बार लकड़ी खराब न पाये, ठीक-ठीक रहे। यहां पड़े-पड़े अक्सर मैं दिन भर यही सब कुछ सोचता रहता हूं कि मुझ पर भी दुख का रंदा कितनी मात्रा में कितनी देर तक लगाया जाना चाहिए, कितनी चिकनाहट बाकी रह जानी चाहिए ताकि मैं भी ज्यादा रंदा लग चुकी लकड़ी की तरह ठुकराया न जा सकूं। किसी-न-किसी के द्वारा काम में लिया जा सकूं। अपनों के द्वारा भुलाया न जा सकूं। मैं शहतूत की लकड़ी की तरह ज्यादा नरम कभी नहीं बनना चाहता। भगवान मुझे भी बबूल की लकड़ी से भी ज्यादा सख्त रखे ताकि दुख को मुझ पर रंदा लगाते हुए हुए जोर तो आये और वह भी जान सके कि रंदा कैसे लगाया जाना चाहिए और मैं क्या चीज हूं।
मेरे सामने की दीवार पर, मेरे बेड के बिल्कुल पास सटी हुई दीवार घड़ी लगी हुई है जो न जाने कितने समय से बन्द पड़ी हुई है। भगवान जाने यह बन्द घड़ी भी कितने ही रोगियों की मौत का कारण बनी होगी क्योंकि हर रोगी के लिये यहां पर बिताई हुई हर घड़ी मौत की घड़ी होती है और घड़ी की मौत। मैं यह तो नहीं जानता कि यह घड़ी मानवीय है या अमानवीय। स्वचालित। चाबी भर कर चलाने वाली है या बैटरी वाली। खराब है या सही। खराब है तो सही क्यों नहीं करवाई जाती। सही है तो बन्द क्यों पड़ी हुई है। सेल क्यों नहीं डलवाया जाता जिससे रोगियों को चलती हुई घड़ी देखकर जीने की आस बनी रहे और अगर ठीक है तो बन्द रहने का क्या कारण है। बैटरी लगाई गई है तो फिट हुई है कि नहीं अर्थात् इस घड़ी के बन्द रहने, न चलने, कोई समय न दिखाने का क्या कारण हो सकता है ? मैं भी तो यही जानना चाहता हूं जो अभी तक मेरी समझ से बाहर की बात है और पता नहीं चल रहा। समझ में नहीं आ रहा। कारण कुछ भी रहा हो लेकिन यह घड़ी तो बन्द ही है और न जाने कब तक बन्द रहेगी। क्यों ? यही चलती हुई, कोई-न-कोई गलत या सही समय दिखाती हुई घड़ी ही तो रोगियों की धड़कन है, इसी की टिक-टिक के साथ सबकी धड़कन चलती है। घड़ी में अगर बैटरी डली रहे, ठीक रहे, चलती रहे, बराबर समय दिखाती रहे तो मुझ जैसा रोगी भी इस चलती हुई घड़ी को देख-देखकर, दिन-रात गिन-गिन कर समय काटता रहेगा वरना यही समय कभी तीखी तलवार बनकर मुझे काट डालेगा। और यह घड़ी मुझ जैसे कितने ही रोगियों को कटता हुआ देखती रहेगी। उपचार काल में अगर यह घड़ी बन्द हो जाये तो रोगी अपना वक्त कैसे काटे ? समय अगर ढ़ंग से कट जाये तो ठीक वरना यही समय कभी खंजर की तरह चलता है, इंसान को चीर देता है। यही घड़ी ही तो सबकी आशा की किरण है जो इस वार्ड रूपी नरक में हर रोगी को एक जीवन की तरह दिखाई देती है। रोगी तो यहां पर नरक ही भोग रहे हैं और यहां के कर्मचारी भी यमराज और यमदूतों की सेना जो बात-बात पर गाली-गलौच, झगड़ा, चोरी आदि भी करने से बाज नहीं आते, चोरी करके भी सीनाजोरी करते है और फिर अब तो लगता है मेरी दशा भी बन्द हुई घड़ी जैसी होकर रह गयी है। जब कभी भी भूले-भटके निगाह इस पर जाती है तो तीनों सुईयां खड़ी ही मिलती है, घड़ी बन्द ही दिखाई देती है। कोई भी समय नहीं दिखाती जिससे न तो समय का आभास हो पाता है और न ही पहर का। प्रातः पूर्वाह, मध्याह, अपराह और रात्रि आदि का। और फिर इस बात का पता भी नहीं लगता कि आज क्या दिन और क्या वार है, क्या दिनांक है। नर्सों या डाक्टरों के आने से समय का आभास होता है। डॉक्टर लोग भी पूरी कोशिश में हैं कि मेरे बदन की बन्द घड़ी में बैटरी डाल देगें, फिर से चालू कर देंगे और शायद मैं फिर से ठीक की जा चुकी घड़ी की तरह चल-फिर सकूगां। सुइयों की तरह चक्कर काटते हुए जीवनभर जीवनकाल पूरा कर सकूगां लेकिन ये लोग अभी प्रयत्नशील है, कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं। मुझे उन पर भरोसा है। भगवान की शक्ति पर विश्वास है, श्रद्वा है। उन्हें विश्वास है कि नहीं यह मैं नहीं जानता। हां, वे अपनी तरफ से पूरी कोशिश में हैं। उन्हें भी भगवान पर पूरा भरोसा होना चाहिए क्योंकि वहीं सबसे बड़ा और शक्ति शाली मिस्त्री है और सारी-की-सारी बन्द और चालू घड़ियों का मालिक। वह जिसे चाहे चलने दे जिसे चाहे बंद कर दे। सब उसीकी इच्छा पर निर्भर है।
वैसे तो मैं चौबीसों घण्टे ही जागकर बिताया करता हूं क्योंकि रोगी या बेकार आदमी को हमेशा गहरी और भरपूर नींद कभी नहीं आती। नींद लाने के लिये थकावट होनी चाहिए, थकावट के लिये भागदौड़, भागदौड़ के लिये काम-धन्धा, काम-धन्धे के लिये पैसा, पैसा कमाने के लिये समय और समझने के लिये दिमाग का होना बहुत ही जरूरी है। पैतृक सम्पति न हो तो दिमाग का होना बहुत ही जरूरी है। मेरे पास तो ये दोनों है लेकिन भागदौड़ के लिये शरीर जवाब दे चुका है। उसने अब भागदौड़ करने से मना कर दिया है। फालतू और ज्यादा भागदौड़ करने का यही परिणाम होता है जो हमें कई बार सफर के दौरान हुई बस दुर्घटनाओं से दो-दो हाथ भी करवा देता है। कभी बस नदी में गिर जाती है, कभी बस में बम फट जाता है, कभी यात्रियों की हत्या हो जाती है, कभी खाईयों में लुढ़क जाती है तो कभी सामने से आते हुए वाहनों से भिड़ जाती है। कोई एट द् स्पोट मर कर इस नरक से छूट जाता है, कोई उम्र भर हाथ-पैर तुड़वा कर सजा भोगता है। मगर कोई दुर्घटनाओं में मुझ जैसा बचा हुआ हॉस्पिटल के किसी बिस्तर पर पड़ा हुआ दिन गिनता रहता है, भाग्यशाली यात्री कहलाता है लेकिन मौत उसे कितना सताती है कोई नहीं जानता। मौत को हम बस जानते हैं लेकिन मानते नहीं क्योंकि मौत कभी भी दिखाई नहीं देती। कई बार जब मौत दिल के द्वार पर दस्तक देती है तो भी नहीं मानते, क्योंकि मौत का सीधा सम्बन्ध तन से है। हम अक्सर किसी न किसी के अंतिम संस्कार में अवश्य ही शामिल होने के लिए जाया करते है, अंतिम संस्कार के बाद उसकी रस्म किरया में भी शामिल हो जाते है लेकिन अपने स्वयं के बारे में हम कभी नहीं सोचते या सोचना चाहते कि आज हम जिसकी अंतिम किरया में शामिल हुए है आने वाले कल को लोग हमारी भी अंतम किरया में शामिल होंगे। इसलिये लेटे-लेटे में यही हिसाब लगाता रहता हूं। जागने और सोने की गणना करता रहता हूं।
चिड़ियों की चहचहाहट, खिड़कियों में से गुजरती हुई सूर्य की हल्की लाल-लाल किरणों से उत्पन्न हुई रोशनी, रात भर से जगमगा रही बत्तियों को बन्द कर देने से सफाई कर्मचारियों की भागदौड़, प्रशिक्षित और प्रशिक्षु नर्सों की चहल-पहल, प्रशिक्षण तथा वार्ड इंचार्ज आदि की मिली-जुली आवाजों से आभास हो रहा है कि बाहर उजाला हो चुका है, सुर्योदय हो रहा है, नया दिन जाती हुई रात्रि के दरवाजे पर दस्तक दे कर उसे विदा कर रहा है और कह रहा है कि जागो ऐ सोने वालो, उठकर देखो तुम्हें गाड़ी बुला रही है इस नरक से जितना जल्दी हो सके पिण्ड छुड़ा लो वर्ना यहां के यमदूत ऊपरवालें यमदूतों को बुला लेंगे।
अपना सिर मैं एक निश्चित सीमा तक तो घुमा सकता हूं परन्तु ज्यादा नहीं। मैं केवल छत पर देख सकता हूं, सामने देख सकता हूं जहां पर बन्द पड़ी हुई दीवार घड़ी लगी हुई है जिसे हमेशा बन्द देखकर बार-बार मैं हतोत्साहित हो जाता हूं, मूड खराब हो जाता है, यमदूत दिखाई देने लगते हैं। पूरे वार्ड का हल्ला-गुल्ला, वार्तालाप, शोर-शराबा मेरे कानों की सीमा में आ ही जाता है ठीक किसी राडार की तरह जिससे पता चलता रहता है, वार्ड के बाकी के बिस्तरों के रोगियों और उनके सम्बन्धियों द्वारा क्या-क्या कार्यवाहियां सम्पन्न की जा रही है, किससे कौन-कौन मिलने आया है, कौन किससे मिलकर वापस जा रहा है। किस बिस्तर पर कैसा माहौल है।
बाकी रोगियों के सम्बन्धियों ने दैनिक क्रियाकलापों का सम्पादन प्रारम्भ कर दिया है जैसे कि हरे पर्दों की ओट में दांत मंजन-कुल्ला। पूरे बदन की साफ-सफाई, डिटोल साबुन या डिटोल मिले हुए पानी से मुंह-हाथ धुलाकर, स्पिरिट लगाकर बदन को कीटाणुरहित बनाना फिर कोई भी टैलकम पाउडर लगाकर सुगन्धित वातावरण बनाना ताकि पुरे वार्ड में फैली हुई दवाईयों और रसायनों आदि की गंध को कम किया जा सके और अपने चारों तरफ की सफाई। जैसे कि मेरे सम्बन्धी मेरा भी सफाई का कार्य कर रहे है। सुबह कुल्ला करने से लेकर रात-सोने तक के प्रत्येक कार्य के लिये मैं कम-से-कम चार आदमियों पर आश्रित हूं जो अंगरक्षकों की तरह मेरी सेवा में जुटे हैं जैसे कि अब मैं कोई अति विशिष्ट व्यक्ति हूं। शारीरिक रूप से मैं किसी नवजात शिशु की तरह हो चुका हूं और इन सबकी सेवाओं से ठीक महसूस नहीं करता। मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता कि कोई मेरा कार्य करे। मुझे तब तो बहुत ही लज्जा महसूस होती है जब मैं उन्हें अपना मल-मूत्र धोते हुए देखता हूं और तब केवल मैं छत की तरफ ही देखता रहता हूं। जब सब लोग इस प्रकार के कितने ही कार्य करते है, करते ही रहते है। इस बुरी हालत में मैं कर भी क्या सकता हूं उन्हें इस प्रकार के कार्य करते हुए देखकर। मेरा जी तो बहुत दुखी होता है लेकिन मजबुरी है वरना किसी भी अधेड़ व्यक्ति का कार्य कोई दूसरा करे कितनी बुरी और दुख की बात है। इस समय मेरे शरीर की सफाई की जा रही है। कोई ठण्डा पानी ला रहा है। कोई साबुन लगा रहा है, कोई तौलिया गीला करके साबुन साफ कर रहा है, कोई साबुन वाले पानी को बदलने गया है, कोई पेशाब के बर्तन को खाली करने गया है आदि-आदि।
जिस विशेष घूमने वाले बिस्तर पर मुझे लिटाया गया है वह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि जब भी कोई नया रोगी, उसका या मेरा सम्बन्धी वार्ड में इस तरफ आता है तो स्थिति देखकर दंग रह जाता है, आश्चर्य से दांतो तले अंगुलिया दबा लेता है और उसे मेरी इस स्थिति में पंहुचने के कारण जानने को विवश होना ही पड़ता है। यह बिस्तर इस प्रकार से बनाया गया है कि अपनी मर्जी से मैं कुछ भी नहीं कर सकता। केवल सांस ही धीमे या तेज ले सकता हूं बिल्कुल भी हिलडुल नहीं सकता। करवट नहीं बदल सकता। दुर्धटना की प्रकृति के अनुसार मेरा इस हाल में लेटे रहना अत्यावश्यक है। डॉक्टरों की सलाह के अनुसार हर दो घण्टे के बाद मेरा पासा पलटा जाता है। सबसे पहले बदन पर सफेदी जैसी धुली हुई चादर बिछाई जाती है, चादर के ऊपर गदेला रखा जाता है, गदेले के ऊपर 2 फुट चौड़ा और 6 फुट लम्बा फ्रेम रखा जाता है। इतना ही सामान ठीक मेरे बदन के नीचे भी रखा जाता है। पासे के हिसाब से मूत्र का बैेग भी इधर-उधर किया जाता रहता है। इतना कुछ करने के बाद सबके चारों तरफ एक बेल्ट बांधा जाता है। पासा पलटाया जाता है। माथा नीचे की ओर तथा पीठ ऊपर की तरफ हो जाती है। बेल्ट खोल दी जाती है। फ्रेम हटा दिया जाता है। गदेला उठाकर चादर आधी मोड़ दी जाती है ताकि बदन के नीचे के हिस्से में आया हुआ पसीना सूख सके। मैं बिल्कुल उल्टी स्थिति में हो जाता हूं। कभी पीठ ऊपर होती है तो कभी सीना। 24 घण्टों यही क्रम चलता रहता है बार-बार। पासा ऊपर-नीचे पलटा जाता है। क्रियायें दोहराई जाती है। दोनों चादरों के बीच में बदन पूरी तरह निर्वस्त्र है जिसे बिना वस्त्र रखना शायद यहां की परम्परा है। मेरे सिर के ठीक दोनों कानों के ऊपर लगभग एक इंच गहरे सुराख किये गये हैं, सुराखों में स्टील की कैंची जैसी पत्ती लगी है, पत्ती के साथ स्टील की बारीक तार लगी है। तार के सिरे पर लगभग 10 किलोग्राम का भार लटक रहा है शायद मेरी रीढ़ की हड्डी को खींचा जा रहा है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि रीढ़ की हड्डी को 42 दिन तक खींचने से इसके अन्दर की डिस्क अपने स्थान पर वापस आ सकेगी।
बदन के निचले हिस्से की संवेदनशीलता पूर्णतया समाप्त हो चुकी है। चेहरा, गला, छाती, पीठ और कमर आदि पर चल रहे हाथों से पता चलता है कि दूसरी बार मेरे शरीर की सफाई की जा रही है। पानी लगने से ठण्डा-ठण्डा महसूस हो रहा है, हाथों पर साबुन लगाकर पोंछा जैसे लगाया जा रहा है। फिर पानी से साफ करके स्पिरिट लगायी जा रही है। स्पिरिट सूखने के बाद सुगन्धित पाउडर छिड़का जा रहा है ताकि बदबू न रहे, पसीना सड़ न जाये। चादरें बदली जा रही है। इधर टैस्ट करवाया जा रहा है। केवल दो सफेद चादरों में लिपटा हुआ मैं लोहे के चने चबा रहा हूं और लोहे जैसा बुरा वक्त काट रहा हूं। कभी छत पर चल रहा पंखा देखकर, कभी बन्द पड़ी हुई घड़ी की सुईयों के बारे मे सोचकर, कभी मेरे अपने कारणों को सोच-सोचकर, कभी यहां के रोगियों के बारे में सोचकर और कभी यहां के डॉक्टरों, कम्पाउण्डरों, नर्सों, सुरक्षा कर्मचारियों, सफाई कर्मियों या अन्य सभी प्रकार के कर्मचारियों के घटिया व्यवहार को लेकर कि ये सब किसी भी रोगी और उसके साथ वाले सम्बन्धी का कितना दर्द समझते है, कितने सहायक है। कितनी बेदर्दी से पेश आते है। इन लोगों में जरा सी भी मानवता नाम की चीज नहीं है जबकि यह हॉस्पिटल मानवता को पूर्णतया समर्पित होने का दावा करता है और दूर-दूर तक मशहूर है। कर्मचारियों को अपना-अपना स्टेटस छोड़कर केवल मानव बनकर, मानवता के लिये काम करना चाहिए, मानवता के लिये ही जीना और मरना चाहिए, मानवता से पेश आना चाहिए। यहां का प्रत्येक कर्मचारी मशीन बनकर रह गया है। लगता है जैसे कि वार्ड में कर्मचारियों के स्थान पर रोबोट भेजें जा रहे है जो कभी भी मानव की तरह संवेदनशील नहीं हो सकते, किसी रोगी की व्यथा, समस्या नहीं समझ सकते, किसी मानव की तरह सोच नहीं सकते, किसी का दुख भी महसुस नहीं कर सकते, केवल काम ही मानव से अधिक सम्पादित कर सकते है। मानव की तरह सोच नहीं सकते। मानव मानव ही होता है और रोबोट नहीं बन सकता। रोबोट केवल मशीन ही होता है जो कभी भी मानव की तरह नहीं बन सकता, सोच नहीं सकता, मानव जैसा व्यवहार नहीं कर सकता। इनमें से कोई यहां पर एक्स-रे कर रहा है, कोइ सुई लगा रहा है, कोई किसी के जख्मों को बेदर्दी से पोंछ कर साफ कर रहा है। फलस्वरूप पूरा वार्ड चीखों से झनझना रहा है। चीखें सुनना इन्हें शायद अच्छा लगता है। बुरा भी जैसा भी लगता हो ये नहीं समझते।
अब मुझे नाश्ता करवाया जा रहा है। बाकी लोग भी नाश्ते के लिये चले गये हैं। इनमें से शायद एक ही वापस आकर मेरे पास रह सकेगा या फिर कंही उसे भी यह कहकर बाहर ही रोक दिया जायेगा कि अपनी समस्या डॉक्टर को बताने के लिये मेरे पास भी जुबान है, मैं भी सब कुछ कह सकता हूं। अब लगता है शीघ्र ही प्रातः के आठ बजने का समय होने को है। यहां मेरे पास ही वार्ड इंचार्ज, प्रशिक्षित, प्रशिक्षु नर्सों के साथ प्रशिक्षक प्रार्थना के लिये तैयार है। सारा आपसी वार्तालाप बन्द करवा दिया गया है। वातावरण बिल्कुल शान्त होने का इन्तजार किया जा रहा है ताकि प्रार्थना सम्पादित की जा सके और धर्म का प्रचार किया जा सके। फालतू लोगों को धक्के मार मार कर वार्ड में से बाहर भेजा जा रहा है। पूरी टीम हर रोगी के पास जाकर हालचाल पूछ रही है, सबके दैनिक चार्ट देखे जा रहे है। डॉक्टरों के राउण्ड से पहले ही यह कार्य निपटा लिया जाता है ताकि किसी को किसी भी प्रकार की शिकायत का मौका न मिलें। मेरा पासा पलटा जा रहा है। वार्ड इंचार्ज किसी को भी अन्दर आने की छूट नहीं दे रहा है, उन्हें तुरन्त बाहर की तरफ ही लौट जाने का आदेश दे रहा है और बाहर न जाने की सूरत में सुरक्षा गार्ड से धक्के मार-मार कर बाहर भिजवा दिये जाने की धमकी भी दे रहा है यदि वे लोग उसके कथनानुसार या स्वेच्छा से बाहर जाने का नाम नहीं लेते तो लोगों के पास बाहर जाने के अतिरिक्त कोई और विकल्प भी नहीं है सो उन्हें बाहर जाना ही होगा। वरना ये वार्ड इंचार्ज उन्हें बाहर निकालकर ही दम लेगा जो कि वह बात-बात पर प्रेस्टिज पाइण्ट बना लेता है। यह उसका हठ भी है। उसकी जिद के आगे किसी की भी नहीं चलती, रोगी की भी नहीं। लोग बाहर जाना नहीं चाहते और यह उन्हें यहां पर रहने नहीं देना चाहता। आखिरकार लोगों को जाना ही पड़ता है। रोगी अगर चाहे भी तो नहीं, उसके सम्बन्धियों को अन्दर रहने ही नहीं दिया जायेगा। उन सबकी दाल किसी भी सूरत में नहीं गल पायेगी। साथ ही रोगी की सेवा और देखभाल के लिये प्रशिक्षु नर्सों की देख-रेख का बहाना बनाया जायेगा। उसका दिल पता नहीं किस चीज का बना हुआ है, जिस पर किसी की भी, किसी भी प्रकार की प्र्रार्थना रूपी आंच का कोई असर नहीं होता। प्रार्थना सुनकर बिल्कुल भी नहीं पिघलता। पता नहीं कि ये व्यक्ति इन सबको इतना परेशान क्यों करता रहता है। सुरक्षा-कर्मी भी यहीं घूम रहें है अपनी ड्यूटी निभाने के लिये परन्तु उनकी वर्दी का भी दुरूपयोग किया जा रहा है, वार्ड इंचार्ज द्वारा रोगियों के सम्बन्धियों को तंग करने के उद्देश्य से। अब मैं थोड़ा-थोड़ा सिर घुमाकर देख सकता हूं। फालतू और अनावश्यक लोग सिर को झुकाये बाहर को धकेले जा रहे हैं घिरे हुए या आत्मसमर्पित सैनिकों की तरह जिनके सारे हथियार यहां पर आकर बेकार सिद्व हो जाते है, हिम्मत जवाब दे जाती है, जिन्हें विवशतापूर्ण आत्मसमर्पण करना ही पड़ता है। वार्ड पूर्णरूप से खाली हो चुका है केवल नर्सों की फुसफुसाहट या रोगियों की इक्का-दुक्का चीखें कभी-कभार सुनाई दे जाती हैं। किसी के पट्टियां की जा रही है, किसी के जख्मों को हाइड्रोजन से साफ करके टिंचर आयोडिन लगाया जा रहा है, किसी को इन्जेक्शन दिया जा रहा है, किसी का रक्तप्रवाह चैक किया जा रहा है, किसी का बुखार देखा जा रहा है। मेरे साथ के बिस्तर पर पड़े हुए रोगी की चीखें हमेशा ही सुनाई देती रहती है। लगता है कि जैसे कि यह भी ऐसे ही किसी सताये हुए सम्बन्धी की है जो कानों के पर्दे फाड़ती है। शायद उसकी टांग ही काट दी गई है। वार्ड के दूसरी तरफ से भी अक्सर इसी तरह की चीखें सुनाई दिया करती है और यहां का वातावरण देखकर, हर अन्याय महसूस कर, किसी कसाईखाने का आभास होता है जहां पर बकरे काटे जा रहे होते है और लोग मांस खरीदने के लिये अपनी बारी का इंतजार कर रहे होते है। यहां पर बकरे की जान की कोई कीमत नहीं होती केवल मांस ही ऊंचे दामों पर बिकता है। मैं हमेशा ही भगवान से प्रार्थना करता रहता हूं कि हे भगवान किसी दुश्मन को भी इस तरह के वातावरण में मत लाना, किसी को भी यहां आकर रहने के बुरे दिन मत दिखलाना और अगर किसी को आना भी पड़े तो एक दिन में ही वापिस भिजवा देना क्योंकि यहां के लोगो का व्यवहार देखकर रोगी अपना दुख भूलकर इन्हें बाहर जाता हुआ देखता रहता है और बाहर जाते हुए लोग रोगी से कहीं अधिक दुखी होते रहते है। यहां के लोग यमदूतों से भी बुरे है। सोते-जागते मेरी आंखे अक्सर बंद रहती है। जब कभी भी मैं किसी से पूछने की कोशिश करता हूं कि मेरे साथ वाला रोगी कहां चला तो साथ वाले मुझे झूठा दिलासा देते हुए कह देते हैं कि उसे कहीं ओर शिफट कर दिया गया है लेकिन कुछ दिन बाद में ज्ञात होता है कि उसकी मौत हो चुकी है।
“हैलो भई। बिस्तर नम्बर दो। गुड मोर्निंग। कहो कैसे हो ?”
जैसे ही मैं आवाज सुनकर अपने सिर के ऊपर की तरफ देखने की कोशिश करता हूं कि प्रशिक्षक डाक्टर अपनी पूरी टीम के साथ नजर आता है। उसके साथ चार-पांच नर्से हैं किसी के हाथ में बी.पी. चैकर, किसी के हाथ में थर्मामीटर, किसी के हाथ में इन्जेक्शन, किसी के हाथ में पानी का गिलास जो दवा देने के काम आता है, किसी के हाथ में पानी का तसला जो सफाई के प्रयोजन से लाया जाता है, किसी के हाथ में सफेद सफेद पटिटयां जो जख्मो पर दवा लगा कर लपेटने का काम आती है, कोई भी अच्छा भला रोगी सफेद पटिटयों में लिप्ट कर मिó के पिरामिडों की मम्मी में तबदील हो जाता हैं। बाकी सदस्य मेरा रोटीन चार्ट देखते है। मेरे खाने-पीने का हिसाब, पेशाब की रिपोर्ट, बुखार की रिपोर्ट, दवाओं की उपलब्धता और उपचार आदि का मुआयना किया जा रहा है।
“गुड मोर्निंग सर।” मैं जवाब देना चाहता हूं लेकिन कमजोरी के कारण मेरी आवाज निकल नहीं पाती। बहुत ही धीमी-सी होती है बिल्कुल फुसफुसाने जैसी।
“कैसे हो भई। क्या बात है कुछ लेते हो कि नहीं।” वह पुनः अपना सवाल दोहराता है। इस दौरान मैं अपनी समस्या के बारे में सोचता हूं। फिर अगले ही पल सोचता हूं कि कहूं या न कहूं।
“खाने-पीने की रिपोर्ट आपके सामने है सर। जितनी भी इच्छा होती है लेता ही रहता हूं फिर भी कमजोरी कुछ ज्यादा ही है।” मैं दलील देता हूं।
“अब बुखार कैसा है ? कम है या ज्यादा।” वह फिर पूछता है।
“दिन में बुखार काफी कम रहता है सर। लेकिन रात में तो 104 डिग्री से भी पार चला जाता है। कोई ऐसी दवा दीजिये ताकि ये कम ही रहे, ज्यादा न हो रात भर मैं बुखार से पीड़ित रहा। मेरे साथी लोग पूरी रात बर्फ लाते रहे, ठण्डे-ठण्डे पानी की पट्टियां लगातार करते रहे। पहरेदारों की तरह मेरे पास बैठे रहे। बुखार में पता नहीं मैं क्या-क्या बड़बड़ाता रहा था। बिल्कुल भी होश में नहीं था। इन्जेक्शन भी दिये, फिर भी बात नहीं बनी। अनीमा की तरह से दवा देनी पड़ी। पिछले कई दिनों से यही चल रहा है।” बात पूरी बताते-बताते मेरा कण्ठ सूखने लगता है, आंखे खुल नहीं पा रही हैं। हाथ-पैरों की संवेदनशीलता यदि समाप्त न हो गई होती तो मैं उसे बताता कि रात भर हाथ-पैर किस तरह से टूटते रहे थे, दर्द होता रहा था।
“देखो भई। अगर तुम हमारी इच्छा से खुराक लेते रहोगे तो अच्छा रहेगा वरना अपनी इच्छा से कम खुराक लेने के कारण बुखार तुम्हें इसी तरह सताता रहेगा। रही बात बुखार की तो यह हर रोगी को होता ही है किसी को कम किसी को ज्यादा। अभी डॉक्टर लोग राउण्ड पर आ रहे हैं, बात उनके कान में डाल देना। वे जो भी दवा लिखें जैसे लेने को कहें, मंगवालेना, समयानुसार लेते रहना। तुम बस खाने-पीने का ध्यान रखो, बाकी तुम्हारा ध्यान हम रखेंगे। कमजोरी रहेगी तो बुखार भी तुम्हारा ध्यान रखेगा। तुम ऐसी कोशिश करो कि बुखार अव्वल तो आये नहीं और अगर आये भी तो मामूली सा।” वह भी खाने-पीने को ही रोता रहता है। बुखार लाने में इसका भी कोई हाथ नहीं। इन सब बातों का ध्यान तो मुझे ही रखना चाहिए वरना अगर बुखार नहीं उतर सका ये कोई और दवा भी नहीं दे पायेंगे केवल बुखार को भगाने में ही जुटे रहेंगे।
“ठीक है सर, मैं पूरा ख्याल रखूंगा।”
अपनी कमजोरी को ध्यान में रखते हुए मुझे उसकी बात माननी ही पड़ती है और फिर उसकी बात मानने के अतिरिक्त मेरे पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है।
“सफाई वगैरह भी ठीक से हुई है कि नहीं।”
तुरन्त दो नर्सें हाथ में पानी का तसला, साबुन और तौलिया लेकर मेरे पास आकर पूछती है। सफाई के बारे में वे भली प्रकार से जानती है कि उषा काल से ही मेरे सम्बन्धी यह कार्य सर्वाेच्च प्राथमिकता से करते है। आठ बजे तक कोई सफाई का समय नहीं होता फिर भी वे अपनी तरफ से पूरी होशियारी करती है।
“हो चुकी सिस्टर।”
मेरे कहने के बावजूद वे इधर-उधर हो चुकी मेरी सफाई का मुआयना करती हैं। उनके द्वारा की जाने वाली सफाई के सम्बन्ध में बाकी रोगियों के सम्बन्धियों ने पहले से ही हमें आगाह करते हुए कहा था कि मेरी सफाई का काम सम्बन्धियों के हाथों से ही सम्पादित किया जायें तो ठीक रहेगा क्योंकि यहां के स्टॉफ का काम केवल औपचारिकताएं निभाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उसके बाद से ही मैं उन सबको अपनी-अपनी औपचारिकताओं को निभाते हुए देख रहा हूं। वार्ड में अब पूरी शान्ति है। केवल वार्ड इंचार्ज की डांट कभी-कभी शान्ति भंग कर जाती है। डॉक्टर लोग अब राउण्ड पर हैं। रोगियों का हाल-चाल पूछा जा रहा है। मेरी दुर्घटना कई डॉक्टरों के लिये अभी तक रहस्य बनी हुई है। सबके-सब इसे जानने के इच्छुक हैं। मैं इसे कितनी ही बार दोहरा-दोहराकर तंग आ चुका हूं। शायद आज फिर कोई नया डॉक्टर आया है और पूछ रहा है।
“क्या हुआ था मिस्टर तुम्हारे संग ?” बैड के तकिये की तरफ चार्ट में पूरी-की-पूरी हिस्ट्री शीट लिखकर रखी हुई है फिर भी अपनी कहानी मुझे ही बार-बार दोहरानी पड़ती है, बार-बार सुनाने को कहा जाता है। रोज कितनी ही बार दोहराता था, अब भी दोहराता हूं और शायद भविष्य में भी बारम्बार दोहराता ही रहूंगा कभी डॉक्टरों के सामने, कभी अपने सम्बन्धियों के सामने तो कभी बाहर के लोगों के सामने।
“रोड़ एक्सीडैण्ट सर।”
“किससे हुआ था ? मेरी हालत देखकर वह सवाल करता है।”
“तेल टैंकर से सर।”
“आप रोड़ पर थे ?”
“नहीं सर बस में सफर कर रहा था।”
“तो बस का टैंकर से हुआ था।”
“यस सर। सामने से आ रहा एक टैंकर ऊंटगाड़ी को ओवरटेक कर रहा था।”
“आपको कैसे लगी।”
“मैं सीट पर सो रहा था। शाम का समय था। लास्ट बस थी। लेट हो गई थी। स्पीड तेज थी। सिंगल रोड़ थी। ड्राइवर भी थका हुआ था, फुर्ती से वह बस को संभाल नहीं पाया। परिणाम स्वरूप यह सब हो गया। आगे की कई सीटें उखड़ कर मेरी सीट पर गिर गई थी। मैं भी नीचे गिर गया, सीटों के नीचे दब चुका था। पता नहीं वास्तव में कहां लगी। शायद रीढ़ की हड्डी पर धक्का लगा होगा।”
“मौत भी हुई थी किसी मुसाफिर की ?”
“बस में केबिन में बैठे हुए कुछ लोग एट द् स्पोट ही एक्सपायरी कर गये थे।”
“ओह ! तुम्हारी किस्मत काफी अच्छी रही होगी तभी तो बच गये। तुम जल्दी ही ठीक भी हो जाओगे। बस थोड़े दिन की बात और है। तुम्हें जल्दी ही घर भेज दिया जायेगा। किसी बात की चिन्ता मत करना।” डॉक्टर पहले ठण्डी सांस भरता है फिर काम की बात पर आता है।
“मेरी किस्मत अच्छी था या नहीं। ये तो केवल मैं जानता हूं या मेरा भगवान क्योंकि जो एट द स्पॉट मर गये वो सब के सब जीवन चक्र में से निकल कर आजाद हो गये लेकिन मैं इन यमदूतों के बीच में पड़ा हुआ तकलीफ झेल रहा हूं और धीरे धीरे मौत की तरफ बढ़ रहा हूं इस बैड पर पड़ा हुआ। यही सोचते सोचते हुए मैं बोलता हूं थैंक यू सर। फिर भी मुझे कितने दिन तक यहां पर रहना होगा ?”
“कुल छः सप्ताह। बाकी हिसाब तुम खुद लगा सकते हो कि तुम्हे यहां पर कब और किस दिन लाकर एडमिट किया गया था।”
“क्या मैं फिर से चल-फिर सकूंगा सर ?”
“ओह ! श्योर। हां-हां क्यों नहीं । तुम कुछ ही दिनों में अपने सारे काम खुद ही सम्पादित कर सकोंगे। तुम्हारे हाथ-पैरों की संवेदनशीलता बहुत जल्दी ही वापस आ जायेगी।”
“सर। मुझे बुखार बहुत आता है।”
“कोई खास बात नहीं है। दवा लिख देते है। ये मंगवा लेना। लेते रहना। ठीक हो जायेगा लेकिन चिन्ता मत करना। ये सब तो चलता ही है।”
“कोई परहेज सर।”
“कुछ नहीं। केवल बातचीत कम करना। आराम ज्यादा। तुम्हारा ज्यादा बातचीत करना बुखार आने का बड़ा कारण है। चुप रहोगे तो बुखार से बचे रहोगे।”
“ठीक है सर।”
बातचीत के दौरान मेरी आंखे इतनी अधिक नम रही थीं कि अगर कुछ देर और बातचीत होती रहती तो शायद मैं रो पड़ता, आंखे डबडबा आतीं। उन्होंने दवा लिख दी और चले गये। डॉक्टरों के चले जाने के बाद मैं कुछ सोने का प्रयास करता हूं। बिल्कुल पास में केवल एक ही सम्बन्धी खड़ा है। बाकी सब बाहर गये हुए है। उन्हें जाना पड़ा। यहां का नियम जो है। नियमों को मानना हमारी विवशता है। उसे मैं सिर में खुजली करने, माथे पर लगा हुआ पाउडर साफ करने, आंखो में से छलक चुके आंसू साफ करने, होंठो पर गीला कपड़ा मारने, पूरे मुंह पर हाथ फेरने और कुछ पानी पिलाने को कहता हूं। बार-बार पानी पिलाते-पिलाते यही सब कुछ करते-करते शायद वह बोर हो चुका है। कहता कुछ नहीं केवल उसकी गतिविधियों से ही मालूम हो जाता है क्योंकि जब वह मूड में नहीं होता या थक जाता है, खीझ जाता है तो मेरे मुंह में पानी का गिलास तेजी से और जबरदस्त तरीके से उलटने लगता है, जिससे पानी मेरे सांस के साथ मिलकर फेफड़ों में चला जाता है, खांसी आ जाती है, गले में डाला हुआ पानी आंसूओं में बदल कर आंखों में आ जाता है। फेफड़े बोलने लगते है फिर उसे फेफड़ों पर हाथ फिराने को कहना पड़ता है। देर तक खांसना पड़ता है। अगर कभी वह मूड में होता है तो प्यार से पेश आता है। समय पर काम न होने की वजह से कभी-कभी मैं भी खीजता हूं, बेवजह गुस्सा करता हूं क्योंकि जब मेरे सब्र का घड़ा भर जाता है, पानी सिर पर से गुजरने लगता है तो धीरज का बांध गुस्से की बाढ़ का सामना नहीं कर पाता, उसके सामने टिक नहीं पाता। गुस्सा करना मेरी आदत नहीं है केवल विवशता है जो कि यहां की बोरियत से पैदा होती है। एक ही काम कई दिनों से करते-करते शायद वह भी तंग आ चुका है। उस पर वार्ड इन्चार्ज का अभद्र, अशोभनीय, असहयोगात्मक व्यवहार आदि। बिना कुछ बोलते हुए वह सब कुछ करता है। मैं सब कुछ जानता हूं, इतनी उम्र ऐसे ही नहीं ली, बाल धूप में, एैसे ही सफेद नहीं हुए। क्या हुआ अगर मैं इस बिस्तर पर पड़ा हुआ हूं, लाचार हूं। मेरे खीजने को वह भी भली भांति जानता है। कभी-कभी बुरा भी मान जाता है कभी नही भी मानता। मैं अक्सर सोते-सोते जागता हूं और जागते-जागते सोता हूं। इस जागने और सोने का कोई पक्का समय और हिसाब-किताब नहीं है।
राऊण्ड अब समाप्त हो चुका है। बाहर गये हुए सम्बन्धियों ने अब लौटना प्रारम्भ कर दिया है। किसी के हाथ में चाय का फलास्क, किसी के हाथ में ठण्डे की बोतल, किसी के हाथ में फल तो कोई दूध ला रहा है। रोगियों से मिलने वालों का आवागमन बढ़ने लगा है। फिर से यहां पर कोलाहल-सा मचा रहा है। चारों तरफ शोर-ही-शोर है। शोर करने वालों को नर्सें बार-बार बाहर चले जाने का आदेश सुनाती है। कुछ देर के लिये शोर कम होता है। नर्सों के जाते ही कोलाहल फिर से बढ़ने लग जाता है। लोग-बाग शायद बाहर भेज दिये जाने के डर से चुप हो जाते है। एक बार चुप होकर फिर बोलने लगते है। मेरे पास भी कुछ-कुछ बातचीत चल रही है। मेरी आंखे बंद हैं लेकिन दिमाग खुला। दिमाग बचा हुआ है तो इतनी चिन्ता करता रहता हूं वरना मैं भी पागलों की तरह बेफिक्र होकर यहां पड़ा रहता। हो सकता है यही चिन्ता कभी मेरी भी चिता बना डाले। दिमाग हमेशा जागता रहता है। पूरे वार्ड की बातों, क्रियाकलापों का जायजा लेता रहता है। कान खुले रहते हैं। दिन भर का समय यूं ही कानों के सहारे व्यतीत करता हूं। कान ही समय काटने का बढ़िया साधन हैं, अपनी कुछ भी कहने के बजाय लोगों की सुनते रहो बस। लोगों की सुनते-सुनते अपनी कहने का समय ही नहीं बचेगा और फिर याद भी नहीं रहेगा हमें भी किसी को कुछ सुनाना है, कहना है।
पास में बैठे सम्बन्धियों के वार्तालाप में अचानक परिवर्तन होने लगता है। राम राज की बात की जा रही है। एक-दूसरे से एक-दूसरे का हाल पूछा जा रहा है। शायद कोई अन्य रिश्तेदार आया है। मेरी आंखे बंद देखकर शायद उन्होनें मुझे नींद में समझ लिया है। ये सबके सब मेरी ही बातों में व्यस्त होने लगते हैं, किसी को उनकी चाय-पानी की सेवा का प्रबन्ध करने को भेजा जा रहा है। उनका वार्तालाप प्रारम्भ हो चुका है। मेरे कान और तेज हो चुके हैं, दिमाग पूर्णतया जाग चुका है। इतना चौकस कि सुई गिरने तक की आवाज को समझ सके।
“अभी तो सो रहा है शायद।”
“और अब दिन भर बिस्तर पर पड़े-पड़े कर भी क्या सकता है बेचारा। अब तो यह बिस्तर पर लेटे रहने के काबिल ही रह गया है।” कोई ठण्डी सांस भरते हुए कह रहा है। कोई उसी प्रकार सुन भी रहा है।
“ये सब कैसे हुआ ? कहां पर हुआ ?”
बस। सब इसी तकदीर का खेल है। न कुछ लेना न कुछ देना। मुफत में ही चक्कर में आ गया। फालतू में लग गई इसे।”
“कभी-कभी तकदीर भी कैसे-कैसे खेल खिला जाती है। इन्सान के साथ किस तरह खेलती है और फिर पता भी नहीं चलने देती।”
“पता नहीं चलने देती तभी तो हम इसे मानते है। वो तो इसकी तकदीर अच्छी थी, बच गया वरना इसके साथ के काफी मुसाफिर मारे गये। इसके साथ एक आदमी और था। कम पहचान वाला था फिर भी उसने हम सब पर बहुत बड़ा अहसान किया है। वह भी उसी बस में था, आगे की सीटों में केबिन के पास बैठा था। बस में भीड़ ज्यादा होने के कारण पहले इन दोनों की मुलाकात नहीं हो पायी थी। ये दोनों अलग-अलग, आगे-पीछे बैठे थे। वह आगे-आगे था और यह पीछे-पीछे। एक्सीडैण्ट होने के स्थान से एक-दो स्टॉप पहले ही इन दोनों ने एक-दूसरे को देख लिया। हाल-चाल पूछा, चाय-पानी पिया। बस में तब तक काफी जगह हो चुकी थी। यात्री नाम मात्र के ही थे। वह इसे भी अपने पास बुला रहा था, परन्तु इसने उसकी न मानकर उसे ही अपने पास बुला लिया। जल्दी के चक्कर में एक्सीडेण्ट हो गया। तकदीर अच्छी थी दोनों की वरना जिस सीट पर वो आदमी पहले बैठा था वहां पर तब कुछ भी नहीं बचा। बहुत नुकसान हुआ। कई मुसाफिर मारे गये, कई जख्मी हो गये। अब ये दोनों ही एक-दूसरे की जान बचाने का धन्यवाद देते हैं। वह आदमी जब अपनी पुरानी सीट के बारे में सोचता है तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते है यह सोचकर कि अगर यह उसे अपने पास न बुलाता तो वह भी अन्य मर चुके मुसाफिरों के साथ ही निश्चित रूप से मारा गया होता। अब तक उसकी रस्म-क्रिया तक सम्पन्न हो चुकी होती। पत्नी विधवा हो गयी होती, माता-पिता बेसहारा हो गये होते और बच्चे अनाथ हो गये होते। वह इसी की सीट के किनारे पर गैलरी के पास ही बैठा था। थोड़ी-सी चोट देकर उसका बुरा वक्त चला गया था। पहले तो उस इसके बारे में पता ही नहीं चला क्योंकि अचानक हुए एक्सीडेण्ट से मची भगदड़ में सब यात्री एक-दूसरे को रौंदते हुए नीचे उतर गये और जिसे भी, जो भी साधन मिला, रूकवाया, बातचीत की और सवार होकर चले गये। केवल एक वही बाहर रह गया। वह इसके बारे में सोच-सोच कर परेशान हो रहा था कि यह उसे बिना बताये ही पता नहीं कहां चला गया। इसी उधेड़बुन में वह पुनः बस में चढ़ने की सोच ही रहा था कि चढ़ते-चढ़ते एक बार रूक गया। खुदा का शुक्र समझो कि वह अपना सामान देखने की गरज से बस में फिर से चढ़ा और सामने इसकी पगड़ी पड़ी हुई देखकर इधर-उधर देखा, उसे कोई भी नजर नहीं आया। टूटी हुई, उखड़ी हुई सीटों का ढे़र लगा था।”
“कोई और नहीं था इसकी पहचान का ?”
“शायद नहीं। अगर होता भी तो आजकल का समय इतना अधिक बुरा है कि कोई भी, किसी की भी सहायता करने की इच्छा होते हुए भी हिम्मत नहीं करता क्योंकि हमारे देश में कानून ऐसे-ऐसे बनाये गये हैं कि उनके चक्कर में कोई भी मददगार फालतू में फंसना नहीं चाहता। फंस भी जाये जो जिंदगी भर अदालतों के चक्कर में से छूट नहीं सकता। अगर वो नहीं होता तो पता नहीं क्या होता इसके साथ। सब लोग चले जाते यूं ही सीटों के नीचे दबा हुआ छोड़कर। शायद इसके वहां पर दबे होने का किसी को मालूम भी न पड़ता। हड़बड़ी में इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया था।”
“इसके वहां पर दबे होने के बारे में उसे कैसे पता चला ?”
“इसकी पगड़ी देखकर उसने इधर-उधर देखा। उसे कोई भी दिखाई नहीं दिया उसने इसके बारे में पहले तो सोचा कि हो सकता है कि वह भी शायद दूसरे मुसाफिरों के साथ बैठकर चला न गया हो लेकिन दूसरे ही क्षण जब वह अपना सामान उठाकर बस से नीचे उतरने को ही था कि इसने उसे पुकारा। उसने आश्चर्यचकित होकर इधर-उधर चारों तरफ देखा। उसे कुछ भी नहीं दिखाई दिया। उसके दुबारा पागलों की तरह इधर-उधर देखने पर इसने कहा कि मैं यहां हूं सीटों के ढ़ेर के नीचे। देखते ही उसने जैसे-तैसे सीटों को हटाना प्रारम्भ किया, सीटें उठाकर इधर-उधर करने के बाद ज्यों ही इसे बाहर निकालने के लिये हाथ बढ़ाया तो यह धीमे से बोल पाया कि दोस्त अब मुझे चार आदमियों की जरूरत है, तुम अकेले मुझे बाहर नहीं निकाल सकोगे क्योंकि मैं अपने शरीर का नियन्त्रण खो चुका हूं।
“फिर उसने क्या किया ? किसे पुकारा ? किसकी मदद ली ?
“इसकी बात सुनते ही उसके पेट में जबरदस्त मरोड़ उठा। इसकी मिट्टी के ढ़ेर जैसी बिखरी हुई हालत देखकर। यह रेत की तरह उसके हाथों में से फिसल गया था। उसने इसे उठाने की कोशिश भी की थी लेकिन कामयाब नहीं हो पाया। वह अचानक घबरा गया। इतना घबरा गया कि असमंजस में देर तक सोचता रहा कि वह क्या करे ? कैसे इसे नीचे उतरवाये ? किसकी मदद ले ? किसे पुकारे ? कैसे इसकी प्राथमिक चिकित्सा करवाये ? सबसे पहले उसने निबटना ही ठीक समझा। वहां पर केवल मरे हुए मुसाफिरों, एक-दो पुलिस वालों के अलावा कोई और नहीं था जिससे वह मदद मांग सकता।”
“फिर इसे यहां कौन लाया ? किसने इसकी मदद की ?”
“सोचते-सोचते उसका कुछ समय और बीत गया। उसे ज्यादा चोट नहीं लगी थी। यह बिल्कुल होशोहवास में था। थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद एक बस और आ गई थी। अवसर देखकर वह रूक गई। कुछ मुसाफिर घटना का जायजा लेने नीचे उतरे तो उसने उनसे प्रार्थना करके इसे नीचे उतरवा लिया। उसने दूसरे मुसाफिरों से पहले ही कह दिया था कि यह अपने शरीर का नियन्त्रण खो चुका है था इसलिये मेहरबानी करके इसे पकड़ कर खींचने की बजाय चारों हाथों-पावों से उठाकर आराम से बाहर निकालें।”
“इसके चोट कहां पर लगी थी ?”
“वैसे तो इसके सिर में थोड़ी-सी खरोंचे आयी थीं। वो अब पूरी तरह ठीक हो चुकी हैं लेकिन असली चोट तो रीढ़ की हड्डी में है। हड्डी की कोई डिस्क अपने स्थान से इधर-उधर सरक गई है। इसलिये यह बिल्कुल अपंगों जैसा हो चुका है। उस आदमी ने इसे पास के किसी क्लिनिक में डॉक्टर को दिखाया। उसके कथनानुसार पुलिस के माध्यम से इसके कार्यालय में सूचना दी गयी। घर पर खबर की गयी। बीवी-बच्चों को बताया। आसपास के पड़ौसी तुरन्त मदद के लिये तैयार हो गये। वहां के डॉक्टर ने जब यह जानना चाहा कि यह किस हॉस्पीटल में रेफर होना चाहता है क्योंकि वहां पर उसके पास इसके उपचार का कोई विशेष प्रबन्ध नहीं था तो इसने यहीं पर इसी हॉस्पिटल में एडमिट होने को ही प्राथमिकता दी क्योंकि यहां पर इसका पहले से ही अक्सर आना-जाना लगा ही रहता था। पूर्व में भी किसी-न-किसी के साथ यहां आकर रहता ही रहा था। जब तक घर पर पता चल पाता, वहां से कोई भी आ पाता, उस आदमी ने इसे यहां लाकर एडमिट करवा दिया था। जहां-जहां पर भी आवश्यकता हुई उसने सारी-की-सारी औपचारिकताओं को पूरी किया और इसे हर प्रकार से बेफिक्र रहने का हौंसला दिया। वह फरिश्ता हर दूसरे-चौथे दिन यहां आकर अपनी जान बचाने का धन्यावाद देता है, इसकी हर चीज का ख्याल रखता है। उस रोज अगर वो न होता तो जाने क्या बीतती इस पर। क्या होता इसके घर वालों का। इसके घर से किसी के आने के बाद ही वह यहां से गया था। किसी आया की तरह इसकी देखभाल की थी।”
“इसका मतलब है वह आदमी वास्तव में इसके अति निकट रहा होगा।”
“इसके बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकते कि वह उसके अत्यन्त निकट रहा होगा या नहीं फिर भी सफर में अगर कोई मामूली-सा-पहचान का चेहरा नजर भी जाये तो वह सफर खत्म होते-होते बहुत पास आ जाता है। इतना अधिक पास कि जिंदगी भर पास आ जाता है। इतना अधिक पास कि जिंदगी भर पास ही रहता है। कभी भी दूर नहीं होना चाहता। जो कि किसी आये और पक्के दोस्त की तरह पराये शहर और सफर में काम आता रहता है। वह आदमी अगर इसके ज्यादा पास था तो उसने किसी गहरे रिश्तेदार की तरह काम किया और अगर वह कुछ दूर से भी होता तो उस भाई ने इन्सानियत दिखलाई। हम सब हमेशा दुआ करते हैं कि खुदा उसकी मदद करें, उम्र लम्बी करें जिसने हमारी मदद की। इसे यहां पंहुचाया।”
“अब इसका क्या हाल है ? हाथ पैर चलते हैं कि नहीं ? मल-मूत्र का पता भी चलता है कि नहीं ? भूख-प्यास लगती है कि नहीं ? दवा-दारू काम करती है कि नहीं ?”
“बाहर से तो इसकी चोट के बारें में कुछ भी पता नहीं चलता। रीढ़ की हड्डी के बारे में या तो भगवान ही जानता हैं या फिर यहां के डॉक्टर लोग जो हर पांचवे-सातवें दिन एक्स-रे करके ले जाते हैं लेकिन बताते कुछ भी नहीं। कुछ भी, कभी भी पूछो तो हर बार एक ही रटा-रटाया जवाब देते हैं कि हम ज्यादा चिन्ता न करें। भगवान पर भरोसा रखें। सेवा करें, जितनी भी हो सके ज्यादा खुराक दें। सब भगवान के हाथ में है। वही सब कुछ ठीक करेगा। यहीं पर आकर उनकी बात पहेलियों जैसी लगने लगती हैं जब ये लोग सच्ची बात न बताकर दुआ करने और भगवान पर भरोसा करने की बात करते हैं। पेट से नीचे की संवेदनशीलता खत्म हो चुकी है। मूत्र के लिये नलकी लगा रखी है। यूरो बैग जब भी भर जाता है तो खाली कर देते है। पासा पलटते समय मल साफ कर देते हैं इसे कुछ भी पता नहीं चलता। भूख-प्यास भी ठीक ही लगती है। बिस्तर पर पड़े-पड़े रोगी हजम भी कितना कर सकता है। फिर भी जितनी इच्छा होती है खा-पी लेता है। हम अगर जबरदस्ती खिलाने-पिलाने की कोशिश करते हैं तो हमसे नाराज हो जाता है। कई-कई बार तो बिल्कुल ही न खाने की जिद भी कर लेता है। हमें ही हारना पड़ता है। उधर डॉक्टर लोग हमें इसे ज्यादा-से-ज्यादा खिलाने की सलाह देकर चले जाते है इधर ये जिद कर लेता है। कई बार हम बीच में पिस जाते हैं हालांकि यह भी भली-भांति जानता है कि अच्छी खुराक से इसे ही फायदा होना है लेकिन करे क्या ? बिस्तर पर जो पड़ा है। जल्दी-जल्दी हजम कैसे हो सकता है ?”
उनके बातें करतें-करतें चाय-पानी भी आ जाता है। सब लोग बीच-बीच में बातें भी कर रहे हैं, चाय भी पी रहे हैं। जैसे-जैसे उन सबका वार्तालाप चल रहा होता है मेरी आंखों में से पानी किसी उफनती हुई नदी की बाढ़ की तरह प्रवाहित होकर गालों पर से गुजरते हुए, कानों में तेल की तरह गर्म-गर्म महसूस हो रहा है। ये आंसू भी बड़े बेलगाम होते है, वक्त-बेवक्त बहने लगते हैं। अब केवल आंसू बहाना ही मेरा काम रह गया है। अपनी तकदीर पर रोना ही मेरी मजबूरी है। कभी भूतकाल को देखकर, कभी वर्तमान को देखकर और कभी भविष्यकाल के बारे में सोच-सोच कर। अब जैसे ही मैं आंखे खोलकर देखने की कोशिश करता हूं तो सामने फादर इन ला को अपने दो-तीन साथियों के साथ बैठे हुए पाता हूं जो मेरी हालत का जायजा ले रहे है। उन्हें रूंधे हुए गले से मैं केवल प्रणाम करने के अलावा किसी अन्य प्रकार की गतिविधि सम्पादित करने की स्थिति में नहीं हूं। वे लोग भी मेरी हालत से भलीभांति परिचित है। पास में खड़े हुए रिश्तेदार के माध्यम से मैं उन्हे अपने पास आने की प्रार्थना करता हूं। वे पास आते हैं। माथे पर हाथ फिराकर आशीर्वाद देते हुए कहते हैं-
“बेटा। तू किसी भी बात को लेकर चिन्ता मत करना। हम लोग तेरी जान की खातिर भगवान से भी टक्कर लेने से पीछे नहीं हटेंगें। तू आराम से इलाज करवा। बेफिकर हो जा। पैसे-टके की बिल्कुल भी चिन्ता मत करना।”
“ठीक है जी।” मैं उन्हें कैसे बतलाऊं कि मेरे चिन्ता करने या न करने से भला क्या होता है। जो होना है वो तो होकर ही रहेगा। जो नहीं होना है वो कभी नहीं होगा। हम-तुम चाहे कितना भी भाग-दौड़ क्यों न कर लें। होनी को कोई भी टाल नहीं सकता। होनी तो होकर ही रहती है। हम क्यों बेकार में चिन्ता कर फालतू में तनावग्रस्त रहें। जिन लोगों ने जिंदगी में कभी भी हॉस्पिटल का मुंह भी नहीं देखा मेरा पता करने के लिये उन्हें भी यहां तक आना पड़ा है जैसे कि कभी मैं भी आया करता था। मैं यह बिल्कुल भी नहीं जानता था कि किसी समय मुझे भी यहां आकर एडमिट होना पड़ेगा। लोगबाग, दोस्त, सगे-सम्बन्धी मेरी सेहत का पता लेने के लिये यहां तक आयेंगे।
“घर पर सब कैसे हैं ? काम-धन्धा कैसा है ? बच्चे कैसे हैं ? मैं पूछता हूं।”
“घर में सब लोग राजी-खुशी से हैं बेटा। सबको तुम्हारा ही हाल जानने की उत्सुकता है। तुम्हारा ही इन्तजार है। तुम जल्दी से ठीक हो जाओ।” थोड़े दिन पहले सिर के जो बाल काट दिये गये थे वही अब कांटो की तरह चुभने लगे है। बुजुर्ग उन्हीं में हाथ फेरने लगते है। वे अपनी पुत्री को विधवा होता हुआ नहीं देखना चाहते इसलिये बार-बार मुझे सांत्वना दे रहे हैं। कई बार उनकी बातों से मैने अनुमान लगा लिया है कि मेरा ठीक होकर चल-फिर सकना मुश्किल है यह सब सिर्फ एक कल्पना बनकर ही रह जायेगा। जिस तरह की हालत में से अब मैं गुजर रहा हूं वह अब सजा लगने लगी है। जीवन की गाड़ी का इंजिन खराब हो चुका है। स्पीडोमीटर बन्द हो चुका है। गियरों से जुड़ी हुई पहियों तक जाने वाली शाफट बेकार हो चुकी है। गाड़ी का चल पाना संभव नहीं लगता। अगर संभव होता तो भी पता नहीं किस दिशा में जाती, भंवर या तूफान में फंसी हुई किश्ती की तरह। मेरा फिर से चलना-फिरना चांद पर जाने जैसा लगता है।
दूर से आये हुए बाकी लोग फादर इन ला के साथ अब जाने को तैयार हैं अपनी इस कहानी को मैंने अपने साथियों के साथ इतनी अधिक बार दोहराया हैं कि मुझे अब स्वयं किसी को भी बताने की जरूरत ही नहीं होती। मेरे साथियों ने इसे टेप रिकार्डर की तरह याद कर रखा है। किसी के भी पता लेने आने पर ये लोग ही बता देते हैं कि मेरे साथ कब-कब, कहां-कहां और क्या-क्या हुआ, कैसी दुर्घटना घटित हुई। आगन्तुकों के मिलने आने का समय अब समाप्त होने जा रहा है। वार्ड इन्चार्ज ग्वाले की तरह लोगों को बाहर जाने के लिये हांक रहा है। लोग जाते-जाते भी ढ़ेरों बातें करना चाहते हैं लेकिन वह अब और इजाजत नहीं देना चाहता। यहां के कानून का वास्ता देता है। यूं ही करते-करते कहानी सुनाते-सुनाते दिन गुजर रहे हैं। एक दिन तो वो भी आयेगा जब मैं भी उन सबकी शर्तों से दूर अपने परिवार में मिल जाऊंगा।
लगभग तीन माह के उपचार के बाद अब मैं मृत्यु शैया पर हूं। बिस्तर पर पड़े-पड़े अक्सर मैं यही सोचा करता हूं कि तकदीर उन लोगों की अच्छी थी जो उस दिन एक ही झटके में दुर्घटना स्थल पर ही एक ही बार में जीवण-मरण के चक्रव्यूह में से निकलकर आजाद हो गये थे, बन्धन से मुक्त हो गये। या मेरी जो कि आज तक दुख भोगने के लिये बिस्तर पर पड़ा रहा। अपनों पर बोझ बना रहा। मेरी तकदीर लोगों के लिये चाहे कितनी भी अच्छी रही हो लेकिन उन लोगों से अच्छी नहीं है। मेरी खातिर तो सबसे बेकार है। मेरी तकदीर भी अगर अच्छी होती तो शायद मैं भी उस दिन मरे हुए मुसाफिरों की तरह ही उन्हीं में से एक होता। मैं भी उनके साथ ही मुक्त क्यों नहीं हुआ। मरना तो मुझे अब भी है लेकिन तकदीर का लिखा हुआ दुख भोगकर। तकदीर को भला-बुरा कह-सुनकर। मरना तो सभी को ही है किसी को आराम से, किसी को तड़प-तड़प कर, किसी को मेरी तरह बिस्तर पर। आठमाह से बिस्तर पर हूं। जैसे बेड नम्बर दो पर था वैसे ही अब हूं। घर पर बीवी-बच्चों पर बोझ। दिन-ब-दिन गिर रही सेहत को देखकर अब तो तमाम डॉक्टरों ने भी मेरे ठीक होने, ज्यादा जी पाने की उम्मीद छोड़ दी है। पहले उन्हें केवल शंका ही थी लेकिन अब पूरा यकीन ही हो चुका है। वे अब यह पक्का अनुमान लगे हैं कि मेरा जीवन अब कितने घण्टों का मेहमान है। यहां पर भी भरपूर खुराक का ही रोना है। जितने दिन ठीक से खाया-पीया उतने दिन ठीक से जिया। जब से खाना छोड़ा, तब से जीना”। मेरा कमरा, मेरा बदन दोनों बदबू से भर चुके हैं जिसे हर सदस्य चाहकर भी अनदेखा कर रहा है। रिश्तेदारों ने भगवान से भी टक्कर लेने की कसर बाकी नहीं छोड़ी है। वे कभी भी पीछे नहीं हटे है। जिसने भी, जैसा भी करने को कहा उन्होंने सब कुछ किया परन्तु अब उन सबकी मेहनत भी मिट्टी में मिलती हुई नजर आ रही है। पानी की तरह बहाया हुआ पैसा पानी में ही जा रहा है। भगवान ने इन सबमें से किसी की भी प्रार्थना नहीं सुनी। आशा की अंतिम किरण तक बुझ चुकी है। मैं ही इन्हें और ज्यादा भागदौड़ करते हुए नहीं देखना चाहता और सोचने लगा हूं जितनी भी जल्दी हो सके उन्हें इस भागदौड़, बदन की दुर्गन्ध से, झूठी आस से मुक्ति दिला ही दूं ताकि सबको और ज्यादा परेशान न होना पड़े। जिन लोगों ने भी मेरा पता लिया, मदद की, सेवा की, प्रार्थना की, उन सबकी लम्बी आयु की मैं प्रार्थना करता हूं।
मेरे जीवित रहने की उम्मीद न होने पर जिस-जिस व्यक्ति को भी मालूम हुआ हाल जानने चला आया। नब्ज गुम हो चुकी है। आक्सीजन लगा रखी है। सांसो ने गति कम कर दी है। जीवन का सफर अंतिम पड़ाव पर है। दिल की धड़कन बन्द हो रही है खत्म होती हुई बैटरी और चाबी की तरह। सांस इस कदर मंद है कि है कि दूसरी सांस आने की उम्मीद नहीं है। मेरे मरने के बाद पता नहीं मेरे बीवी-बच्चों को कैसे-कैसे दिन देखने पड़ेंगे। किन-किन दुखों का सामना करना पड़ेगा ? किन-किन प्रकार के अच्छे-बुरे लोगों से मिलना पड़ेगा? अपने चारों ही तरफ तूफान-ही-तूफान महसूस कर रहा हूं। जीवन की नाव मझधार में डूब रही है टूटी हुई पतवार की तरह, बिना किसी नाविक के। बचने का कोई आसार नजर नहीं आ रहा है।
जैसे-जैसे सांसों के रूकने का, बदन के चिता पर जलकर अस्थियां प्रवाहित करने का समय पास आता जा रहा है, सभी सम्बन्धियों ने पाठ प्रारम्भ कर दिया है, गंगाजल की व्यवस्था की जा रही है ताकि मुझ मरते हुए के मुंह में टपका कर मुक्ति दिलाई जा सके। उन सबके विश्वासनुसार मेरे सारे पाप कट सकेंगें। मैं स्वर्ग में प्रवेश कर सकूं। हर किसी के द्वारा पुकार-पुकार कर मेरे मुंह में गंगाजल डाला जा रहा है। सांसो की धीमी-धीमी रफतार में सभी बेसब्री से अपनी-अपनी बारी का इन्तजार कर रहे हैं ताकि अंतिम सांस के साथ गंगाजल की अंतिम बूंद भी मैं उसके हाथ से ही ग्रहण करूं जैसे कि घड़ी की सूइयां चक्कर लगाकर एक ही बिन्दु पर आकर, ठहर कर समय का आभास करवाती है। घड़ी के बन्द हो जाने पर समय नहीं ठहरता। खराब घड़ी की जगह नई और अच्छी घड़ी आ सकती है लेकिन मेरी कमी कभी भी पूरी नहीं हो पायेगी। केवल समबन्ध ही बाकी रह जायेगा। मैं किसी का पुत्र हं, किसी का भाई हूं, किसी का दोस्त हूं, किसी का पिता हूं, किसी का पति। किसी-न-किसी का कुछ-न-कुछ हूं। केवल नाम और सम्बन्ध ही रहेगा। इन सबकी कोशिशों के नाकाम हो जाने के पश्चात मैं जीवित नहीं बचूगां। देह त्याग दूंगा। अंतिम बार नहलाया जाऊंगा। चार आदमियों के द्वारा अर्थी के रूप में उठाकर श्मशान भूमि तक ले जाया जाऊंगा। पुत्र द्वारा मुखाग्नि देकर देर तक जलकर राख में परिवर्तित होकर अस्थियों के रूप में किसी भी तीर्थ स्थान में पवित्र जल में प्रवाहित किया जाऊंगा। स्वर्गवासी कहलवाऊंगा। केवल एक याद बनकर रह जाऊंगा। माला पड़ी हुई एक बेजान तस्वीर के रूप में।
गंगाजल का टपकाया जाना तेज किया जा रहा है। वार्ड नम्बर चार की बन्द पड़ी हुई घड़ी मुझे बार-बार दिखाई दे रही है जो दुख की कठोर घड़ी बनकर पूरे परिवार के हाथ में बंधी हुई है। मुझे अपनी तरफ खींच कर बन्द कर देना चाहती है और जो अब धीरे-धीर मौत की तरफ बढ़ रही है।
“(स्वर्गीय कुलवन्त सिंह जी की मधुर स्मृति को समर्पित कहानी)”