बम का फूलदान और तोप के मुहाने पर घोंसला / जयप्रकाश चौकसे

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बम का फूलदान और तोप के मुहाने पर घोंसला
प्रकाशन तिथि :16 अक्तूबर 2015


लंदन की 45 वर्षीय कैथरीन रॉलिन्स को तीस वर्ष तक एक फूलदान का उपयोग करने के बाद टीवी पर युद्ध का वृत्तचित्र देखने के बाद अहसास हुआ कि जिस बर्तननुमा चीज को वह तीस वर्षों से फूलदान की तरह उपयोग कर रही है, वह युद्ध के समय जर्मनी की वायुसेना द्वारा फेंका गया बम है, जो फटा नहीं। उसने पंद्रह वर्ष की कमसिन उम्र में घर के अहाते में यह 12 इंच लंबा और तीन इंच चौड़ा शेल देखा और उसी दिन से वह उसे फूलदान की तरह इस्तेमाल कर रही थी। यह उसका भाग्य है कि वह बम फटा नहीं अन्यथा पूरा घर ही नष्ट हो जाता। जिस उम्र में उसने निहायत ही मासूमियत से उस बम को उठाया था वह कमसिन उम्र भी एक बम ही होती है और यह बम भी वर्षों विवाहिता की तरह गृहस्थी की जद्‌दोजहद में फटता नहीं है वरन् प्रेम और वात्सल्य के फूल उसमें महकते रहते है। आजकल कमसिन उम्र के बम प्राय: विवाह पूर्व ही फट जाते हैं। युद्ध स्वयं ही एक बम है। हर युद्ध के बाद दशकों तक महंगाई और लाइलाज रोग मोहल्ले दर मोहल्ले, घर दर घर दरवाजे की सांकल खटखटाते हैं और दरवाजा न खुलने पर भी जाने कैसे घर में प्रवेश कर जाते हैं। आजकल तो युद्ध नहीं होते हुए भी महंगाई बढ़ रही है और दाल दो सौ रुपए किलो हो गई है परंतु वह कोई और जमाना था, जब प्याज के दाम से एक सरकार गिर गई थी। अब तो महंगाई को भ्रष्टाचार की तरह समाज ने स्वीकार कर लिया है। समाज में ये शॉक आब्जर्वर्स कहां से आए?

महिला की शिकायत पर अधिकारियों ने उस शेल से विस्फोटक निकाल लिए और अब वह निरापद शेल महिला को लौटा दिया गया है। महिला पुन: उसे फूलदान की तरह इस्तेमाल कर रही है और अपने घर आने वाले हर व्यक्ति को सगर्व पूरी कथा सुनाती है। जब से यह बात प्रकाशित हुई है, उसके घर अनिमंत्रित अजनबी भी आते हैं और उस फूलदान को देखते हैं तथा उसके सौंदर्य से अभिभूत हो जाते हैं। इस तरह अनमंित्रत अजनबियों को चाय-नाश्ता कराते-कराते उस महिला का घर का बजट गड़बड़ा गया है गोयाकि युद्ध से जुड़ी चीज ने अब उसे हानि पहुंचाना प्रारंभ कर दिया है। वही युद्ध के उपरांत सांकल खटखटाती महंगाई की बात किसी और रूप में सत्य सिद्ध हो रही है। युद्ध समाप्त हो जाता है परंतु उसके प्रभाव दशकों तक जारी रहते हैं। जर्मनी में अपने को महानतम व श्रेष्ठतम मानने का जो जुनून अहंकारी सत्तालोलुप लोगों ने फैलाया, उससे किसी ने सबक नहीं लिया। आज भी उसी तरह के जुनून का अंधड़ चल रहा है।

बहरहाल, उस घर का एक बच्चा अब उस निरापद बम से भयभीत है। जब तक वह उसकी मारक शक्ति से अपरिचित था, वह बेफिक्र था और अब उसके निरापद होने के बाद वह कितना खतरनाक था, इस स्मृति से ही वह बच्चा भयभीत है। मरे हुए सांप से भी डर लगता है। भय के हव्वे इसी तरह काम करते हैं। वे अवचेतन में सांप के समान रेंगते हैं। टूटी, कट गई हड्‌डी आसमान में बादल घिरते ही फिर तड़कने लगती है और दर्द लौट आता है। उस महिला के घर आने वाले अनिमंत्रित अतिथि क्यों वहां आते हैं? उजाड़ के प्रति कौतूहल होता है। मुंबई में आतंकी हमले के बाद अनेक लोग ताज होटल आते थे और एक रेस्त्रां मालिक ने दीवार पर धंसी गोलियों के गिर्द फ्रेम बनवा दी थी मानो उजाड़ का चित्र दीवार पर चस्पा है। उस बम में फूल लगाना मुझे एक अनाम शायर की एक पंक्ति की याद दिलाता है, जो इसी आशय की है, 'उस गरजने वाली तोप के शांत हो जाने पर एक नन्ही चिड़िया ने उसमें अपना घोंसला बनाया है।' जब तक मनुष्य बम को फूलदान और चिड़िया तोप के मुहाने पर घोंसला बनाती रहेगी, निराश होने की आवश्यकता नहीं है।

कुमार अंबुज की कविता 'उजाड़' की कुछ पंक्तियां देखिए- 'वहां इतना उजाड़ था कि दर्शनीय स्थल हो गया था, दूर-दूर से आ रहे थे लोग, छुट्‌टी का दिन था सो बहुत थी लड़कियां और स्रियां भी, आबादी से ऊबे हुए लोगों की नई आबादी थी वहां, इतिहासकार और जिज्ञासु छात्रों का भी एक झुंड था, एक दार्शनिक नुमा आदमी एक तरफ, अपने कैमरे से खींच रहा था उजाड़. ...एक सभ्यता का ध्वंस था वहां, कुछ लिपियां थीं और चित्रकला की प्रारंभिक स्थितियां, चट्‌टानों के बीच गूंजती थी, वहां पूर्वजों की स्मृति, लोगों ने उजाड़ को रौंदते हुए, उसे बदला था मौज-मस्ती में, हम सबके चले जाने के बाद शायद निखार पर आएगा, उजाड़ का सौंदर्य... उजाड़ और मनुष्य के अकेलेपन को आज तक किसी ने नहीं देखा?' पूरी कविता के लिए पढ़ें राधाकृष्ण प्रकाशन का कुमार अंबुज का संग्रह 'क्रूरता।'