बम ब्लास्ट बनाम बम विलास / गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'

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महाराष्ट्र, झारखंड ,छत्तीसगढ़, नागालैंड और कश्मीर में 'एक साथ कई बम धमाकेंसिलसिलेवार धमाकें' या 'सीरियल ब्लास्ट' जैसे शीर्षक हो सकते हैं किसी अखबार या फिर चटपटे मसालेदार समाचार परोसने वाली समाचार एजंसियों के लेकिन मुझे यह घटना आतंक फैलाने और जन जीवन को तहस-नहस करने वाली विनाश लीला लगती है। यह त्रासद विनाशलीला है जिस पर असुर भी शर्मिंदा हो उठें। इसलिए बम धमाकें, विस्फोट या ब्लास्ट जैसे शब्द इस घिनौने कृत्य के आगे बौने हो चुकें हैं। अब तो ऐसे ध्वंस के लिए नई व्यंजना वाले शब्द की तलाश करनी ही होगी।

मात्र 'मिनटों में जनता का सर्वस्व इसमें भस्म हो गया है। विनाश का यह तांडव पीछे छोड़ गया है मांस के लोथड़े, धुंआ, गुबार। उसमें भटक रही है कुछ विधवाएं, माएं और अनाथ संतानें। कहीं-कहीं चमक जाती है शवों को तलाशती कुछ पगलाए अपनों की पथराई आँखें वे सब तरफ नजरें दौड़ रही हैं पर हर तरफ कंकाल या अंशवशेष ही दिखाई दे रहे हैं। ये सबके सब उन्हें अपने ही तो लग रहे हैं। किसे अपनाएं, किसे छोड़ें। यहां किसे और किस आधार पर अलगाया जाए, बांटा भी जाए तो कैसे बांटा जाए? अपने-पराए का भेद बताने वाला कौन सा पैमाना अपनाया जाए। यहां तो सबके सब झूठें पड़ गे हैं। क्योंकि अस्थियां स्त्री की हो या पुरूष की, सब एक सी हैं, यहां अभेद है। वह इस लिए कि मांस-मज्जा न स्त्री का, न पुरूष का, न हिन्दू का न मुस्लिम का, सिख, इसाई, यहूदी, जैन या बौध्द का भी तो नहीं खा जा सकता वक तो सबका एक सा ही होता है। यहां ब्रम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, शेख या जुलाहे जैसा भेद कर पाना भी नामुंकिन ही है। यहां तो बस लाल-रक्त्त, मांस-मज्जा, अस्थि-चर्म ही अवशिष्ट है जो अभी-अभी इंसानों के रूप में चलता-फिरता हुआ दोड़ कर टेर्न में चढ़ा होगा लेकिन देश, समाज और सैकड़ों परिवारों का दुर्भाग्य कि वह चलते-फिरते इंसान सैकड़ों में एक मलबे में तब्दील हो गे। कल तक सड़ाध बलकर समाज की सांसों में समा जैंगे। इस मलबे में किसी की कुछ फचान कर पाना लगभग असंभद ही है।

ढूंढते-ढूंढते किसी के हाथ पैर आया है, तो किसी के मात्र उंगली, अंगूठे या फिर किलो दो किलो जो भी हाथ आ गया है, उस मांस-मज्जा से ही संतोष करना पड़ा है। कुछ अब भी भटक रहे हैं पटरी-पटरी बजड़ी पर कूदते-फांदते स्टेशन की ईंट-ईंट से लड़-लड़ कर अपने घर वाले का पता पूछ रहे हैं।

उनके हाथ जो भी मांस-मज्जा लग गया है उसे वे ममता में पागल बंदरिया की भांति छाती-पेटे चिपकाए दर-दर की खाक छान रहे हैं। इन पागलों की चिकित्सा किसी मानसिक अस्पतालों में भी तो नहीं होने वाली है। इन्हें इसी तरह भटकना होगा अधर्म के नाश और सृष्टि के नव-निर्माण तक।

जब ये पागल स्वत: थोड़ा-थोड़ा ठीक होने लगेंगे, दाना-पानी ग्रहण करने लगेंगे तो इनके सामने फेंक दिए जाएंगे रंगीन कागजों के कुछ टुकड़े। संभव है कुछ इनसे बहल जाएं पर शायद सबको ये टुकड़े नहीं लुभा पाएंगे। सभी पागले-बरगलाएं भी नहीं जा सकते। इन काले दिवसों की याद के लिए कुछ पागलों का बछा रहना भी निहायत ज़रूरी है। यह बात शायद सबको पता है कि जो घटना इन पागलों के लिए 'विनाश लीला' है वही आतताइयों के लिए 'विलास लीला'। इनकी इस विलास लीला का अत्यंत आवश्यक अस्त्र है बम। इसलिए यदि बम धमाकें, ब्लास्ट या सीरियल ब्लास्ट जैसे शब्दों की जगह इसे विलास लीला खा जाए तो अधिक तर्क संगत और सार्थक होगा। इसे यह नाम देकर मैं आतंकियों की हौसला अफजाई नहीं करना चाहता और न ही उन्हें कोई प्रशंसा पत्र देना बल्कि इससे मैं आतंकियों की नापाक मनशा को उजागर करना चाहता हूँ। अब प्रश्न यह उठता है कि इसे 'बम विनाश' क्यों न कहा जाए? ठिक है यहब भी नाम दिया जा सकता है पर इससे बम के विनाश का अर्थ भी ध्वनित होता है जो इसकी अर्थच्छाया से भी दूर है। खैर! इस अनर्थ के अर्थ लगाने में रखा ही क्या है? लेकिन हां, याद आया! अर्थ तो लगाना ही पड़ेगा क्योंकि कहीं ऐसा तो नहीं कि महान राष्ट्रों के परमाणु परीक्षण की तर्ज पर यह किसी कौमी राष्ट्र का परीक्षण भर हो और असली विस्फोट अभी बाकी हो। सब कुछ खोकर भी आशा यह है की जा सकती है कि संसद भवन के हमले से अचानक जागकर फिर से हौले से सो गई संसद कम से कम अब तो पूरा जागेगी ही और इस मानवी विनाश में विधवा हुई मांगों, सड़कों पर नंगे पांवों भागती माओं के पसरे हुए आंचलों, देहरी पर टकटकी लगाए उदास बच्चों की गीली आंखों, कलाईयों के इंतज़ार में बैठी बहिनों के हाथों में सजी थालियां मिठाईयों की भाषा का नया पाठ शुरू करेगी, नए अर्थ खोजेगी। क हीं ऐसा न हो कि नींद की आदि संसद आंखे मिलमिलाकर फिर से खर्राटे भरने लगे। सच मानो यदि अब भी ऐसा हो तो जगाने के लिए चिकोटी नहीं, करारे चाटे की ज़रूरत है।