बया का घोंसला / देवेंद्र
बचपन में शायद माँ ने कभी यह कहानी सुनाई थी-नर बया ने तिनके-तिनके जोड़कर घोसला बनाया था। जब घोसला बन गया तो वह रोज दूर-दूर तक उड़कर जाया करता। वह रोज अपने लिए एक मादा बया तलाश रहा था जो उसके साथ रहना स्वीकार कर ले। इस बीच कई मादा बया उसके साथ आयीं। उसके घोसले को देखतीं-शायद उन्हें उसका घोंसला पसन्द नहीं आता और वे दुबारा नहीं आतीं। बया फिर अपना घोसला दुरुस्त करने में जुट जाता। एक दिन अचानक ही उसे अपना साथी मिल गया। ऐसे ही बनते हैं बया पक्षियों के जोड़े। सभी अपने जोड़ों के साथ अपने-अपने घोसले में रहते हैं। कभी कोई बया अकेले नहीं रहता। अगर नर बया कभी बे-वफाई करता है तो उसे अपने लिए दूसरा घोसला बनाना पड़ता है। अमूमन बया बे-वफाई नहीं करते।
ऐसे ही अनेक किस्सों-कहानियों से जीवन की रुचियाँ, संस्कार और सौन्दर्य बोध बनते हैं। जो बातें मनुष्य की समझ मंे नहीं आतीं उसे समझने के लिए वह प्रकृति के नियमों को देखता है। यह जरूरी नहीं कि प्रकृति के नियम अन्तिम रूप से सत्य और स्वीकार्य ही हों, बावजूद इसके...
यह जरूरी नहीं है कि इतनी बड़ी दुनिया में जीवन जीने का कोई एक ढंग हो, कोई एक ही सच हो जिसे सब स्वीकार करें। और खुद हमारा अपना जीवन अपने तईं बनाये गये उसूलों का कितना पालन कर पाता है जो हम दूसरों से अपेक्षा करें कि अमुक का जीवन-आचरण हमारे विश्वासों, रुचियों के अनुसार रहे। अलग-अलग वर्गों और समाजों के भिन्न-भिन्न विश्वास, नियम और सच होते हैं, हूबहू भले न हांे लेकिन उसी दायरे में उनका जीवन-आचरण होता है। दुनिया का कोई भी सिद्धान्त, कोई भी नियम अगर अपने को सर्वकालिक, सर्वोपयोगी अन्तिम सच के रूप मंे ईश्वर की तरह प्रतिष्ठित करता है तो वह ईश्वर की ही तरफ फरेबी साबित होगा। उसकी ट्रेजेडी उसकी अपनी समस्या होगी। मैं उसके बारे में क्यों सोचूँ?
स्त्री-पुरुष सम्बन्धों मंे प्रेम का आदर्श स्वरूप क्या होना चाहिए? यह तय करने के लिए मेरे पास न तो धर्मगुरुओं जैसा पाखंड है, न किसी तानाशाह की रक्त लोलुप तलवार। यह दो व्यक्तियों का निहायत निजी मामला होता है। जो जैसे चाहे रहे। दूसरे की दीवाल में सुराख करके रात-दिन उसी में झाँकते रहने का महान नैतिक दायित्व हमारे पड़ोसियांे को मयस्सर है। मैं उनके सुख मंे साझीदार नहीं होना चाहता।
प्रेम को लेकर आज मैं जिस तरह सोेचता हूँ, वैसे कल भी सोचूँगा ही-यह मैं दावे के साथ नहीं कह सकता। फिर भी... पता नहीं क्यों, मैं प्रेम सम्बन्ध के मामले में हमेशा एकनिष्ठता को ही स्वीकार कर पाता हूँ। जीवन मंे अलग-अलग समय हम अलग-अलग प्रेम तो कर सकते हैं। यह निहायत सम्भव है लेकिन एक समय में एकाधिक प्रेम जी पाना मेरे लेखे असम्भव प्रतीत होता है। शायद बेईमानी और कुरुचिपूर्ण भी। देह सम्बन्धों में तो ऐसा सम्भव होता है। हर देह सम्बन्ध, प्रेम सम्बन्ध नहीं होता है। जबकि प्रेम सम्बन्ध, देह सम्बन्ध के बगैर आधा-अधूरा और प्यासा रहता है। कभी प्रियंवद ने कहा था-’’मनुष्य जब पहली बार प्रेम करता है तो देवता होता है। दूसरी बार प्रेम करता है तो मनुष्य होता है। आदमी तीसरी बार प्रेम नहीं करता।’’
आज जब प्रियंवद यह कहते हैं कि ’’जैसे माँ अपने कई बच्चों के साथ एक सा प्यार करती है उसी तरह हम एक साथ अलग-अलग स्तरों पर कई प्रेम कर सकते हैं। यह अनैतिक नहीं होगा।’’
अगर प्रियंवद की उन दोनों बातों का एक ही अर्थ नहीं है, जो कि निश्चित ही नहीं है तो शायद प्रेम के बारे में यह दूसरी अवधारणा बदली हुई या वे कह सकते हैं कि ज्यादा विकसित और व्यावहारिक है।
चूँकि प्रेम हमारे नितान्त निजी जीवन के अन्तरंग अहसासों का मामला होता है इसलिए उसे लेकर बहुत व्यावहारिक और दुनियादार होने का मैं कायल नहीं हूँ। यौन प्रेम अपनी चरम अभिव्यक्ति में एकान्तिक होता है इसलिए प्रेम के अन्य रूपों से इसकी तुलना करना मुनासिब नहीं होगा। सार्त्र और सिमोन द बोउवा के हवाले से प्रियंवद जब अपनी बात कहते हैं तो शायद दोनों के देह सम्बन्धों को प्रेम सम्बन्ध मानने की भूल कर बैठते हैं। क्यों वे दोनों ही एक-दूसरे के प्रेमी माने जाते हैं। और अगर यह सच भी हो तो प्रेम की एकनिष्ठता उससे बौनी कहाँ साबित होती है। कहीं हम यह मानने की गलती तो नहीं करते हैं कि अपने कृतित्व की ही तरह हर महान व्यक्ति का निजी जीवन और जीवन के सारे सम्बन्ध भी महान ही होते हैं।
विचारों और विशेषकर प्रेम के अहसासों के मामले मंे मैं इतना पराश्रित और परजीवी नहीं होना चाहता कि ’कलाराजेटकिन’ और ’लेनिन’ की बहसों को उद्धृत करता फिरूँ। या यह पढ़कर सुनाऊँ कि ’परिवार व्यक्तिगत सम्पत्ति और राजसत्ता की उत्पत्ति’ मंे ’एंगेल्स’ ने क्या-क्या लिखा है। यह विज्ञान का प्रश्न ही नहीं है जो उद्धरणों की प्रयोगशालाओं में साबित किया जा सके। प्रेम विशुद्ध रूप से जीवन की कला है। प्रेमी की देह-गन्ध में ऊभ-चूभ होती नितान्त आत्मगत रुचियां हैं यहाँ। बहसों की अन्त्याक्षरी से बचते हुए सिर्फ अपने अनुभवों को ’शेयर’ भर करना चाहता हूँ।
एक सहज और स्वाभाविक आकर्षण से देह सम्बन्ध तक की यात्रा में जो अवधि होती है, उसी के बीच पैदा होकर प्रेम धीरे-धीरे विकसित होता रहता है। प्रेमपात्र को किसी भी कीमत पर पाने की जुनूनी तन्मयता और तल्लीनता हमें इस कदर एकनिष्ठ बनाती जाती है कि किसी नये प्रेमपात्र को तो छोड़िये, पहले से बने-बनाये रिश्ते- माँ-बाप-भाई, बहन लोकमर्यादा, पत्नी आदि सब छूटते चले जाते हैं। बच जाती है एक जुनूनी आवारगी। बहुत कुछ आत्महन्ता स्थितियों की तरह। कौन सुख के लिए प्रेम करता है? और किसे प्रेम में सुख मिलता है? नहीं, यह खाला का घर तो कत्तई नहीं है। अगर ऐसा होता, सचमुच इतना आसान होता प्रेम तो हर जगह प्रेमी ही होते। क्यों प्रेमियों को लेकर लोग किस्से कहानियाँ रचते? क्या ही अच्छा होता कि मजे में गृहस्थी भी चलती रहती। पत्नी भी खुश रहती। प्रेमिकाएँ भी समय-समय पर बदल जाया करतीं। कितना सुकूनदायक होता प्रेम का यह सफर-ऊब, उमस और एकरसता से बचता-बचाता।
जिस तरह मित्रता के भीतर ही विश्वासघात का जहरीला कीड़ा पलता है उसी तरह प्रेम के भीतर बे-वफाई की सम्भावना बराबर बनी रहती है, वे लोग सौभाग्यशाली हैं जिनका प्रेम बे-वफाई की बलि नहीं चढ़ा। हालाँकि जिसे सफल प्रेम कहा जाता है अपनी सामाजिक भूमिका में वही ’ट्रेजिक’ रहा है, बनिस्बत असफल प्रेम में होने वाली दुखान्तकी के। काम प्रवीण नायिकाओं के उन्नत उरोजों और उत्तेजक नितम्बों पर न्यौछावर होते सफल प्रेम का कामशास्त्र चौंसठ कलाओं का योगासन बनकर थोड़े ही दिनों बाद दर्जन भर बच्चों की चिल्ल-पों, रोटी तेल के हिसाब, घूस के पैसे और शेयर बाजार की अन्धी गलियों से तिरोहित हो गया। जिन्दगी ऐसे उलझी कि स्मृतियों और सपनों की कोई गुंजाइश ही नहीं बची। प्रेम दुनिया से टकराने का माद्दा पैदा करता है, दुनियादार बनाता नहीं है। यथार्थ इतना महत्वपूर्ण और मुख्य नहीं होता कि हम अपनी कल्पनाओं का संसार ही छेाड़ दें। सोचिए, अगर मनुष्य के भीतर से उसकी कल्पनाएँ स्मृतियाँ और सपने निचोड़ लिये जायें तो कितना निर्मम विद्रूप जीवन बचा रहेगा। ’ट्रेजिक’ और असफल प्रेम ने इन्हीं स्मृतियों, सपनों और कल्पनाओं के बल पर विश्व की महानतम कृतियों को जन्म दिया। हमारे यहाँ संस्कृत काव्य परम्परा में और हिन्दी में भी एक लम्बी फेहरिस्त है। इसीलिए सफलता की जगह सार्थकता को देखना चाहिए। जिन्हंे सफल होने की ज्यादा चिन्ता है, अच्छा हो वे किसी बनिए की दुकान पर तराजू और बटखरा लेकर तौलने और बेचने का काम शुरू कर दें।
जैसे ढेर सारी सामाजिक अवधारणाएँ ठोस भौतिक यथार्थ के उदाहरण की बुनियाद चाहती हैं वैसे ही प्रेम की समूची परिकल्पनाएँ और सपने देह सम्बन्ध की माँग करते हैं। प्रेम के लम्बे सफर में देह सम्बन्ध एक महत्वपूर्ण विराम है जहाँ से विश्वास और दायित्व की नयी भूमिकाएँ तय होनी शुरू होती हैं।
जबसे विवाह संस्था ने स्त्री को गुलाम बनाकर सुरक्षा की मामूली गारन्टी दी और उसे स्थायी दासी का दर्जा दे दिया तबसे कुछ लोगों ने पत्नी के सेवाभाव को ही प्रेम मान लिया। पिथौरागढ़ से लौटते हुए शिवमूर्ति ने यही कहा था कि ’’आखिर प्रेम में भी तो हम वही सब करते हैं जो पत्नी के साथ करते हैं।’’ उन्होंने थोड़ा व्यावहारिक होते हुए सलाह दी कि ’’अगर एक ही जगह मन ऊब जाय तो थोड़ा बहुत इधर-उधर कुछ कर लेने मंे भी हर्ज नहीं है।’’ शिवमूर्ति हमारी बातों पर हँस रहे थे-’’इसमें इतना परेशान होने की बात नहीं है जो काम निबट जाय उसे वैसे ही निबटा लेना चाहिए।’’
पत्नी और प्रेमिका जीवन के दो अलग-अलग रिश्ते हैं। दोनों के अहसास और उम्मीदें, दोनों के सपने और कल्पनाएँ दोनों की ’डिमान्ड’ एक-दूसरे से इतनी अलग होती है कि देह सम्बन्ध के एक ’कामन’ तत्व के आधार पर उन्हें कत्तई एक नहीं माना जा सकता। प्रेम और विवाह दोनों की सत्ता देह के परे बहुत दूर तक फैली होती है। दोनों का संसार ही अलग और एक-दूसरे से अपरिचित और कभी-कभी विरोधी होता है। प्रेम सम्बन्धों में हिसाब किताब कम होता है। दुनियादारी और चतुराई नहीं होती है। अर्थशास्त्र और गणित कम होता है जबकि पत्नी का रिश्ता इन्हीं सब बुनियादों पर टिका होता है। अलग-अलग रिश्ते हैं। बहन, माँ की जगह नहीं ले सकती। बुआ, दादी का विकल्प नहीं बन सकती। इसी तरह पत्नी भी प्रेमिका का विकल्प नहीं ही बनेगी। सबकी अपनी-अपनी अहमियत है। रिश्तों में घालमेल करने से बचना चाहिए। मनुष्य के उम्र जितनी पुरानी है प्रेम की उम्र जबकि विवाह संस्था, जिसके बीच से पत्नी का रिश्ता पैदा हुआ, बमुश्किल तीन हजार साल पुरानी। व्यक्तिगत सम्पत्ति की रक्षा हेतु उत्तराधिकारी की तलाश के साथ अस्तित्व में आयी विवाह संस्था। पत्नी का रिश्ता-स्त्री को दिया गया पुरुष बर्बरता का प्रतिदान है। वेश्यावृत्ति इसकी सगी जुड़वा बहन है। स्मृतियों और सपनों के साथ बलात्कार को जायज और वैध बनाती हुई यह विवाह संस्था जाति, धर्म, कुल, गोत्र, हैसियत और भूगोल के बँटवारे जैसी अमानवीय निरंकुशता पर टिकी हुई है। इसकी आत्मा में ही प्रेम की सुकोमल भावनाओं के लिए गुंजाइश नहीं है। सम्बन्धों की गरिमा इस तरह नहीं देखी जानी चाहिए कि सम्बन्धों के बने रहने पर हम एक-दूसरे के लिए कितना और कैसे जीते हैं? बल्कि ऐसे कि सम्बन्धों के टूटने और बिखर जाने के बाद हमारे मन मंे हमारी स्मृतियों में क्या बचा रह जाता है? जहाँ प्रेम के टूटने में निस्पन्द चेतना का सन्नाटा खिंच जाता है वहीं वैवाहिक सम्बन्धों में यह टूटन वकीलों के कानूनी दाँव-पेंच, लेन-देन के हिसाब और अनर्गल आरोपों-प्रत्यारोपों में एक-दूसरे को रक्तरंजित करने के सिवा कुछ नहीं करता। एक बहुत बड़े झूठ की बुनियाद पर जिस रिश्ते की इमारत खड़ी हो अगर प्रेमीजन अपने प्रेम की खातिर उस रिश्ते से थोड़ा-बहुत झूठ बोल भी देते हैं तो कैसा अपराध? दूसरों के लिए कानून बनाने वाले इतना भी नहीं सोचना चाहते कि किसने उन्हें यह नैतिक हक दिया है कि वे दूसरों के लिए कानून बनायें? सिवा इस आधार के कि आपके पास शक्ति है आप उसका बर्बर प्रयोग करके दूसरों को विवश कर सकते हैं। जो पीढ़ी आपके सामने पैदा नहीं हुई है। जिसकी जरूरतें और सपने तक से आप नावाकिफ हैं। उसके लिए भी आपने कानून बना डाला। और चाहते यह हैं कि लोग कृतज्ञभाव से आपको स्वीकार लें।
प्रेम की कोई उम्र नहीं होती। यह जीवन में कभी और किसी के प्रति भी घटित हो सकता है। फिर भी इस अशरीरी भाव पर कोई उग्र फबती है तो वह किशोरावस्था से ही मिलती-जुलती होती है। ठीक उसी तरह जैसे लज्जा का रंग लालिमा लिये होता है। शर्म से चेहरा लाल पड़ जाता है। यही शर्म का रंग होता है। प्रेमी भी चाहे जिस उम्र का हो उसके भीतर किशोर चंचलता जैसी हरकतें फूटने लगती हैं। जैसा कि मुक्तिबोध ने लिखा है, ’’अपनी गम्भीरता के विरुद्ध चंचल होगा।’’ वह स्वभावतः चंचल होता है। दुनियादारी, चतुराई, उपयोगितावादी कुटिलता प्रेमियों के किशोर मन में वास नहीं करती। अपने को मिटा देने का जुनून और शान्त समर्पण इसकी विशेषता होती है। इस जुनून के कई रंग होते हैं- प्रेम बिखर जाने के बाद आजीवन एक शान्त और ठंडा अकेलापन चुनने का भी इसका एक रंग होता है।
जब हम एक साथ एकाधिक प्रेम करने लगते हैं तो हमारी कल्पनाओं का आकाश सिमटकर एक देह भर बन जाता है। जहाँ न स्मृतियाँ रह जाती हैं न सपने। इन सबके लिए मुनासिब एकान्त नहीं बचता। जब हम असीमित आकांक्षाओं के दास बन जाते हैं। जब हम जरूरत से ज्यादा चीजें जीवन में बटोर लेते हैं तो असम्भव है अपने को ’डस्टबिन’ बनने से बचा सकें।
प्रेम की अनन्यता और एकनिष्ठता के कुछ अपरिहार्य तनाव होते ही रहते हैं। बहु प्रेम प्रथा जीवन को ऐसे तनावों से मुक्त करती है। क्योंकि इसमें कोई किसी से उसका सम्पूर्ण न तो चाहता है और न अपना देता है। समय का जो हिस्सा हमारे उपभोग से अधिक है, हम आपसी सहमति के आधार पर उसे ’शेयर’ करते हैं। जीवन में वैसे ही तनाव कम हैं क्या जो प्रेम के नाम पर भी तनाव ही बटोर लें, इस सम्बन्ध में झूठ की कोई गुंजाइश नहीं। जो कुछ है साफ-साफ। कोई किसी से छल नहीं करता। कोई किसी को धोखा नहीं देता। हो सकता है आने वाले समय का यही सच हो। सम्भव है प्रेम के सम्बन्ध में अनन्यता और एकनिष्ठता की हमारी अवधारणा खारिज कर दी जाय। देवसभ्यता बाजार की जिन गलियों में आज वसन्तोत्सव कर रही है उसे देखते हुए कुछ भी सम्भव है। विकल्प हमेशा से रहे हैं। सभी को स्वतंत्रता है अपने लिए उपयुक्त का चुनाव कर लें। सारस पक्षियों के जोड़े में अगर एक मर जाता है तो तय है दूसरा भी कुछ दिन बाद अन्न जल त्याग कर मर ही जाता है। एक मोर पक्षी असंख्य मोरनियों के साथ अपनी हरम बनाता है। प्रकृति के नियम हरेक के साथ हैं। हम अपनी बया को जब तक सम्भव होगा, बचाये रखेंगे। इस दुनिया में कुछ भी शाश्वत नहीं है। विविधता और बदलाव ही सृष्टि का सौन्दर्य है।