बरतुहारी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
केवल रौत बिहारी के लड़की देखै लेली मिर्जापुर ऐलौ छेलै। हुनका गाँव-समाज बड़ी पसन्द ऐलै। गाँव के पूबारी टोला में संपत रौतैॅ के बेटी सीता, चौदह-पंद्रह बरस उमिर होतें होतै सीता के. जैन्हों नाम वैन्हैॅ देखै में सुन्नर। रूप आरो गुणौॅ से भरलौॅ। गोल-मटोल चेहरा पैॅ दू बड़ौॅ-बड़ौॅ चंचल आँख, उठलौॅ छूरिया नाक। पातरौॅ लाल ठोर। लंबी, गोरी-लारी। केवलौॅ कैॅ लड़की पसन्द होय गेलै। लेन-देन, दान-दहेजौॅ के बात शुरू होलै। संपतौॅ कैॅ लड़का पसन्द छेवै करलै। घरौॅ में सभ्भें बात-विचार करी कैॅ हौं भरिये देलै छेलै। तन्टा लड़का सौरौॅ छेलै। भगवान रामचन्द्र नांकी, कारौॅ नै जमुनिया रंग। दूनौॅ के जोड़ी खूब फबतै।
लड़की जबैॅ पसन्द तबैॅ लेन-देनौॅ पर बात नै अटकै छै। केवलें कहलकै-" लड़का-लड़की कैॅ शोभा करी दहौॅ। बारातौॅ के खरचा तैॅ लागबे करतौं। बेटा बियाह में कोय भी घरौॅ सें खरचा नै करै छै। बस सोची-समझी कैॅ बोली दहौ आरो
समधी मिली लैॅ।
"अतना टा तैॅ करै लैॅ लागै।" संपतें कहलकै।
"मतुर वियाह-शादी छेकै। बात फोड़ी-भांगी कैॅ खुल्लमखुल्ला होय जाना चाहियौॅ। तखनी तनी-मनी लैॅ रुसा-बौसी बढ़िया नै होय छै।" लड़का रो बाप केवल रौत बोललै।
"गहना-जेवर हम्में देबै। ओकरा में बंधन नै। बेटी कैॅ जे जुड़तै शोभा लायक कोंन माय-बापें नै दै छै। जमाय कैॅ कपड़ा-लत्ता देबै। बारात खरचा लेली हम्में एकौंन टाका दै देवै। एकरा सें बेशी के हमरा हिम्मत नै छौं।" संपतौॅ के अतना बोलथैं केवल रौत खाड़ौॅ होय गेलै। गदगद आवाजौॅ में बोललै-"जा, होय गेलै। आय सें हम्में दूनो आदमी समधी होय गेलियै।"
केवलौॅ कैॅ खाड़ौॅ देखी कैॅ संपत बाबू भी खाड़ौॅ होय गेलै। गामों के पाँच-दस लोग भी बैठलौ छेलैं। सभ्भैं एक्के दाफी बोली उठलै-"तबैॅ देरी की? गल्लां मिलौॅ।"
दूनो गल्ला सें गल्ला मिललै। प्रेमौॅ सें गदगद भाव विभोर छेलै दुआरी पर बैठलौ सभ्भे। खाना-पीना शुरू होलै। लहारी कैॅ गमकौआ दाल, कतरनी धानौॅ के महकौआ चौैॅरौॅ के भात, आलू-कटहल के रसदार तरकारी, पापड़, फुलौरी आरो दही-शक्कर। खैला के बाद मुँहौॅ में सौंफ आरो लौंग-इलायची देतें हुअें बुलाकी काका कहलकै-"तबैॅ नी कहनें छै-" जौं चलैॅ बरतुहारी तैॅ खाक जमींदारी। धरपट होय गेलै। बरतुहारी छोड़ी कैॅ ऐन्हौं खाना फिरंगी राज में आरो कहाँ नसीब होय छै। "
सभ्भैॅ जी भरी कैॅ हाँसलै। धोती पिन्हौंन होलै। जोड़ भरी लाल-लाल धोती। सवा टाका समधी कैॅ विदाय। शादी के दिन भी तय होय गेलै। बैशाख शुक्ल पक्ष एकादशी। मंगल मड़वा बुध बियाह। कुल सतरह दिनों के समय में दूनौॅ पक्ष के तैयारी करना छेलै। विदा करतें हुअें संपत रौत बहुत दूर तलक अरयातनें केवलौॅ साथें गेलै। साथौॅ में बुलाकी काका भी छेलै। संपत रौत लिखलौॅ-पढ़लौॅ छेलै। राजनीति, आरो देश-दुनिया के खबर राखै छेलै। गपशप में समझैतें हुअें कहलकै-"१८५6 के लड़ाय होनें अभी सिर्फ़ तीन-चार साल ही होलौॅ छै। अंग्रेज सरकार बहुत सावधान आरो चौकस छै। खिसियानी बिल्ली खंभा नोचै वाली बात छै अखनी। अंग्रेज सेना आरो सिपाही जनता पर अकारण जुल्म करै छै। ओकरा कोय बहाना चाहियो। यै लेली शादी-वियाह में बेशी तामझाम नै। बेकार अंग्रेजौॅ के नजरौॅ पर चढ़ला सें कोय लाभ नै। जमींदारौॅ कैॅ यै लड़ाय में होलौॅ खरचा यहाँकरे गरीब जनता सें वसूली कैॅ देना छै।"
बुलाकी यै बरतुहारी के बिचौलिया छेलै। दूनौॅ घरौॅ में सम्बंध जोड़ै के काम हिनिये करनें छेलै। बातौॅ में बात मिलैतें बुलाकी काका कहलकै-"संपत भाय एकदम्में ठीक कहै छौं केवल भाय। दू साल पैन्हें तांय अंगरेज फौज के आवाजाही सें झरना पहाड़ों सें सिमुतल्ला, रामगढ़ तक थरैतें रहलौॅ छै। काँपलौॅ छै ई सौसे जंगल गोली आरो तोप के आवाजैॅ सें। हजारों-हजार अपना देश आरो मांटी कैॅ वास्तें लड़ै वाला सेनानी लोगौॅ कैॅ सरेआम चौक-चौराहा पर फाँसी दे देलकैं, जिन्दा देहौॅ रौॅ खाल खींची कैॅ उलटा गाछौॅ से टांगी कैॅ मरै तांय छोड़ी देलकै। अभी तांय लोग भयभीत छै।"
जमींदारें यै देशौॅ के जनता कैॅ लूटी कैॅ अंग्रेजौॅ के खजाना भरै छै। अपनै देशौॅ के ई लोग सुख-सुविधा भोगै लेली स्वार्थ में आन्हरौॅ होय गेलौॅ छै। ऐकरा से बड़ौॅ कसाय तोरा नै मिलथौं। ई ऐनहौॅ जल्लाद छेकै जेकरौॅ दलाल गली-गली में घूमतें रहै छै। तोरा देहौॅ में मांस चढ़तें देखी कैॅ यें गिद्धैं नोचै के कोशिश में भिड़ी जैतौं। तोंय पैन्हैॅ सें महाकलौॅ छौ। पलक झपकतैॅ तोरौॅ दस बीघा जमीन यें हड़पी चुकलौॅ छौं। "रसता चलतें संपत रौतें कहीं रहलौॅ छेलै। बुलाकी अगुआय कैॅ कहलकै। -" संपत भाय तैॅ ई रिस्ता लेली अंत तांय नै-नुकुर करी रेल्हौॅ छेलै। कहै छेलै कि सही-लही कैॅ रहै वाला ई परिवार नै छौं। "
केवल रौतें सब बात बड़ी ध्यानौॅ सें सुनी रैलहौॅ छेलै। बातौॅ कैॅ तौली-तौली संयत भाषा में ही बोललै-"आभियो तांय खून वहैॅ छै बुलाकी भाय। ओकरा में जरियो-सा फरक नै। लेकिन आवैॅ बुद्धि-विवेक सें काम लेबै। आगू समधी संपत बाबू छेबै करै। सलाह-मशिविरा सें ही काम होतै। जमींदारौॅ के नजरी पर चढ़ना नै छै। आगू बोलौॅ।"
संपत रौत केवलौॅ के दू टूक जवाब सुनी कैॅ सकुचाय गेलै। हिम्मत करी कैॅ बोललै-"समधी साहब! हमरा बेशी कुछछु नै बोलना छै। आपने कैॅ अतनैटा कहना छै कि दहेजौॅ में जे हम्में देलियौं ओकरा फिजूलखर्च नै करी कैॅ उपयोग में लानिहयौॅ। आबै तैॅ आपनें आपनौॅ होय गेलियै। आपनौॅ मानी कैॅ अतना टा हम्में हाथ जोड़ी कैॅ निवेदन करै छिहौं।"
केवल रौत खुली कैॅ हाँसलै। समधी के अनुनय के अंदाज में जुड़लौॅ दोनों हाथौॅ कैॅ आपनौॅ तरोथा में कस्सी कैॅ थामतें हुअैॅ कहलकै-"हम्में जे चाहै छेलियै उ$ मिली गेलै। तबैॅ नी बुलाकी बाबू कहै छेलै कि सम्बंध करौ। हीरा खोजी कैॅ दै रेल्हौॅ छिहौं। सहोदर भाय नांकी समधी नै मिलल्हौं तैॅ रिसता रौॅ मजा बेकार। हम्में बड़ा अभावौॅ में चली रेल्हौॅ छिहौं समधी जी. हमरा जमींदारें बर्बाद करी देलकौं। घौॅर-खानदान के इज्जत केन्हौॅ कैॅ जोगी रेल्हौॅ छिहौं। आबै सब ठीक होय जैंतै ऐन्हौॅ हमरा लागै छै।"
चलतें-चलतें गपशप में कतरिया नदी के कछार कखनी आबी गेलै पते नै चललै। गाँव मिर्जापुर सें एक कोस सें बेशी नै होतै कतरिया नदी। चैतौॅ के रामनवमी खतम होय गेलौॅ रहै। गरमी में कतरिया में खाली सुखलौॅ बालू ही देखाय छेलै। बाँका के बाद गोलाहु बिंडी गामौॅ ठिंया कतरिया चानन नदी से ही फुटलौॅ छेलै आरो आगू बहुत दूर करीब चालीस-पचास कोसौॅ के लंबा दूरी तय करी कैॅ पुरैनी-जगदीशपुर के नगीचौॅ में फेरु चानन में ही मिली जाय छेलै। किसानौॅ के फसल पटवन लेली ई नदी वरदान छेलै। तीन-चार सौ हाथौॅ के चौड़ा पाट आरो गैढ़ी नदी छेलै कतरिया। चुहाँड़ी खानला पर बारौॅ मास पानी मिली जाय छेलै। कतरिया टपला के बाद दू कोस पछिये चानन नदी बहैॅ छेलै।
केवलौॅ के दुखौॅ कैॅ बुलाकी काका बढ़िया सें जानै छेलै। कतरिया में गोड़ धरतै बुलाकी केवल रौतौॅ के बातौॅ कैॅ बीचें में लोकी लेलके-"डाक कवि कहनें छै कि कुटुमौॅ कैॅ बेशी दूर नै अरयातियौॅ, जल्दी घुरी कैॅ नै आबै छै। गपशपौॅ मैं ंएकाक कोस आबी गेलियै, आबैॅ लौटौॅ। आपनौॅ-आपनौॅ पैरा पकड़ौॅ।"
बीच कतिरया में चुरु-खांड एक-आध सैनी रौॅ पानी चली रेल्हौॅ छेलै। तीनूं आदमी आपनौॅ अलग-अलग चुहाँड़ी खानलकै आरो हाथ-मुँह धोय कैॅ बालू परको ठंडा-ठंडा पानी पिलकै। भियानकौॅ समय छेलै। दस-बारह कोस जमीन चलना छै चैत-वैशाखौॅ में यही वास्तें भोरें विदा करनें छेलै। अड़हुल फूल नांकी लाल टुभुक सुरुज एकाध हाथ उपर आबी गेलौॅ छेलै पूरब सरंगौॅ में हाँसलौॅ। एकदम समना में जीतनगर पहाड़ी आरो ओकरा सें कोसभर चानन नदी के वै पार जेठौर पहाड़। लागलै पहाड़ौॅ पर चढ़ी कैॅ बुतरु सुरुज हाँसतें-खेलतें रहैॅ।
आपनौॅ-आपनों रसता धरै के पैन्हैॅ बुलाकी ने ही कहलकै-"संपत बाबू! आपनें नीफिकिर रहबै। हम्में छियै न, हम्में शादी तांय हिनका साथे रहबै। आपनै तैयार रहबै, हम्में जेनां-जेनां कहवौं, ओकरा में ना-नुकुर नै करना छै।"
"हम्में सब बात मानै लैॅ तैयार छिहौं, लेकिन ढ़ोल बजना चाहियो। हमरा भगवाने दू-चार नै, एक्के बेटा देनें छै। सब शौक-अरमान यही शादी में बुताना छै। सजी-धजी बारात लैकैॅ ऐभौं। बेटा-पुतोहु की फेरु दोहराय कैॅ पालकी पर चढ़तै।" हाँसी कैॅ बोललै केवल रौत।
"हम्में तैॅ कुछ दोसरे पूड़ी पकाय रहलौॅ छेलियै।" बुलाकी भी हँसते हुएं ही बोललै। "खगी गेलौॅ छियै ज़रूर मतुर खानदान वहैॅ छेकै। नाकौॅ तैॅ देखी कैॅ काम करना छै। कौॅर-कुटुम, सौॅर-सवासिन, गोतिया-चटैया, दोस्त-मोहिम सभ्भैॅ कैॅ आस-अरमान छै। जेकरा यहाँ पत्ता बिछाय कैॅ खैनें छौॅ, ओकरा नै खिलैबौॅ तैॅ कैॅ अच्छा कहतौं। दूर छी करतौं सौसे गामें। हमरा पुतोहु कैॅ पैरा ठीक होतै तैॅ लछमी आवै में देर नै होतै। जइंयै आबै समधी साहब। बारातौॅ कैॅ स्वागत बढ़ियां से करी देबै। शादी के तैयारी में भिड़ी जइयै। बहुत दूर जाना छै। दस-बारह कोसौॅ के रसता छै। चानन के लंबा पाटौॅ के बालू धूपौॅ में तपी कैॅ आगिन होय जैतैॅ तैॅ पार करना मुश्किल होय जैतैॅ।" अतना एक्के सांसों में कहि कैॅ केवल रौतें प्रणाम मुद्रा में दूनो हाथ उठैलकै आरो पछिये दिशा तरफें मुड़ी कैॅ चली देलकै।
बुलाकी काका आरो संपतें केवलौॅ कैॅ जैतें तब तांय देखतें रहलै जब तांय आँखौॅ सें ओझल नै होय गेलै। कतरिया सें उपर होतैं जंगले-जंगल छैलै। कहीं एकपैरिया तैॅ काहीं उच्चौॅ-गैढ़ौॅ रसता। पैदल छोड़ी कैॅ दोसरौॅ कोय रसता नै।
आधौॅ कोस उत्तर बैलगाड़ी के रसता छेलै जे जीतनगर पहाड़ी के बगल किनारी सें होयकैॅ मझौनी गाँव के बीचे-बीच चानन नदी के किनारा तांय पहुँचाय दै छेलै। चानन नदी के पाटौॅ एक कोसौॅ से कम नै होतै। वै पार सीधे जेठोर पहाड़ छेलै। एक घंटा से बेशिये लागी गेलौॅ होतै केवलौॅ कैॅ जेठौर पहुँचै में। चानन नदी में गोड़ धरतैं ओकरौॅ ठंडा पानी के स्पर्श सें ही मन-प्राण शीतल होय गेलौॅ रहै। बैशाख के भीषण गरमी में भी चानन में तीन-चार पातरौॅ धार कलकल-छलछल करतें बहै छेलै। काहीं धूटना भर तैॅ काहीं ठेहना भर पानी। काहीं पचास तैॅ काहीं सौ डेग पानी। सुरुज गरमैलौॅ नै छेलै आभी तांय। मुश्किल सें सूरज एक-डेढ़ हाथ उ$पर उठलौॅ होतै। पहाड़ौॅ पर मंदिर तरफें जे जाय वाला पगडंडी छेलै ओकरा पर छिटपुट एक दू भक्त हाथों में भरी लोटा जल आरो थरिया नांकी बर्तन में फूल, बेलपत्रा आरनी लैकैॅ उपर चढ़ी रेल्हौॅ छेलै। मंदिरौॅ में घंटा बजी रेल्हौॅ छेलै। पूजा-पाठ आरो मंत्रा पढ़ै के स्वर साफ-साफ सुनाय दै रेल्हौॅ छेलै।
नदी के पछिये कछारी पर बीस-पच्चीस डेग तांय जाँघ भर पानी बही रेल्हौॅ छेलै। तेज धारौॅ में एक साधू मस्ती सें स्नान करी रेल्हौॅ छेलै। लंबा बिखरलौॅ जटा, भींगला के कारण अस्तव्यस्त दाढ़ी। केवलें वै धारौॅ के वही पारौॅ में खाड़ौॅ होयकैॅ सोची रेल्हौॅ छेलै कि केनां बिना भीगलें ई धार पार करलौॅ जाय। तभिये उ$ साधू बोललै-" रे मूरख! बिना भींगले धार पार होय कैॅ तरकीब कैन्हैॅ सोची रेल्हौॅ छै? पता छौैॅ, यक्ष जठरनाथ कैॅ तपस्या भूमि होय के कारण ई जग्घौॅ सिद्धपीठ होय गेलौ छै। हुनकै नामौॅ पर ई पवित्रा भूमि के नाम जेठौर पड़लै आरो सुनी लैॅ याहीं पर कर्ण ने मरला के बाद भगवान कृष्ण सें कहलैॅ छेलै कि पृथ्वी पर सबसे पवित्रा जग्घौॅ पर जहां अब तांय केकरौॅ चिता नै सजैलैॅ गेलौॅ रहैॅ, वाहीं हमरौॅ चिता सजैहौॅ। यहैॅ उ$ धरती छेकै जहाँ कृष्ण नें अपना हथेली पर दानवीर कर्ण कैॅ चिता सजैलैॅ छेलै। अरे, नहाव आरो शुद्ध मनौॅ सें यै धरती कैॅ हाथ जोड़ी कैॅ प्रणाम करें। मनौॅ में जे इचछा छौॅ, पूरा होतौैॅ।
केवल रौतौॅ पर साधू के बातौॅ के ऐन्हौॅ असर होलै कि पूरे शुद्ध मनौॅ से उ$ पानी के धारौॅ में कूदी गेलै। मली-मली नहैलैॅ। उपर आबी कैॅ कपड़ा बदली लेलकै आरो सीधे धरती पर दंडवत होय गेलै। ठोरौॅ में बुदबुदैलैॅ। तीने शब्द मुँहौॅ से निकललै-"सुख, समृद्धि आरो स्वास्थ्य दैॅ भगवान। पूरे परिवार आरो आबै वाला पीढ़ी पर नजर राखिहौॅ।" केवलें जे पेटकुनिया देलै छेलै, धन्य धरती माय के किरपा। लागलै पेट, सौंसे शरीर धरती से सट्टी गेलौॅ रहैॅ। उठै कैॅ मने नै हुअैॅ। अतना शाँति आरो सुख अब ताँय नै मिललौॅ रहै। दुनिया कैॅ मोह-माया बंधनौॅ सें मुक्त होय गेलै केवल।
जय जैठौर नाथ। हे शिव! हे कृष्ण! जाप करतें केवल रौत उठलै आरो भींगलौॅ कपड़ा देहौॅ पर धरी कैॅ घरौॅ दिस चली देलकै।