बरसात और दिल्ली / कमलेश पाण्डेय

Gadya Kosh से
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अमूमन बरसात और दिल्ली एक दूसरे को पसंद नहीं करते। दिल्ली या तो तपती रहती है या यहाँ कोहरा छाया रहता है। तपिश की वज़ह यहां के कुछ प्रचण्ड प्रतापी निवासी हो सकते हैं तो कोहरे के पीछे पूरे देश को चलाने के लिए यहाँ बनने वाली नीतियाँ। सुविधाओं का वातानुकूलन पूरी दिल्ली को नसीब नहीं, सो तपिश से निजात दिलाने वाली बरसात का इंन्तज़ार दिल्ली को भी रहता है। दिल्ली का मौसम विभाग बरसात पर कड़ी नज़र रखता है और पंचांग में वर्णित वर्षा ऋतु के आस पास बादल का कोई टुकड़ा नज़र आते ही मॉनसून-मानसून का शोर मचा देता है. अक्सर यहाँ जुलाई महीने में मौसमे-बरसात की आमद हो चुकी मान लेते हैं और इस भ्रम को सितम्बर तक जारी रखने की प्रथा है।

दिल्ली पर मंडराने वाले बादल ज़रा शातिर और मज़ाकिये किस्म के होते हैं। वे थोड़ा उमड़- घुमड़ कर चिड़िया की लघुशंका-सा कुछ टपका देते हैं। दिल्ली की साधनसम्पन्न जनता झटपट पकौड़े वगैरह तलवा कर आपस में जाम टकराने लगती है, जो वो यूँ भी टकराती रहती है, पर बरसात में इल्ज़ाम बरसात पर ही धरती है। वैसे नगरनिगम हर खासोआम के लिए जाम की व्यवस्था सालों भर और बरसात के दिनों में ख़ास तौर पर रखता है। दो चार झड़ियों के बाद सुस्ती झाड़ के उठ बैठता है और बन्द नालियों को खोलने का उपक्रम शुरू कर देता है। कोशिश शुरू भी नहीं हुई होती या इतनी ही हुई होती है कि नाली से निकल कर कचरा सडक पर धरा हो कि शैतान बादल चुनिदा जगहों पर एकाध घण्टे ‘अब्रे मेहरबाँ की तरह खुल के बरस’ जाते हैं. इसका असर जलजले जैसा होता है और दिन भर सींग उठाये भागती दिल्ली एकबारगी थम जाती है। यहां आधे घण्टे की बरसात औसतन अठारह घण्टे लम्बा जाम पैदा करती है। चौड़ी-चिकनी-चमचमाती सड़कों पर आपस मे चिपकी पड़ी हज़ारों गाड़ियों का ये सामूहिक प्रेम-दृश्य मीडिया के लिये बड़ा मनोहारी होता है। ये लोग कहीं कैमरे-वैमरे जमा कर फुटेज़ समेट लाते हैं और खुशी, गुस्से और उत्तेजना से गीले स्वर में बयान-ए-हालात कर टीआरपी संवर्धन करने लगते हैं। दोष बादलों की मुस्तैदी पर नहीं बल्कि निगम की काहिली पर ही मढ़ा जाता है। विपक्ष अभी आस्तीनें चढ़ा ही रहा होता है कि पानी सूख जाता है और पसीने के रेले चालू हो जाते हैं। कभी-कभी बादल जंतर-मंतर पर होने वाले धरने के मूड में आकर दो चार दिन रुक भी जाते हैं। हवाएं ठंढी, गीली-गीली सी हो जाती हैं और संसद के मानसून सत्र में कोई गर्म मुद्दा तड़तड़ा उठने तक दिल्लीवासी बरसात के ज़ुरूरी कर्मकांडों यानी हाथ व सड़क के जाम, तीज त्योहार, झूले-संगीत व पतंग-वतंग में लीन रहते हैं।

वैसे दिल्ली में ढेरों आम आदमी भी रहते हैं। इतने कि अपनी सरपरस्ती के लिए आम आदमी पार्टी की ही सरकार बना रखी है। आम आदमी पार्टी अपने ख़ास नारों और वादों के लिए जानी जाती है, जिसमें मुफ़्त पानी का वादा प्रमुख है. बरसात के दिनों में आम आदमी के घरों के आसपास ये मुफ्त पानी उपलब्ध करा दिया जाता है। सालों भर कीचड़ की बनी मोहल्लों की ये सड़क इस मौसम में ऊपर से बरसे पानी से धुली हुई मिलती है, जिससे कीच से मची किच किच कम हो जाती है। छतें, अगर हों, तो उन पर चढ़ कर मुफ्त शावर का भी आनन्द लिया जा सकता है। बरसात आम आदमी के लिए बड़ी नेमतें ले कर आता है।

बरसात दिल्लीवालों के दिलोदिमाग पर से भी बाक़ी देश के लोगों पर-सी ही गुजरती है। बारिश कभी जब हो ही जाती है तो गीली-गीली पुरवाई कुछ बीत चुकी भीगी रातों की कसक लेकर आ जाती है. पहले-पहले प्यार की भावुकता-भरी मूर्खताओं या मूर्खतापूर्ण भावुकताओं को याद कर होटों पर फिसल आई मुस्कान बाकायदा बादलों पर चस्पां नज़र आती हैं. ये बादल कालिदास के ज़माने से ही मेघ के नाम से प्रेमियों के सन्देश मुफ्त स्पीड पोस्ट डिलीवरी करते रहे हैं. एक कवि के अनुसार कड़क-कड़क कर बिजली चमकाने और दिन में ही अँधेरे का हौलनाक मंज़र पैदा करने वाले बादल दूसरे कवि की कल्पना में प्रेम की कोमल भावनाएं कैसे पहुंचाने लगते हैं ये तो कवि-क्रमांक दो ही बताएँगे, पर बादलों द्वारा धरती पर झमझम बरसाए गए पानी में भीगी साड़ियों और उष्ण प्रेमगीतों से इन्द्रधनुष-सा रच कर अपने यहाँ की फिल्मों ने बादलों और प्रेम का गठ्बन्धन अवश्य रजिस्टर्ड करवा दिया है. बहरहाल, दिल्ली में बारिश होने की स्थिति में अलग से प्रेम-व्रेम छलकने या घुमड़ने की कोई ख़ास वारदात होती सुनी नहीं गई.

बरसात के बादल को दीवाना और पागल कहा गया है. बक़ौल शायर, वो नहीं जानता कि किस राह से बचना है, किस छत को भिगोना है. पूर्वी दिल्ली की घनी बस्तियों में उमस के मारे बिलबिलाते लोगों को छोड़ बादलों को रायसीना पहाड़ियों पर बरसना पसंद है. यों बाकी देश में भी वे ऎसी ही हरक़तें करते पाए जाते हैं. विदर्भ के किसानों की आकाश तकती आँखों से गुजर कर ये लोनावाला के रिजार्ट में ‘रेन-डांस’ करते लोगों के साथ झूमते बरसते हैं. जाने ये कोरा दीवानापन है या कोई सोची-समझी पालिसी. आईये इस पर थोड़ा विमर्श कर लेते हैं.

बरसात से दिल्ली का मिजाज़ कुछ मिलता-जुलता है. जैसे बादल देवराज इंद्र के इशारों पर चलते हैं वैसे ही दिल्ली के इशारों पर बाकी देश. किसी साल कहीं पर खाने को अनाज होगा कि नहीं ये दिल्ली और बरसात ही मिलकर तय करते हैं. बरसात कहाँ होगी ये हमेशा ऊपर ही तय होता है. ‘गरजने वाले बादल बरसते नहीं’ को सही ठहराते हुए दिल्ली से खूब गर्जन-तर्जन के साथ की गई ढेरों घोषणाएं देश भर में गूंज कर रह जाती हैं. कहाँ सूखा रहेगा, कहाँ इतना बरसेगा कि बाढ़ आ जाए, ये नीतिगत निर्णय दिल्ली के ही हैं.

इधर ‘सबके ऊपर बरसात’ नारे के तहत दिल्ली देश भर में बारिश कराने की मुहीम में लगी है. ज़ाहिर है इसके लिए बहुत से बादल चाहिए जो भाप से बनते हैं, हवा से तो बनते नहीं. हालांकि दिल्ली हवाई बादल भी खूब बनाती है, पर दिखाने के बादल और होते हैं, बरसने के और. अब दिल्ली ने भाप-चूसक मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त बनाने की कवायद शुरू की है. कुछ महीने पहले अंतर्व्यवस्था में छुपे हुए पानी को चूस कर भाप-भंडार बढाने के अभियान में तमाम छोटी-छोटी गडहियों भी चूस ली गईं. वैसे नदियों-समन्दरों से भी कई लोटे निकाले गए पर आप जानते ही हैं कि इन समंदरों से कितनी नदियाँ और नाले आकर मिलते हैं. सारा पानी लौट-लौट कर समंदर में ही जा मिला. प्रकृति के चक्र में तो समन्दर के पानी से उठी भाप ही मानसून चक्र बनाती है जो पूरी धरती पर बरसती है. पर दिल्ली के सिस्टम में बादल उस नक़्शे के हिसाब से ही बरसते हैं जहां एक ओर चंदे की तो दूसरी ओर वोटों की खेती लहलहाती है.

उम्मीद पर ही ये दुनिया कायम है कि कभी तो कोई ऐसी दिल्ली होगी जो कुदरत के मॉडल पर काम करे और नदियों-समन्दरों के भाप से बने बादलों को ईमानदार हवाओं से उड़ा कर वहां-वहां भी बरसाए जिधर धरती और इंसान प्यासे हों .