बरसात / दीनदयाल शर्मा

Gadya Kosh से
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सुबह का समय था। हल्की हल्की बरसात हो रही थी। मौसम बड़ा सुहावना था। तभी खिड़की से बाहर झांकते हुए छह वर्षीय दीपू अपने पापा से बोला, 'पापा बाहर देखना... बाहर तो बरसात हो रही है।

'मुझे पता है। अखबार पढ़ते पढ़ते दीपू के पापा ने धीमे से कहा।

'पापा, आपको बरसात की कहानी आती है।

'नहीं तो।

'मुझे आती है। मुझे पता है कि बरसात क्यों होती है।

'अच्छा।

'हां पापा, देखों तो एक मिनट। दीपू ने अपने पापा की ठोडी पर दोनों हथेलियां रखते हुए कहा।

'क्या देखूं ?

'मैं आपको बरसात की कहानी सुनाता हूं।

'ठीक है सुनाओ। अखबार समेटते हुए दीपू के पापा ने कहा।

'एक बर्तन में गर्म पानी भरते हैं। पापा, वह बर्तन होता है ना, जिसमें चाय डालते हैं।

'कौन सा ?

'वही... इतना बड़ा सा। दीपू ने अपनी हथेलियों से बर्तन का आकार बनाते हुए कहा।

'इतना बड़ा सा...। उसके पापा ने भी दीपू की तरह अपनी हथेलियों से बर्तन का आकार बनाते हुए पूछा।

'हां पापा, इतना ही बड़ा होता है। जिसके एक तरफ हाथी की सूंड सी होती है, जिसमें से चाय बाहर आती है और...

'अच्छा-अच्छा... वह क्या। उसे तो केतली कहते हैं। दीपू के पापा ने बताया।

'हां केतली। केतली में गर्म-गर्म पानी डालते हैं तो उसके सूंड वाले मुंह से भाप निकलती है।

'हां, भाप तो निकलेगी ही, जब पानी गर्म होगा। उसके पापा बोले।