बराड़ की बात बोलती है / प्रमोद कौंसवाल
(भूपेंद्र बराड़ का एक सीधा-सपाट परिचय उन साथियों के लिए बता देना ज़रूरी होगा जो साठोत्तरी पीढ़ी के हिंदी के दिग्गजों को जानते हैं, उनके खित्तों और खंडों में आवाजाही की ख़बरों से वाकिफ़ हैं लेकिन बराड़ का परिचय उनके लिए शायद नया हो सकता है...। कोई दो दशक पहले बराड़ की कविताएं मुझे चंडीगढ़ में उस खोजाखोजी में हाथ लगी थी जो मुझे एक साझा संकलन में लेनी थी। यह पहल का 1979 अंक था और हिंदी के तमाम बड़े कवियों की कविताएं इसमें शामिल थी। इनमें आलोकधन्वा से लेकर मंगलेश डबराल, असद जैदी, वीरेन डंगवाल और नीलाभ और की भी कविताएं भी। बराड़ साहब की कविताएं इसमें थीं। चंडीगढ़ में कविता में ये समय विकल के व्योम का समय था। सेक्टर 14 के कुमार विकल के घर की कुछ ही दूरी पर बराड़ साहब का निवास था.. सूखी हवा की आवाज़ संग्रह का आना हिंदी कविता के इतिहास का नया सफ़ा खोलता है....)
यह कविता में लौटने की लय है। उसका अपना रचनाविधान है। लौटने की लय का अपना सौंदर्यशास्त्र भी होता है। वह दूसरे कवियों में भी मिलता है लेकिन भूपिन्दर बराड़ की कविताओं में लौटने की मानसिकता भी मौजूद है। इसमें भी कोई दोराय नहीं होनी चाहिए कि बराड़ की कविताएं श्रेष्ठ समकालीन कविता का अनिवार्य हिस्सा हैं। चालीस बरस पहले जैसा पदार्पण उन्होंने किया था, लंबे समय तक वो कला के दूसरे फ्रंट पर काम करते रहे, कविता के फ्रंट से भी उनका तारतम्य बना रहा, और यह चीज़ उनके पहले कविता संग्रह में दिखती है। काव्य-शब्द और काव्य-वाक्य की उनको बेहतरीन पहचान है- जैसे ख़ासकर कविता कहां पर पूरी होती है। यद्यपि हम जानते हैं और भूलना भी नहीं चाहिए कि इन दशकों में उनकी हिंदी कविता में सक्रिय हिस्सेदारी नहीं दिखी है। इसके बावजूद उनकी काव्यकला का मुहावरा हमारे सामने बहुत उल्लेखनीय बन पड़ा है। इसके अलावा वह जिस रूरल पंजाब से आते हैं, ज़रा वहां की भाषा पर ग़ौर करें। पंजाब में जहां कहीं से भी हिंदी के लेखक-कवि आए, वे शहरी हिस्सों से आए, जबकि बराड़ की पूरी पृष्ठभूमि पंजाब का ग्रामीण हिस्सा रहा है। यानी पंजाब के गांवों में हिंदी की हवा तो कभी नहीं रही। इस मायने में बराड़ की कविता और उनकी ऐसी पकड़ में ऐतिहासिक तत्व नीहित है। विश्व की राजनीति और उसके विज्ञान के जैसे व्यापक अनुभव बराड़ के पास हैं- शायद उसकी मदद अपनी जगह है लेकिन पंजाब से हिंदी के जिस पक्ष को वह लेकर आए हैं- वह अब तक हिंदी में ग़ैर-मौजूद रहा है। उनकी कविताओं के कुछ खंड हैं- उनका भी एक अभिप्राय है हालांकि वो कविता को ‘व्यवस्थित’ करने के लिए ऐसा करते दिखते हैं लेकिन उनकी ‘अंतिका’ कोई अंत नहीं बल्कि बड़े अध्याय के आरंभ का अंत है। और वह इसलिए कि बराड़ की कविता में परिस्थितियां कविता के ठोस यथार्थ के साथ दिखती हैं। एक और ख़ास बात जो बराड़ की कविता में है, वह है उनकी हिंदी। साफ़-साफ़ कहें तो आज देश में हिंदी नहीं, कई कई हिंदियां हैं...। भोपाल, दिल्ली, वाराणसी वालों की एक हिंदी है, स्वाभाविक स्वरूप में देखने के लिए बराड़ की हिंदी पकड़ और प्रस्तुति की अपनी विशेषताएं हैं। भूपेंद्र बराड़ के इस रंग रूप में पीछे छूट गई चीज़ों के साथ नई चीज़ें भी लेकर आए हैं। साठ की पीढ़ी के समकर्मियों में वो ‘पहल-13’ के कविता विशेषांक में 1979 में आए थे। सोचिए ज़रा और यक़ीन भी कीजिए! और यक़ीन कीजिए वो सचमुच आ गए हैं। ‘ मैं आ गया हूं- जूतों के गीले तलुओं में/ लगभग भूले हुए प्लेटफ़ॉर्म को महसूस करता/ मुझे देखो मैं आ ही गया हूं/ तुम्हारे बीच तुम्हे जानते हुए....। वर्तमान में इस ‘वापसी’ में बराड़ की वापसी भी है। उनकी कविताओं में डेढ़ दशक तक जिस तरह की चीज़ों की आने की होड़ रही वह ‘नियमित’ से ज्यादा ‘अचानक’ है। नियमित होने का अनुशासन वह क़ायम ही रखें ज़रूरी नहीं है पर हम उन्हें जिन किन अच्छी कविताओं के लिए उम्मीद के साथ देख सकते हैं। अपनत्व और आंतरिकता की कविता में वह बचपन को लालायित होकर देखते हुए आए हैं। पूरे लंबे दौर के साथ जहां चेतना अपने संरक्षक को कुछ इस तरह देखती है- उनके कंधों से परे था/ और भी गहरा अंधेरा/ मैंने सोचा उसी में होगी बूढ़ी मां...। वह कनखियों से भांपने वाले कवि हैं जहां मां उस बचपन को कहती सुनाई देती है- हो चुकी रात बहुत, सो जाओ। और देखते देखते यह कवि बड़ा हो गया- ‘मैं चौदह से थोड़ा ही बड़ा तो था बाबा जब मैं घर छोड़कर निकला था उस रात...’। एक बड़ी वजह है कि बड़े होकर भी कवि बचपन का चित्र समग्र जिन घेरों में रखते हैं वहां दुख, भय, अशांति, पीड़ा और अंधकार सब है, जहां बरसों बाद भी जीवन वैसा ही चल रहा है... सतत् और शाश्वत। बच्चा बड़ा होने लगा जो अब पिता का खाली बैग खोलता है। जिसमें बेशक़ मीठी गोलियां थीं लेकिन एक अख़बार भी था। उस खाली बैग में एक खलबली है। कवि ने भारतीय तंत्र एक बड़ा सफ़ा यहीं से खोला है जो ज़िंदगी के लिए बराड़ के स्थापित आदर्शों को ध्वस्त करता है। यहां से एक भागलपुर का रास्ता शुरू होता है जो कई-कई मोड़ों से होकर मेरठ, गोधरा और अयोध्या को फलांगता है। उसमें शहर में छिड़े हुए फ़साद की डरावनी फ़ोटो है आने वाले दिनों की फ़िक़्र्र भी...यहां बच्चा बहुत आशावान है जहां पतंगों के लिए स्वप्न हैं, छुकछुक ट्रेन है। लोकतंत्र का बौनापन कैसे खुलता है- ‘पिता ने झोला रखा/ तो उसमें था जलते मकानों का धुआं/ बाज़ारों से दौड़ते लोगों की चीख़ें/ सहमे नारे और बदहवास हवा.../ बच्चे ने झोला देखा/ तो उसमें था/ पिता का हाथों में लिया सिर... उसमें ख़बर तक न थी।‘ बच्चों के लिए आने वाले समय की एक और साफ़ अनुभूति बारिश में अख़बार बेचते बच्चों के ज़रिए खुलती है। ऐसे बच्चे जिनके कंधों से भी भारी हो चुकी बारिश की बूंदे...। बचपन की छटपटाहट का सबसे ख़ास उदाहरण एक कविता है- वर्षों के बोझ तले। उसमें हमारे मध्यवर्ग का पूरा समाजशास्त्र है। यहां उस बच्चे को मां के सुलाने की एक याद बड़े अनुभव के साथ उतरी है- हो चुकी रात बहुत सो जाओ...। इसमें मां ही नहीं है, वह उपस्थित उस अफसोस के साथ कि कैसे यादों के निशान हम बचपन में लगी चोटों की तरह भूले जाते हैं।
दूर और पास की दो दुनियाएं उनके पास कुछ इस तरह आई हैं जैसे जगह- जगह रोशनी और धुंधलका आता है। यह उन पर चंडीगढ़ में देश और दुनिया के बड़े कलाकारों की लगातार और बड़ी सोहबत का असर है जो उनकी कविता में भी ढलता है- जहां अस्तित्व पहले आता है मनुष्य की बुनियादी प्रवृति बाद में- एग्जिस्टेंस प्रीसीडस् इसेन्स...। इस विविधता के संसार में दुनिया की, जो कवि के लिए नई है, उस पर जाने से पहले उनकी कविता वापसी या क़स्बा खंड की सभी कविताएं आगे बढ़ने से रोक देती है। चित्रकारी का ही गहरा प्रभाव है और जिससे उनकी वैयक्तिक शक्ति का एक बड़ा उदाहरण ‘वापसी’ कविता में है। जो आज के क़स्बे हैं शायद तब के लगभग गांव जैसे रहे होंगे। किसी फ़रीदकोट का चित्र किसी भी क़स्बे या गांव के आकार, अस्तित्व, आकस्मिकता, अनहोनियों या अतिक्रमणों को दिखाती एक अभिव्यक्ति है। इसका एक पाठ शायद पुरखों वाली कविता में भी है। लेकिन जैसा मुक्तिबोध कह गए हैं कि वो किसी भी काम को पूरा करने से पहले भी अधूरे हैं और और काम के पूर्ण होने के बाद भी अधूरे। भयानक बीहड़ों में घूमने का जैसा आत्म अनुभव मिलता है वह किरणों का क्वारट् र्ज हैं- अनबनी और अधबनी...। इस कविता (वापसी) में पुराने जंग लगे चाकू सी रेल कोहरे से होकर गुज़र रही है।.. यहां शायद जहां जहां उनके होने के बीज हैं- पुरखे भी हैं, उस शहर में अपने पिता का क़रीब ऐसे शहर में जहां चमकती सी दुकानों के सामने जहां क़दम रखने का काफी अविश्वास है। लेकिन इससे भी ज़्यादा अविश्वास उस ज़मी यानी महानगर पर जहां ये क़दम पड़ रहे हैं। दुत्कार भले ही नहीं पर मानवीयता और वस्तुओं के ठिठकने या ख़त्म होने के दृश्य वह उतारते हैं। वहां स्टेशन मास्टर का एक बंद कमरा है वे कुली नहीं हैं जो एक ज़माने में अपने घर गांव के आसपास इस तरह थे कि जैसे पीठ थपथपा रहे हैं। क्या-क्या चीज़ें और अनुपस्थित हैं उनका कोलाज़ भी देखें- क़स्बा सो गया है उसे जगाने की इच्छा है, उसमें अपने दर्प को देखने की छूट चुकी लालसा है। अगली दोपहर तक वह क़स्बा सो चुका है। टिकट कलेक्टर ऊंघ रहा है। उसके हाथ मैले हैं और उसकी दाढ़ी अब मटमैली हो चुकी है। रिक्शे वाले कहीं ले जाने को तैयार से दिखते हैं- पूछते हुए कि क्या टंकी वाले क्वार्टरों में जाना है...। वह पानी की टंकी जो हमेशा टपकती थी और एक बच्चा जो पिता के साथ सैर पर निकला है, रोज़ उसकी आवाज़ सुनता था। छावनी छावनी छावनी – ये आवाज़ रिक्शे वालों की है। वे उस छावनी की ओर ले जाते हैं जहां रास्ते में बरगद का पेड़ है जिसके आसपास भूतों का वास बताया जाता है। एक भूत उस युवती का जिसकी हत्या हो गई थी वहीं कहीं, एक उस सैनिक का जो गोली से खुदक़ुशी कर बैठा था। वहां गर्मियों की दुपहरी में बस कुत्ते सोते हैं। छावनी ले जाने वाले इस दूर महानगरीय वासी को सबकी आंखें डबडबाई दिख रही हैं और वह वहां जाने से इनकार करता है- कुछ भरे मन से जैसे कह रहा हो कि नहीं मुझे कहीं नहीं जाना मैं तो एक पुराने नाटक का दर्शक हूं जो यहां आया हूं। शहर में यह प्रवेश बड़ा सुनसान है और उसे सिर्फ़ अपने क़दमों की आवाज़ सुनाई देती है। अचानक वह देखता है कि कमेटी के नल के नीचे जो नुक्कड़ था और जहां पर एक पागल ठिठुरता हुआ नहाता था, अपनी हंसी और रोने से बच्चों को डराता था अब वहां नहीं है...। कैसी हताशा और क्या-क्या खोने की हानि को बराड़ बता रहे हैं कि एक स्कूल के सामने से जब गुज़रना हुआ तो वह कहते हैं- जो (स्कूल) नहीं है... मैं देखता हूं जेब में हाथ डाले, जेबों में चिपचिकी गजक नहीं है, रंगों की खड़ियां नहीं हैं। उनके सामने गाढ़े रंग में पुता हुआ और झुका हुए एक घंटाघर दिख रहा है।... लाठी पर झुके मेरे दादा की तरह। अतीत से असंबद्ध होने की दर्दनाक याद के साथ कवि जैसे खुद अस्तित्वहीन, तर्कहीन और अर्थहीन हो गया है। इस कविता का अंत बाबा के साथ इस तरह की सांत्वना के साथ होता है- बाबा बहुत कुछ बदल जाता है अगर मैं खो नहीं गया हूं तुम्हारी याददाश्त की धुंधली होती गलियों में जो बदल गए उस सबमें से एक मुझको स्वीकार कर लो ( सांस रोके सुनता हूं मां के बूढ़े कदमों की आवाज़...) क्या मां भी नहीं है?... यह है बराड़। बराड़ नहीं बराड़ की बात बोलती है।
कुछ सीमाएं, कश्मकश, ख़ामियां, ग़लतियां, अवरोध और विसंगतियां- इन सबका विराट संसार मोटर मैकेनिक के वर्कशॉप से लेकर कवि के कमरे तक हर जगह मिलता है। जैसे-‘/ इस हफ्ते भी छुट्टी वाले दिन मैंने सोचा/ मुझे अपने कमरे की हर चीज़ को / कम से कम एक बार छूना चाहिए/ और उससे पूछना चाहिए कि वह क्यों है/ जबकि उसके होते न होते/ जिंदगी ज्यों कि त्यों है/ मैंने सोचा कम से कम / एक खिड़की का शीशा तोड़कर/ मुझे बहुत कुछ फेंक देना चाहिए/ धूल से अटी उन पुरानी किताबों को/ जिनके पन्ने पीले पड़ चुके थे/ उस पुराने संगीत को/ जिसको मैं एक अरसे से नहीं सुन रहा था/ उन ग्रीटिंग कार्ड्स को/ जो कब मिले याद नहीं पड़ता था/ और ऐसे बहुत से ख़त/ जो मैंने आने वाले ख़ुफ़िया दिनों के नाम लिखे थे/ इस हफ्ते भी छुट्टी वाले दिन/ मैं ऐसा कुछ नहीं कर पाया/ हर बार की तरह/ मैंने देखा कि उनको छूते ही/ चीज़ें आकार बदलने लगती है.... हमारी बहुतों की नियति में बराड़ का अक़्स मेल खाता है- कम से कम ग़रीब का साम्यवाद और मध्यवर्ग का पूंजीवाद बाह्य संसार और आंतरिक द्वंद्व दोनों में ही।
बराड़ की कविताओं के देर से प्रकाशित होने में उनमें ‘पुराने’ की तलाश ज़रूर होगी इसलिए उनका नाम आलोकधन्वा, नीलाभ और वीरेन डंगवाल की रीतिबद्धता से हो तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। बराड़ इन सबकी तरह उस दौर के पहचान विभिन्नता वाले कवि तो हैं ही- एक सबसे जुदा है उनका बिंबात्मक शिल्प और संस्कार- टांगों और कुहनियों में झूठ बोलते/ शाम दूसरी होगी/ जहां हम कल थे इस वक़्त/ बसों में भीड़ नहीं होगी/ न पसीने की गंध..। यानी साफ़ है पुराने की तलाश में आपको बराड़ में जो मिलेगा वह सब नया होगा- मसलन ऐसी क्रियाशीलता है जो ‘फ़ैक्ट्री के मशीनों की आवाज़’ जैसी अनवरत है...। इस शोर का ऐसा इको बनता है जिसमें कवि रहता है, चलता है, सोता है और सोचता भी है। ये उपमान ख़ास हैं। ‘मैं नहीं आऊंगा’.. ‘मैं तभी आऊंगा’... ‘पड़ोसियों के चले जाने पर’… ‘चुपचाप बारिश‘ या ‘धुंध में घड़ी’ का चलना वो क्रियाशीलताएं हैं जो कम से वीरेनजी के कविता संसार से सम्यक रखें तो एक बड़ा प्रतिकविकार सामने दिख पड़ता है। एक, एक समय में तेज़ बजते खाली कनस्तर की ध्वनियों से जैसा कविता विधान बनाता है- वह सांस लेने की भी फुरसत नहीं देता जबकि दूसरा इस ध्वनि को निरंतर सुनता है- और उससे कई परतें बनाता हैं। कुछ अभी तो कुछ शायद नींद खुलने के बाद भी बन सकेगा। यह विरल है। दोनों में एक गतिशील तो दूसरा समृद्ध...? अपने विचारों के सांचे में बराड़ के मूल्य सामाजिक बदलावों से ही बनते और विकसित होते हैं। उनके यहां बिंबों का संसार किसी अकेले का कलावादी तत्व नहीं, बल्कि वह तात्कालिक या उसके ही आसपास के वातावरण और जन समूहों के मूल्यों और आदर्शों से कविता को प्रकृति की कोई हरकत या जनजीवन की आहट के बाद कारीगरी करते हैं- कुछ तो रहम करो दाता/ छ्ट्टी की सुबह और इतनी धूप/ आंख खुली नहीं कि तपने लगी दीवारें/ भिनभिनाने लगी मक्खियां/ हड्डियों से निकल रहा है सेंक...।
इतिहास में उद्दीप्त जिस एक चौराहे पर कवि ‘पुरानी किताब की दुकान पर खड़ा’ है वहां धूल उड़ाते हुए वह दो रास्तों से होकर निकलना पसंद करता है। एक तो जहां अजनबी शहरों के नक़्शे हैं और ये बिल्कुल नए हैं। यह नई सदी है। दूसरे में ऐसी बेक़रारी है जहां से वह निकल तो चुके हैं- पिछली सदी के आख़िरी तीन दशक तो कम से कम इसमें हैं ही; लेकिन फिर से वहां झांकने की कोशिश इसलिए प्रखर है कि मानवीय मूल्यों में तेज़ बदलावों की रफ़्तार के साथ तब खुद कवि की चेतना विकसित हुई जाती थी। इन दो रास्तों से बराड़ का आना हुआ है, वह वहां खड़े हैं- और ‘आपको लग सकता है कि सब कुछ है असंभव और बेकार/ वो जो घेरे रहता है/ आपको जीवन बनकर.. सब कुछ बेकार है/ ये सड़क ये हवा ये रुक गया पल...।’ बराड़ की निराशा के बंजर में सूखी हवा की आवाज़ पीड़ादायक है और एकाग्रता भंग करती है कि तभी रोशनी का अकस्मात दिखाई देना समाज, सस्कृति, कला, संगीत के वह एक बड़े प्रवर्तक कवि बन जाते हैं। किसी बुरे दिन से अच्छे दिन में वह प्रवेश कराते हैं या इस जैसा ही कुछ... जहां सुबह ऐसे खुलती है- मैंने सुना संगीत/ पहले एक झोंका, नमी से अटा/ महसूस हुआ कनपटियों पर/ फिर सरसराहट सुनी धमनियों की/ फिर शब्द झरने लगे मन में/ बूंदों की तरह / दोस्तों के नाम याद हो आए/ जब मैंने सुना संगीत।
बराड़ की कविताएं कुमार विकल के रहने और ना रहने के दरम्यान की भी गवाह है। विकल के व्योम का समय और चंडीगढ़ के एक ही सेक्टर में दोनों के रहने का एक बड़ा लाभ बराड़ को मिला। विकल के निवास में कविता और कवियों की आवाजाही जैसी नवें दशक में थी- उसने बड़ा माहौल बनाया था। उस दौर का ध्यान ऱखते हुए बराड़ ने उन साथियों को कविता के समर्पण में याद किया है लेकिन नाम नहीं बताए हैं। कौन थे ये कवि, कलाकार और कलमलिखारी- अन्य भूले बिसरों के अलावा निरुपमा दत्त, सत्यपाल सहगल, लाल्टू, तेजी ग्रोवर, रुस्तम, जितेंद्र रामप्रकाश, अश्विनी चौधरी, इरशाद कामिल, राजीव लोचन, सत्यपाल गौतम, अतुलवीर अरोड़ा, मंजीत टिवाणा, नरेश पंडित, दीवान माना...। ‘रमता जोगियों की मंडली जो चंडीगढ़ में बसी और जैसा कि अक़्सर होता है धीरे-धीरे बिखर गई।‘ बराड़ की कविता से इन पंक्तियों के लेखक का तभी पहला साक्षात् भी हुआ था। अब संकलन देखकर जीवन और निकट महसूस हुआ है।