बराबरी / अशोक भाटिया
नई नवेली बहू शालू अपने कमरे में लेटी हुई छत पर टकटकी लगाए अपने सवाल का जवाब ढूंढ रही है, पर उसकी नज़र छत के जालों में उलझकर रह गई है।
उसे स्मरण हो आया। उसकी सहेलियों ने हिदायत दी थी किसी भी सूरत में अपने पति के पाँव न छूना। सास ने एक बार कहा भी था, लेकिन वह कितनी चुस्ती से इसे टाल गयी थी- यह सोचकर अब उसे हैरानी हो रही थी। सहेलियों की यह बात भी काम की निकली कि पति को उसके नाम से बुलाना। जब वह मुझे नाम से बुला सकता है तो मैं क्यों नहीं नाम ले सकती? मुझे आज तक यह भी समझ नहीं आया कि पत्नी की उम्र पति से दो-तीन साल छोटी ही क्यों अच्छी मानी जाती है। कहीं इसमें भी औरत को दबाकर रखने का षड्यंत्र तो नहीं?
सोचते-सोचते वह आज के प्रसंग पर आ गई। आज नाश्ते में जब वह पति के सामने तीसरा परांठा परोस रही थी, तो पति ने धीरे से कहा, “एक कप चाय।” तभी सास बोल पड़ी, “ये तीन बार कह चुका है, तू चाय क्यों नहीं देती?”
सुनकर उसका दिमाग भन्ना गया था। तीनों को मालूम है कि पति ने चाय के लिए एक ही बार कहा था। शालू से रहा नहीं गया। रसोई से चाय लाते समय वह बोली, “सासू माँ, क्या आपकी सास ने भी आपके साथ ऐसा सलूक किया था और अगर वह गलत था तो यह गलती कब तक चलती रहेगी?”
सुनकर सास की आँखों में अंगारे भर गए थे, लेकिन मुंह पर ताला लग गया था।
बहू को याद आया, उसने कहीं पढ़ा था - “औरतों की गुलामी सासों के बल पर कायम है।“ सोचते-सोचते वह झटके से उठी - इन जालों को वह हटाकर रहेगी।