बरेली की बर्फी : स्वादिष्ट प्रेम-कथा / जयप्रकाश चौकसे

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बरेली की बर्फी : स्वादिष्ट प्रेम-कथा
प्रकाशन तिथि :21 अगस्त 2017


अश्विनी अय्यर तिवारी ने अत्यंत मनोरंजक फिल्म 'बरेली की बर्फी' बनाई है और फिल्म व्यवसाय में सलमान खान की 'ट्यूबलाइट' और शाहरुख खान की 'हैरी मेट सेजल' से उत्पन्न घटाटोप अंधेरा काफी हद तक कम हो गया है। यह वैसा ही है जैसे टॉप ऑर्डर के बल्लेबाजों की असफलता के बाद निचले क्रम में बल्लेबाजी करने वाले अपनी टीम को बचा लें। बहरहाल, इस फिल्म की सफलता का आधार इसकी लेखिका अश्विनी तिवारी हैं, जिनके पति ने आमिर खान की 'दंगल' लिखी थी। यह मामला कमोबेश साहित्य में मन्नू भंडारी और राजेंद्र यादव एवं रवींद्र कालिया व ममता कालिया के गठबंधन की तरह है। दो प्रतिभाशाली लोगों की जुगलबंदी हर किस्म के सन्नाटे को तोड़ देती है। राजनीति ही ऐसा गंदला क्षेत्र है कि यहां प्रतिभाशाली फिरोज गांधी और इंदिरा गांधी तथा आचार्य कृपलानी एवं सुचेता कृपलानी में 'गृहयुद्ध' सी दशा कुछ समय तक अवश्य रही। अश्विनी तिवारी पहले 'निल बटे सन्नाटा' नामक विचारोत्तेजक फिल्म बना चुकी हैं। अब वे हैट्रिक की तैयारी में लगी हैं।

आयुष्मान खुराना 'विकी डोनर' से प्रसिद्ध हुए, उनकी 'जोर लगा के हईशा' फिल्म भी पसंद की गई और इस फिल्म में उन्होंने प्रशंसनीय प्रयास किया है परंतु उनकी नाक के नीचे से राजकुमार राव ने दृश्य 'चुरा लेने' का प्रयास किया है। बहरहाल, इस फिल्म का केंद्रीय आकर्षण नायिका कृति मेनन हैं। इस फिल्म की सफलता से बलदेवराज चोपड़ा की सुस्त पड़ी निर्माण संस्था भी पुन: सक्रिय हो सकती है। उनके पोते ने इस फिल्म का निर्माण किया है। फिल्म की एकमात्र कमजोरी यह है कि केवल नायक यह नहीं जानता कि अन्य पात्र उसके प्रेम को जान गए हैं और प्लाट को सफलता की ओर वे ले जा रहे हैं। प्राय: नायक ही सारी विपत्तियों से संघर्ष करता है। दरअसल, यह एक सुविधाजनक पतली गली है। बहरहाल, फिल्म का मनोरंजक होना ही महत्वपूर्ण है जैसे मिठाई का स्वादिष्ट होना जरूरी है और किस ढंग से पकाई गई है, इसे जान लेने से स्वाद में अंतर नहीं आता। अब 'आगरा के पेठे' भी बनाए जा सकते हैं और कोलकाता का 'मिष्ठी दही' भी रचा जा सकता है। आनंद एल. राय और उनके लेखक हिमांशु की 'तनु वेड्स मनु' से प्रेम एवं विवाह केंद्रित मजेदार फिल्में बनने लगी हैं। विगत सदी के सातवें दशक में ऋषिकेश मुखर्जी के मध्यमवर्गीय सिनेमा ने जो काम किया था वही काम इस सदी में आनंद एल. राय और अश्विनी तिवारी तथा कुछ अन्य फिल्मकार कर रहे हैं। अंतर यह है कि बाबू मोशाय की फिल्मों में सुपर सितारे अपने बाजार मुआवजे से कम रकम लेकर उनकी फिल्में करते थे। दिलीप कुमार, राज कपूर, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन ने भी रियायती दरों पर बाबू मोशाय के लिए काम किया था परंतु आनंद एल. राय और अश्विनी अय्यर तिवारी सितारा आधारित फिल्में नहीं बनाते। उनकी फिल्म में नायक लेखक है और सिनेमा विधा के जन्म के समय ही फ्रांस के सिने चिंतकों ने यह प्रतिपादित कर दिया था कि इस माध्यम की केंद्रीय ऊर्जा निर्देशक है, जो फिल्म वैसे ही गढ़ता है जैसे लेखक किताब लिखता है।

यह भी इत्तेफाक ही है कि इस फिल्म का केंद्र एक लोकप्रिय किताब का लेखक है और नायिका का जीवन दृष्टिकोण उस किताब से बदला है, अत: वह उससे मिलना चाहती है। सारा घटनाक्रम इसी के इर्द-गिर्द घूमता है। इस फिल्म में दोनों पात्र एक-दूसरे से पत्र-व्यवहार करते हैं, जिस कारण उनके मन में प्रेम अंकुरित होता है। राज कपूर की छठे दशक की फिल्म 'आह' में भी नायक-नायिका पत्र-व्यवहार करते हुए प्रेम करने लगते हैं। दरअसल, प्रेम-पत्र के गिर्द कई फिल्में रची गई हैं। हसरत जयपुरी ने राज कपूर की 'संगम' के लिए गीत लिखा था 'यह मेरा प्रेम-पत्र पढ़कर, तुम नाराज न होना कि तुम मेरी जिंदगी हो, तुम मेरी बंदगी हो!' बिमल राय की शशि कपूर अभिनीत 'प्रेम-पत्र' भी अच्छी फिल्म थी।

प्रेम-पत्र को केंद्र में रखकर विगत सदी में एक महान उपन्यास रचा गया था। नायक एक योद्धा है और जिसे वह चाहता है उस सुंदरी को साहित्य से गहरा लगाव है। उसे प्रभावित करने के लिए नायक अपने गरीब कवि मित्र से प्रार्थना करता है कि वह उसके लिए प्रेम-पत्र लिख दें। इस पत्र-व्यवार से प्रभावित नायिका उस भद्र पुरुष से प्रेम करने लगती है। विवाह के पश्चात एक युद्ध में पति शहादत प्राप्त करता है और कुछ वर्ष बाद वह युवा विधवा अपने पति के नज़दीकी मित्र की ओर आकर्षित होती है। यही व्यक्ति वे पत्र लिखता था। एक युद्ध में वह गंभीर रूप से घायल हो जाता है और मृत्यु के निकट होने के कारण वह नायिका को सत्य बता देता है कि सारे प्रेम-पत्र उसने ही लिखे थे। जब उसकी भी मृत्यु हो जाती है तो नायिका कहती है, 'आई लव्ड वन्स बट लॉस्ट ट्वाइस।' उसने एक बार प्रेम किया परंतु गंवाया दो बार। दु:ख तो इस बात का है कि इस बाजार शासित कालखंड में प्रेम-पत्र लिखे ही नहीं जाते। सारा संवाद मोबाइल पर एसएमएस से संपन्न होता है। टेक्नोलॉजी और बाजार ने बहुत कुछ दिया परंतु उससे अधिक छीन लिया है। बुलडोजर के नीचे जाने कितनी प्यारी कोंपलें नष्ट हो गई है। जीवन की आपाधापी में भावना ही लुप्त होती जा रही है। कई लोग सचमुच चाहते हैं कि उनके मन में भावना का ज्वार उठे, वे इसके लिए प्रार्थना भी करते हैं परंतु बंजर हृदय में कुछ नहीं अंकुरित होता। 'सुर ना सजे क्या गाऊं मैं, सुर के बिना जीवन सूना।' बहरहाल 'बरेली की बर्फी' मनोरंजक है और स्वादिष्ट भी यदि फिल्म आपकी खुराक है तो।