बलिदान का अर्थ / कमलेश पुण्यार्क
शक्ति-पूजा का प्रधान अंग है — बलिदान। शक्ति इह लौकिक हो,या पारलौकिक। आध्यात्मिक हो या भौतिक; किसी न किसी रूप में बलिदान की अपेक्षा रहती है उसे। जगन्माता भगवती हों या भारती। दुर्गा, काली, तारा हों या भारत माता; सबको चाहिये--बलिदान।
‘राष्ट्र ’ एक शक्तिपुंज है। अतः वह भी बलिदान की अपेक्षा करता है। बलिदान बिना जब जगन्माता प्रसन्न नहीं हो सकती,तो भारत माता कैसे प्रसन्न होंगी? जिस देश में जितने अधिक बलिदानी,देशसेवक,लोकनायक होंगे- वह देश उतना ही समृद्ध होगा।
किन्तु बलिदान का अर्थ सिर्फ खून बहा या बहवा देना नहीं,माँ के चरणों में सिर अर्पण कर देना ही नहीं,प्रत्युत पूर्ण त्याग सहित निष्काम भाव से सर्वस्व समर्पण,उत्सर्ग,आत्मोत्सर्ग ही सच्चे अर्थों में बलिदान है। बलिदान सेवा और उत्सर्ग की अन्तिम सीमा है,न कि प्रारम्भिक। सुभाष,भगत,आजाद...सबने यही किया। जब तक बन पड़ा, पूर्ण रूप से,पूर्ण समर्पण भाव से,तन-मन-धन से राष्ट्र की सेवा की,माँ की बेडि़यों को काटने में रक्त का कतरा-कतरा काम आया; और अन्त में जब लगा कि माँ को ‘मेरा’ शरीर भी चाहिये तो उसे भी हर्षोल्लास पूर्वक बलिवेदी पर चढ़ा दिया। गीता में गोविन्द ने इसी समर्पण भाव को अनेक रूप से स्पष्ट करने की चेष्टा की है —‘‘यत्करोषि यदस्नासि,यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरूस्व मदर्पणम्। । " श्रीमद्भगवद्गीता ९\२७
राष्ट्र रूपी भीमकाय यन्त्र के पुर्जे-पुर्जे में आज जंग लगा हुआ है। कुछ सूक्ष्म पुर्जे जो किसी कारण इस प्रकोप से अछूते रह गये हैं,वे भी लाचार और निष्क्रिय हो गये हैं। किसान हो या मजदूर,शिक्षक हो या शिक्षार्थी, विधि-निर्माता हो या विधि पालक...सभी विसार बैठे हैं कि राष्ट्र रूपी शरीर का निर्माण सब अंगों के मिलने से हुआ है। किसी एकाकी अंग का अस्तित्व क्या हो सकता है?अकेला हाथ ‘शरीर ’ नहीं है, अकेला पैर भी नहीं। सभी व्याधियों का मूल पेट भी नहीं। तो केवल मस्तिष्क की क्या बिसात। मगर हर कोई पेट ही रहना चाहता है;हाथ-पैर नहीं,क्योंकि बड़ा आराम है पेट रहने में। ज्यादा खा लेने पर यदि ‘आँव’ भी हुआ तो मरोड़ मलाशय में होगा। अभागी आँखों को तो पहले ही ‘शण्ट ’ कर दिया गया है—मस्तिष्क का जासूस होने का आरोप लगाकर। कान ठीक है, क्योंकि वह आँखों की जगह नहीं ले सकते। इतना ही नहीं पैर टोपी पहनना चाहता है, अपना पुराना जूता सिर को देकर। हाथ- आँत बनना चाहता है, जिसके दाँत नहीं है। हाँ,उसे एक लम्बी-सी जिह्वा उग आयी है,जिसके बदौलत ‘इन्कलाब ’ का नारा बुलन्द कर सकता है,करता भी है। बिना दाँत वाले मुँह से बोलते समय थूक अधिक निकला करता है। लाल झण्डा लिए, कटार और बरछे लिए हाथ जब ऊपर उठता है-‘इन्कलाब’ कहने के लिए,तब उसके दन्त-विहीन मुख से जातीयता व साम्प्रदायिकता का विषैला थूक निकलता है,जिसमें ‘एड्स’ से भी भयंकर बीमारी के कीटाणु होते हैं।
राष्ट्र-यंत्र के पुर्जे-पुर्जे से जंग की पपड़ी उघड़ रही है। पुर्जे बेहाल हैं। इस्तेमाल करने पर भारी घड़घड़ाहट और कर्कश-स्वर से पुर्जा-पुर्जा चरमरा कर टूट रहा है। एक बड़ा-सा पुर्जा है--शिक्षण-संस्थान। जिसे बुद्धिजीविता की बुनियाद, राष्ट्र का हृदय- जैसे तमाम खिताब दिए जा सकते हैं। इसके दो मुख्य अंगों-शिक्षक तथा शिक्षार्थी- दोनों में जंग लग गया है। एक ताल देता है,दूसरा हड़ताल करता है, तोड़- फोड़ मचाता है। कोई भी विध्वंशक काम करवाना हो,बिना भाड़े का टट्टू शिक्षण-संस्थान में आसानी से मिल जाएगा। सरस्वती के पुजारी के हाथों में काली की कटारें नज़र आना आश्चर्य की बात नहीं है। अब इन तथाकथित बुद्धि के करखानों में बम बन रहे हैं।
अन्य पुर्जे तो प्रायःसहयोगी मात्र है,पर दूसरा एक बड़ा-सा पुर्जा जिसे नायक कहा जाता है। इस महत्वपूर्ण पुर्जे में ही राष्ट्रकाय के फेफड़े- गुर्दे दोनों ही हैं। मगर गुर्दे खराब हो गए हैं,सत्ता मद की शराब पी-पीकर। अब जरूरत महसूस हो रही है एक सुविधापूर्ण ‘सेनेटोरियम’ की जहाँ ‘डायलीसिस’ की भी व्यवस्था हो। ऐसे सुव्यवस्थित चिकित्सालय के निर्माण के लिए, ईंट-गारे,कुदाल-फावड़े...की जरूरत होगी।
इन सारी जरूरतों को जुटाने के लिए,पूरा करने के लिए,थोड़ा ‘चैतन्य’ होने की जरूरत है। अपने आप को पहचानने की जरूरत है। किन्तु अपनी शक्ति- आन्तरिक ऊर्जा को मापने-तौलने पर क्षीणता और दुर्बलता झलक रही है,जिसे दूर करने के लिए शक्ति की उपासना की जरूरत है। और उपासना क्रम में माँग होगी बलिदान की, आत्मोत्सर्ग की।
अतः समझना अत्यावश्यक हो गया है,इस बलिदान के अर्थ को,इसकी परिभाषा को,क्षेत्र और सीमा को।
काली उपासना के क्रम में निर्बोध उपासक,अबोध बकरे की बलि चढ़ाता है। क्या यह उसका सच्चा बलिदान है? कदापि नहीं। जगज्जननी क्या उस बेचारे बकरे की जननी नहीं है? एक बेटे को शक्ति देती है दूसरे बेटे का लहू पीकर? बकरे के माँस से देवी की क्षुधा तृप्त होती है? माँस का अर्थ सिर्फ प्राणी का माँस होता है अथवा कुछ और भी?
‘माँ ’ शब्द रसनाप्रिय वस्तुओं का नामान्तरण है। इसका परित्याग ही सच्चे अर्थों में माँस सेवन है। पाप-पुण्य रूपी पशु को ज्ञान रूपी खड्ग से मारकर जो योगी ‘सोऽहम्’ की साधना करता है,वही वास्तविक रूप में माँसाहारी है। और वह है- काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मत्सर,अहंकार! इन्हीं पशुओं का विवेकरूपी ‘असि’ से हवन करना। आज रस-लोलुप साधक साधना के नाम पर मद्य-माँसादि तामसिक वस्तुओं का सेवन करने लगा है। तर्क भी बड़ा पुष्ट है उसके पास—
मद्यं,मांस,च मीनं च मुद्रामैथुनमेव च। मकार पंचकंप्राहुर्योगिनां मुक्तिदायकम्। ।
उक्त श्लोक का वास्तविक अर्थ विलुप्त हो गया है। रहस्य,उद्देश्य और वास्तविकता जानने का प्रयास और जिज्ञासा दोनों का सर्वथा अभाव है। शक्ति के प्रायः हर साधक की यही स्थिति है,जगन्माता का उपासक हो या कि राष्ट्रमाता का। फल साधक को चाहिये,कर्ता को चाहिये,उपासक को चाहिये,और बलि किसी और का चढ़े- बकरा...मुर्गा...गाय...सूअर...आदमी...कुछ भी...जो मूक हो...अक्षम हो...निरीह हो...बलि का पात्र वही होगा न! किसी बकरे ने कभी विरोध नहीं किया। किसी मुर्गे ने बाँग लगाकर यह नहीं पूछा कि मैं क्यों? ब्रह्मा ने अपनी पूरी सृष्टि प्रकृति और पर्यावरण को ध्यान में रख कर किया था,उसने पत्ते-पत्ते तक का ख्याल रखा,हमने तो बीच में नियोक्ता और व्यवस्थापक की घुसपैठी की। किन्तु इन सब बातों पर विचार कौन करे,क्यों करे?हम वही किये जा रहे हैं जो हमें अच्छा लग रहा। और मजे की बात यह है कि अपने मन के मुताबिक हम शास्त्र भी गढ़ लिए हैं--‘हम शाक्त हैं...हम तान्त्रिक हैं...वामाचार में यह सब विहित है....। ’
जनता का प्रतिनिधि जनतन्त्र-तन्तु-निर्मित पंचवर्षीच अक्षय कवच को धारण कर, गर्वोन्मत्त सत्तानायक अपने आप को भुला बैठता है। वह भूल जाता है कि हम राष्ट्र और जनता के सेवक हैं। उस राष्ट्र के जो अगनित बलिदानों से निर्मित हुआ है। उस जनता के जिसकी कुछ आशायें हैं। जनता ने भोग के लिए यह ताजपोशी नहीं की है,प्रत्युत कुछ कर्तव्य सौंपे हैं। किन्तु पद और गोपनीयता की शपथ ग्रहण के बाद वह अपना पहला कर्तव्य समझता है- येनकेनप्रकारेण कुर्सी की रक्षा। और कुछ नहीं,बस चिपके रहो इस कुर्सी से,और इस काम के लिए वह बढि़याँ-से बढि़याँ ‘एडेसिभ’ की तलाश करता है,जो सिर्फ पांच साल नहीं पचीस साल की गारंटी वाला हो। ताकि आने वाली पीढ़ी-दर-पीढ़ी चैन की जिन्दगी गुजार सके।
दूसरा कर्तव्य सामने रहता है- विरोधी का विरोध और दमन,ताकि वह सिर उठा न सके। इस‘पुण्य कार्य’ के लिए छलछद्म और वर्ग-संघर्ष की दावाग्नि में तरह-तरह के रोचक ‘द्रव्यों’ की आहुति की व्यवस्था होती है। रोचक यज्ञशाला के इर्द-गिर्द ऊँचे-ऊँचे मंच बनते हैं,जिस पर आसीन होकर,अनेकानेक सत्पुराणों के प्रवचन होते हैं—गांधीपुराण,अम्बेदकरपुराण,मार्क्सपुराण। और भी बहुत सारे ग्रन्थों का सस्वर पाठ यहाँ होता है।
भोली जनता प्रवचन से मुग्ध और मदमस्त हो जाती है,तालियाँ बजाती है,और खुशी का इज़हार सिर्फ फूलों के हार से नहीं बल्कि अपना सर्वस्व समर्पण कर करती है। किन्तु ‘वादों’ के रसीले ज़ाम की खुमारी बहुत टिकाऊ नहीं होती। थोड़े ही समय के बाद चेतना जगती है,और तब सिर पीटने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह जाता। फिर मौका मिलेगा,ऐसा सोच कर संतोष करता है। मौका समय पर मिलता भी है,पर होता वही है,जो होते आया है।
होते रहने का यह क्रम तब तक जारी रहेगा जब तक हम पूर्णतया चैतन्य नहीं होंगे। बलिदान के अर्थ और औचित्य पर विचार नहीं करेंगे। गम्भीरता पूर्वक विचार कर परम्परा-पथ पर फूँक-फूँक कर कदम रखना होगा। शान से लहराता ‘तिरंगा’ तो वही होगा—सत्व-रज-तम- की त्रिगुणात्मकता में परिवर्तन असम्भव है। किन्तु तिरंगे के स्तम्भ को- आधार को बदलने की आवश्यकता है। स्तम्भ को पकड़ने वाले हाथों को बदलने की आवश्यकता है। और इस परिवर्तन के बाद,नये सिरे से,नये ढंग से एकत्र होने की आवश्यकता है। उस नव स्तम्भ को नव किसलय युक्त ‘बोधिबृक्ष’ मान कर,उसके नीचे पद्मासन मार कर बैठने की आवश्यकता है। झूठी आशाओं और कोरे आश्वासनों से विमुक्त होकर अन्तर्भेद को भुलाकर,अन्तर्वेद को सुनने की आवश्यकता है।
अपनी खोयी-बिसरी स्मृति,शक्ति,क्षमता को पहचानना होगा। शक्ति की पुनर्साधना करनी होगी। उसे चैतन्य करना होगा—श्रद्धा,भक्ति,त्याग और बलिदान के वास्तविक अर्थ को समझ कर।