बलि / कविता वर्मा
आज ग्यारह तारीख हो गयी तनख्वाह नहीं मिली कर्मचारियों में बैचेनी थी धीमे स्वर में सुगबुगाहट फ़ैल रही थी लेकिन कोई खुल कर सामने नहीं आ रहा था। विजया के मन में भी भारी उथल पुथल चल रही थी। आज सुबह ही उसने पति से कुछ पैसे मांगे थे जिसके बदले उसे झिड़की सुनने को मिली थी और मिले थे जरूरत से काफी कम रुपये एक एहसान सा जताते हुए। उसका मन विद्रोह कर उठा इच्छा तो हुई पैसे वापस कर दे लेकिन उसके बाद जो तूफ़ान उठ खड़ा होता उसे टालना ही ठीक था इसलिए चुपचाप रख लिए।
हमेशा के इस अपमान से छुटकारा पाने के लिए ही वह नौकरी करने निकली थी सोचा था जब नौकरी करेगी तो उसके हाथ में खुद के कुछ पैसे होंगे और वह सम्मान से जीने की उम्मीद तो क्या करती लेकिन हाँ उस हद तक तिरस्कार से शायद बच सकेगी।
लेकिन इस नौकरी में जहाँ लगभग सभी महिला कर्मचारी है उनको उनकी मेहनत का पैसा देने में भी कोताही।
छुट्टी से कुछ ही पहले एक एक को बुला कर तनख्वाह दी गयी लेकिन वह तय शुदा से काफी कम थी। विजया के मन में असमंजस गहरा गया क्या करे इतने इंतज़ार के बाद मिले इन पैसों पर अपने सम्मान को कुर्बान कर के इन्हे रख ले या अपने आत्म सम्मान पर कुछ दिनों के लिए अपनी सहूलियतों की बलि चढ़ा दे?