बसंत न आवै / विद्यानिवास मिश्र

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बसंत के स्‍वागत की धूम में 'बसंत न आवे' इसलिए कि बसंत स्‍वयं आज उन्‍मन है। उसे रतिविलाप की वे पंक्तियाँ सुधि हो आई हैं,

गत एव न तो निवर्त्‍तते स सखा दीप इवानिलाहत:।

अहमस्‍य दशेव पश्‍य मामविषह्यव्‍यसनेन धूमिताम्॥

वह अपनी प्रिय सखी को बुझी बत्‍ती की तरह धूमित देखकर विह्वल हो उठा है, आज उसके प्रिय सखा का विछोह उमड़ आया है। वह अपनी समृद्धि से सुखी नहीं है। वह इसलिए नकीब से घोषणा कराते हुए आना नहीं चाहता।

बसंत के रोएँ-रोएँ रो उठते हैं, जब उसे लगता है कि अपनी सहकार मंजरियों से उसे तिलांजलि का कार्य लेना है। तो स्‍वागत-गान गाने से क्‍या लाभ? तड़पते हुए को और तड़पाने से क्‍या लाभ? आइए हम भी गाएँ …

सजनी हो मन मोर मनावै बसंत न आवै।

फूलैं फूल फरें जनि तरुवर , राग फाग कोउ गावे।

रहत उदास मोर दिल दिन भर छनहूँ नहीं धीर धरावे।

बसंत न आवै।

अंबा मौर कूच महुआ मँह कोइलि कुहुक मचावै।

दखिन बयार बहत जिय जारत पीतम मोंहि जो दरसावै।

बसंत न आवै।

अभी कहीं से आशावादिता की ढोल बाँधकर गाल बजाने वाले कोई पंडित चिल्‍ला उठेंगे, 'यह अभारतीय मनोवृति है कि निराशावादी गीतों से सांस्‍कृतिक अंतर्जीवन को बेहोशी की सुई दी जाए। हाँ, इस बेहोशी की सुई की, इस अवसाद की आज नितांत आवश्‍यकता है। उल्‍लास की अनमनी रंगरलियों से करुणा की सहज होली का रंग चोखा पड़ता है। भविष्‍य की आशातंतुओं की मनोग्रंथियों से विकृत आकृतियों को जब हम विश्‍वविद्यालयों की तथाकथित लावण्‍यवीथियों में ऊँची एँड़ियों के नीचे धँसते देखते हैं, जब हम स्‍वर्णकिरणों की मृगतृष्‍णा में आकुल जनों के हर्षोंमाद के छूँछे गीत सुनते हैं और 'पेरिस की साँझ' की उन्‍मद गंध की झीनी चादर चीर कर जब हम गलित जीवन की संड़ाध में जा पहुँचते हैं, तब हमें बरबस रुलाई आती है कि बसंत क्‍यों आए। सचमुच यदि बसंत आए, तरुणाई में नई तरुणाई भरने के लिए, ठूँठ को भी पल्‍लवित करने के लिए और पल्‍लवित को पुष्पित करने के लिए, तो उसका आना आने की तरह लगे। पर यदि उसके आने से दखिनैय बयार की लहक पाकर अंदर सुलगी हुई आग को दहकने का और बल मिले, यदि उसके आने से रति का उतार और अरति का चढ़ाव हो और यदि उसके आने से 'नयौ पातन कौ उनयौ पतझार' हो, तो उसका न आना ही अच्‍छा। इसलिए धरती गा उठी है,फूलै फूल फरै जन तरुवर राग फाग काउ गावै। राग फाग ही तो उद्वैजना का मुख्‍य कारण है। इन्‍हीं दिनों रंगी शिवशंभु शर्मा को भी इस राग फाग से उद्वेजना हुई थी। अगर कोई पुछे कि आज उनके 'माई लार्ड'बोरिया बसना समेत यहाँ से चले गए और व्रज के कन्‍हैया के घर जाकर होली खेलने की शुभ वेला सचमुच आ गई, अब 'राग फाग' से इतनी चिढ़ क्‍यों? क्‍यों, बताऊँ। उमंग नहीं रही। वंशी मिल गई है लेकिन उसके रंद्र फूँकने वाले प्राण नहीं रहे। दासता के दिनों का वह विद्रोह का अदम्‍य उत्‍साह भी नहीं रहा। बच रही है प्रगाढ़ निद्रा की मुखर साँस। इसमें उस उल्‍लासित जनगीत की स्‍मृति क्‍यों दुखदायिनी हो? और जो गीत अपने रुँधे मुँहजले गले सेन निकल सके, उसका गायन क्‍यों न दाह उपजावे?

भीतर से एक विप्रश्‍न उठ रहा है कि बसंत आता भी है कि तुम बार-बार 'बसंत न आवै' का हल्‍ला मचा रहे हो? आता है, तुहिन हिमपात लिए जाड़ा और झंझावत लिए पतझार। इनके आगमन के तुमुल कोलाहल में बसंत यदि आके, रोके चला जाता होगा तो नहीं जानता, पर कभी उसका भी आना आने की तरह लगता? अभी आम बौराए नहीं कि पुरवैया की झकोर से लसिया-लसिया कर बौर धूलि में लौटने लगे। रही महुआ के कूँची की बात, सो मधूक-माला की प्रतिष्‍ठा संयोगिता के स्‍वयंवर तक ही रही, उसके बाद तो सिवाय अप्रतिष्‍ठा और अपयश के इस मधूक को कुछ मिला नहीं।

हाँ, भले याद आई इस मधूक की। इसके साथ बचपन की एक अत्यंत विनोभरी स्‍मृति जुड़ी हुई है। ननिहाल की घटना है। भारत का सबसे प्राचीन पाम्रपत्र जहाँ प्राप्‍त हुआ, उस सोहगौरा की बात है। गाँव आमीराप्‍ती के संगम पर बसा हुआ और गसोईंजी की पंकित 'मनी पीन पाठीन पुराने, भरि-भरि भार कहारन आने' की प्रेरणा का मूलस्‍त्रोत बन सके, ऐसी मीन-समृद्धि से संयुत। हाँ, तो कोई अमीनभोजी शिष्‍य अपने कनफूँकवा गुरु श्री कोदई राम त्रिपाठी को खोजता हुआ इन्‍हीं बौर और महुआ के दिनों में एक बार पहुँचा और पूछ बैठा कि पंडित जी जिनका नाम 'झिनवा' से पड़ता है (उसने गुरु नाम लेना अशास्‍त्रसम्‍मत होने के कारण कोदों के स्‍थानीय पर्याय झिनवा अर्थात 'महीन चावल' का प्रयोग किया) वे महाराज जी कहाँ हैं, उसे उत्‍तर मिला ...

मधूकवृक्षे कुशहोपग्राम प्रातर्गतौऽसो मतऊसमेत:।

आमीनदीमीनविनाशनाय कदन्‍ननमा स व‍रीविराजते।

अर्थात 'अपने मित्र पंडित मतऊराम के साथ आपके श्रीमान कदन्‍ननामा (कोदई बाबा) सबेरे ही के निकले हुए हैं और इस समय कुशहा टोला के अकेलवा महुआ के पेड़ के नीचे, आमी नदी की मीन जनसंख्‍या को कम करने का शुभ संकल्‍प लेकर विराज रहे हैं, वहीं आपको मिलेंगे'। तभी से उस मछलीमाही के पुण्‍यस्‍थल में स्थित महुए के पेड़ का नाम पड़ गया है मधुकवा महुआ। आज भी लोग इस पुनरुक्तिशोभित पुण्‍यनाम को सँजोए हुए हैं।

हाँ, तो बात चली थी महुए की ओर उसके कूँचे की। सचमुच आज महुए की महक नहीं रही, रही केवल उसमें आज 'मधुकता' ही। आज का महुआ 'मधुकवा' बन ही गया है। इतना सुन कर और समझ कर आशा है, अपने रसाल और मधूक के बिरते पर रसराज और ऋतुराज बनने वाला, मधुमास भी अपना मुँह नहीं उठाएगा। हाँ, वह स्‍वयं न उठाए, पर कोई उसके हाथों बिकी हुई इन परभृतिकाओं को कैसे रोक सकता है, जो उसी की रोटी खाती हैं, वे तो अपना नमक अदा करेंगी ही और 'बसंत आवै, न आवैं',बसंत के आने का जयघोष करेंगी ही, उस पर भी न आवै, तो मानों वह आना चाहता नहीं, इस प्रकार मनुहार करेंगी। करें, उन्‍हें जब स्‍वयं अपनी इस प्रवंचना का विश्‍वास नहीं है, तब दूसरों के मन में इस असत्‍य की अवतारणा कर ही वे कैसे पाएँगी? उनकी यह पंचम की पुकार लू की लपटों में झुलस जाएगी और मेघों के गर्जन में डूब जाएगी।

तब 'अइहैं फेरि बसंत ऋतु इन डारन वै फूल' की मधुर आशाएँ और '‍यदि जाड़ा आता है तो क्‍या बसंत उससे दूर पीछे छूट सकेगा' के लुभावने आश्‍वासन क्‍या इंद्रजाल ही बने रहेंगे? क्‍या सही समझा जाए कि इस इंद्रजाल का कभी अंत न होगा? क्‍या इस इंद्रजाल के अधिष्‍ठाता रत्‍नावली के ऐंद्रजालिक बन कर आशातीत दिनों को इसी प्रकार आँखमिचौनी खेलाते-खेलाते एकदम वास्‍वतिकता के चित्रपट पर नहीं ला देंगे? यदि लाने की क्षीण से क्षीण भी संभावना हो तो कुछ अपनी ओर से भी किया जाए। बसंत के बीज उन्‍हीं जीर्ण-शीर्ण पर्णराशियों में वर्तमान हैं, जिनमें हम चिनगारी फेंकना चाहते हैं। बसंत के आने के संकेत हमें उन्‍हीं अमराइयों से मिलेंगे जिनके भीतर से से 'जड़ता जाड़ विषम उप व्‍यापा' से ठिठुरते हुए असंख्‍य जन झाँक रहे हैं। बसंत को प्राणांवित करने वाली बयार उन्‍हीं चंदनसुरभित मलयांचलों से आने वाली है, जिनमें आज असंख्‍य फणधरों की विषोल्‍वण ज्‍वालाएँ धधक रही हैं। बसंत के कंठ में अभी'नाइटिंगेल' की फाँसी लगी हुई है और 'भाग्‍यक्रमेण हि धनानि भवंति यांति' और इसका दुख नहीं, दुख तो इस बात का है कि प्राणसखा मदन भी आज बसंत की छा‍ती पर मूँग दलता हुआ दनादन फायर करता चला जा रहा है, अब न उसे पराग से हाथ धुरियाना है, न तुणीर को पंचबाणों से भरना है और न फूलों की प्रत्‍यंचा चढ़ानी है, मौसम बेमौसम शर-वर्षा किए जा रहे है।

इस विषम स्थिति में बसंत का आवाहन करना है, उसकी प्राणप्रतिष्‍ठा करनी है और उसका पूजन करना है, और यही नहीं उसकी समृद्धि से …

डार दुम डारिनि बिछौना नव पल्लव के कुसुम झँगूला सोहैं तन छवि भारी दै का झूला रचकर मदन-महीप के उत्‍तप्‍त मस्तिष्क को संजीवन से शीतल करना है। इसी प्रेय के दर्शन की कामना-ललक के साथ की गई है, 'प्रीतम मोंहि जो दरसावैं'। जब तक वह न हो, त‍ब एक बार-बार धरती यही गाती रहेगी… 'सजनी हो मन मोर मनावै, बसंत न आवै'।

फाल्गुन 2007, प्रयाग