बसंत / विवेक मिश्र

Gadya Kosh से
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बसंत पंचमी का दिन था।

आसमान में घने बादल छाए थे। मंद्र हवा के साथ हल्की-हल्की बूँदें पड़ रही थीं। बूँदे सूखी जमीन पर गिरकर किसी जादू की तरह गायब हो रही थीं। वे गायब होने पर एक खुशबू अपने पीछे छोड़ जाती थीं। लगता था तेज बारिश आने को है, पर धीरे-धीरे तेज होती हवा जैसे आश्वस्त कर रही थी कि वह बादलों को ज़्यादा देर यहाँ ठहरने नहीं देगी। बादल एक दूसरे से सटकर आसमान पर अपनी पकड़ बरकरार रखना चाहते थे। वे हवा के धकेलने पर भी अपनी जगह से टस से मस नहीं हो रहे थे। हवा धीरे-धीरे अनायास जैसे क्रुद्ध हो उठी। लगा अब वह बादलों को आसमान से उखाड़ कर कहीं पाताल में धकेल देगी। इस सब के बीच विशालकाय नीम का पेड़ ऐसे हिल रहा हो जैसे कोई हाथी सिर डिलाता हुआ, अपने कान हिला रहा हो और उसके ऐसा करने से ही हवा तेज और तेज होती जाती हो।

बच्चे मैदान में ऐसे दौड़ रहे थे, जैसे उनके पंख लग गए हों।

जो सयाने थे, वे घरों को चले गए थे। तभी एक क्षण को हवा रुकी। पेड़ ने हाथी की तरह सिर हिलाना बंद कर दिया। बादलों के बीच बनी एक खाँच से साँझ के सूरज की तिरछी किरणें, किसी दिव्य प्रकाश-सी मैदान में फैलने लगीं। तभी एक बड़ा-सा सफेद चमकीला मोती, बसंती रंग की कमीज और खाकी निक्कर पहने मैदान में खेलते आठ साल के ज्ञान के सामने गिरा। सूरज की तिरछी किरणों में सफेद मोती की आभा, किसी आलौकिक चमत्कार के जैसी थी। उसने उसे उठाकर अपनी हथेली पर रख लिया। सफेद चमकीला बर्फ-सा ठंडा मोती। उसे लगा मानो किसी देवता ने आसमान में प्रकट हो, वह विलक्षण मोती उसे भेंट किया है और सूरज की तिरछी किरणों पर बैठकर बादलों में बनी खाँच में से होता हुआ अंतर्ध्यान हो गया है।

उसके जाते ही एक और मोती चमक उठा, फिर एक और फिर एक और। ज्ञान उन सबको उठाकर जेबों में भरने लगा। आज आसमान से मोती बरस रहे थे। उसने उनसे अपनी जेबें भर ली थीं। अब और मोतियों को समेट पाना ज्ञान के लिए मुश्किल था। उसने अपने आस पास एक नजर दौड़ाई. चारों ओर कोई नहीं था।

वह मुट्ठियों में मोती भरे, मैदान के बीचों-बीच अकेला खड़ा था।

आसमान फट पड़ा था। सूरज की किरणें गायब हो गई थीं। घने बादलों ने मैदान में रोशनी को बहुत कम कर दिया था। आसमान में अजब-सी गड़गड़ाहट थी। लगता था सैकड़ों नगाड़े एक साथ बज रहे हैं। आसमान से ज्ञान की गेंद से भी बड़े, सख्त, तेजी से सनसनाते ओले पड़ रहे थे। आसमान हरहरा कर ढह गया था। पूरे मैदान में पलक झपकते ही बर्फ की सफेद चादर बिछ गई थी।

ज्ञान सिर पर हाथ रखकर, छुपने के लिए, नीम के पेड़ की ओर भागा। उसकी जेबों में भरे मोती धीरे-धीरे पिघलने लगे थे। भागने की कोशिश में ज्ञान फिसलकर गिर पड़ा था। उसकी आँखें बंद होने लगी थीं। वह उनके बंद होने तक नीम के पेड़ को देखता रहा था, जिसके पीछे उसका घर था। उस दिन कई घंटे ओले पड़ते रहे। आँगन और घरों की छतों पर घुटनों तक ओले जमा हो गए जिनके दरवाजे बंद थे उनके सामने इस तरह ओले अट गए कि कई घंटों तक दरवाजे नहीं खोले जा सके. लोग बाल्टियों में भर-भर कर ओले घर से बाहर फेकते रहे।

ज्ञान की दादी विस्मय से आँखें फैलाकर कहती रही कि अपनी नब्बे साल की ज़िन्दगी में उन्होंने ऐसे ओले नहीं देखे। अब ज्ञान की उम्र लगभग चालीस साल है, पर वह ओलों से बहुत डरते हैं और मोती बटोरने से भी और साथ ही वे देवताओं के प्रकट होने और वरदान देने वाली कहानियों को बेहद नापसंद करते हैं।