बसन्ती / भीष्म साहनी / समीक्षा
समीक्षा: आशुतोष कुमार शुक्ल
बसंती उपन्यास 1978 में वाड़चू कहानी संग्रह में प्रकाशित राधा-अनुराधा कहानी का विस्तार है। राधा-अनुराधा कहानी को बसंती उपन्यास की पूर्व पीठिका भी कहा जा सकता है। क्योंकि उपन्यास कहानी के दो वर्ष बाद 1980 में आता है। यह उपन्यास निम्नवर्गीय मजदूर वर्ग की जिंदगी पर केंद्रित है। उसमें भी विशेष रूप से महिलाओं की जिंदगी पर। महानगरीय बोध और आधुनिक जीवन की चमक दमक और रफ़्तार भरी जिंदगी में कुछ देर ठहरकर सोचने पर, यह उपन्यास मजबूर करता है। आखिर क्या महानगर की एक जिंदगी यह भी हो सकती है? जहाँ हर वक्त यह डर रहता है कि कब पुलिस की गाड़ी आएगी और उनका बसा-बसाया आशियाना उजाड़ जाएगी। यह आशियाना दो रूपकों में उपन्यास में उभरता है। पहला बस्ती का उजड़ना और दूसरा बसंती की जिंदगी का। बसंती इस निम्नवर्गीय समाज में पैदा और बड़ी होती है। अपने अनुभवों से जिंदगी जीना सीखती है। जिंदगी से निरंतर संघर्ष करती उपन्यास की पात्र है। स्वभाव से बेफिक्र, अल्हड़ हर छोटी से छोटी समस्या को या बात को “तो क्या बीबी जी” कहकर हँसकर हवा में उड़ाने वाली। अपनी जिंदगी को कल की बजाय आज में जीने वाली उपन्यास की सशक्त पात्र है।
जिंदगी को लेकर उसका यह नजरिया उसके सामाजिक व आर्थिक परिवेश की देन है। वह निम्नवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती है। माँ-बाप के लिए जहाँ बेटी एक ओर बोझ है तो दूसरी ओर आमदनी का साधन। इसी कारण बसंती के पिता बसंती को 1200 रुपयों में बूढ़े लंगड़े दर्जी से शादी के लिए बेच देता है। क्योंकि बसंती के पिता को अपना घर पक्का करना है। यह घर पिता का है इसी वजह से बसंती की इसमें कोई जगह नहीं थी। दूसरा आर्थिक असमर्थता और गरीबी थी। “जबान दे चुका हूँ , इसीलिए कह रहा हूँ, चौदह बरस की भी नहीं, छोरी, अब चौदहवें में पैर रखा है। और तेरे जैसे के हाथ में दे रहा हूँ। नहीं तो दस आदमी ऱोज इसके लिए पूछते है। अब मंजूर हो तो बोल दे”। बसंती से पहले उसकी दो बहनों का विवाह भी इसी तरह हुआ था। यह मानसिकता निम्नवर्गीय समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता को उजागर करता है।
उपन्यास में बसंती की छवि एक वस्तु के रूप में उभरकर सामने आती है। यही वस्तुकरण माधवी नाटक में माधवी का होता देखा जाता है। माधवी और बसंती दोनों ही स्त्री पात्र भीष्म साहनी की रचनाओं के केंद्रीय पात्र है। माधवी पौराणिक आख्यान के पात्र के रूप में उभरती है तो बसंती आधुनिक महानगरीय जीवन की निम्नवर्गीय स्त्री पात्र के रूप में। दोनों का परिवेश और परिस्थितियां अलग-अलग रही। बावजूद इसके दोनों ही पात्र स्त्री होने के समाज में वस्तु के रूप में खरीदी और बेची जाती है। यहाँ यौनिकता का सवाल पुनः उभरकर सामने आता है। क्योंकि बसंती अभी चौदह बरस की भी नहीं है दूसरी ओर माधुरी को चिर-कौमार्य का वरदान है। समाज में महिलाओं को वस्तु समझे जाने की यह मानसिकता आज की नहीं है बल्कि माधवी से लेकर बसंती तक इस मानसिकता को देखा जा सकता है। यहाँ एक सूक्ष्म अंतर जरूर देखने को मिलता है और वह है विरोध। माधवी का विरोध नाटक के अंत में सामने आता है जबकि बसंती शुरूआत से ही विद्रोही देखी जाती है। बसंती का यह विद्रोही स्वरूप और जिंदगी को अपने अनुरूप जीने की लालसा से उत्पन्न है जो उसे माधवी से अलग करता है। इसका एक कारण बसंती का निम्नवर्गीय समाज से होना रहा। जहाँ विवाह संस्था और पितृसत्ता अपने अलग-अलग रूपों में मौजूद थी। इस तरह वर्गीय अंतर ने भी उनके व्यक्तित्व की निर्मिती में अहम् भूमिका निभाई। बसंती का चरित्र जिसमें अधिक मुखर होकर सामने आता है।
बसंती निम्नवर्गीय समाज से है। वह श्रम के जरिए जीवनयापन करना जानती है। वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। वह जिंदगी से प्रेम करती है। स्वभाव से बगावती है। यह बगावत उसके परिवेश की देन है। इसी वजह से वह बूढ़े लगड़े से शादी करने की अपेक्षा दीनू के साथ भागना उचित समझती है। अपने माँ-बाप के सामने दीनू की साइकिल पर बैठ कर उनके सामने से गुजरने का हौसला रखती है। यह जानते हुए कि देखे जाने पर मार पड़ेगी। “एक अजीब जूनून-सा बसंती पर सवार था। वह बार-बार अपने माँ-बाप और संबंधियों के समाने से होकर निकलना चाहती थी, उन्हें ठेंगा दिखाने के लिए, कि देखो मैं तुम्हारी आँखों के सामने भागकर चली जा रही हूँ और तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते”। बसंती की विद्रोही मन: स्थिति उस जैसी लड़कियों के मनोविज्ञान को उजागर करता है। जो आर्थिक असमानता और परिवार में अपनी दोयम स्थिति के कारण लगातार प्रताड़ित होती है और विद्रोह की राह चुनती हैं। उनका विद्रोही तेवर उनकी परिस्थितियों की देन है।
बसंती फ़िल्मी दुनिया में जीती है। फ़िल्मों से उसका यह लगाव उसकी अपनी कल्पनाओं को उनमें देखें जाने का परिचायक है। वह अपनी गरीबी और उसमें पनप रही जिंदगी को फ़िल्मों के रंगों से भर देना चाहती है। इसी कारण तो बिना सोचे समझे दीनू के साथ भागती है और आराधना फिल्म की परिकल्पना में वह एक फटे-पुराने फ़ोटो को भगवान मानकर उसके आगे दीनू से शादी करती है। यह विवाह उसके लिए विवाह था परंतु न तो दीनू इसे विवाह मानता है न ही अन्य कोई। फ़िल्में मनुष्य की कल्पनाओं को उड़ान देती है यथार्थ से कोसों दूर कुछ पल का सुकून देती हैं। यही सुकून बंसती फिल्मों से पाती है। फ़िल्म उसकी जिंदगी है जिसे वह जीना चाहती है। इसी वजह से श्यामा दीदी के समझाए जाने के बाद भी वह दीनू के साथ जिंदगी की शुरूआत करती है। बिना भविष्य की सोचे और उसके बारे में जाने। क्योंकि वह जानती थी कि जिस परिवेश में वह रहती है वहां भविष्य अनिश्चिता के साए में पलता है। जीवन की जिस सच्चाई से भागकर वह दीनू का हाथ पकड़ती है। वह साफ़-सुथरा रहता है। शराब नहीं पीता है। “बसंती को इस बात का भी गर्व था कि उसका पति शराब नहीं पीता ...पीकर हमारे लोग बहुत बोलते हैं, बहुत झगड़ते हैं”। फिर अपनी पत्नियों और बच्चों की पिटाई करते हैं। बसंती की सहेली भोली और उसकी माँ इस मारपीट की गवाह थी। भोली तो तंग आकर घर से भाग भी जाती है। बसंती की अपनी स्त्री सुलभ कल्पनाओं में एक साथी की छवि रही। मगर वह छवि भी जीवन के यथार्थ के सामने आने पर धूमिल होती जाती है।
दीनू द्वारा बार-बार उसके साथ संबंध बनाना और संबंध बनाकर चले जाना। मानसिक द्वंद्व की स्थिति को उजागर करता है। यह द्वंद्व पूर्व निर्मित कल्पनाओं और यथार्थ की टकराहट का है। वह दीनू की इस मानसिकता को नहीं समझ पाती। उसकी कल्पनाओं का पति उसके साथ ढेरों बाते करता है उसका ख्याल रखता है। मगर यहाँ स्थिति विपरीत थी। वह ख़ुद को असहज महसूस करती है और अपनी असहजता को सामने लाती है। “यह तुम्हें क्या हो जाता है, रात प्रभात जब आते हो चिपटने लगते हो। बसंती हंसकर बोली, “मुझे बड़ा गंदा लगता है..” फिर मानों अपने आपसे बातें करती बोली, “मेरा बापू भी ऐसा ही था। माँ रात को इसीलिए बड़बड़ाती रहती थी। इसीलिए कुतिया की तरह बच्चे जनती रही है। मुझे बड़ा गंदा लगता है”। बसंती अपने साथ किए जा रहे इस यौन व्यवहार की तुलना अपने माता-पिता के संबंधों से करती है। क्योंकि वह इस तरह के संबंधों से नफ़रत करती आई है। भारतीय समाज में पति-पत्नी संबंध आज भी महज औपचारिकता है। जहाँ अपनत्व से अधिक यौनसंबंधो को कायम करने की मानसिकता उजागर होती है। 80 के दौर का यह उपन्यास वैवाहिक बलात्कार के सवाल को उठाता है। जहाँ असहमति के बिना बनाए गए यौन संबंध को वैवाहिक बलात्कार में शामिल किया गया था। जिस पार आज तक कानून नहीं बन पाया है मगर बहस जारी है। भीष्म साहनी बसंती के माध्यम से इस पर खुल कर तो बात नहीं करते मगर वैवाहिक संबंधों में शोषक और शोषित की भूमिका को जरूर उजागर करते देखें जाते हैं।
बसंती द्वारा संबंध बनाने से मना किए जाने पर, दीनू का आक्रामक व्यवहार उसे सोचने पर मजबूर करता है। क्या उसकी मौजूदगी इतने भर के लिए है। दीनू का यह कहना ‘तुझे लाया किसलिए था’और बसंती का पूछना “बस इसी काम के लिए लाया है? ” जवाब में “और नहीं तो क्या? ” बसंती का यथार्थ से सामना था। स्त्री मनोविज्ञान को यदि यहाँ समझने का प्रयास किया जाए तो महिलाओं के लिए प्रेम संबंध भावनात्मक रूप से उनका जुड़ाव होता है। वह यौनसंबंधों से अधिक अपनत्व के भाव को महत्व देती हैं। ऐसे में उसे महज एक शरीर माने जाने की मानसिकता पितृसत्तात्मक मानसिकता को उजागर करताहै। पितृसत्ता का स्वरूप भले ही अपने समय सापेक्ष बदलता रहता है मगर उसकी मानसिकता में बदलाव नहीं आता है। बसंती का निम्नवर्गीय परिवेश से जुड़े होने के बावजूद उसके परिवेश में पितृसत्ता का वही स्वरूप देखने को मिलता है जो माधवी में देखने को मिला।
भले ही बसंती विद्रोही है मगर उसका विद्रोह भी प्रेम के आगे झुकता देखा जाता है। जो एक बार फिर हमें याद दिलाता है कि महिलाएं भावनात्मक रूप से कमज़ोर होती है। बसंती का पूरा बचपन प्रेम और आत्मीयता के अभावों में बीता था। इसी कारण वह इसकी पूर्ति घर के बाहर तलाशती है। उसकी यह तलाश दीनू तक आकर खतम होती है। क्योंकि वह उसे आत्मीय लगा। “इसने तो मेरे साथ भला ही किया है ना, मुझे अपने साथ ले आया। नहीं तो बापू तो पंडित बुला लाया था और लंगड़ा बारात ला रहा था। और बसंती के दिल में फिर दीनू के प्रति गहरे स्नेह का उद्गार उठा,”। पारिवारिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां इंसान को कितना बेबस और मजबूर बनाती है। उसका उदाहरण बसंती है। बसंती जो विद्रोही थी मगर अब सब कुछ जानते और समझते हुए आत्मसमर्पण कर देती है इस भाव के साथ कि “चलो उससे तो अच्छा था”। मगर यहाँ भी दीनू उसका इस्तेमाल करता है और बाद में अपने दोस्त को 300 रुपयों के लिए बेच देता है। बेचे जाने की यह प्रक्रिया पिता से शुरू होती है और दीनू तक अनवरत चलती है। समाज की तत्कालीन मानसिकता को उभारता है।
बसंती निम्नवर्गीय गरीब परिवार से है। ऐसा परिवार जो महानगर की झुगी-झोपड़ियों में रहता है। जिनके जीवन का प्रत्येक दिन अपने आप पूरा होता है। क्योंकि अगले दिन क्या होगा वह खुद नहीं जानते है। उनकी जिंदगी इसी वजह से केवल उनकी होती है। इसी कारण दीनू के छोड़े जाने के बाद बसंती अकेले अपने बच्चे के पालन-पोषण का निर्णय लेती है और घर-घर जाकर काम करती है। मध्यवर्गीय परिवारों की महिलाओं के साथ संभव नहीं था क्योंकि वहाँ परिवार का ढांचा बहुत ही शक्तिशाली रूप में उन्हें बांधे रखता है। जबकि निम्नवर्गीय परिवारों में ऐसा नहीं होता। यहाँ महिलाएं अपनी आजीविका के लिए घर से बाहर काम करती है। वह भी समान रूप से आर्थिक हिस्सेदारी देती हैं। बावजूद इसके परिवार में वह भी शोषित होती है। वह अपनी कुंठा को गाली के माध्यम से जाहिर करती है। इस समाज में गाली का भी अपना मनोविज्ञान रहा है। वह मनोविज्ञान महिलाओं से विशेष रूप से जुड़ता है क्योंकि यह मानसिक रूप से उनकी कुंठा और हीन भावनाओं को बाहर करता है। बसंती की कल्पनाएँ और इच्छाओं का संसार उसके परिवेश से बाहर के जीवन को देखकर व उनके बीच काम करते हुए बड़ा हुआ है। वह स्वयं भी अपने परिवेश से बाहर आना चाहती है। वह अशिक्षित है क्योंकि उनका कोई स्थायी ठिकाना नहीं है क्योंकि वह मजदूर वर्ग से है। मगर श्रम करना जानती है। और जिंदगी को सवारने का लगातार प्रयास करती है। मगर वर्गीय असमानता और गरीबी-अमीरी के बीच की विभाजक रेखा में उसकी यह छोटी-छोटी इच्छाएँ संशय की दृष्टि से देखी जाती है। बसंती अपना बच्चा गोद में उठाए हुए थी और खुद हल्के पीले रंग की साड़ी पहने हुए थी। कोई उसे देखकर यह नहीं कह सकता था कि यह घरों में चौका बर्तन करती है। पप्पू को तो विशेष रूप से बना-सँवारकर लाई थी – उसके सिर पर फुँदकने वाली गुलाबी रंग की टोपी थी, आँखों में काजल था और पाँवो में मौजे थे”। बसंती का अपनी जिंदगी को बेहतर तरीके से जीने की यह लालसा उच्चवर्गीय समाज में शंका और भय पैदा करता है। आखिर एक कामवाली महिला इतना अच्छा कैसे पहन सकती है और चोरी के इल्ज़ाम में उसे काम से निकाल दिया जाता है। यहाँ वर्गीय असमानता को बनाए रखने की मानसिकता उजागर होती है। निम्नवर्गीय व्यक्ति जहाँ श्रम के जरिए लगातार इससे बाहर आने का प्रयास करता है मगर असफल होता देखा जाता है।
भीष्म साहनी बसंती के माध्यम से महानगर में पलायन के दौरान रोजगार के सिल-सिले में भटकते मजदूर वर्ग की जिंदगी को अपने उपन्यास का कथानक बनाते हैं। और उस जिंदगी को बसंती के माध्यम से पाठक तक संप्रेषित करते हैं। क्योंकि निम्नवर्गीय समाज में महिलाएं अधिक सशक्त होती हैं दूसरा सबसे अधिक वर्गीय असमानता की मार भी वही झेलती हैं। वह घर, परिवार और समाज में काम करती है। उनका यह काम अनवरत रूप से चलता रहता है। वह गर्भावस्था के दौरान भी निरंतर काम करती है। उनके लिए अवकाश नहीं होता है। उनके लिए अवकाश का आशय रोजगार से अवकाश है। वह परिवार की संरचना को तोड़ती नहीं है मगर उसमें घुसपैठ करती है। पति के मारे जाने पर घर छोड़ कर चली जाना। पति के छोड़े जाने पर रोने की अपेक्षा फिर से जिंदगी को जीने का प्रयास करना। बिना विवाह के माँ बनने का निर्णय लेना और बच्चे का पालन-पोषण करना। निम्नवर्गीय समाज की महिला के लिए ही संभव है क्योंकि वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती है और अपने परिवेश में निर्णय लेने के लिए कुछ स्तर तक स्वतंत्र भी है। यह अन्य वर्गों में संभव नहीं था।
उपन्यास की शुरूआत में बस्ती का उजड़ना जहाँ बसंती की जिंदगी को बदल देता है वही उपन्यास के अंत तक आते-आते पुनः पटरियों का उखड़ना और लाठी की आवाज़ जिंदगी के एक अध्याय को खत्म करती, नए अध्याय की ओर रुख करता है। बसंती का वापस अपने माता-पिता के पीछे-पीछे भागना और भीष्म साहनी का कहना कि ‘वह जिस ओर से आई थी। उसी ओर जाने लगी’। अंतिम वाक्य पुनः नए सिरे से जिंदगी की शुरूआत की ओर इशारा करता है। यह निम्नवर्गीय स्त्री के मनोविज्ञान को भी उजागर करता है। जहाँ वह अपनी परिस्थितियों के अनुरूप मानसिक रूप से बहुत प्रबल होकर उभरती है। जबकि उच्च और मध्यवर्गीय महिलाओं में यह स्थितियां अवसाद को पैदा करती है। इस तरह बसंती उपन्यास निम्नवर्गीय महिलाओं के जीवन और उनके यथार्थ को सामने लाता है। दूसरी ओर महानगरीय जीवन में इनकी जिंदगी की भयावहता को उजागर करता है। विभाजन के दौरान पलायन की स्थिति में भीष्म साहनी दिल्ली आते हैं और दिल्ली को बेहद करीब से देखते हैं। बसंती उसी का ही हिस्सा है। क्योंकि दिल्ली को हर किसी ने देखा किसी ने उसकी ऐतिहासिकता को देखा तो किसी ने उसकी आधुनिक जीवन शैली को। मगर भीष्म साहनी ने पलायन और गरीबी में पनप रही जिंदगियों और उनके जीने की जद्दोजहद को देखा। बसंती उपन्यास के रूप में जो हमारे सामने मौजूद है।