बसन्ती / भीष्म साहनी / सामान्य परिचय

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इस उपन्यास में एक ऐसी लड़की का चित्रण है जो मेहनत-मजदूरी करने के लिए महानगर में आए ग्रामीण परिवार की कठिनाइयों के साथ-साथ बड़ी होती है; और निरंतर ‘बड़ी’ होती जाती है। दिल्ली जैसे महानगर में नए-नए सेक्टर और कॉलोनियाँ उठानेवालों की आए दिन टूटती झुग्गी-बस्तियों में टूटते गरीब लोगों, रिश्ते-नातों, सपनों और घरौंदों के बीच मात्र बसंती ही है जो साबुत नजर आती है। वह अपने परिवार, परिवेश और परंपरागत नैतिकता से विद्रोह करती है। यह विद्रोह उसे दैहिक और मानसिक शोषण तक ले जाता है, पर उसकी निजता को कोई हादसा तोड़ नहीं पाता। प्रेमिका और ‘पत्नी’ के रूप में कठिन-से-कठिन हालात को ‘तो क्या बीबी जी’ कहकर उड़ाने और खिलखिलाने में ही जैसे बसंती की सार्थकता है। दूसरे शब्दों में वह एक जीती-जागती जिजीविषा है। यह उपन्यास महानगरीय जीवन की खोखली चमक-दमक और ठोस अँधेरी खाइयों के बीच भटकती बसंती जैसी एक पूरी पीढ़ी का शायद पहली बार प्रभावी चरित्रांकन प्रस्तुत करता है। चुनिंदा अंश दीनू ने उसे बाँहों में भर लिया। बसंती के लिए यह अनुभव अनूठा था। एक ओर वह दीनू की बाँहों में सिमटती जा रही थी, दूसरी ओर खिंचती भी जा रही थी। तरह-तरह के घरों में चौका-बर्तन करते हुए उसे तरह-तरह के अनुभव हो चुके थे। बहुत निकट निकट खड़े आदमी की धौंकनी की तरह चलती साँस वह कई बार अपनी गर्दन पर महसूस चुकी थीं।

आदमी की गंध से वह परिचित थी। जब उसके मन में घिन सी उठती थी। और वह किसी ना किसी बहाने वहाँ से भाग खड़ी होती थी। लेकिन यहाँ दीनू की बाँहों में उतरते जाना उसे अच्छा लग रहा था। जैसे कोई आदमी किसी गहरे सागर में डूब रहा हो। गहरा और गहरा और छटपटाने के बजाय उसे डूबने में ही सुख मिलने लगे। और वह उसमें डूबता चला जाए।

बसंती जिस भविष्य की कल्पना करने लगी थी उसमें दीनू का स्थान उसने ठीक ढंग से नहीं आँका था। वह भूल गई थी कि दीनू दो बीवियों का मालिक है, घर में उसी की चलेगी। बसंती समझे बैठी थी कि चूँकि उसकी गोद में बेटा है या इसलिए कि वह काम कर सकती है और कमा सकती है, घर में उसकी चलेगी। वह भूल गई थी कि इस घर का धुरा दीनू था वह नहीं थी।

दिन बीतने लगे। बसंती की भीगी-भीगी ममता जो एक बार फूटी तो फिर थम नहीं पाई। उसी से उसका सारा द्वेष, सारी घृणा, सारी ईर्ष्या बह गई। उसके मन में फिर से स्थिरता आ गई। वह फिर से चहकने-बोलने लगी। यों भी बसंती भावनाओं के झूले पर झूलने वाला जीव थी। अंदर से ज्वार उठता तो वह नाचने लगती। प्रियजनों से लिपटने लगती। हँसने-बोलने लगती। उसका स्वभाव ही ऐसा था।

'जीवन के बडे बडे सदमे एक क्षण में अपनी चोट कर जाते हैं, पर घटते समय कोई प्रभाव नहीं छोडते , न दर्द, न कसक, न छटपटाहट, तिरते से निकल जाते हैं, और इन्सान अन्यमनस्क सा वैसे का वैसा व्यवहार करता रहता हे, मानो कुछ भी न हुआ हो, दर्द की टीसें तो बाद में उठती हैं ... - भीष्म साहनी की 'बसंती' से