बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल
'चमारू। ओ चमारू। जरा जल्दी बाहर आओ।’ चौकीदार पुकार रहा था।
वह बाहर निकला तो सेक्रेटरी को सामने देख अवाक् रह गया। फिर अपने आपको समेटते-सहेजते हुए उसने कहा, मुझे संदेसा भिजवा देते तो मैं ही आ जाता।’
तुम्हें तो चेक चाहिए था न, सो मिल गया। फिर क्यों देखोगे पीछे मुड़कर कि प्रधान बुला रहा है या सेक्रटरी। बीसीयों बार बुलाया पर तू नहीं आया। यह जात ही ऐसी है।’
स्थिति का जायजा लेते हुए फिर कहा, दोबारा भी चेक कर लेना है या जमीन में ही घर छोड़ देना है?’ कहकर सेक्रटरी ने बिदके हुए सांड की तरह देखा।
चमारू जानता है उसे कोई संदेश नहीं मिला है अन्यथा वह दौड़ा-दौड़ा जाता। पंचायत ने उस पर इतना बड़ा उपकार किया है। वह इतना छिदला तो हो नहीं सकता कि पंचायत के बुलाने पर भी न पहुँचे। जब चेक नहीं भी मिला था तो भी वह कई दिन तक लगातार प्रधान के घर काम करता रहा था। कोई एक किलोमीटर से मिट्टी की बोरियाँ भर-भर कर लाता रहा था। प्रधान का आँगन समतल करना था। कितने लोग आते हैं हर रोज प्रधान से मिलने। घर का आगा-पीछा तो ठीक ही होना चाहिए। और चमारू ने कितने ही दिन बेगार में होम कर दिए थे। फिर भी संतुष्ट था कि चलो मैं कुछ करूँगा, तो मेरा भी कुछ बनेगा!'
वह कुछ नहीं बोला।
सेक्रेटरी तुनकू राम फुफकारा, ’तुम्हारा तो नाम ही नहीं आ रहा था इस योजना में यह तो बेघरों के लिए योजना थी। मैं चाहूँ तो अब भी नाम कटवा सकता हूँ। तुम्हें जो चेक मिला है ना उसके पैसे भी वापस जमा करवाने पडेंगे।’
हाकिम जी! आप इनता नाराज क्यों होते हो? चमारू सीधा आदमी है। मैं इसे समझा दूँगा। इसे लेन-देन के पेंच नहीं आते। ”चौकीदार मकोड़ी राम ने तुनकू को शांत करते हुए कहा।
साँप की फुंफकार थम गई थी। चमारू ने उपकृत आँखों से मकोड़ी राम को देखा। वह भूकंप के विनाश से बच गया था।
शायद कहीं गणित गलत हो गया था लेकिन उसने तो कभी दूर-पार की सोची ही नहीं थी। जैसा किसी ने कहा वैसा मान लेता था। वे चार भाई थे। माँ को उसने कभी देखा नहीं था। सदा पिता के साथ चिपका रहता। और पिता था कि सुबह पाँच बजते ही घराट के लिए निकल जाता। पानी बाँधता और पिसाई शुरू कर देता।
चमारू को याद है वह भी लोगों के घरों से पीहन उठाकर लाता और पिस जाने पर वापस छोड़ के आता। गाँव की ढलान पर चढ़ने में उसे विशेष माजा आता। पीहन उठा कर वह धड़म-धड़म चढ़ जाता था और उसका बापू था कि हाँफता हुआ चलता। वह पूछता: ’बापू! तुम्हारी साँस खराब घराट की तरह क्यों चलती है?’
‘बेटा! यह पहाड़ की नियति है और फिर यह दालमपुर तो वास्तव में जालमपुर है। पहाड़ का इतना बेढब मौसम न कभी देखा, न कभी सुना।
जिन्हें धौंकनी नहीं नगीए उनके फेफड़े गल जाते हैं।’ चमारू राम का पिता कहता।
चमारू अविश्वास से उसकी ओर देखता और फुदकता हुआ गाँव की टिब्बी पर जा चढ़ता। एक दिन कैंप से एक फौजी आया था। बोला, ’साहब को एक आदमी की जरूरत है। मुझे पता चला है कि तुम्हारा बेटा कुछ खास नहीं कर रहा।” 'फिर?’ चमारू के पिता ने पूछा था। ’ साब मेजर है आर्मी में । वह चाहे तो चमारू को भरती करवा सकता है” ’लेकिन वह तो गँवार है। पाँच पढ़ा।’
’अपने आप सीख जाएगा सब कुछ। और साब को दया आ गई तो इसे पढ़ने भी डाल देंगे।’ फौजी ने चमारू के पिता को ललचाना चाहा। ’बापू, मैं भी फौजी वर्दी पहनूँगा?’ चमारू ने चमत्कृत आँखों से पूछा।
’हाँ हाँ, क्यों नहीं?’ उत्तर फौजी ने दिया। चमारू के तीन छोटे भाई स्कूल में पढ़ते थे। पिता ने सोचा बड़ा भाई फौजी में चला जाएगा तो घर पर काम-काज ठीक हो जाएगा। घराट का काम वह अकेला ही देख लेगा।
फौजी उसे अपने साथ ही ले गया था। मेजर के घर में चमारू को सब सुख-आराम था। पहले ही दिन उसे पुरानी खाकी वर्दी मिल गई थी। ठक-ठक करते बूट। परंतु घर में बूट पहनने पर मनाही थी। आवाज से मैडम के सिर में दर्द होने लगता था।
पंद्रह दिन बाद वह पहली बार घर जाने लगा तो मेजर भूप्रेद्र सिंह ने कहा,’तुम कह रहे थे तुम्हारा पिता बीमार रहता है, साँस की तकलीफ है। एक बोतल दवाई ले जाओ।
'आप डॉक्टर भी हैं?” 'हाँ,विश्वास नहीं होता।’ मेजर सिंह भी हर रोज मैडम से कहते थे,’जरा दवाई तो देना। और खाने से पहले दो-चार घूँट पी लेते थे। चमारू के लिए यह शब्द नया था। फिर भी उसने कहा,’ठीक है सर दे दो।बापू खुश हो जाएगा।’ और सचमुच बापू की तो बांछें खिल गई थी। मेजर ने तो कहा था कि एक-दो खुराक ही हर रोज ले लेकिन चमारू के बापू ने कभी पहले ब्रांडी देखी नहीं थी तो ताबड़तोड़ खुराकें पी गया और हवा में उछलने लगा।
फिर तो जब भी चमारू आता तो उसका बाप उसका थैला टटोलने लगता और कभी थैला खाली होता तो बेटे से झगड़ने लगता। पूरे घर को सिर पर उठा लेता।
जब मेजर का ट्रांसफर अमृतसर में हुआ तो चमारू ने सुख की साँस ली। पर सप्ताह आने की नौबत नहीं थी। ऐसा नहीं कि वह अपने पिता को दारू लेकर नहीं देना चाहता था परंतु तभी लाता जब साब उसे खुद कहते और फिर अब समझने लगा था कि दारू कोई अच्छी चीज नहीं है। गाँव का रूलदू हर रोज पी कर आता था। एक दिन नाली में लुढ़क गया तो बोला था,’ दारू गरीबों के लिए जहर होती है! एक बार मुँह से लगी फिर नहीं छूटती।
चमारू ने उसे उठा कर बिठा दिया था। फिर घर छोड़े आया था। अगली सुबह जब पता चला कि रुलदू मर गया तो चमारू दहाड़ मार कर रो पड़ा और जोर-जोर से चिल्लाने लगा । दारू गरीबों के लिए जहर होती है ! ओ लोको जहर होती है।
वह भाग रहा था। यहाँ-वहाँ। पागलों की तरह। तब चमारू के पिता ने उसे पकड़ कर कहा था,’तू तो ऐसे रो रहा है, जैसे तुम्हारा बाप मर गया है। ’हाँ, तुम भी मर जाओगे। दारू गरीबों के लिए जहर होती है ।’ यह फिर चिल्लाया।
’और अमीरों के लिए अमृत।’ फिर अपने आप को धिक्कारते हुए बोला, अमीर पिए तो टानिक, गरीब पिए तो जहर। सब लटके हैं अमीरों के। चमारू, तुम नहीं जानते, यह गरीबों को भरमाने के नुस्खे हैं। चमारू की आँखों में अविश्वास टपक रहा था। परंतु वह कहीं अपने आप को अपराधी भी महसूस कर रहा था। आखिर यह लटक लगाई भी तो उसी ने थी। मुफ्त में लाकर देता था और दवाई समझता था। शब्दों का हेर-फेर भी कभी अंधकूप में धकेल सकता है। वह जानने लगा था।
’भले ही यह सब ठीक नहीं है परंतु तुम तो जानते ही हो।’ ’क्या !’ विस्मय से देखते हुए चमारू ने पूछा। कि प्रधान को कोई वेतन तो मिलता नहीं। वह तो जनसेवा में लीन रहता है।’ ’मकोड़ी राम! झूठ तो न बोला। अगर वेतन नहीं मिलता है, तो प्रधान बनते ही क्यों हैं? बिना वेतन भी कोई काम करता है?’
’हाँ, करता है। ग्राम प्रधान करता है।’ ’ तो खाता कहाँ से है? कोई-न-कोई जुगाड़ तो करना ही पड़ता है। और फिर देखा सौड-पचास आदमी हर रोज प्रधान के घर आता है। एक-एक कप भी चाय पिलाए तो चार-पाँच किलो दूध और आधा किलो शक्कर लग जाती होगी।’
‘अब तो प्रधान दरवेश होता है।’ चमारू ने कहा।
‘हाँ, दरवेश ही होता है।’
’फिर तुनकू राम इतनी धोंस क्यों दिखाता है? क्या इसे भी वेतन नहीं मिलता?’
सेक्रेटरी को तो वेतन मिलता है लेकिन यह तो वही बोलता है, जो प्रधान कहता है।’
’क्या दरवेश ऐसे होते हैं?’
’तुम बेवकूफ हो। तुम्हें कुछ समझ नहीं आएगा।’
’आप नाराज क्यों हो गए, मुझे बताओं न मैंने क्या करना है?’ चमारू ने गंभीरता से पूछा।
मकोड़ी राम सीधे-सीधे नहीं कहना चाहता था।
’तुम चार भाई हो।’ ’हाँ।’ ’तो घर बनाने के लिए पैसा तुम्हें ही क्यों मिला है?’ ’क्योंकि चारों में से मैं ही ऐसा हूँ जिसके पास घर नहीं है। और फिर वे तीनों तो खाते कमाते हैं।’ ’तुम्हें छोड़ भी तो सकते थे। यह पंचायत की कृपा होती है।’
पंचायत की या गाँधी बाबा की। मैंने सुना है यह गाँधी कुटीर योजना है। तो कृपा तो गाँधी बाबा की हुई न!’ मकोड़ी राम भी तंग आ गया। बोला,’ अगला चेक लेने के लिए गाँधी बाबा को बुला लाना। फिर बना लेना दीवारें और छत।’ ’अच्छा।’चमारू ने सिर हिलाया। ’तुम मुझे फिर मिलना।’ मकोड़ी राम कह कर चला गया। चमारू को यह गोरखधंधा समझ नहीं जा रहा था। उसे लगा कि वे लोग कुछ छिपा रहे थे, कुछ चाह रहे थे। परंतु बोल नहीं रहे थे।
मेजर साहिब के साथ ही चमारू अमृतसर चला गया था। चमारू के लिए खाने-पाने की कमी नहीं थी और वह खुश था कि कोई काम तो मिला। वह भी लगभग सरकारी। 'तुम्हारी हाजरी तो पल्टन में लग रही है। काम तुम घर में ही करते रहो। चिंता नहीं करनी। तुम्हारी पेंशन पक्की है।’
चमारू मेजर की इन बातों से प्रसन्न हो जाता तथा खूब मन लगाकर तरकारियाँ बनाता। घर के दूसरे काम भी वह करता। हर महीने कुछ न कुछ पैसे बापू को भेजता रहता और घर आता तो दवाई की बोतलें ले आता।
गाँव में चर्चा होती है। कि चमारू तो सेना में भर्ती हो गया। कितना अच्छा रहा। छुट्टी आता तो सब बड़े-बूढ़े उससे शहर की कहानियाँ सुनते। वह बताता अमृतसरी लोग खाने-पीने के शौकीन है। इसीलिए मोटे ताजे होते हैं। मेजर साहिब तो खूब खर्चीले हैं। खाने-पीने के रसिया। और चटकारे ले-लेकर नई-नई तरकारियों के नाम बताता।
ग्रामीण भाव-विभोर होकर उसकी बातें सुनते। उन्नीस साल बाद वह अचानक गाँव लौट आया था, बेहद थका हुआ। गुम सुम। घर वाली ने पूछा,’तुम क्यों आ गए?” 'तुम्हें अच्छा नहीं लगता मेरा आना ?’ चमारू ने सहमे स्वर में कहा।
'अच्छा तो लगता है परंतु कोई नौकरी छोड़ता है और वह भी सरकार की, सेना की, जहाँ भर पेट खाना मिलता है।
'अच्छा तो मुझे भी नहीं लगता।’ 'तो क्या पेंशन पा गए हो?’ 'नहीं।’ 'तो भगोड़े होकर आए हो?’ 'नहीं! नहीं! वह चीख उठा। कुछ बता भी नहीं पा रहा था। एक लावा फूट रहा था मन ही मन। कुछ साहस करके बोला,’चौपट हो गया। बिगड़ गया, मेरा भाग्य।’ 'क्या बिगड़ गया?’ 'पंजाब में ही सब कुछ बिगड़ गया। लोग एक-दूसरे को भय से देखते हैं और घरों में घुसे रहते है। तुम खबरें नहीं सुनती?’ चमारू चिल्लाया। 'मैं नहीं जानती खबरें क्या होती है। पर फौजियों को तो कोई कुछ नहीं कह सकता। वे तो दूसरों की रक्षा करते है।’ 'पच्चीस तीस साल से वर्दी पहन कर घूम रहे हो और जब कहते हो, फौजी हो ही नहीं। क्या मेरे बापू से झूठ बोला था?’ चमारू क्या कहे कि वह तो इतने वर्षों तक मेजर भूपेंद्र के घर में ही बर्तन मलता रहा था। कभी दफ्तर गया ही नहीं था। मालिक ही कहता था कि उसकी हाजिरी वह खुद लगा देता है, लेकिन फिर एक दिन उसने ही कह दिया था”पंजाब के हालात बिगड़ रहे हैं। पता नहीं क्या जुननू है लोगों में। चमारूए तुम भले आदमी हो। चुपचाप खिसक लो।’ 'मेरी नौकरी का क्या होगा?’ उसने पूछा था। 'कौन-सी नौकरी?’ 'यही जो मैं। सेना में लांगरी हूँ।’ 'सेना में? तुम सपने देख रहे हो। तुम्हारी गरीबी की वजह से मैंने तुम्हें अपने घर में रखा। पुरानी वर्दी देता रहा।क्या इसी से तुम फौजी हो गए?’ चमारू एकदम चकरा गया। इतना बड़ा धोखा। छल-कपट के गोरख धंधे उस अबोध पहाड़ी को नहीं आते थे। वह रात भर आँसू टपकाता रहा था टप-टप । सुबह जब भूपेंद्र सिंह ने उसे चाय के लिए आवाज दी तो कोई नहीं आया था। वह रात के अंधेरे में ही निकल पड़ा था। गाँव में चारों ओर चर्चा थी। चमारू अचानक डर कर भाग आया। पंजाब में तनाव था न। शायद भगोड़ा होकर आ गया परंतु चमारू चुप-गुप हो गया था, कुछ नहीं बोलता था। घर वालों ने सोचा शायद वह सहम गया था। पहली बार जब बस में से मुसाफिरों को उतारा गया तो वह भी उसी बस में था। भला हो मेजर का जिसने उसे पगड़ी बाँधने के लिए कहा था तथा दाढ़ी-मूँछ बढ़ाने की सलाह दी थी। उसके भाईयों ने कहा-सनक गया है चमारू। बेवकूफ है जो नौकरी छोड़कर आया। यहाँ बैठा ईट बजाता रहे या करे पंचायत की बेगार। किसी ने कहा था, कोई कोठा बना लो और फिर काम ढँढो। 'पैसा भी तो चाहिए’ पुश्तैनी घर में जो कमरा उसके हिस्से आया था, उसकी ईंटे तक भाईयों ने उधेड़ दी थीं तथा जमीन सफाचट कर दी थी। चमारू की बीवी अपने मायके ही रहती थी। उसने तो कभी अमृतसर भी नहीं देखा था। गाँव के एक बुजुर्ग ने ही पंचायत को सलाह दी थी कि चमारू राम को बसेरे के लिए राहत दी जाए। बात प्रधान को जँच गई थी और वह दयालु हो गया था। उसने खुद ही चमारू से कागज-पत्र भरवाए थे तथा पंद्रह सोलह हजार की राशि स्वीकृत करवा दी जो किश्तों में दी जानी थी। पहाड़ की बरसात घुमड़-घुमड़ कर चढ़ी जा रही थी। चमारू चाहता था सावन से पहले छत पड़ जाए ताकि आराम से टिक सके। इसीलिए पहली किश्त से ही उसने नींव भी डाल दी थी। बिना छत के दीवारें भी उठा लीं। दिन-रात मिस्तरी के साथ मजदूरी करता रहा। सो एक किश्त में ही दो किश्तों का काम कर दिया। लकड़ी गाँव के किसी सज्जन से मुफ्त मिल गई थी। दूसरी किश्त मिलने से पहले काम का निरीक्षण सेक्रेटरी ने करना था। दीवारों को देख वह आग उगने लगा । तुम्हें तो अनुदान मिलना ही नहीं चाहिए था। तुम गाँधी कुटीर योजना में फिट ही नहीं बैठते हो। 'देखो, मैंने मजदूरी खुद करके पैसा बचाया है। उसी से दीवारें खड़ी हुई हैं।’ 'अब तो दीवारें गिरानी ही पडेंगी। तभी दूसरी किश्त मिल सकती है। जो दीवार बन ही गई है, खिड़की लग ही गई है, उसके लिए कैसा अनुदान?’ वह फुँफकार रहा था। फिर बोला,’तुम्हें प्रधान ने कितनी बार बुलाया, तुम एक बार भी नहीं आए।’ 'मैं। अपने काम में लगा था।’ 'हाँ, पैसा आसमान से टपकता है। जो दाता है, उसकी बात सुनने की भी तुम्हें फुर्सत नहीं। बड़े फौजी बने फिरते हो’ मकोड़ी राम ने कहा, ’हाकिम जी, नाराज क्यों होते हो? शहर से आया है। इसे गाँव के कायदे-कानून नहीं पता। अपने आप आने लगेगा आप के पास। एक किश्त तो निकाल ही दो।’ 'हूँ, निकाल देंगे लेकिन पहले दीवार गिरानी पड़ेगी। आखिर कानून तो सबके लिए एक-सा है।’ कहकर वह बिना कुछ देखे चला गया। 'तुम मालिक के पास अपनी बेटी को क्यों नहीं भेज देते?’ 'बेटी को क्यों?’ तुम नहीं समझोगे चमारू।’ कह कर मकोड़ी राम खिसक लिया। चमारू को लगा दीवारों की ईंटे उखड़-उखड़ कर नीचे गिरने लगी थीं तथा वह पहाड़ की ढलान पर बैठा था...मूसलाधार बारिश में भीगता हुआ..बिना छत, बिना दीवार के बसेरे में।