बस्तर की डायरी / अशोक शाह
भारतीय प्रशासनिक सेवा में 1990 में चयन होने के पश्चात मैंदानी सतर पर पहली पदस्थापना 1991 में अविभाजित मध्य प्रदेश के बस्तर जिले में सहायक कलेक्टर के रूप में हुई थी। वह समय प्रशिक्षण का था। प्रारम्भ के दो वर्षों में कार्य का व्यावहारिक ज्ञान हासिल किया जाता था। इस अवधि में शासन के लगभग सारे विभागों का कार्य सीखा जाता था। पटवारी, ग्राम सचिव से लेकर कलक्टर के कार्य तक ख़ुद करने होते। प्रशिक्षण के दौरान प्रतिदिन डायरी भी लिखनी होती थी। ये उसी डायरी के बचे-खुचे पन्ने हैं, जो तत्समय लिखे गए थे।
18 जुलाई, 1991
इन्द्रावती जगदलपुर (बस्तर) से होकर बहने वाली प्रमुख नदी है। यह नदी उड़ीसा से निकलकर आंध्रप्रदेश की ओर जाती है। इन्द्रावती में बाढ़ आई थी। बाढ़ आने की घटनाएँ प्रतिवर्ष बढ़ रही थीं।
प्रातः 10 बजे तहसील कार्यालय में फ़ोन करके पता किया कि इन्द्रावती नदी के जल का स्तर कितना था तथा क्या-क्या सुरक्षा सम्बन्धी सावधानियाँ बरती जा रही थीं। इस सम्बन्ध में एक यह तथ्य सामने आया कि निचले स्तर के कर्मचारी / अधिकारी अपने विवेक का इस्तेमाल करने में कोताही करते हैं, जो आदेश दिया जाता है बस उसका अन्यमनस्क ढंग से पालन करते हैं। कल रात साढ़े ग्यारह बजे नदी की भयंकरता को देखते हुए मैंने पुलिस-कर्मी वहाँ तैनात किए थे, परन्तु जब मैं सुबह निमग्न पुल के पास पहुँचा, तो वहाँ कोई नहीं मिला। दुबारा कहने पर होमगार्ड के जवान लगाए गए, परन्तु करीब जब तीन बजे फिर गया, तो वहाँ कोई नहीं मिला।
इससे एक बात स्पष्ट है कि स्वतः कोई काम नहीं करना चाहता। वह काम इसलिए करता है; क्योंकि उससे करवाया जाता और उस हालत में भी वह तब तक करेगा, जब तक उसके सर डण्डा लटका रहे। 'परिश्रम की गरिमा' हमारे कामकाजी समाज से लुप्त होती जा रही है, जहाँ एक तरफ़ यह अत्यन्त शर्म की बात होनी चाहिए, वहीं दूसरी तरफ़ यह कहा जाता है कि आज बहुत कम काम करके सस्ते में निपट गया। किसी राष्ट्र के विकास में यह सबसे बड़ा प्रश्न चिह्न है।
आज सुबह से लगभग चार घण्टे तक कलेक्टर के साथ बैठा रहा। कई फाइलें आईं
एवं गईं। विभिन्न प्रकार के लोग कोई अपंग तो कोई बेरोजगार, कोई शिक्षक, कोई बस्तर का इतिहास लिखने में रुचि लेने वाला, अबाल वृद्ध और नर-नारी-छोटी से लेकर बड़ी शिकायतों की फरियाद करने कलेक्टर के पास आए और गए। इस प्रकार कलेक्टर का रोल घाट के पत्थर की तरह जान पड़ा, जिसके पास विभिन्न प्रकार की फरियादों की लहरें आतीं और छूकर लौट जातीं। घाट का पत्थर जैसा सबको समान अवसर देता है, संतुष्ट करने का प्रयास करता है।
अब इनको ही लीजिए। आप 70-75 साल के वृद्ध हैं और बस्तर के अतीत के बारे में ज्ञान रखते हैं। आपके पास कुछ ऐसी सामग्री हैं, जिसके आधार पर इतिहास लिखा जा सकता है। अतः आपके अनुसार यह दुर्भाग्य की बात है कि खनिज-पदार्थों से परिपूर्ण, सघन वनों से आच्छादित एवं विविध पशु-पक्षियों से संपन्न बस्तर जैसे विशाल जिले का गज़ेटियर नहीं लिखा गया हैं। आप यह काम स्वयं करना चाहते हैं। आप प्रशासन से कोई मदद नहीं चाहते, परन्तु फिर भी आप सहायता की परोक्ष माँग करते हैं। आप कुर्सी से उठते हैं, फिर बैठते हैं, अपनी बातें करते हैं। मैंने कई बार समझा कि आप अब जाने वाले हैं, लेकिन लौटकर आप दुबारा आ जाते हैं। एक बार तो आप कमरे से बाहर भी निकल गए। फिर क्या सोचकर दुबारा आ गए-एक छोटी-सी बात की याद दिलाने।
आप हैं, जगदलपुर के सिटी मजिस्ट्रेट। आज आपने बाढ़ से प्रभावित इलाकों का सुबह-सुबह दौरा किया है, अतः आपके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि कलेक्टर को बताएँ कि आपने क्या-क्या काम किया है, ताकि आप कलेक्टर की नज़र में लगातार छाये रहें। आप अक्सर ही ऐसा ही करते हैं। कलेक्टर से प्रतिदिन मिलते हैं, विचार-विमर्श करते हैं तथा यह भी पूछते हैं कि आपको क्या करना है, आप स्वयं कोई नया क़दम उठाना नहीं चाहते, जब तक कलेक्टर का वरद हाथ आपकी पीठ पर न हो।
और आप लोग आदिवासी विभाग द्वारा नियुक्त शिक्षक और शिक्षिकाएँ हैं। आप लोगों की नियुक्ति अवैधानिक तरीके से हुई, इसलिए जाँच-पड़ताल के पश्चात् आप लोगों की सेवाएँ समाप्त कर दी गर्इं। कलेक्टर साहब से यह पूछने आए हैं कि अब क्या करें। इसमें आपकी क्या ग़लती थी। चयन समिति को यदि नहीं लेना था, तो नहीं लेती, लेकर क्यों छोड़ा। अब तो न 'घर के रहे न घाट के'।
आप आई.टी.आई. के समीप किसी मकान में रहते हैं, आपको यह शिकायत है कि आपके मकान की बिजली काट दी गई। अतः आप चाहते हैं कि कलेक्टर साहब कुछ करें कि बिजली फिर जुड़ जाए। वैसे भी जिस मकान में आप रहते थे, वहाँ रहना अवैध था।
और आप हैं अपंग, आपका पैर खराब है। अतः आप कलेक्टर साहब से कोई नौकरी चाहते हैं, क्योंकि आपने सुना है कि बस्तर का कलेक्टर एक अच्छा आदमी है।
जब भी मैं कलेक्टर के पास बैठा इसी तरह विविध प्रकार के प्रकरण सामने आते रहे। कुछ शिकायतें इतनी छोटी कि जिनका समाधान उप-खण्ड अधिकारी कर सकता था, परन्तु नहीं, लोग सीधे कलेक्टर से ही मिलना चाहते थे। सारे मर्जों की एक ही दवा थी-कलेक्टर। अगर निचले स्तर पर शासन में विश्वास की कमी हो जाए, तो कलेक्टर का उत्तरदायित्व और बढ़ जाता है और सारी समस्याओं का निराकरण उसको स्वतः करना पड़ता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि बी.डी.ओ और एस.डी. ओ. अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाह हैं या फिर रूटिन कार्यों को निपटाना पसन्द करते हैं या फिर यह भी हो सकता है कि वे अपनी संवेदनशीलता खो बैठे हों।
20 जुलाई, 1991
मध्य प्रदेश में दूसरे तथा तीसरे शनिवार को शासकीय अवकाश रहता है। आज है महीने का तीसरा शनिवार अर्थात छुट्टी का दिन अर्थात् बिना काम किए दिन बिताना। परन्तु कुछ लोगों के लिए छुट्टी का दिन बिताना मुश्किल हो जाता है।
शाम को कलेक्टर को रमेश दीवान नामक एक उत्साही युवक ने बताया कि उसके गाँव पखना कोंगेरा में कोई विचित्र बीमारी फैल रही थी, जिसकी चपेट में आकर दो-तीन लोग पहले ही काल कवलित हो चुके थे। वह गले की कोई बेहद ख़तरनाक बीमारी थी। इससे कण्ठ के समीप की श्वांस एवं भोजन नली के अन्दर का हिस्सा सूज जाता था जिसके कारण खांसी के साथ लार बाहर आने लगती थी। इसकी चरम स्थिति में ऐसा हो जाता है कि सूजने से साँस नली पूरी तरह बन्द हो जाती और साँस लेना असम्भव हो जाने पर रोगी की तत्काल मौत हो जाती। डाक्टरी भाषा में इस बीमारी को प्रेत्जाइटिस कहते हैं जो स्टेप्टो माइकस जीवाणु के द्वारा होती है। ये जीवाणु बरसात के पानी में जीते रहते हैं। स्थानीय भाषा में इस बीमारी को गलघोंटू कहते थे।
बस्तर जिले में पेयजल का अभाव एक भीषण समस्या थी। नदी-नालों का पानी पीने से प्रतिदिन मानव-जीवन की बड़ी हानि होती थी। वर्षाकाल में आत्रंशोध की बीमारी साधारण बात थी। प्रति वर्ष अधिक संख्या में होने वाली मौतों के बारे में समाचार पत्रों में तीखी प्रतिक्रियाएँ होतीं थीं। प्रशासन को दोषी ठहराया जाता, परन्तु अगर वहाँ की समस्याओं पर सूक्ष्म दृष्टिपात करें तो इसकी कई जटिलताएँ सामने आती हैं।
बस्तर का वृहद क्षेत्र इन समस्याओं को और जटिल बनाता था। जंगलों के मध्य स्थित अनेक गाँव अगम्य थे। सड़कों का अभाव था। बरसात के मौसम में अत्यधिक वर्षा के कारण इसके अधिकांश हिस्से दुर्गम हो जाते। कोई बीमारी भी फैलती तो सूचना मिलने और सहायता दल के पहुँचने के पहले ही कई मौते हों जातीं। हैण्डपम्प के द्वारा पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता था। इस दिशा में सराहनीय प्रयास किये भी गए थे तथापि पेयजल का अभाव हो ही जाता था। इसके भी कई कारण थे यथा पथरीली ज़मीन का होना, पम्प के पानी में लौह औयस्क अधिक मात्रा में होना, अज्ञानता के कारण यहाँ के निवासियों द्वारा हैण्डपम्प के पानी के प्रयोग करने में हिचकना इत्यादि। पानी में डी.डी.टी. का प्रयोग भी करना नहीं चाहते; क्योंकि उससे पानी का स्वाद खराब हो जाता। जीवन धारा के अन्तर्गत इस साल खोदे गए कुओं की संख्या में अपार सफलता मिली, फिर भी जिले की विशालता को देखते हुए वे अत्यल्प थे। इतना ही नहीं क्या डॉक्टर, क्या शिक्षक कोई भी अधिकारी दूरस्थ इलाकों में रहना नहीं चाहता था। मनुष्य सुविधाभोगी प्राणी है। यदि सरल विकल्प मौजूद हों तो सभी को वही पसंद है। आज के इस सेरामिक युग में भला कौन बिजली, पानी, ब्रेड के बिना रहकर अपने जीवन के आनन्द के क्षणों को बस्तर के अन्धेरों में उपेक्षित होकर व्यतीत करना चाहेगा।
हाँ, तो उस गलाघोंटू बीमारी के फैलने का समाचार पाकर हमलोग ने उस गाँव के लिए करीब सात बजे शाम ही को प्रस्थान कर दिया। इस दल में शामिल थे कलेक्टर, दीनबन्धु दैनिक पत्र का एक पत्रकार, अनुमण्डलाधिकारी, डॉक्टर और साथ में थीं कलेक्टर साहब की पत्नी। एक जिप्सी और एक जीप में हम लोग निकले। मेरा अनुमान था कि दो तीन घण्टे में उनका इलाज़ करके हमारी टीम लौट आएगी। परन्तु हुआ आशा के ठीक विपरीत। रास्ते में ऐसी कठिनाइयाँ आएँगीं उनका पूर्वाभास तक नहीं था। हम लोग जगदलपुर में रात के पौने तीन बजे ही लौट पाए। पर अत्यन्त कठिन परिस्थितियों के लिए भी मानसिक रूप से तैयार था। विशेषकर हिमालय में ट्रेकिंग के अनुभवों का खजाना मेरे पास था। उसको ध्यान में रखते हुए यह कुछ भी नहीं था। जब मैं लाल बहादुर राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी मसूरी में था, तो सोचता था कि उन पहाड़ों पर एक महीने तक पैदल चलकर क्या मिलेगा और ट्रेकिंग पर क्यों भेजा गया था। पर तब यह मालूम नहीं था कि जीवन में हर अनुभव समय आने पर काम आ ही जाता है। घने जंगलों के बीच अत्यन्त दुर्गम रास्तों पर ओले और वर्षा का सामना करते हुए मैंने जो दूरियाँ तय की थीं, उसने हमारे आत्मविश्वास को अत्यन्त सुदृढ़ किया था और शायद यही कारण था कि किसी भी विषम एवं विकट परिस्थिति का सामना करने के लिए आत्मविश्वास स्वयं पैदा हो जाता था। उन अनुभवों के सामने आज की यात्रा तो एक तरह से अत्यन्त सुखद थी।
गाँव, जहाँ हम लोग जाने वाले थे, पक्की सड़क से 24 किलोमीटर दूर था। करीब 18 किलोमीटर का रास्ता तो कच्ची पगडंडियों द्वारा आसानी से तय हो गया परन्तु आगे का रास्ता कुछ अज़ीबो-ग़रीब था। कुल-मिलाकर रास्ता था ही नहीं। हमारी गाड़ी उस युवक के इशारों पर चल रही थी। कभी बाएँ, कभी दाएँ। पानी भरे दो नाले तथा एक नदी हमने जिप्सी द्वारा ही पार की। नदी को तो जिप्सी लगभग तैरती हुई पार कर गई और हम लोगों को लगा कि सारी कठिनाइ, दूर हो गयीं और उस अभिशप्त गाँव का दरवाज़ा खटखटाने वाले थे जो उस नदी से 2 किलोमीटर दूर रह गया था। परन्तु आगे हमारे स्वागत में सड़क जगह-जगह से कटी पड़ी थी। किसानों ने पानी की निकासी के लिए जगह-जगह सड़क को काट दिया था। जब ऐसा पहला ही कटाव सामने आया तो गाड़ी का आगे जाना असम्भव-सा दिखा और कई लोगों ने पैदल जाने का सुझाव दिया क्योंकि गाड़ी के चक्के कटाव पार नहीं कर सकते थे। उस विषम परिस्थिति में देसी जुगाड़ काम आया। नाली के आर-पार जाने के लिए लकड़ी की दो-दो तख्तियाँ रखवा दी गयीं। वे इतनी ही चौड़ी थीं कि एक साथ जिप्सी का एक चक्का उसके ऊपर से गुजर जाए। गाड़ी के अगले पहियों के पार होने के लिए तखतियाँ एक्सेल व्हील की चौड़ाई के अनुसार कटावों पर पुल की तरह रख दी गईं, ताकि अगले चक्के गुजर सके, ऐसा ही हुआ और गाड़ी पार कर गई। इस तरह करीब चार जगहों पर हम लोगों ने ऐसा करके उस कुशल ड्राइवर के नेतृत्व में गाड़ी को उस गाँव तक ले जाने में सफल हो गए, जहाँ पहले कोई गाड़ी बस्तर के इतिहास में नहीं गई थी। उस गाड़ी का वह कुशल चालक और कोई नहीं बल्कि स्वयं बस्तर के कलेक्टर थे।
बीमारी की जितनी बुरी स्थिति की कल्पना करके हम लोग गए थे, वैसी भयावह स्थिति नहीं थी। 13-14 लोगों में गलाघोंटू के लक्षण अवश्य थे परन्तु चिन्ताजनक स्थिति नहीं थी। जब उपचार कार्य शुरू हुआ तो तरह-तरह की शिकायतें लेकर लोग आने लगे थे। डॉक्टर द्वारा सबका उपचार किया गया। वितरित दवाइयों में एन्टीबाइटिक्स ही प्रमुख थीं। एम्पीसिलीन कैप्सूल दिया गया। यह कहना ग़लत था कि आदिवासी आधुनिक चिकित्सा का लाभ नहीं उठाना चाहते। यदि उनका विश्वास आधुनिक तंत्र में पैदा किया जा सके, तो वे निश्चय ही फायदा उठाएँगे। अपने गाँव के प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र में वे नहीं जाते, क्योंकि उन्हें आभास हो गया था कि वहाँ जाने से उन्हें कोई लाभ नहीं होगा। इसके बदले वे झाड़-फूँक का प्रयोग करना बेहतर समझते थे। इस गलघोटू बीमारी के इलाज़ के लिए गर्म लोहे की छड़ से गले को दागते थे। कोई मर जाता, तो कोई बच जाता। बच जाने पर गाँव के वैद्य का नाम हो जाता। यदि मर जाता तो ऊपर वाले की मर्जी।
बीमारी के अलावा गाँववालों ने अपनी अन्य शिकायते भी दुहराई। सभी अर्थपूर्ण जान पड़ीं लेकिन सबका निराकरण एक साथ तो सम्भव नहीं था।
दाल-भात खाकर और उसी अभिशप्त कुएँ का पानी पीकर रात करीब 12 बजे हम लोग वहाँ से चले। उन्हीं पुरानी कठिनाइयों का सामने करते हुए। सड़क के कटावों के ऊपर लकड़ी की तख्तियों की पुलिया बनाते हुए। किन्तु नदी में दूसरी जीप फँस गई। रात में अपनी बढ़ती परेशानी देखकर जीप ने हिलना-डुलना बन्द कर दिया था। लाख धक्का देने के बावजूद भी उसने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। जीप को नदी में ही छोड़ सभी लोग जिप्सी में सवार होकर आगे बढ़े, तो दूसरी समस्या आई रास्ते की। रात में गाड़ी की हेडलाइट रास्ता ही नहीं सूझ रहा था। चूँकि सड़क थी ही नहीं इसलिए रात में चारो तरफ़ सड़क ही सड़क दिख रही थी। कोई कहता रास्ता बाएँ जाता है, परन्तु जब इसका कोई विरोध करता, तो पहले वाला व्यक्ति स्वीकार कर लेता कि विरोध करने वाला ठीक कह रहा था, रास्ता दाएँ जाता है। यह सब सुनकर मुझे एक किस्सा अनायास ही याद आ गया। 'एक घोड़ीवाला अफीमची था। नशे में धुत्। चलते-चलते घोड़ी एक मोड़ पर पहुँची जहाँ से दो रास्ते जाते थे एक बाएँ और एक दाएँ। अफीमची को बां बाएँ जाना था जबकि घोड़ी दाएँ जाना चाहती थी। घोड़ी को बाएँ चलने का बहुत इशारा किया, परन्तु जब नहीं मानी तो अंत में अफीमची घोड़ी से बोला "अच्छा चलो उधर भी मेरा काम है"।' आज के भ्रमण का एक लाभ यह हुआ कि अब मैं उन लोगों और उनके रहन-सहन के बारे में पहली बार जाना जिसकी कल्पना भी पहले नहीं कर सकता था।
वहाँ गरीबी, विवशता की पराकाष्ठा थी। पानी नहीं, अन्न नहीं, दवा नहीं, ईलाज नहीं, किसी की आशा नहीं, अपेक्षा नहीं। उन्हें इन अभावों से कितना दुःख मिलता होगा या नहीं मिलता होगा, मेरे लिए यह कल्पना करना मुश्किल था। उनका जीवन सुबह के खिलते हुए फूल की तरह था जो शाम को मुरझा जाता था। वह जीवन जो रोज़ जीता था और रोज़ मरता था। उसके पीछे अतीत का कोई कल नहीं था और न ही आनेवाला कल। हम शहर के लोग तो आगे-पीछे जीते हैं, आज तो बिल्कुल नहीं जीते। बीते कल का दुःख ढोते हैं और आनेवाले का सपना देखते हैं। लेकिन बस्तर के ये लोग कब जीते हैं, यह मेरी कल्पना के बाहर था।
29 जुलाई, 1991
आज सुबह से ही तबीयत खराब लग रही थी। कार्यालय में बैठ सकने में स्वयं को अक्षम पाकर तोकापाल विकास खण्ड का दौरा करने के लिए सोच रहा था। विकास खण्ड तोकापाल से शिकायत यह आयी थी कि उपयंत्री जीवन धारा तथा हरिजन आवास निर्माण के हितग्राहियों को पूरा भुगतान किये बगैर कार्यों का फ़र्ज़ी मूल्यांकन कर सारा पैसा हड़प गया था। इसकी जांच की जानी थी। तभी कार्यपालन यंत्री, टयूब बेल श्री लाल आ गए। इन्होने तोकापाल जाने में रूचि दिखाई। अतः गाड़ी की समस्या का समाधान हो गया। साथ में पंचायत के एक लिपिक को लेकर मैं निकल पड़ा।
जिस जीप में हम लोग सवार थे वह उन्नीसवी शताब्दी की लग रही थी। उससे बढ़िया जीप तो कबाड़ ख़ाने में फेंकी पड़ी रहती हैं। अपने विभाग के अनुसार ही गाड़ी की भी स्थिति थी। पाँच-छह किलोमीटर तक जाने के पश्चात् अगला टायर जवाब दे दिया। वर्षा लगातार हो रही थी। बचने के लिए एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया; परन्तु देखते ही देखते पेड़ से लाल-लाल चींटियों की बारिश होने लगी। उन्हें लगा कि उनका जगह घेरने ये कौन आ गए और वे सामूहिक रूप से हम पर बरसने लगीं थीं। पानी और चींटियों की एक साथ हो रही बारिश से बचना मुश्किल हो रही था। भिगोया दोनों ने ही। गाड़ी का दूसरा टायर लगाने में आधा घण्टा लग गया।
विकास खण्ड पहुँचने पर न विकास खण्ड अधिकारी मिले न वहाँ उपयंत्री था। शिकायत तोकापाल विकास खण्ड के सारे हितग्राहियों ने की थी परन्तु नाम के अभाव के कारण किसी से मिलना सम्भव नहीं हो सका।
सोमवार का दिन था। आज यहाँ पर ग्रामीण हाट लगती है। बस्तर के ग्रामीण जीवन को नज़दीक से देखने के उद्धेश्य से मैंने हाट घूमने का निश्चय किया। लगातार वर्षा हो रही थी और खुली हवा में आसमान के नीचे कीचड़ भरी ज़मीन पर बाज़ार लगा था। आसपास के गाँव के निवासी छाते ओढ़े इन्द्र देवता को चुनौती देते अपने आवश्यक सामानों को बेचने एवं खरीदने लगातार आ जा रहे थे। यह बाज़ार अपने आप में अद्वितीय इसलिए था कि यह छातों द्वारा बनायी गयीे छत के नीचे लगा था। जो ग्राहक थे वे ही विक्रेता भी थे। किसी को धान बेचकर अण्डा खरीदना था तो किसी को अण्डा बेचकर सब्जी खरीदनी थी तो कोई सब्जी बेचकर साबुन खरीदना चाहता था। नीचे ज़मीन पर फैली मिट्टी की बिना परवाह किये बेदर्दी से कचारते सभी एक दूसरे में गुथम-गुथा हो रहे थे। वे मिट्र्टी के फूल थे और मिट्टी के फूल चुन रहे थे। जीवन जैसे मिट्टी से ज़रा-सा ऊपर आया हो और मिट्टी से ही खेल रहा हो। आस-पास के साल के खडे़ वृक्ष यह दृश्य देखके मन ही मन हॅँस रहे थे मानो कह रहे हों कि आदमी बनने की इतनी जल्दी क्या थी। थोड़ी और तैयारी कर लेते। खैर यह तो होना ही था-बारिश, मिटटी, कींचड़, भगदड़ फिर भी होंठों पर मुस्कान और दिल में निर्दोष हिलारें ले रहीं थीं।
बिकने वाले सामानों को एक बार सरसरी निगाह से देख गया। उनमें प्रमुख थे-महुआ के फल और फूल, हरी सब्जियाँ, भिण्डी, बैगन, नेनुआ, हरी मिर्च, पके अमरूद, बाँस की कोंपले, अण्डे, औषधियों की जड़ें, बीड़ी, साबुन, सलाई, मोटे कपड़े, मिटटी के बर्तन, लाल चीटिंयाँ और अनेक प्रकार के कन्द-मूल। एक तरफ़ मटके में एक पेय पदार्थ रखा था। लोगों ने बताया कि लांदा है-देशी शराब। चावल को सड़ाकर बनाई जाती थी। लोग बड़े चाव से पीते हैं। इसलिए बाज़ार में भी बेचने के लिए लायी गयी थी क्योंकि इसे पीकर बाज़ार घूमने का आनन्द ही कुछ और होता था। क्या बारिश, क्या सूखा। मोल-तोल इस बाज़ार में भी हो रही थी लेकिन एक सरल लहजे में। शहरी बाजारों में क्रेता-विक्रताओं की आंखों में पायी जाने वाली धूर्तता, शातिरबाजी एवं छल-कपट वहाँ नहीं थे।
इसको ही लीजिए,
निकटवर्ती ग्राम का यह मारिया आदिवासी था। आठ किलोमीटर पैदल चलकर मुर्गी के केवल आठ अण्डे बेचने के लिए आया था। आप के पास दो किलो भिण्डी है लेकिन इसे बेचने के लिये आपने 12 किलोमीटर की दूरियाँ तय की थी। छाते के नीचे आप चलकर आए। छाते के नीचे ही आपकी छोटी-सी दुकान छायी हुई थी। छाते के नीचे ही आप खुश थे। आप लोगों ने कभी नहीं मांग की कि जिस स्थान पर साप्ताहिक हाट लगाते थे, वहाँ एक स्थायी छत बन जाये। तो सरकार इतनी बेवकूफ थोड़े ही थी कि बिना कहे ही छत लगवा दे। पर इसकी क्या परवाह। कम से कम इतना तो अवश्य था कि वह हाट सप्ताह के एक दिन आपके सतत् नीरस जीवन के कार्य-कलापो की उबाऊँ कड़ी को तोड़कर एक परिवर्तन लाती थी जिसका इंतज़ार बेसब्री से रहता। हो सकता था कि वह हाट एक दिन बस्तर के ग्रामीण और शहरी जीवन की सम्पर्क कड़ी बन जाये जैसे कि दिख रहा था। हाट के बगल में कलेक्टर बस्तर (अन्न शाखा) की मोटर वेन लगी थी जो तीन रुपये पच्चीस पैसे प्रति किलो की दर से चावल वितरित कर रही थी। लोग आ रहे थे और चावल खरीद कर ले जा रहे थे। पूछने पर पता चला कि यह गाड़ी अक्सर प्रत्येक सोमवार को चावल वितरित करने जाती थी।
जिन हितग्राहियों से मिलना था, वे उस हाट वाले स्थान से नाले के पार रहते थे। नाले में कमर भर पानी था। अतः उस पार जाया नहीं जा सकता था। लौटकर विकास खण्ड अधिकारी के दफ़्तर में आया। वहाँ पर एक प्रार्थना पत्र था, जिसमें गाड़ी की माँग की गई थी। उन दिनों में बरसात में बस्तर में आंत्रशेध की बीमारी से गाँवों में लोग ऐसे मर जाते थे जैसे जंगलों के बीच साल के पेड़ खड़े-खडे़ सूख जाते हों। कोई पूछ-परख करने वाला नहीं था। एक प्रकार से यह नियति थी। हाँ, मैं कह रहा था कि एक गाड़ी की माँग की गई थी, ताकि पीड़ित व्यक्तियों को देखने डॉक्टर वहाँ जा सके। डॉक्टर वहाँ जाने में इसलिए आना-कानी कर रहा था क्योंकि कीचड़ भरे रास्ते में दो-तीन किलोमीटर पैदल वर्षा में भीगना पडता। मैंने उस गाँव में जाने का निश्चय किया।
जीप स्कीड करती हुई पांक से भरे रास्तों पर दौड़ गई। परन्तु आगे नाला आया जिसको गाड़ी से पार जा नहीं किया जा सकता था। जूते खोलकर सभी लोग जीप से उतरकर पैदल चल पड़े। सामने करीब सात-आठ फीट गहरा और तीन-चार फीट चौड़ा तेजी से बहता हुआ नाला था, जिस पर रखे बिजली के दो आर.सी.सी. खम्बों के सहारे हम लोगों ने उसे पार किया। गाँव पहुँचे-मोरठपाल। पूछताछ की। दो लोग मरे थे, जिसमें एक की मृत्यु नैसर्गिक थी। परन्तु डॉक्टर को देखकर धीरे-धीरे लोग आने लगे। अठारह लोगों का विभिन्न बीमारियों के लिए इलाज़ किया गया। एक को मौके पर ही ग्लूकोज की बोतल चढ़ाई गई। इसी बीच गाँव की और समस्याओं को जानने के उद्धेश्य से ग्रामीणों से बातचीत की। कोई ख़ास समस्या सामने नहीं आई। वस्तुतः बस्तर के आदिवासी उन दिनों शासन से कोई ज़्यादा अपेक्षा भी नहीं रखते थे। चार वृद्ध एवं असहाय लोगों को पेन्शन देने का आदेश दिया।
एक बात स्पष्ट यह भी हुई कि वहाँ के निवासी यह समझते थे कि प्रशासन चाहे, तो उनकी सहायता कर सकता था और उसको करना ही चाहिए। अगर कोई उनके गाँव जाता था, तो उनका काम था कि गाँव वालों की मदद ही करे। ये स्वयं अपनी जिम्मेदारी समझने में असमर्थ थे। हैण्डपम्प का पानी उपलब्ध होने पर भी नाले का पानी पीते थे और यह सोचते थे कि प्रशासन उनके घर आकर समझाए कि नाले का पानी पीने से बीमारी होती है।
2 अगस्त 1991
कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समुदाय आए दिन किसी सरकारी कर्मचारी से परेशान हो उठता हो, तो शासन के प्रति उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है। "कहीं कुछ नहीं होता है। कोई भी बड़ा अफसर आए-जाए भ्रष्टाचार थोड़े ही कम होने वाला है। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।" कुछ इसी प्रकार की प्रतिक्रिया हुई, जब मैंने जगदलपुर के नाप-तौल निरीक्षक से पीड़ित सर्राफा दुकानदारों की परेशानियाँ जाननी चाही। कुछ लोगों की शिकायत पर मैं सब्जी एवं सर्राफा दुकानदारों से मिला। उनका कहना था कि अक्सर यह नाप-तौल निरीक्षक परेशान करता था। सड़क पर से ही उँगली के इशारे से बुलाता था। उनके काँटे जप्त कर 500-500 रुपये ऐंठता था। पैसे ज़्यादा वसूलता और रसीद कम की काटकर देता। आठ-दस दुकानदारों से पूछ-ताछ के उपरांत सबने एक जैसी शिकायतें की। पहले तो लोग शिकायत करने में हिचकिचाए; क्योंकि निरीक्षक का काफ़ी खौफ़ था; परन्तु आश्वासन पाकर वे खुलकर सामने आए।
नैसर्गिक न्याय प्रणाली का यह सिद्धान्त है कि दोनों पक्षों को सुनने के पश्चात् ही निर्णय लेना चाहिए। अतः मैंने एक दुकान पर ही सारे दुकानदारों को एकत्र कर नाप-तौल निरीक्षक को वहीं बुलवाया। प्रतिपरीक्षण किया। आरोपों के खण्डन करने में वह असमर्थ रहा। शिकायतें सही पायी गईं। उसको तत्काल निलम्बित कर दिया गया।
निलम्बन के पश्चात् पता चला कि कलेक्टर नाप-तौल निरीक्षक को निलम्बित करने का सक्षम अधिकारी नहीं है; क्योंकि वह सम्बन्धित विभाग का अनुशासनात्मक अधिकारी नहीं है। अनुशासनात्मक अधिकारी नापतौल नियंत्रक रायपुर में रहता था; परन्तु आम आदमी को तो यह सब पता रहता नहीं। वह तो कोई भी शिकायत लेकर कलेक्टर के पास ही आता है। अतः सही अर्थों में जिले के अंतर्गत प्रत्येक सरकारी विभागों पर कलेक्टर का नियंत्रण होना अनिवार्य है। फिर भी उसके निलम्बन आदेश के नोटशीट में सम्बन्धित विभाग के सक्षम अधिकारी से औपचारिक ढंग से निलम्बित करने को कहा गया।
पूर्वाह्न का पूरा समय इसी में व्यतीत हो गया।
व्यापारी वर्ग काफ़ी खुश हुआ। यही कारण था कि मैं काफ़ी उत्साहित था। इस सेवा में सम्मिलित होने के पहले मैं भी ऐसा सोचा करता था कि ग़रीब आदमी हमेशा पिसता है। शासन बेकार है। सरकार निकम्मी है। अब भी पहली बात में सच्चाई विद्यमान है किन्तु दूसरी तथा तीसरी बाते उतनी सत्य नहीं है। प्रशासन में कोई हाथ पर हाथ रखकर बैठा तो नहीं है। फिर भी नेतृत्व एवं क्रियाशीलता का अभाव है। यह दुर्भाग्य की बात है कि मध्यम स्तरीय अधिकारी फ़ाईलों पर हस्ताक्षर करना ही अपना कर्तव्य मान बैठे हैं।
3 अगस्त 1991
जगदलपुर शहर में स्थित लक्ष्मीबाई उच्चतर माध्यमिक कन्या विद्यालय की शाला भवन की दीवार के पीछे अवैध तरीके से बनाई जा रही तिमंजिली होटल की दीवार को आज तुड़वाने के लिए सोच रहा था। इस गैरकानूनी निर्माण के कारण विद्यालय के कमरे की खिड़कियाँ खुलनी बन्द हो गई थीं। प्रसाधन अवरूद्ध था, जिसके कारण छात्राओं के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। दीवार तुड़वाने के लिए मुख्य नगरपालिका अधिकारी को समुचित व्यवस्था करने के लिए कहा भी जा चुका था; परन्तु कहीं इससे अधिक आवश्यक काम आ पहुँचा। वह था पूरे बस्तर में छिट-पुट फैले आंत्रशोध का मृत्यु-जाल।
ऐसा ही एक समाचार केशकाल तहसील के कुछ गाँवों से कल आया। वे गाँव थे सोनारपाल, हल्दा, पेन्द्रावन और सलरा। बीमारों को देखने के सिलसिले में प्रत्येक दिन कम से कम एक दौरा हो जाता था। आज भी कलेक्टर के साथ दौरे पर निकला। जगदलपुर से केशकाल 132 किलोमीटर है। व हाँ से 25 किलोमीटर आगे वे गाँव पड़ते थे। 10 बजकर पाँच मिनिट पर हम लोग जिप्सी से निकले। और राष्ट्रीय पथ संख्या 43 पर आते ही हमारी जिप्सी 100 किलोमीटर प्रति घण्टे की गति से दौड़ने लगी। ऐसे दौरों में हमारे साथ एक ऐसा आदमी होता है जिसकी मात्र किसी आकस्मिक घटना से निपटने के लिए सादे वेश-भूषा में रख लिया जाता था। इसकी नौबत अभी तक तो नहीं आयी थी।
केशकाल करीब एक बजे पहुँचे। वहाँ से सोनारपाल के लिए आगे बढ़े। परन्तु सड़क कटी होने के कारण, गाँव तक पहुँचने में असफल रहे। एक पटवारी को साइकिल से गाँव भेज दिया गया, ताकि समाचार लेकर एक घण्टे में वापिस आ सके और हम लोग विश्रामपुरी विकास खण्ड गए। वहाँ के प्राथमिक चिकित्सा अधिकारी ने बताया कि अभी प्रभावित गाँवों में चिकित्सा दल काम कर रहे थे तथा पीड़ितों को यथा संभव सहायता दी जा रही थी। प्राथमिक अस्पताल के निरीक्षण के दौरान पुरानी ग्लूकोज की बोतलें मिली जिनकी समय सीमा समाप्त हो चुकी थी। दवा का अभाव बताया गया। यह जानकर मुझे काफ़ी आश्चर्य हुआ कि आंत्रशोध के मरीजों को इलाज़ के नाम पर मात्र ग्लूकोज की बोतलें चढाई जाती थी। अस्पताल में भर्ती मौत की घड़ियाँ गिनते मरीज हमारे शासन व्यवस्था का उपहास करते जान पड़े। कई जगह तो लागों ने स्वतः चन्दे एकत्र कर दवाइयाँ खरीदी थी। आज की तारीख में बस्तर में 147 डॉक्टरों के पद रिक्त थे और जो वहाँ कार्यरत थे वे अपना स्थानान्तरण करवाने के बारे में सोच रहे थे। बस्तर के दुर्भाग्य का एक प्रमुख कारण था, हमारी अमीरी और सुविधाभोगी प्रवृत्ति जो कम नहीं होती।
केशकाल से लगभग 20 किलोमीटर दूर धनोरा गाँव है। इस गाँव के आस-पास नक्सलियों का प्रमुख अड्डा था। गत चुनाव में केशकाल और धनौरा रोड के बीच पड़ने वाले पहाड़ी इलाके में ही मतदान के बाद मतपत्र लेकर लौट रहीं पुलिस पार्टी की जीप को लैंड माइन से उड़ा दिया गया था। किन्तु बस्तर के वर्तमान कलेक्टर एवं आयुक्त जब भी वे दौर पर निकलतें थे, अकेले ही जाते थे। बिना किसी पुलिस फोर्स के। इसके विपरीत पुलिस अधीक्षक एवं पुलिस उप महानिरीक्षक की गाड़ियों के पीछे-पीछे हमेशा पुलिस जीपें चलती थीं।
आज भी हम लोग अकेले ही धनोरा पहुँचे। वहाँ से समाचार आया था कि छात्रावास के कुछ बच्चे आंत्रशोध से पीड़ित थे। ऐसा कुछ तो नहीं पाया गया; किन्तु वहाँ के आस-पास के गाँवों से बीमारी के समाचार मिले। विडम्बना यह थी कि इन गाँवों में पीने के पानी के हैण्ड पम्प होने के बावजूद ग्रामवासियों में अभी पाइप से पानी पीने का संस्कार नहीं बन पा रहा था। खासकर तब जब वे अपने खेतों में काम करने जाते। खेत में ही एकत्र वर्षा का पानी पी लेते। भला तब बीमारी क्यों नहीं होती।
छात्रावास तथा कन्या आश्रम में बैठकर हमने इनकी समस्याओं के बारे में पूछताछ की। लोगों ने तरह-तरह की शिकायतें की जैसे डॉक्टर का न होना, विद्यालयों में शिक्षकों की कमी, पेयजल की व्यवस्था करना, दवाओं का अभाव, प्राथमिक विद्यालय खोलना इत्यादि।
एक-सी शिकायतें सभी जगहों से मिलती हैं। सारी शिकायतों के सुनने के बाद बिना कोई आश्वासन दिये ही चले। 'आश्वासन देना नेताओं का काम है'। लगभग 7 बजे शाम हम लोग जगदलपुर पहुँच पाए। आज की यात्रा थका देने वाली थी।
क्रमश:——— (बयाँ 2019 में प्रकाशित)