बस्ते का बोझ या समझ का बोझा / कौशलेन्द्र प्रपन्न

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बच्चों पर बस्ते के बोझ से ज़्यादा समझ और पढ़ने का बोझा है। समझने से अर्थ लिखे हुए टेक्स्ट को पढ़कर समझना है। प्रो यशपाल ने 1992 में अपनी रिपोर्ट में माना था कि बच्चों पर बस्ते की बोझ के स्थान पर समझने का बोझ अधिक है। दूसरे शब्दों में कहें तो देश और विश्व की तमाम शैक्षिक और मूल्यांकन संस्थानों की रिपोर्ट बताती है कि बच्चे पढ़ नहीं पाते। यहाँ पढ़ने से क्या अर्थ लिया जाए। क्या हम लिखे हुए शब्दों, वाक्यों से मायने निकाल रहे हैं? क्या पढ़ने का मतलब हमारा शब्दों और कविता को पढ़ना है? क्या महज गद्यांशों को उच्चरित करना ही पढ़ना है? राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा और प्रो यशपाल की नजर में पढ़ना प्रकारांतर से समझना भी है। इसका तत्पर्य यह हुआ कि बच्चा जिस टेक्स्ट को पढ़ यानी उच्चारण कर रहा है, वर्णों और शब्दों की पहचान कर पढ़ रहा है उसका अर्थ भी उसे समझ आ रहा है। एनसीएफ ने इसी बिंदु को ध्यान में रखते हुए कम से कम भाषा की किताबों का निर्माण करने की सिफारिश करता है। हिन्दी की रिमझिम किताब में पढ़ने और समझने के साथ ही गतिविधियों के मार्फत बच्चे कैसे पढ़ने में दक्ष हो सकें इस ओर ध्यान दिया गया है। कम से कम भाषा में पढ़ना और समझना दोनों युग्म की तरह आया करती हैं। यदि पढ़े हुए गद्यांश को बच्चा समझ नहीं पाता तो वह पढ़ने की श्रेणी में नहीं गिना जा सकता।

पिछले दिनों इन पंक्तियों के लेखक को दिल्ली के शिक्षा मंत्री और उप मुख्यमंत्री श्री मनीश सिसोदिया के साथ बस्ते बोझ से संबंधी बातचीत का अवसर मिला। सिसोदिया का कहना था कि जब वे एक सरकारी स्कूली की कक्षा में गए तो पाया कि बोर्ड पर भिन्न, और घन यानी गणित की पढ़ाई हो रही थी। उत्सुकतावश उन्होंने बच्चों से पूछ लिया भिन्न क्या है? पूरी कक्षा सन्न रह गई. इसी तरह और दूसरे स्कूलों में भी उन्होंने पाया कि बोर्ड तो भरे हुए थे लेकिन बच्चों में उन्हें समझने की हैसियत नहीं थी। यानी वे भिन्न के सवाल कर रहे थे किन्तु उन्हें उसका अर्थ नहीं मालूम था। ठीक इसी तरह के अन्य वाकयों से भी रू ब रू कराया। शिक्षा मंत्री का कहना था कि शिक्षा मंत्रालय शिक्षक प्रशिक्षण विश्वविद्यालय की स्थापना हो और शिक्षकों को गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण मिले, इस पर गंभीरता से सोच और कार्य कर रही है। संभव है 2016 से यह विश्वविद्यालय कार्य करना शुरू कर दे।

दिल्ली सरकार ने बच्चों के बस्ते के बोझ को कम करने के लिए कुछ माह पूर्व भी कदम उठाया था। इसके अंतर्गत बच्चों की पाठ्यपुस्तकों को कम करने की सिफारिश की गई थी। वे किताबें किस तरह कम होंगी और किस शिक्षण दर्शन पर सरकार इस योजना को अमली जामा पहनाने वाली है यह भविश्य में आकार लेगा। वर्तमान दिल्ली सरकार शिक्षा के अधिकार अधिनियम में वर्णित बच्चों को फेल न करने के प्रावधान को खत्म करने पर गंभीरता से सोच रही है। इस नीति की आलोचना देश भर में व्यापक स्तर पर होता रहा है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि बच्चों में पढ़ने और शिक्षा के प्रति रूझान कम हुआ है। बच्चों में शिक्षा के प्रति और अगली कक्षा में जाने के भय खत्म हो गए। बच्चों को मालूम है कि उन्हें कोई फेल नहीं कर सकता। फेल न होने की बात ने बच्चों में पढ़ने के प्रति ललक और मेहनत को कम किया है। रिपोर्ट भी बताते हैं कि जब यह नो रीटेंशन पॉलिशी लागू हुई है बच्चों में पढ़ने की रूचि कम हुई है। बच्चे शिक्षकों को खुलआम चुनौती देते हैं कि फेल कर के दिखाओ। मैं तो अगली कक्षा में चला ही जाउंगा आदि।

प्रथम, एनसीईआरटी, ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट यानी जीएमआर 2014-15 भी इस ओर इशारा करता है कि बच्चों में पढ़ने और समझने की क्षमता में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। अव्वल तो बच्चे हिन्दी, अंग्रेजी भाषा में कमजोर तो हैं ही साथ ही गणित और विज्ञान में भी उनकी समझ बेहद निराशाजनक है। एनसीईआरटी मानती है कि 68 फीसदी बच्चे लिखे हुए गद्य को पढ़ नहीं पाते। वहीं जो पढ़ पाते हैं उनमें से 48 फीसदी बच्चे ही अर्थ समझ पाते हैं। स्वतंत्र रूप से लिखने की क्षमता में भी खासा कमी आई है। तमाम सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों की ओर से कराए गए सर्वे बताते हैं कि हमारे बच्चे अपनी कक्षा के स्तर के अनुसार भाशा में दक्षता की दृष्टी से काफी कमतर प्रदर्शन कर पाते हैं। यानी बच्चे अपनी की हिन्दी की किताब से कहानी, कविता पढ़कर समझ नहीं पाते। यदि बच्चे भाषा में कमजोर हैं तो इसके पीछे न केवल पाठ्यपुस्तकें जिम्मेदार हैं, बल्कि पढ़ाने वाले की प्रशिक्षण में भी खामी पाई जाती है। शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में भाषा शिक्षण की योजना और प्रशिक्षक की भाषाई रूचि भी शिक्षण को प्रभावित करती है।

कुल मिला कर शिक्षा और भाषा शिक्षण में बच्चों को कैसे दक्ष किया जाए इस पर गंभीरता से विमर्श करने और रणनीति बनाने की आवश्यकता है। यूं तो बच्चों के बस्ते की बोझ को कम करने के लिए सरकारें और आयोगों ने काफी सुझाव प्रस्तुत किए हैं लेकिन वह बोझा कम होने की बजाए और और बढ़ती ही गई हैं। एक ओर जैसे जैसे किताबें बढ़ती गई हैं वैसे वैसे बच्चों में पढ़ने और भाषाई समझ का ग्राफ नीचे गिरता गया है। ज़रूरत इस बात की है कि यदि बच्चों के बस्ते का बोझा कम करना है तो हमें राजनीति की नजर से नहीं बल्कि शिक्षा शास्त्र और शिक्षा दर्शन की नजर से इस मसले को समझने की कोशिश करनी होगी।

भाषा के चार कौशलों सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना आदि के विकास के लिए हमें रोड़ मैप बनाने की आवश्यकता है। दरअसल, सेवा पूर्व प्रशिक्षण संस्थानों में सैद्धांतिक और व्यावहारिक जानकारियां तो दे दी जाती हैं लेकिन अंतःसेवाकालीन शिक्षण प्रशिक्षण कार्यशालाओं में उनकी चुनौतियों को सुलझाने की बजाए महज खानापूर्ति का होना एक बड़ा कारण है कि हमारे शिक्षक कागजी शिक्षक तो बन जाते हैं लेकिन उन्हें रेाजदिन कक्षाओं में जिन हालात से गुजरना पड़ता उससे निपटने का तरीका नहीं मिल पाता। जबकि मेरा स्वयं का अनुभव बताता है कि हमारे शिक्षकों को सेवा पूर्व मिली प्रशिक्षण कक्षाओं में भी हिन्दी की बहुत-सी बारीक समझ और कौशलों की ओर समझ नहीं विकसित की जाती है। यहाँ दो फांक में बटे शिक्षक वर्ग नजर आते हैं-पहला जो स्वयं कर के सीखता है दूसरा वे जो सिद्धंत के तौर पर तो पढ़कर आए हैं लेकिन व्यावहारिक कक्षा में जिस किस्म की चुनौती आती है उसके लिए कैसी तैयारी करनी चाहिए. इस ओर अभी हमारा ध्यान कम है। यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे भाषा, विज्ञान, गणित में दक्ष हो तो हमें उनकी भाषा भी दुरूस्त करनी होगी।