बस ऐसे ही / प्रियंका गुप्ता
सुबह जब मैं सो कर उठा तो वह वहाँ नहीं थी। बिस्तर पर उसकी चादर तह लगा कर रोज़ की तरह तकिए के नीचे रखी थी...खिड़की के पर्दे बंद थे और उसकी तरफ वाले बेड के नीचे उसकी स्लीपर बिलकुल करीने से रखी थी। वह वहाँ नहीं थी, माने सिर्फ़ बिस्तर पर ही नहीं, वह उस पूरे घर में कहीं नहीं थी। डाइनिंग टेबल पर मेरे नाश्ते की प्लेट के नीचे दबाकर रखे गए कागज़ के एक टुकड़े पर उसकी राइटिंग में बस एक वाक्य लिखा था...मैं जा रही हूँ...ढेर सारा प्यार...और नीचे आदतन उसने अपना नाम लिख रखा था।
मुझे लगा वह पास के सुपर मार्केट तक गई होगी जहाँ वह अक्सर घर का एक भी सामान घट जाने पर उसे लाने भागती थी। जब वह लौटती तो उस एक सामान के साथ-साथ ढेरों दूसरी चीजें भी होती, मेरे हिसाब से जिनकी बिलकुल भी ज़रुरत नहीं होती थी। पर मैं चुप रहता। वह सामान का थैला लिए अन्दर घुसती और मेरी तरफ एक खोई-सी मुस्कान फ़ेंक रसोई में घुस जाती। अपने लैपटॉप पर कुछ न कुछ करने में बिजी मैं कभी तो लपक कर उसकी फेंकी मुस्कान कैच कर लेता, पर ज़्यादातर ये इतना रूटीन-सा लगता कि मैं उसे नज़रअंदाज़ करके अपने काम में मसरूफ रहता। ऐसे में उसकी मुस्कान टप्प से मेरे क़दमों के पास गिर कर टूट जाती। कभी-कभी मुझे लगता कि उसकी टूटी मुस्कान की किरचें शायद उसे चुभती होंगी, पर उसने कभी मेरे ऊपर तो ऐसा ज़ाहिर नहीं होने दिया...और मैं कोई खुदा तो था नहीं जो बिना ज़ाहिर की हुई बातों को भी समझ जाऊँ।
वो बाकी की औरतों की बनिस्पत ज़्यादातर चुप ही रहती थी। मुझे लगता, ये उम्र का असर है। वर्ना पहले अपनी सहेलियों के साथ तो कितना चटर-पटर करती थी, कहकहे लगाती थी। पर अब उसकी अधिकाँश सहेलियाँ या तो अपनी हारी-बीमारी से त्रस्त होकर अपने घर और डॉक्टर की क्लिनिक के बीच पिंग-पोंग बनी हैं...या फिर कई तो अपने आदमी के मर-खप जाने के कारण अपने बच्चों के पास रहने चली गई है। हमारे जैसे कुछ ही लोग हैं, जिन्होंने अपने देश की धरती छोड़ कर परदेश में बसे बच्चों के मत्थे रहना स्वीकार नहीं किया।
अब तो भूले-भटके ही उसकी बची-खुची किसी सहेली का फोन आता है, उस पर भी जितनी देर बातें करती हैं, अपना रोना ही रोते रहती हैं। ऐसे में वह हमेशा अपना मोबाइल लेकर बॉलकनी में चली जाती है। मुझे मन-ही-मन हँसी भी आती, अब कौन-सा किसी सहेली से अपनी अन्तरंग बातों पर चटकारें लेना होता है...पर मैं चुप ही रहता।
इस उम्र में भी वह पहले की तरह हर काम में मुस्तैद रहती। मुझे कब क्या खाना है, कितना खाना है...मेरी पसंद-नापसंद...हर चीज़ हमेशा कि तरह चाक-चौबंद। अपने लिए तो जैसे उसकी कोई ख्वाहिश ही नहीं कभी। सुबह भी शायद मेरा ही कोई सामान उसे घटा दिखा होगा, तभी हडबडा कर बाहर चली गई होगी...पर जाने से पहले टेबल पर मेरा नाश्ता लगाना नहीं भूली। मैंने बाथरूम में जाकर देखा, रोज़ की तरह मेरे नहाने का भी सारा इंतज़ाम था। सामने अलमारी खोल के देखी तो वहाँ भी सब मौजूद था। यानी मेरा कोई सामान नहीं घटा था, फिर ऐसी क्या हड़बड़ी थी कि मेरे जागने का भी इंतज़ार नहीं किया और चली गई... ?
मैंने फ्रेश होकर नाश्ता किया, टेबल पर मेरे चश्मे के साथ करीने से लपेटा हुआ अखबार खोल कर पढ़ा और फिर समय देख कर नहाने घुस गया। इन सबसे निपट कर मैंने लैपटॉप खोल लिया। बेटे का गिफ्ट किया हुआ यह लैपटॉप मेरा सबसे अच्छा दोस्त साबित हुआ था। न कहीं जाने की ज़रुरत, न किसी को बुलाने की ज़रुरत। इसमें रम कर तो मैं भूल ही गया था कि खालीपन किसको कहते हैं।
उसे इन सब चीज़ों में कोई रूचि नहीं थी। एक-दो बार मैंने उसे भी कहा सीखने को...पर उसने बिना कुछ बोले बस 'न' में गर्दन हिला दी। जब मैं इसमें खोया रहता, वह मेरे पास बैठ जाने कहाँ ताका करती। कई बार तो मैंने पूछा भी, पर वह 'कुछ नहीं' कहती और फिर उठ कर रसोई में जाकर मेरे पसंद का कुछ बना कर ले आती।
सच कहूँ, तो मुझे उसकी बातें समझ ही नहीं आती थी। ये पक्की तौर पर कहा ही नहीं जा सकता था कि किस घड़ी या कौन-सी बात से अचानक उसे कुछ बरसों पुराना याद आ जाएगा। ऐसे में ही अक्सर उसकी ये चुप्पी टूटती। बड़ी अजीब-अजीब यादें होती थी उसकी। मैं तो लाख कोशिश करता कि जो वह कह रही उसका एक हल्का-सा टुकडा भी मुझे याद आ जाए, पर ऐसा नहीं होता था। कभी तो एकदम बचकाने से सवाल कर देती। मसलन, आपको याद है...शादी के बाद मैंने मायके से आपको जो पहला ख़त लिखा था, उसमें मैंने ये कहा था...और बाद में आपने उसका क्या मज़ेदार जवाब दिया था...? या फिर कभी यही याद करके हँसने लगती कि उसने जब पहली बार होटल में चाऊमिन खाई थी तो कैसे बार-बार नूडल्स प्लेट में गिर रहे थे। ऐसी बातें करते हुए उसका चेहरा किसी शीशे की तरह दमकने लगता। सच कहूँ तो इन सब बातों में मेरी कोई रूचि नहीं थी। ये भी कोई याद रखता है क्या...? ज़िंदगी ने हज़ारों इम्पोर्टेन्ट चीज़ें दी हैं याद रखने की...तो भला अपनी याददाश्त इन सब बकवासों में क्यों जाया करना...?
पिछले कई महीनों से उसने ये सब कहना छोड़ दिया था। शायद उसे अहसास हो गया था कि उसकी इन सब बेहूदी बातों से मैं इरिटेट हो जाता था। हाँ, चाह कर भी खुल कर उसे डांट नहीं पाता था। क्या फायदा, हँस रही है कुछ देर तो हँस ले...पर मैं इन सबसे दूर रहना ही पसंद करता था। तभी तो वह अगर ऐसे सवाल करती तो मैं अपने लैपटॉप में नज़रें गड़ाए बस 'हाँ-हूँ' से काम चला लिया करता। थोड़ी देर में जब आसपास शान्ति हो जाती तब मेरा ध्यान उसकी ओर जाता, पर तब तक तो वह उठ कर रसोई में अपने काम में लग चुकी होती।
मैं उसे दुखी नहीं देख सकता था, इसलिए अगर कभी वह कहती कि इस फ्लैट में उसे घुटन महसूस हो रही, तो मैं उसे किसी न किसी मॉल ले जाता। उस दिन मैं घर पर खाना-वाना बनाने से उसे छुट्टी दे देता था। वह ऐसे में अक्सर बेचैन हो जाती। कहती, खाने के लिए मैं कुछ बढ़िया-सा बना लेती हूँ, फिर चलिए... झील पर चलते हैं। उसके किनारे बैठ कर खा भी लेंगे और मन भी बहल जाएगा। मुझे फिर कोफ़्त होती, पर घुटन महसूस करती उसकी ख़राब तबीयत को ध्यान में रखते हुए मैं फिर अपने गुस्से को दबा लेता। मैं उसे बड़े प्यार से समझाता...झील भी कोई मन बहलाने की जगह है...? मॉल चलोगी...ढेर सारे लोगों को देखोगी...तो घुटन खुद-ब-खुद भाग जाएगी। फिर फर्स्ट क्लास खाना खाकर घर आ जाएँगे। चलो, तुम्हें तुम्हारी पसंद की आइसक्रीम भी खिला दूँगा।
मैंने कहा न, वह बिलकुल ज़िद्दी नहीं है...इसलिए हमेशा मान जाती। हाँ, पूरे समय थकी-थकी, बेजान-सी ज़रूर लगती...पर बीमारी में तो ऐसा होता ही है। हम देर शाम गए घर लौटते और फिर से अपनी ज़िंदगी में रम जाते। इधर तो उसने 'घुटन हो रही' कहना भी छोड़ दिया...शायद उसकी तबीयत ठीक हो गई थी।
इधर उसमें एक और नई आदत डेवलप हो गई थी। जब देखो तब अपने बालों की स्टाइल बदल देती थी। कभी जूड़ा...तो कभी पोनी टेल...या फिर कभी बिलकुल बेपरवाही से खुले, यूँ ही इधर-उधर बिखरे-बिखरे से बाल। मैं कनखियों से उसे देखता और मन ही मन हँसते हुए अनदेखा कर देता। माना, इस उम्र में भी वह देखने में बाकियों से अच्छी थी, पर मैं उसकी तारीफ़ करके बेवजह उसे चने के झाड़ पर नहीं चढ़ाना चाहता था।
कल तो हद कर दी थी उसने। रोज की तरह रात को सोने से पहले नहा के कमरे में आई तो एक भीनी-सी खुशबू भी उसके साथ उड़ती हुई मानो मेरे दिलो-दिमाग़ में घुसती चली गई। इतना तक होता तो भी कुछ नहीं...पर यहाँ मैं लैपटॉप पर कुछ बहुत ही इंटरेस्टिंग पढ़ने में लगा था और मोहतरमा किसी नई-नवेली की तरह मेरे बिलकुल क़रीब...मेरे कंधे पर सिर टिका कर बैठ गई... । मैंने एक-दो बार कँधों को झटका भी, पर ढाक के वही तीन पात। मुझे झल्लाहट हुई तो भी वह तो मानो कमर कस के बैठी थी। ज़बरदस्ती मेरे हाथ से लैपटॉप छीन कर मेरा मुँह अपनी ओर घुमा लिया। उस पर नज़र पड़ी तो मेरी हँसी छूट गई... । मुझे इतना तो पता है कि लाल रंग उसका सबसे ज़्यादा फेवरेट है, पर इतना भी क्या कि कमसिन लड़कियों की तरह एक झीना-सा गाउन पहन कर घूमो...'बूढ़ी घोड़ी, लाल लगाम।' मेरी बात का बस इतना अच्छा असर हुआ कि उसके बाद पूरी रात उसने मुझे परेशान नहीं किया।
बहुत देर हो गई... । अब तक तो उसे आ जाना चाहिए था। इतनी देर तो नहीं लगती सुपर मार्केट में। मुझे हल्की-हल्की भूख भी लगने लगी थी। रसोई में जाकर देखा तो थोड़ी हैरानी हुई... । कभी वहाँ जाकर देखता नहीं था इसलिए अंदाज़ा ही नहीं था कि वहाँ खाना भी ढँका हो सकता है। ब्रेकफास्ट की ही तरह यहाँ भी एक नोट था...खाना खा लेना, इंतज़ार न करना...ढेर सारा प्यार...और नीचे फिर उसका नाम।
अजीब था ये सब। मैंने उसका मोबाइल मिलाया तो स्विच-ऑफ़ बता रहा था। मुझे चिंता होने लगी तो सोचा, उसकी बची-खुची सहेलियों को फोन मिलाकर पूछ लूँ, शायद किसी की तबीयत इतनी खराब हो गई हो कि उसको तुरंत निकलना पड़ा हो। पर अपनी शादी के इतने सालों बाद पहली बार मुझे अपने पर कोफ़्त हुई... मेरे पास तो उसकी किसी सहेली का नम्बर ही नहीं था। शायद उसकी किसी डायरी में नोट हो। जब तक कुछ पता न चले, खाना कैसे गले के नीचे उतर पाएगा...?
बेडरूम में जाकर अलमारी खोली। सब कुछ वैसे ही बेहद करीने से था...पर फिर भी एक बहुत बड़ी जगह खाली थी, जहाँ उसके कपड़े टंगा करते थे। नीचे बिलकुल मेरे पसंद के तरीके से तह लगा कर रखी हुई तौलिया के बगल में रखे उसी झीने से लाल गाउन पर एक नोट और दबा था...बहुत घुटन हो रही...बस जा रही हूँ...ढेर सारा प्यार।
इस नोट पर भी शायद नीचे उसका नाम लिखा रहा होगा, पर जाने क्यों मुझे अचानक बहुत तेज़ घुटन-सी महसूस हुई और मैं अपने सीने को दबाये वहीं ज़मीन पर धम्म से बैठ गया।