बहनापे पर फिल्में और त्वचा की सरहद / जयप्रकाश चौकसे

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बहनापे पर फिल्में और त्वचा की सरहद
प्रकाशन तिथि : 11 सितम्बर 2019


'लिपिस्टिक अंडर बुर्का' नामक अत्यंत मनोरंजक फिल्म बनाने वाली अलंकृता श्रीवास्तव, भूमि पेंडनेकर और कोंकणा सेन शर्मा अभिनीत फिल्म 'डॉली और किट्‌टी' बनाने जा रही हैं। यह दो बहनों के जीवन और आपसी स्नेह को प्रदर्शित करने वाली फिल्म हैं। कभी बहनापे में आपसी डाह की नकारात्मकता भी शामिल हो जाती है। भाइयों के रिश्ते पर अनेक फिल्में बनी हैं परंतु पुरुष शासित समाज और सिनेमा में बहनापा अत्यंत कम फिल्मों में प्रस्तुत किया गया है। नूतन व तनुजा और मधुबाला व चंचल सगी बहनें भी फिल्मों में सक्रिय रही हैं और नूतन हमारी श्रेष्ठ कलाकार रही हैं। नूतन ने युवा रोमांटिक भूमिकाओं की लंबी पारी खेली, साथ ही 'सुजाता' और 'बंदिनी' में विलक्षण अभिनय किया। बिमल राय की 'बंदिनी' को नूतन की 'मदर इंडिया' माना जा सकता है। उम्रदराज होने पर उन्होंने सुभाष घई की 'कर्मा' और अमिताभ बच्चन के साथ 'सौदागर' में काम किया।

गुरुदत्त की अंतिम फिल्म का नाम था 'बहारें फिर भी आएंगी' जिसे उनकी मृत्यु के बाद उनके भाई ने पूरा किया। वह भी दो बहनों के परस्पर प्रेम और वैमनस्य की कथा थी। दरअसल, वह फिल्म बंगाली भाषा में बनी फिल्म 'प्रेसीडेंट' से प्रेरित थी। पिता की मृत्यु के बाद बड़ी बहन पिता का कारोबार संभालती है और वह एक युवा मैनेजर को नियुक्त करती है, जिससे उसे प्रेम हो जाता है परंतु वह इस बात से अनजान है कि उसकी छोटी बहन भी उसी युवा मैनेजर से प्रेम करती है। दोनों बहनों को तथ्य मालूम पड़ने पर उनमें एक-दूसरे के लिए त्याग की प्रतिस्पर्धा प्रारंभ हो जाती है। बहनापा इश्क से गहरा साबित करने का खेल शुरू हो जाता है। शोभा डे का उपन्यास 'सिस्टर्स' रोचक है। सेठ धन्नालाल की मृत्यु के बाद उनका वसीयतनामा पढ़ा जाता है। उसी समय सिगरेट पीती हुई एक आधुनिका प्रवेश करती है। उसका दावा है कि वह सेठ धन्नालाल की नाजायज संतान है और उसके पास इसे सिद्ध करने के लिए यथेष्ठ प्रमाण भी है। वह सेठ धन्नालाल की महबूबा की पुत्री है। दोनों बहनों के बीच दांव-पेंच चलते हैं और 'नाजायज' के दांव-पेंच से ही 'जायज' पुत्री समझ जाती है कि उसकी रणनीति पर उसके पिता के चातुर्य का स्पष्ट प्रभाव है।

दोनों बहनें समझौता कर लेती हैं और मिलकर पिता के व्यवसाय का संचालन करते हुए अपने निकम्मे और लोभी रिश्तेदारों के पाखंड को उजागर करके उन्हें जेल भिजवा देती हैं। करीना और करिश्मा कपूर को लेकर शोभा डे के उपन्यास से प्रेरित पटकथा लिखी जा सकती है। अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म शोभा डे के उपन्यास से प्रेरित नहीं है।

हॉलीवुड की दो बहनों की एक फिल्म में पिता की मृत्यु के बाद हिल स्टेशन पर बने छोटे से होटल का संचालन दो बहनें करती हैं। एक संगीतकार वहां काम करने के लिए एक कमरा लंबे समय तक के लिए किराए पर लेता है। संगीतकार और बड़ी बहन का प्रेम हो जाता है। संगीतकार अपनी रचना भी पूरी कर लेता है। वे विवाह करके महानगर चले जाते हैं। कुछ माह पश्चात वे छोटी बहन का हालचाल मालूम करने आते हैं। उन्हें ज्ञात होता है कि उनके जाने के बाद छोटी बहन ने अपना होटल बेच दिया है और वह चर्च में नन बन चुकी है। उन्हें छोटी बहन की डायरी से जानकारी मिलती है कि छोटी बहन भी संगीतकार से मन ही मन प्रेम करती थी। वे दोनों चर्च जाकर उससे मिलते हैं और बड़ी बहन प्रस्ताव रखती है कि वह अपने पति को तलाक देकर छोटी बहन का विवाह उससे करा देगी। छोटी बहन कहती है कि अब वह नन बन चुकी है और अब दु:खी तथा असहाय लोगों की सेवा करना ही उसका कर्तव्य है। अब सांसारिकता का कोई प्रलोभन उसे अपने काम से डिगा नहीं सकता। वह अपनी बड़ी बहन और उसके पति के सुखी दाम्पत्य के लिए प्रार्थना करेगी। छोटी बहन के कथन को रेखांकित करने वाली दो फिल्मों का विवरण इस तरह है। ज्ञातव्य है कि इतिहास प्रेरित फिल्म 'बैकेट' में ब्रिटेन का राजा अपने बाल सखा को चर्च का प्रधान बनाता है ताकि दोनों मिलकर देश के निरंकुश शासक बन जाएं। चर्च प्रधान का कहना है कि प्रभु की सेवा में आने के बाद उसकी कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं है और अगर राजा चर्च के काम में दखल देगा तो वह उसकी मुखालफत करेगा। बैकेट का चरबा ऋषिकेश मुखर्जी ने राजेश खन्ना और अमिताभ अभिनीत 'नमक हराम' में प्रस्तुत किया था। इसी कथानक पर टीएस एलियट ने भी 'मर्डर इन कैथेड्रल' नामक काव्य नाटक लिखा है। ज्ञातव्य है कि बैकेट में रिचर्ड बर्टन ने राजा की भूमिका और पीटर ओ' टूल ने चर्च प्रधान की भूमिका अभिनीत की थी। 'बैकेट' के साथ ही टीएस एलियट के नाटक 'मर्डर इन कैथेड्रल' से प्रेरित फिल्म भी बनी है।

दोनों ही रचनाएं सत्ता के दो हाथों में सिमटने से होने वाले भयावह परिणामों को रेखांकित करती है। अवाम को तो अब अपनी त्वचा की सीमा में ही रहना है। त्वचा में जगह-जगह खरोंचें लगी हैं परंतु गनीमत है कि वह अभी तक कायम है। त्वचा पर लगे जख्मों से ही दिव्य प्रकाश शरीर में प्रवेश करता है।