बहादुर बेटा / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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दरवाजे पर ठक ठक की आवाज ने रामलाल को उठने को मजबूर कर दिया पत्नी पड़ौस में चौका बर्तन का काम करने गई थी | उठकर दरवाजे तक आते-आते बाहर कोलाहल तेज सुनाई पड़ने लगा | रामलाल ने कौतूहलवश दरवाजा खोला तो सामने पड़ौस के ही दो तीन लोगों को खड़ा पाया | पीछे चालीस पचास लोगों का हज़ूम गमगीन मुद्रा में नज़र आ रहा था |

रामलाल ने प्रश्नवाचक नज़रों से देखा | एकदम से किसी ने कोई जबाब नहीं दिया| रामलाल सकपका गया | "क्या बात है भैया?" उसने सामने खड़े एक परिचित पड़ौसी से पूछा

'तुम्हारा बेटा..........."

" क्या हुआ मेरे बेटे को?"

"मर गया गोली से, पुलिस की | थाना घेर डाला था लोगों ने, तुम्हारा बेटा भी था, थाने में आग लगा रहे थे, पुलिस ने भूंज दिया |"

"अच्छा हुआ निकम्मा था आवारा कहीं का, क्या वह मर गया? शराब के नशे में रामलाल बुदबुदाया | बेटे की मौत की खबर को ऐसे सुना जैसे कोई साधारण सी बात हो | वापस आकर फिर खटिया पर लुड़क गया |

दूसरे दिन दोपहर फिर दरवाजे पर खटखटाने की आवाज आई |

"अब क्या हो गया,चैन से सोने भी नहीं देते साले" रामलाल झुँझलाकर बड़बड़ाया और दरवाजा खोल दिया

"क्यों तंग करते हो, अब क्या हो.... ? प्रश्न पूरा होने से पहले ही एक आदमी बोल पड़ा, ....

".एस. डी. एम. साहब आये हैं, मुआबजे का चेक है तुम्हारे लड़के की मृत्यु होने पर, सरकार ने तुम्हें दिया है, पूरे पच्चीस हज़ार का है, मरने वाले को सरकार देती है, उसके घर‌वालों को देती है |"

रामलाल तो जैसे हक्का बक्का रह गया

"पच्चीस हज़ार मुझे" वह खुशी से पागल सा हुआ जा रहा था | बड़बड़ाने लगा जैसे हिसाब लगा रहा हो कि इतने पैसे में वह कितने दिन दारू पी सकेगा | वह बेटे को दुआयें देने लगा,

"ठीक वक्त पर मरा, दारू पीने के लिये घर में कुछ भी नहीं था | निकम्मा साला, मरते-मरते ही सही बाप की आत्मा को तृप्त तो कर ही गया |" उसके मुँह पर हल्की सी मुस्कान आई और आँखें गीली हो गईं |

रामलाल ने ओंठों पर जीभ फेरी और चल पड़ा दारू के पवित्र स्थल की ओर, सूखे ओंठों से वह बुदबुदा रहा था, "सरकार जिंदा आदमी को कहां नौकरी देती है किंतु बहादुरी से मरने पर पैसा देती है, थाना फूंको तो पैसा मिलता है, बहादुर था मेरा बेटा |"