बही लिख-लिख के क्या होगा / प्रताप सहगल
हर लेखक के मन में यह दुविधा रहती है कि जो वह लिख रहा है, उसके मानी क्या हैं? वह न भी लिखे तो दुनिया का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है, लेखक अक्सर लेखन को एक वैयक्तिक कर्म मान कर अपने को एक खोल में समिति कर लेता है। लेखन एक वैयक्तिक कर्म है लेकिन लेखक एक सामाजिक प्राणी भी है। सामाजिक ढाँचे में जब परंपराएँ मात्र रूढ़ियाँ बन जाती हैं और मूल्य जब 'मिशन' न होकर 'वस्तु' बन जाते हैं तो दुविधा और भी गहरी हो जाती है।
इसी संदर्भ में अक्सर शैलेंद्र के गीत की यह पंक्ति मन में गूँजती रहती है। 'बही लिख-लिख के क्या होगा'। इसी संदर्भ में लेखन की वैयक्तिकता और सामाजिकता कि बात उठाई जा सकती है। इसी संदर्भ में यह भी सोचा जा सकता है कि लेखक की 'लिखत' और लेखक की 'करत' में तालमेल होना ज़रूरी है या नहीं? अगर यह तालमेल हो तो लेखन की धार में अधिक पैनापन आता है या नहीं?
जीवन और लेखन में अलग-अलग दृष्टिकोण क्यों?
पश्चिम में और अपने यहाँ भी लेखकों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो यह मानता है कि लेखक को उसके शब्द के ज़रिये ही पहचानना जाना चाहिए नाकि उसकी 'करत' के ज़रिये। 'करत' और 'लिखत' का घालमेल नहीं करना चाहिए क्योंकि अंततः हमारे पास 'लिखत' ही बचती है, 'करत' नहीं। इसे स्वीकार करना आसान नहीं है। जिए गए जीवन का लेखन पर असर न हो, ऐसा संभव नहीं है। यह भी देखने में आता है कि लेखन की धार जिए गए जीवन की धार से बदलती है। बहुत दूर न जाएँ तो इसे नागार्जुन, रामविलास शर्मा और अज्ञेय के लेखन से समझा जा सकता है। नागार्जुन, फक्कड़ होकर जिए, फक्कड़ होकर लिखा और सत्ता ओर प्रतिष्ठान की परवाह नहीं की, यह उनकी जीवन-शैली में भी झलकता रहा। रामविलास शर्मा कि मिसाल भी सामने है कि उन्होंने भी बेहद सादगीपूर्ण जीवन ज़िया और सादगीपूर्ण तरीक़े से ही बड़ी बातें कहीं। इनके बरक़्स अज्ञेय को लें तो देखते हैं कि उनके जीवन का आभिजात्य उनके लेखन से भी झलकता है। इन मायनों में यह सभी अर्थवान लेखक हैं। हालाँकि अज्ञेय लेखक के जीवन और लेखन को अलग-अलग करके देखने के हामी रहे, लेकिन हक़ीक़त यह है कि वे व्यवहार में लिखत एवं करत को बहुत अलग करके नहीं चल सके।
आज के लेखक: लेखन का असर क्यों नहीं होता?
वस्तुतः इन मिसालों को देने का मकसद आज के लेखकों पर नज़र डालना है। आज लेखकों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जिनकी 'लिखत' एवं 'करत' के बीच एक बड़ी फाँक है। आज लेखक प्रायः यह शिकायत करता सुनाई देता है कि उसका लिखा कोई पढ़ता नहीं, पढ़ता है तो कोई समझता नहीं। इस बहाने वह कई बार स्वयं को भवभूति से जोड़कर उस अदृश्य पाठक की प्रतीक्षा में रहता है, जो कभी न कभी ज़रूर मिलेगा। उसे उस समय का इंतज़ार रहता है, जब उसका 'उचित' मूल्यांकन होगा। उसे यह शिकायत भरी आशा हमेशा बनी रहती है कि कभी न कभी उसे इतिहास में जगह ज़रूर मिलेगी। ऐसी सोच रखने वाले लेखकों का लेखन प्रायः इकहरा, भोथरा और अपने समय से बाहर होता है। वह शब्द की महिमा भले ही बखानता रहे, लेकिन अनुभव को ढोने वाले शब्द उसके पास नहीं होते। सोच समझ को बदलने वाली ताप उनके लेखन में नहीं होती। इसलिए उन्हें अक्सर उपेक्षित किए जाने, उपेक्षित होने की शिकायत बराबर नहीं रहती है। कोई पूछे भला इन लेखकों से कि आखि़र इतिहास बनता कैसे है? भला अर्थवान लेखकों के बिना इतिहास बनेगा ही कैसे? फिर इतिहास की इतनी चिंता क्यों?
असली मुद्दा क्या है?
आज लेखक ने यह सोचना कम कर दिया है या छोड़ ही दिया है कि उसका पाठक अदृश्य हो गया है? अगर है तो वह उससे संवाद क्यों नहीं करता। लेखक यह मानने के लिए तैयार क्यों नहीं होता कि उसके लेखन में ही कहीं ऐसी खोट हो सकती है कि उसका असर होता नहीं। तो यह खोट कहाँ है।
लगता यह है कि लेखक ने आज अपनी सामाजिक सक्रियता या तो कम कर दी है या बंद कर दी है। यह आम-जन से कटता चला गया है। भौतिक विकास के युग में उसने भी सुविधाएँ अर्जित की हैं और वह भी आम-जन की तरह से ही उन सुविधाओं में क़ैद हो गया है। उसकी दौड़ फैलोशिप और पुरस्कारों तक सिमट गई है। दो-चार समितियों का सदस्य होते ही वह ख़ुद को महत्तवपूर्ण अनुभव करने लगता है। यह महत्तवपूर्णता जो उसे शब्द के माध्यम से अर्जित करनी थी, वह उन लेखनेतर माध्यमों से अर्जित कर लेता है। इन लेखनेतर माध्यमों में वह जो अर्जित करता है, उससे न तो अनुभव-संपन्नता आती है और न ही लेखकीय-संपन्नता।
लेखक और सक्रियता
यह सवाल आज पहले से ज़्यादा गंभीर और पहले से ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हो गया कि क्या लेखक के लिए सामाजिक सक्रियता ज़रूरी है? क्या वैचारिक सक्रियता ही उसके लिए काफ़ी नहीं है। लगता है कि सामाजिक सक्रियता ज़रूरी ही नहीं, अपरिहार्य है। सामाजिक सक्रियता लेखक को जीवन के व्यावहारिक प्रश्नों के रू-ब-रू खड़ा करती है। सामाजिक सक्रियता लेखक को अपने व्यक्तित्व की ताब और धार पहचानने का अवसर देती है। शब्दों में युद्ध करना आसान है, शब्दों में क्रांति लाना भी आसान है, शब्दों में परिवर्तन का मायाजाल खड़ा करना कला है, लेकिन जब लेखक सक्रिय होकर वास्तविकताओं के सामने खड़ा होता है। एक आम-जन की तरह। एक आम-जन के साथ-साथ उसे पता चलता है कि इन कठोर वास्तविकताओं से जूझते हुए क्रांति लाना तो दूर, सामाजिक तौर पर छोटे-छोटे परिवर्तन लाना भी कितना मुश्किल है! कितना जोख़िम भरा।
इससे भी महत्तवपूर्ण प्रश्न यह है कि लेखक जो लिख रहा है उसमें वह विश्वास भी कर रहा है या नहीं। हमारे लेखक मित्र फौरन कहेंगे कि क्या लेखक किसी राजनीतिक दल का झंडा उठाकर चले याकि कोई ख़ास बिल्ला लगाकर मरे। न चले राजनीतिक झंडा उठाकर न मरे कोई ख़ास बिल्ला लगाकर, लेकिन उसमें इतना नैतिक साहस तो होना ही चाहिए कि वह अपने लेखन में जिन मूल्यों की स्थापना करता है, उनके पक्ष में खड़ा हो सके, बोल सके। इसी संदर्भ में मुझे अपने एक मुस्लिम लेखक मित्र की याद हो आई है। उनसे दंगों पर बहस हो रही थी। सांप्रदायिकता कि चर्चा करते-करते बात हत्याओं तक पहुँची। उन्हें भी अपनी हत्या होने की आशंका दिखने लगी। वे उन दिनों एक अजनबी शहर में थे। उन्होंने जो कहा वह इस प्रकार था "शहर में फसादात हो रहे थे। मुझे डर लगा कि कोई मुझे भी मार देगा और फिर इन हिंदुओं का क्या भरोसा, वे तो मुझे जला देंगे।" यानी उनको मरने से ज़्यादा चिंता इस बात की थी कि उन्हें जला न दिया जाए। दफनाने पर ही क़यामत के दिन फ़ैसला होगा और अगर उन्हें पहले से ही जला दिया गया, तो वे उस जन्नत से महरूम रह जाएँगे, जहाँ हूरें हैं, जहाँ मीठे पानी की नहरें बहती हैं-वगैरह-वगैरह। ऐसा ही एक प्रसंग हिंदू लेखक मित्र का भी दूँगा। वे लेखन में बड़े क्रांतिकारी हैं। कविता में क्रांति से कम तो कुछ होता ही नहीं, मृत परंपराओं के घोर विरोधी, लेकिन जब बात अपने पर पड़ी तो उन्होंने वे सब आडंबर किए जिनका वे विरोध करते रहे। हरिद्वार अगर 'हाड़ की पैडी' तो फिर अपने प्रियजन की अस्थियाँ विसर्जित करने के लिए वहीं जाना ज़रूरी क्यों हो जाता है? प्रसंग और मिसालें और भी हो सकती हैं। सवाल यह है कि लेखक जब ख़ुद ही इन आडंबरों और पाखंडों से नहीं लड़ सकता तो वह किस सामाजिक बदलाव की बात अपने लेखन के माध्यम से करना चाहता है? वस्तुतः आज के बड़े लेखक वर्ग की नियति यही बन गई है। कुंडली का विरोध करो, यह अंधविश्वास है लेकिन जब अपने बेटे-बेटी का विवाह हो तो कुंडली मिलवा लो। मिलवा ही नहीं लो, बल्कि धूर्त ब्राह्मणों द्वारा सुझाए गए सारे उपचार भी करो। तो इस तरह का टूटा-फूटा लेखक, डरपोक और सिर्फ़ अपनी ही दुनिया के खोल में बंद लेखक कौन-से सामाजिक बदलाव की बात करता है? यही वज़ह है कि उनके लेखन का असर पाठकों पर नहीं होता। इनसे बेहतर हैं वे लेखक जो इन अंधविश्वासों और पाखंडों को जीवन का ज़रूरी हिस्सा मानते हुए या फिर उन पर आस्था रखते हुए लिखते हैं। उन्हें एक ख़ास तरह का पाठक वर्ग तो मिलता है। यह बहस अलग है कि ऐसे लेखन की कितनी ज़रूरत है। याकि लेखक को बहती धारा के साथ ही बहते चले जाना है याकि बहती धारा के विरुद्ध खड़ा होने की शक्ति अर्जित करना है। बहती धारा के विरुद्ध अगर खड़ा होने का नैतिक साहस ही नहीं है तो फिर लिखते रहो बही, खोलते और बंद करते रहिए खाते, कुछ बदलने वाला नहीं है। ज़्यादा से ज़्यादा आप रसवाद के दायरे में दाखिल होकर तरह-तरह के रस लूट सकते हैं।
लेखन की मार्केटिंग
कुछ लेखक मित्रो का मानना है कि आज का हिन्दी लेखक अपने लेखन की मार्केटिंग करना नहीं जानता। अंग्रेज़ी लेखकों को देखिए किस हाई-स्केल पर उनकी मार्केटिंग होती है। उससे कहीं बेहतर हिन्दी में लिखा जा रहा है, लेकिन मार्केटिंग नहीं है। आज के ज़माने में कहें तो इस भूमंडलीकरण के दौर में बिना बाज़ार के आप उत्पादन की सोच भी नहीं सकते। साहित्य, कला भी एक उत्पाद है, एक फिनिश्ड प्रॉडक्ट-तो फिर उसके लिए बाज़ार बनाने में क्या घबराहट क्यों? उत्पादन करके बाज़ार बनाएँ या बाज़ार तैयार करके उत्पादन करें-यह अलग बात है, लेकिन बाज़ार ज़रूरी है। लेखन अंततः एक निष्कपट प्रक्रिया है। पूरी निष्कपटता एवं ईमानदारी से ही लिखना संभव है। यह पहली अनिवार्यता है। इसके लिए बाज़ार हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। लेकिन लेखन की निष्कपटता को भी अगर बाज़ार की शक्तियों के हवाले कर दिया जाए तो उसके कई ख़तरे हैं। सस्तापन, भोंडापन, सनसनी फ़ैलाना या संदर्भ एवं दृष्टिहीन होकर केवल गुद्गुदाने के लिए लेखन आदि। इस लेखन से भला क्या होगा। सिर्फ़ टाईम पास! यहाँ चिता उस लेखन की है, जिसे लिखकर लेखक स्वयं किसी ग्रंथि से मुक्त होता है और अपने पाठक को भी किसी ग्रंथि से मुक्त करता है। इस तरह के निष्कपट एवं ईमानदार लेखन की मार्केटिंग ज़रूर करनी चाहिए और उस पर क़ीमत का बिल्ला लगा नज़र आना चाहिए। ऐसा लेखन न भी बिके, या कम बिके तब भी यह ख़तरा लेखक को मोल लेना चाहिए। अगर लेखक के पास सोच के स्तर पर कोई मूल्य नहीं, कोई पैराडाइम नहीं तो वह लेखन सिवाय कागज़ काले करने के और कुछ नहीं है।
मामूली शब्दों का महत्तव
लेखन के बेअसर होते चले जाने के पीछे ऐसा भी लगता है कि हम मामूली शब्दों के बजाय बहुत बड़े-बड़े शब्द इस्तेमाल करने लगे हैं। यह बड़े शब्द हमें बड़े धोखे में डालते हैं। मानवता, धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, फासीवाद वगैरह-वगैरह। ऐसे अनेक अवधारणामूलक या फिर हवा में लट्ठ भाँजने वाले जैसे शब्द और भी हो सकते हैं। शब्द सुने, पढ़े और बिना उन्हें अपने जीवन में उतारे या उन्हें अपने व्यक्तित्व के साथ जोड़कर बिना परखे हम उनका इस्तेमाल करने लगते हैं। वस्तुतः ऐसे में यह शब्द उबले हुए आलू जैसे हो जाते हैं। इन्हें मसल-कुचल कर कोई भी रूप दे लो-चाहो तो कचौड़ी बना लो, चाहे टिकिया, पराँठे में भर लो या टेस्टी टोस्ट में। जैसा आदमी, वैसा ही उनका उपयोग। इस तरह के बड़े शब्दों का स्वरूप भी कुचला-मसला हुआ हो गया है। इसीलिए यह शब्द अब असर नहीं करते। असर होगा तब जब इन्हें अपने पर घटाकर, अपने अनुभवों एवं अपने व्यक्तित्व से जोड़कर निष्कपटता से यह समझने की शक्ति आ जाए कि स्वयं लेखक कितना धर्म निरपेक्ष है या धर्म (संप्रदाय) सापेक्ष, कितना जनतांत्रिक है, कितना फासीवादी, यह खोज तो हर लेखक को अपने अंतर में घुसकर करनी ही होगी।
इसी के बरक़्स यह बात ध्यान में आती है कि हमने बहुत ही मामूली से लगने वाले शब्दों को अपने जीवन से बाहर क्यों धकेल दिया है। मसलन मानवतावाद, मानवीय मूल्यों का झंडा उठाने के बजाए हम जीवन में थोड़ी-सी करुणा उतार लें तो सोचने और देखने का तरीक़ा बदल सकता है। धर्म-निरपेक्षता कि दुहाई देने और उसकी अलग-अलग व्याख्याएँ करने के बजाए यह मान लें कि दूसरा जो कर रहा है, वह वही करेगा। हम उसकी निंदा करके उसे बदल नहीं सकते। करुणा से बदल सकते हैं। शक्ति से भी बदल सकते हैं। लेकिन फिर आप फासीवादी दुश्चक्र में फँसने से बच नहीं सकते। ममता एक और मामूली-सा शब्द है। सह-अस्तित्व एक और शब्द है। ऐसे ही कई शब्द हैं, जिन्हें हम भूल गए हैं या भूलते चले जा रहे हैं और एक धर्मांध उन्माद के दुश्चक्र में फँसे हुए हैं। लेखन में प्रतीक अलग हो सकते हैं, यह अभिव्यक्ति के माध्यम भर हैं, लेकिन व्यक्ति का दुःख धार्मिक या सांप्रदायिक आधारों पर विभाजित नहीं किया जा सकता।
वस्तुतः लेखक की लड़ाई यहाँ होनी चाहिए। यह लड़ाई हमेशा ज़रूरी रही है, इन दिनों जिस तरह से एक बड़ी सामरिक शक्ति (अमेरिका) ने पूरे विश्व के जनमत को चुनौदी दे डाली है, ऐसे में यह लड़ाई पहले से भी ज़्यादा ज़रूरी हो गई है। संभवतः लंबी और पेचीदा भी। इसके लिए सक्रियता ज़रूरी है-बेहद ज़रूरी-वरना कहना होगा कि लेखक में इतनी ताब नहीं तो फिर बही लिख-लिख के क्या होगा?